गुरुवार, 31 अक्टूबर 2013

भक्ति सूत्र (गतांक के आगे)

 प्रेमस्वरूपा भक्ति 
(गतांक के आगे)

नारद भक्ति सूत्र के  प्रसंग पर विस्तृत चर्चा छेडने से पहिले,
मेरे प्यारे स्वजनों,आप सबको,
दीपावली की हार्दिक शुभकामना 
संजोये यह भक्तिरचना सूना दूँ !
 नमामि अम्बे दी्न वत्सले 
रचना श्रद्द्धेया "मा योग शक्ति " की है 
धुन बनाई है छोटी बहन श्रीमती माधुरी चंद्रा ने 


--------------------------------------------------------
चलिेये  अब् प्रसंग विशेष पर चर्चा हो जाये 
प्रेम 
प्रेम मानवीय जीवन का आधार है ! प्रेम मानव ह्रदय की गुप्त निधि है ! जीव को यह निधि  उस ईश्वर ने ही दी है जिसने उसे यह मानव शरीर दिया है ! प्रेम का संबंध ह्रदय से है और ईश्वर ने मानव ह्रदय में ही प्रेम का स्रोत  स्थापित कर दिया है !

हृदय मानव शरीर का वह अवयव है जो उसके शरीर में उसके जन्म से लेकर देहावसान तक पल भर को भी  बिना रुके धड़क धडक कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराता  रहता है ! 

मानव शरीर का दाता- 'ईश्वर' स्वयम प्रेम का अक्षय आगार हैं ! प्यारा प्रभु अपनी संतान - मानव के हृदय में भी इतना प्रेम भर देता है जो मानव के हृदय में आजीवन बना रहता है ! मानव का यह प्रेम बाँटने से घटता नहीं और बढ़ता ही जाता है !प्रेम के स्वरुप में ईश्वर स्वयम ही प्रत्येक प्राणी के हृदय में विराजमान है ! 

श्रीमद भगवद्गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि: 
ईश्वर :्सर्व  भूतानाम ृहृद्देशे  अर्जुन तिष्ठति !

"भक्ति" विषयक चर्चा में भगवान कपिल ने भी ,
अपनी 'माता" से कुछ ऐसा ही कहा था :   
"सब जीवधारियों के ह्रदयकमल ईश्वर के मंदिर है" 
(श्रीमद भागवत पुराण - स्क.३/ अध्या.३२ /श्लोक ११)

 श्री राम के परमभक्त गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा कि 
ईस्वर अंस जीव अविनासी ! चेतन अमल सहज सुखरासी !! 

जीव परमात्मा का अंश है अत स्वभावत : वह अपने अंशी सर्व व्यापक ईश्वर से मिलने के लिए आतुर रहता है !  जैसे नाले नदी की ओर और नदियाँ सागर की ओर स्वभावतः ही बहती जातीं हैंवैसे हीजीव भी अपने अंशी से मिलने के लिए सतत व्याकुल रहता है ! यही उसकी सर्वोपरि चाह है ! ईश्वर अंश मानव शिशु के समान जीव अपनी अंशी 'जननी मा ' के आंचल की शीतल छाया में प्रवेश पाने को  आजीवन मचलता रहता है ! 


कृष्णप्रेमी भक्त  संत रसखान ने इस संदर्भ में यह कहा कि " सच्चा प्रेम स्वयमेव 'हरिरूप' है और हरि 'प्रेमरूप' हैं" ! उनका मानना था कि " हरि और प्रेम" में किसी प्रकार का कोई तत्विक भेद नहीं है ! उन्होंने कहा था  


प्रेम हरी कौ रूप है , त्यों  हरि  प्रेम सरूप 
एक होय द्वै यों लसै ,ज्यों सूरज औ धूप
तथा   
कारज-कारन रूप यह 'प्रेम' अहै रसखान 


