From Narendra Nath to Swami Vivekanand
[ An ordinary Seeker's journey to an extraordinary Sainthood ]
यात्रा - नरेन्द्रनाथ से स्वामी विवेकानंद तक
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कलकत्ते के सुप्रसिद्ध स्कोटिश चर्च कोलेज के प्रिंसिपल और इंग्लिश के प्रोफेसर डॉक्टर विलियम हेस्टी के सुझाव से ,जिज्ञासु नरेंद्रनाथ दक्षिणेश्वर स्थित रानीरासमनी की काली बाडी के पुजारी रामकृष्णदेव से अपनी शंकाओं का समाधान करवाने और उनका पांडित्य एवं उनकी दिव्यता परखने के लिए मिला ! प्रियजन ,ऐसा अनुभव नरेंद्र को केवल एक बार ही नहीं हुआ था ! जब भी वह ठाकुर से मिलता था उसे ऐसे अलौकिक एवं अद्भुत अनुभव होते !
परमहंस ठाकुर के स्पर्शजनित शक्ति-संचरण से जिज्ञासु नरेंद्र प्राय: पूर्णतः आत्मलीन हो जाता था , अपनी सुध-बुध खो बैठता था ,उसका रोम रोम नाच उठता था ! इन विचित्र अनुभूतियों के कारण नरेंद्र को ,ठाकुर की योगशक्ति पर , उनकी सिद्धियों पर और उनकी आध्यात्मिक उपलब्धियों पर विश्वास होने लगता था ,लेकिन अविलम्ब ही उसकी तर्कशील बुद्धि और संशयात्मक प्रवृति उस पर हावी हो जाती और उसके जहन में यह प्रश्न उठ आता कि " यह वास्तव में है क्या ? चमत्कार है ,सम्मोहन है ,जादूगरी है या यह वास्तविक "ब्रह्म" का प्रत्यक्ष दर्शन है " ! अक्सर उसे ऐसा लगता था कि "स्पर्श करके 'ठाकुर' उसे सम्मोहित [हिप्नोटाईज़] कर देता है ,उस पर बंगाल का 'जादू ' कर देता है ! वह एक जादूगर के अतिरिक्त कुछ नहीं है !"
उधर दूसरी तरफ परमहंस ठाकुर , "नरेंद्र " की नैसर्गिक - आतंरिक और बाहरी दिव्यता को बखूबी जान गये थे ! अपनी दिव्य दृष्टि से ठाकुर ने ,"नरेंद्रनाथ" को चारों ओर से घेरे उसके "धवल आभा मंडल'" को प्रत्यक्ष देखा था ! उन्होंने उसकी विलक्षण प्रतिभा और असाधारण क्षमताओं को परखा और खरा पाया था !
स्वानुभूतियों से ठाकुर रामकृष्ण देव जानते थे कि " उत्तम भजन कीर्तन के गायन और श्रवण से चहु दिश सात्विक भावों का ज्वार उमड़ता है , श्रोताओं एवं गायक की चेतना सर्वोच्च शिखर तक पहुँच जाती है ,सबके ही भाव ऊर्ध्वगामी हो जाते हैं ! ऐसे में यदि गायक और श्रोताओं के मनोभाव "सात्विक" हों तो गायक एवं श्रोताओं दोनों को एक साथ "समाधि" का सुख मिल जाता है ,उन्हें परमानंद की प्राप्ति होती है और सिद्ध साधकों को तो कभी कभी ईश्वर के साक्षात दर्शन तक हो जाते हैं ! "
आपको बता चुका हूँ कि "नरेंन्द्र" न केवल सुंदर शब्द रचना करता था वह एक अति सुंदर गायक भी था ! उसके कंठ का माधुर्य नैसर्गिक था ! अपने पिताश्री से संगीत शिक्षा पाकर "नरेंद्र" के 'स्वर्णिम' संगीत को जैसे "सुहागा" मिल गया था ,उसकी गायन कला और भी चमचमा उठी थी !
वह स्वरचित गीतों द्वारा ,गूढ़ से गूढ़ आध्यात्मिक तत्वों को अति प्रभावशाली ढंग से , अपने मधुर कंठ से गाकर श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर देता था ! उसके भजनों की शब्द रचना सभा में उपस्थित श्रोताओं की सामयिक आध्यात्मिकता के अनुरूप होती थी ! कंठ में माधुर्य-रस से भरे उसके ऐसे भजन श्रोताओं को तत्काल मुग्ध कर देते थे ! उसके दार्शनिक भावयुक्त हृदयग्राही भजन सुनकर जन साधारण की क्या कहें ,ठाकुर रामकृष्णदेव जैसे महापुरुष भी भाव विभोर हो जाते थे ,उनकी समाधि लग जाती थी !