[ प्रियजन अपने पिछले ब्लॉग में प्रेमीभक्तों की नामावली पर जो तुकबंदी मैंने की थी उसमें रसखान का नाम मुझसे कैसे छूटा ,कह नहीं सकता ! सच तो ये है कि १४ वर्ष की अवस्था में  ही उनकी ," या लकुटी अरु कामरिया" और "छछिया भर छाछ पे नाच नचावें" वाले सवैयों ने मुझे, क्या कहूँ , क्या (पागल या दीवाना) बना दिया था ! मैं हर घड़ी उनकी ये प्रेम रस पगी सवैयाँ गुनगुनाता रहता था ! मेरी उस आशु तुकबंदी में अब रसखान भी शामिल हो गये हैं , देखिये -------

प्रेमदीवानी मीरा ,सहजो  मंजूकेशी
 यारी नानक सूर भगतनरसी औ  तुलसी , 
महाप्रभू,  रसखान प्रेम रंग माहि रंगे थे
परम प्रेम से भरे भक्ति रस पाग पगे थे
अंतहीन फेहरिस्त यार है उन संतों की 
प्रेमभक्ति से जिन्हें मिली शरणी चरणों की 
(भोला, अक्टूबर २१.२०१३) 

आदर्श गृहस्थ संत माननीय शिवदयाल जी ने फरमाया है 

वही रस है जहां प्रेम है ,प्रीति  है !  प्रेम जीवन का अद्भुत सुख है ! प्रेम हमारे ह्रदय की अंतरतम साधना है ! प्रेमी को तभी आनंद मिलता है जब उसका प्रेमास्पद से मिलन होता है ! अपने नानाश्री  अपने समय के मशहूर शायर मुंशी हुब्ब  लाल साहेब "राद" का एक शेर गुनगुनाकर वह फरमाते हैं : 

दिले माशूक में जो घर न हुआ तो ,मोहब्बत का कुछ असर न हुआ 

प्रेम लौकिक भी है और अलौकिक भी है ! जगत व्यवहार का प्रेम लौकिक है और प्यारे प्रभु से प्रेम पारमार्थिक है  ! 

पारमार्थिक परमप्रेम अनुभव गम्य है ,! यह उस मधुर मिठास का अहसास है जिसके अनुभव से प्रेमी अपना  अस्तित्व तक खो देता है ,उसकी गति मति निराली हो जाती है ! अनुभवी प्रेमी भक्त स्वयम कुछ बता नहीं सकता ! उसका व्यक्तित्व अन्य साधारण जनों से भिन्न हो जाता है ! उसका  रहन सहन , उसकी चालढाल , उसकी बातचीत स्वयम में उसकी भक्ति को प्रकट करते हैं इसी भावना से नारदजी ने यह सूत्र दिया कि भक्ति को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, वह अपने आप में स्वयं ही प्रत्यक्ष प्रमाण है  स्वयम प्रमाणत्वात  (ना.भ.सूत्र ५९)

परम प्रेम' अनिर्वचनीय है ! प्यारे स्वजनों , इस प्रेम का स्वरूप  शब्दों में बखाना नहीं जा सकता ! इस अनिर्वचनीय "परम प्रेम" से प्राप्त "आनंद" का भी वर्णन नहीं किया जा सकता ,वह भी अनिर्वचनीय है ! इस परमानंद को अनुभव करने वाले  की दशा वैसी होती है जैसी उस गूंगे की जो गुड खाकर परम प्रसन्न और अति आनंदित तो है लेकिन वह गुड के मधुर स्वाद का वर्णन शब्दों द्वारा नहीं कर सकता ,वह गूंगा जो है ! 

अनिर्वचनीयम्  प्रेम स्वरूपम्" - ( नारद भक्ति सूत्र - ५१ )
मूकास्वादनवत् - ( ना. भ. सूत्र  ५२ )

प्रीति की यह प्रतीति ही भक्ति है 

क्रमशः
========================== 
निवेदक :  व्ही , एन.  श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग :  श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
========================== 

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

परम प्रेम - गतांक से आगे

"परमप्रेमरूपा भक्ति"
(गतांक से आगे)  

पौराणिक काल से आज तक मानव परमशांति ,परमानन्द तथा उस दिव्य ज्योति की तलाश में भटकता रहा है , जिसके प्रकाश में वह अपने अभीष्ट और प्रेमास्पद "इष्ट" -(परमेश्वर परमपिता) का प्रत्यक्ष दर्शन पा सके , उसका साक्षात्कार कर सके ! मानव के इस प्रयास को भक्तों द्वारा "भक्ति " की संज्ञा दी गयी !

भारतीय  त्रिकालदर्शी ,दिव्यदृष्टा ,सिद्ध परम भागवत ऋषियों  एवं वैज्ञानिक महात्माओं ने निज अनुभूतियों के आधार पर मानव जाति को " भगवत्- भक्ति"  करने के  विभिन्न साधनों से अवगत कराया ! 

नारद जी ने उद्घोषित किया कि 'प्यारे प्रभु'  से हमारा मधुरमिलन केवल परमप्रेम से ही सिद्ध होगा !  नारदजी वह पहले ऋषि थे जिन्होंने "परमप्रेम स्वरूपी भक्ति"  के ८४ सूत्रों को एकत्रित किया और उन्हें बहुजन हिताय वेदव्यास जी से प्रकाशित भी करवाया !

समय समय पर अन्य ऋषीगण जैसे पाराशर [वेद व्यास जी] ने  पूजा -अर्चन को ,गर्गऋषि ने कथा-श्रवण को और शांडिल्य  ने आत्मरति के अवरोध {ध्यान } को  परम प्रेम की साधना का साधन निरूपित किया !

इन अनुभवी ऋषियों ने अपनेअपने युगों के साधकों को आत्मोन्नति के प्रयोजन से भगवत्प्राप्ति के लिए  समयानुकूल  भिन्न भिन्न उपाय बताये !,उदाहरण के लिए उन्होंने  सतयुग में घोर तपश्चर्या , त्रेतायुग में योग साधना एवं यज्ञ ; द्वापर में पूजा अर्चन हवनादि विविध प्रकार के अनुष्ठान बताये  और   कलियुग के साधकों के लिए प्रेम का आश्रय लेकर "परमप्रेम स्वरूपा भक्ति" के प्राप्ति की सीधी साधी विधि बतलायी - "कथाश्रवण,भजन कीर्तन गायन"! 

कलिकाल के महान रामोपासक,  भक्त संत तुलसीदास की निम्नांकित चौपाई नारद भक्ति सूत्र की भांति ही अध्यात्म तत्व के मर्म को संजोये है! 

रामहि केवल प्रेम पियारा ! जान लेहू जो  जाननि हारा  !

 तुलसी के अनुसार उनके इष्टदेव श्रीराम को वही  भक्त  सर्वाधिक प्रिय है जो सबसे प्रेम पूरित व्यवहार करता है ! 

प्रज्ञाचक्षु स्वामी शरणानंदजी के अनुसार प्रीति का चिन्मय स्वरूप ,दिव्य तथा अनंत है ! जो चिन्मय है ,वह ही  विभु है ! उनका सारग्राही सूत्र है : -
"सबके प्रेम  पात्र हो जाओ, यही भक्ति है" 
"प्रेम के प्रादुर्भाव में ही मानव-जीवन की पूर्णता निहित है! "

सर्वमान्य सत्य यह है कि जहाँ "परम प्रेम रूपा भक्ति"  है ,वहीं रस है वहीं आत्मानंद और परम शांति है ! सच पूछिए तो हमारा आपका ,सबका ही "इष्ट" वहीं बसता है जहाँ उसे "परम प्रेम" उपलब्ध होता है !

प्रेमी भक्तों की सूची में सर्वोच्च  हैं :

(१) स्वयम "देवर्षि नारद" ! 