ठाकुर भी नरेंद्र की इस प्रतिभा से अप्रभावित न रह सके ! उन्हें उसके " निराकार ब्रह्म " को निरूपित करते भजन भी उतने ही उत्तेजक लगते जितने उसके काली बाडी में साकार ब्रह्म का निरूपण करते भजन ! दोनों भावों के भजन सुनकर ठाकुर उनमें "ब्रह्म" का नाम आते ही समाधिस्थ हो जाते थे !
कहते हैं कि एक बार कुछ ऐसा ही नरेंद्र के मित्र -"सुरेन्द्र नाथ मित्रा" के घर पर हुआ ;नरेंद्र का गायन सुनते ही प्रतिष्ठित "ब्रह्म-समाजियों" के सन्मुख ही ठाकुर "भाव समाधि" में चले गये थे ! प्रियजन ,ऐसा केवल निजी छोटी बैठकों में ही नहीं वरन एकाध बार तो बड़ी बड़ी जन सभाओं में भी हुआ था !
नरेंद्र को ठाकुर का ऐसा व्यवहार सर्वथा असंगत लगता था ! ये सब देख सुन कर उसके मन में अनेकों संकल्प -विकल्प उठने लगते ! उसे शंका होती कि वह पुजारी ठाकुर ढोंग रचा रहा है ,नाटक कर रहा है !
इन निरीक्षण -परीक्षण की गतिविधियों में रत नरेंद्र का मन ,ठाकुर को सद्गुरु के रूप में स्वीकार नहीं कर सका ! पर देवयोग से इस दौरान ही नरेंद्र के मन में शनैःशनैः ठाकुर के प्रति अपार आकर्षण ,उनके प्रति असीम श्रद्धा और उनके विचारों के प्रति सघन आस्था जागने लगी जो निरंतर बढती ही रही ! प्रियजन ,इस प्रकार नरेंद्र की रहनी सहनी और करनी में दबे पाँव एक अद्भुत उन्मत्तता समा गई ! और यह दीवानगी इकतरफा नहीं थी ! आपने शायद एक कहावत सुनी हो " मुमकिन नहीं कि आग बराबर लगी न हो " ! प्रियजन , नवम्बर १८८१ से ही दिव्य प्रीति की यह आग ठाकुर रामकृष्णदेव और 'नरेंद्र' ,दोनों के अंतर में धीरे धीरे सुलगती रही और ये दोनों महात्मा "दिव्य प्रेम" के अटूट बंधन में दृढता से बंधते गये !
पिताश्री के गुजर जाने पर ,रिश्तेदारों के अन्याय से पीड़ित नरेंद्र के कंधों पर, असमय ही उसकी माता तथा घर के अन्य संदस्यों की देखरेख का भार आ पड़ा ! वह एक अजीब उलझन में पड़ गया ! एक ओर था उसका परम सत्य का खोजी जिज्ञासु मन जो उसे आध्यात्म की तरफ खींचता था तो दूसरी तरफ था उस पर उसके परिवार की परवरिश का दायित्व ! दोनों के बीच वह किसे चुने , क्या करे ? उसे 'स्वार्थ -परमार्थ' ,'जीवन -निर्वाह और तत्वज्ञान' तथा 'प्रेय एवं श्रेय के बीच जीवन का एक ध्येय चुनना था !
नरेंद्र जानता था कि उसके आध्यात्म सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर केवल ठाकुर के पास ही थे अस्तु उसका मन उनसे मिलने के लिए तड़पता रहता था ! कभी तो उसके कदम उसके न चाहने पर भी दक्षिणेश्वर की ओर चल पड़ते थे और कभी हफ्तों वह काली बाडी नहीं जाता था !बता चुका हूँ कि जब नरेंद्र बहुत दिनों तक नहीं आता था ,ठाकुर उसके वियोग से तड़प जाते थे और वह स्वयम उसकी खोज में निकल जाते थे ! वह नरेंद्रनाथ जैसे विलक्षण शिष्य को अपने हाथ से निकलने नहीं देना चाहते थे !
वह नरेंद्र को भारत के पर्वतीय गुफा-कन्दराओं के एकांत में ध्यानस्थ परम ज्ञानी योगियों के समान , संसारियों से अलग थलग नहीं रखना चाहते थे ! वह चाहते थे कि नरेंद्र अपने जन्मजात नेसर्गिक आध्यात्मिक ज्ञान को , इस जीवन की अपनी निजी आध्यात्मिक अनुभूतियों के आधार पर परिष्कृत करे और समग्र मानवता के हित में उस वास्तविक "धर्म" को विश्व के समक्ष "मानव धर्म" के रूप में प्रस्तुत करे !
मन ही मन "ठाकुर", अपने इस विलक्षण शिष्य नरेंद्र नाथ दत्ता को ,निकटतम भविष्य में "विश्वगुरु" के रूप में स्थापित करवाना चाहते थे !
क्रमशः
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निवेदक : व्ही. एंन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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2 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर जानकारी -आभार एवं प्रणाम
धन्यवाद जील जी
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