(२) त्रेता युग में अयोध्यापति महाराजा दशरथ जिन्होंने परमप्रिय पुत्र राम के वियोग में, तिनके के समान अपना मानव शरीर त्याग दिया था !

(३) बृजमंडल की कृष्ण प्रिया गोपियों का तो कोई मुकाबला ही नहीं है ! ये 
वो बालाएं हैं जिन्हें विश्व में "कृष्ण" के अतिरिक्त कोई अन्य पुरुष दिखता ही नहीं , जो डाल डाल, पात पात, यत्र तत्र सर्वत्र कृष्ण ही कृष्ण के दर्शन करतीं हैं ! दही बेचने निकलती हैं तो  दही की जगह अपने "सांवले सलोने गोपाल कृष्ण को ही बेचने लगतीं हैं !, 

चलिए अनादि काल और बीते हुए कल से नीचे आकर अपने  कलिकाल के प्रेमी भक्त नर नारियों की चर्चा कर लें ! 

 [ प्रियजन , उनकी कृपा से ,इस विषय विशेष पर कुछ तुकबंदी हो रही है ,नहीं बताउंगा तो स्वभाववश बेचैन रहूँगा सों  प्लीज़ पढ़ ही लीजिए ] 


प्रेमदीवानी मीरा ,सहजो  मंजूकेशी ,
यारी नानक सूर भगतनरसी औ  तुलसी , 
महाप्रभू चैतन्य प्रेम रंग माहि रंगे थे
परम प्रेम से भरे भक्ति रस पाग पगे थे
अंतहीन फेहरिस्त यार है उन संतों की 
प्रेमभक्ति से जिन्हें मिली शरणी चरणों की 
(भोला, अक्टूबर २१.२०१३) 

हां तो लीजिए उदाहरण कुछ ऐसे प्रेमीभक्तों के जिनके अन्तरंग बहिरंग सर्वस्व ही "परमप्रेम" के रंग में रंगे थे और जिनके अंतरमन की प्रेमभक्ति युक्त भावनाएं "गीत" बन कर उनकी वाणी में अनायास ही मुखरित हो उनके आदर्श प्रेमाभक्ति के साक्षी बन गये : --

प्रेम दीवानी मीरा ने  गाया 
एरी मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दरद न जाने कोय" !
------------------ 
गुरु नानक देव ने गाया -
प्रभु मेरे प्रीतम प्रान पियारे 
प्रेम भगति निज नाम दीजिए , दयाल अनुग्रह धारे
------------------------
 संत कबीर दास ने गाया :
मन लागो मेरो यार फकीरी में
जो सुख पाऊँ राम भजन में सों सुख नाहि अमीरी में
 मन लागो मेरो यार फकीरी में
प्रेम नगर में रहनि हमारी भलि बन आइ सबूरी में
--------------------------
यारी साहेब ने गाया: 
दिन दिन प्रीति अधिक मोहि हरि की  
काम क्रोध जंजाल भसम भयो बिरह अगन लग धधकी
धधकि धधकि सुलगत अति निर्मल झिलमिल झिलमिल झलकी 
झरिझरि परत अंगार अधर 'यारी' चढ़ अकाश आगे सरकी
===============
हमारे जमाने के एक भक्त कवि श्री जियालाल बसंत ने गीत बनाया,
और ६० के दशक में हमारे बड़े भैया ने गाया   
रे मन प्रभु से प्रीति करो
प्रभु की प्रेम भक्ति श्रद्धा से अपना आप भरो
रे मन प्रभु से प्रीति करो
ऎसी प्रीति करो तुम प्रभु से प्रभु तुम माहि समाये 
बने आरती पूजा जीवन रसना हरि गुण गाये 
रे मन प्रभु से प्रीति करो
---------------------------
महात्माओं की स्वानुभूति है कि हृदय मंदिर में प्रेमस्वरूप  परमात्मा के बस जाने के बाद जगत -व्यवहार की सुध -बुध विलुप्त हो जाती है और केवल प्रेमास्पद "इष्ट"का नाम ही याद रह जाता है ! 
अहर्निश, मात्र "वह प्यारा" ही आँखों में समाया रहता है !
वृत्तियाँ "परम प्रेम" से जुड़ जाती हैं .
और परमानंद से सराबोर हो संसार को भूल जातीं हैं !
जब सतत प्रेमास्पद का नाम सिमरन, स्वरूप चिंतन और यशगान होता है    तभी साधक को परमानंद स्वरूप 
 प्रियतम प्रभु का दर्शन होता है ! 
;-----------------------------
आदर्श गृहस्थसंत हमारे बाबू ,दिवंगत  माननीय शिवदयाल जी 
के नानाजी ,अपने जमाने के प्रसिद्द शायर ,प्रेमी भक्त 
स्वर्गीय मुंशी हुब्बलाल साहेब "राद" की इस सूफियानी रचना में 
"मोहब्बत" - परम प्रेम का वही रूप झलकता है जैसा 
  गोपियों ने सुध बुध खोकर अपने प्रेमास्पद श्री कृष्ण से किया !
  =============================
राद साहेब फरमाते हैं 
मेरे प्यारे 

सबको मैं भूल गया तुझसे मोहब्बत करके ,
एक तू और तेरा नाम मुझे याद रहा


  /

तेरे पास आने को जी चाहता है
गमे दिल मिटाने को जी चाहता है

इसी साजे तारे नफस पर  इलाही

तिरा गीत गाके को जी चाहता है 

तिरा नक्शे पा जिस जगह देखता हूँ 

वहीं सिर झुकाने को जी चाहता है 
[कलामे "राद"]
गायक - "भोला" 
-------------------
ई मेल से ब्लॉग पाने वालों के लिए यू ट्यूब का 
लिंक -   http://youtu.be/Fl0kvV19G0c
======================
कहाँ और कैसे मिल सकता है वह परम प्रेम 
और ऎसी प्रेमाभक्ति ?
अगले अंक में इसकी चर्चा करेंगे,
आज इतना ही! 
-----------------------------------
निवेदक : व्ही . एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
===========================


-


  

मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013

नारद भक्ति सूत्र [गतांक के आगे ]


अथातो   भक्तिं व्याख्यास्याम: 
सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा ,
अमृतस्वरूपा
---------------  
"भक्ति" रमप्रेम रूपा है , अमृतस्वरूपा है 
  "मन में, ईश्वर के लिए परमप्रेम का होना ही "भक्ति" है"  
(देवर्षि नारद)
+++++++++

भक्ति के आचार्य देवर्षि  नारद ने अपने  "भक्ति सूत्र" के उपरोक्त ३ सूत्रों में भक्ति का सम्पूर्ण सार निचोड़ दिया है ! शेष ८१ सूत्रों में उन्होंने  'रम प्रेम रूपा भक्ति' की विस्तृत व्याख्या की है तथा वास्तविक भक्ति के लक्षण समझा कर उन्हें साधने की प्रक्रिया बतलायी है इसके साथ ही , उन्होंने साधकों को प्रेमाभक्ति की सिद्धि से मिलने वाले दिव्य परमात्म 
स्वरूप "परमानंद" की अनुभूतियों से अवगत किया है और अन्ततोगत्वा यह तक कह दिया है कि भक्ति को किसी सीमा में बांधना कठिन है तथा , उसके लिए अलग से प्रमाण खोजना व्यर्थ है , भक्ति स्वयम ही भक्ति का प्रमाण है !

भक्ति प्रदायक यह प्रेम है क्या ?

कहते हैं कि संसार का आधार ही प्रेम है !  हम  सब  स्वभाववश नित्य ही  "प्रेम"  करते हैं ! उदाहरणतः माता पिता का उनके बच्चों के प्रति और बच्चों का अपने माता पिता के प्रति प्रेम ! मिया बीवी का प्रेम ! सास बहू का प्रेम ! नंद भौजाई का प्रेम ! आज के नवयुवक -युवतियों का "वेलेंटाइनी तींन शब्दों वाला "आइ लव यू" तक सीमित  प्रेम इत्यादि  ! 

इनके अतिरिक्त हम जीवधारी तो निर्जीव पदार्थों से भी प्रेम करते हैं ! छोटे छोटे बच्चे अपने खिलौनों से और हम आप जैसे वयस्क अपनी चमचमाती प्यारी "फरारी कार" और "थ्री बेड रूम कम डी डी विध टू फुल एंड वन हाफ बाथ" के अपार्टमेंट के प्रेम में मग्न रहते हैं ! हमारी देवियाँ अपने रंग रूप एवं वस्त्राभूषण से और अपने पति परमेश्वर के वैभव से प्रेम करती हैं !शायद ही कोई प्राणी इस प्रेम से अछूता हो !

कैसे भूल गये हम उन ऊंची कुर्सी वाले वर्तमान राजनेताओं को ,जो निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपनी कुर्सी से सदा के लिए चिपके रहने का प्रयास करते रहते हैं! इतना प्रेम है उन्हें अपनी जड़ कुर्सियों से ! 

कहाँ तक गिनाएं ?  किसी ने ठीक ही कहा है कि इस  जगत में प्रेम हि प्रेम भरा है ! आज की दुनिया में नित्य ही ,हर गली कूचे में  हम और आप इस स्वार्थ से ्ओतप्रोत प्रेम  के नाटकों का मंचन देख रहे हैं पर प्रश्न यह हैकि यह सर्वव्याप्त प्रेम ही क्या वास्तविक प्रेम है ? यह समझने की बात है ! सच पूछिए तो केवल आज का जगत ही इस कृ्त्रिम प्रेम से नहीं भरा है , हमारा पौराणिक साहित्य भी ऎसी अनेकानेक प्रेम कथाओं से परिपूरित है!

सर्वाधिक चर्चित पौराणिक प्रेम कथा हैं इन्द्र लोक की अप्सरा मेनका के प्रति राजर्षि विश्वामित्र का प्रेम प्रसंग ! इसके अतिरिक्त -

आप कदाचित यह कथा भी जानते ही होंगे कि अपने किसी अवतार में , देवर्षि  नारद जी भी माया रचित "विश्वमोहिनी" के रूप सौंदर्य एवं ऐश्वर्य से इतने आकर्षित हुए कि एक साधारण मानव के समान उसपर मोहित होकर वह उससे प्रेम कर बैठे ! करुणाकर विष्णुजी को अपने परम प्रिय भक्त नारद का यह अधोपतन कैसे सुहाता ?  अपने भक्त नारद को उस मोह से मुक्ति दिलाने के लिए विष्णु भगवान को  उनके साथ एक अति अशोभनीय छल करना पड़ा था ! विष्णु भगवान ने नारद को मरकट- काले मुख वाले परम कामी बंदर  का स्वरूप प्रदान कर उनकी जग हसाई करवा दी ! नारद जी अति लज्जित हुए !  कभी कभी भगवान को भी अपने भक्तों को सीख देने और उन्हें पाप मुक्त करने के लिए ऐसे बेतुके काम करने पड़ते हैं !

तदनंतर इन भुक्त भोगी ब्रह्म ज्ञानी नारद जी ने अपने ब्रह्मज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर समग्र मानवता  को परमप्रेमरूपा एवं अमृतस्वरूपा भक्ति की सिद्ध  हेतु  उनका मार्ग दर्शन करने के प्रयोजन से ये भक्ति विषयक ८४ सूत्र  निरूपित किये ! , 

[ प्रियजन , "परमप्रेम"  स्वार्थ प्रेरित सांसारिक प्रेम से सर्वथा भिन्न है ! अगले अंकों में देखिये कि इन  भुक्त भोगी नारद जी ने अपने भक्ति सूत्रों में , इस " परमप्रेम" को कैसे परिभाषित किया है ]

======================================


चलिए अब हम पौराणिक काल से नीचे उतर कर आज के वर्तमान काल में प्रवेश करें !  आप जानते ही हैं कि यह आलेख श्रंखला आपके प्रिय इस भोले स्वजन  की आत्म कथा का एक अंश हैं और इस आत्मकथा में उसने उसके  निजी अनुभवों के आधार पर अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियों के संस्मरण संकलित किये हैं  , तो आगे सुनिए - 

लगभग ३० वर्ष की अवस्था तक मैं सनातनधर्म एवं आर्यसमाज  की पेचीदियों में भ्रमित था ! तभी  प्यारे प्रभु की अहेतुकी  कृपा से,  १९५९ में मुझे सद्गुरु मिले ! मुझे अनुभव हुआ कि जीव के भाग्योदय का प्रतीक है सद्गुरु मिलन और ऐसा भाग्योदय बिना हरि कृपा के हो नहीं सकता ! ऐसे में हमरे सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी का यह कथन कि,


भ्रम भूल में भटकते उदय हुए जब भाग , 
मिला अचानक गुरु मुझे लगी लगन की जाग 

तथा परम राम भक्त गोस्वामी तुलसीदासजी का यह कथन कि  

बिनु हरि कृपा मिलहिं नहि संता  

दोनों ही सर्वार्थ सार्थक सिद्ध हुए !

आत्म कथा है ,निजी अनुभव सुना रहा हूँ ! 

मुझे 'नाम दान' दे कर दीक्षित करते समय गुरुदेव ने मुझे आजीवन 'श्रद्धायुक्त प्रेम ' के साथ अपने इष्टदेव  के परम पुनीत नाम का जाप , सुमिरन ,ध्यान, एवं भजन कीर्तन द्वारा उनकी भक्ति करते रहने का परामर्श दिया ! उन्होंने प्रेम पर जोर देते हुए कहा था कि ग्रामाफोन के रेकोर्ड पर रुकी सुई के समान मशीनी ढंग से नाम जाप न करना ! भक्ति करने का ढंग बताते हुए उन्होंने कहा कि :


भक्ति करो भगवान की तन्मय हो मन लाय
श्रद्धा प्रेम उमंग से भक्ति भाव में आय 

प्रेम भाव से नाम जप तप संयम को धार 
आराधन शुभ कर्म से बढे भक्ति में प्यार

श्रद्धा प्रेम से सेविये भाव चाव में आय 
राम राधिये लगन से यही भक्ति कहलाय

सच्चा धर्म है प्रीति पथ समझो शेष विलास 
मत मतान्तर जंगल में अणु है सत्य विकास
-
तब उम्र में छोटा था , विषय की गम्भीरता समझ में नहीं आई थी ! इस संदर्भ में याद आया कि बचपन में अपनी माँ की गोद में मीरा बाई का एक भजन सुना था जो तब से आज तक अति हृदयग्राही लगा है तब उस भजन का भी भाव मेरी समझ के परे था लेकिन आज मैं उसे भली भाँती समझ पाया हूँ ! अब् यह जान गया हूँ कि जब साधक के मन में मीरा बाई जैसी लगन  होगी तथा उनके समान ही प्रभु दरसन की उत्कट लालसा होगी तब ही उसे वास्तविक प्रेमा भक्ति की रसानुभूति होगी और तब ही परमानंद के सघन घन उमड घुमड कर उसके मन मंदिर में बरसेंगे !

प्यारी अम्मा की गोदी में सुना हुआ भजन था 

मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरा न कोई!!

जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई, 
तात मात भ्रात बंधू ,आपनो न कोई!! 

छाड दयी कुल कि कांन कहा करिये कोई, 
संतन ढिंग बैठ बैठ लोक लाज खोई !!
[शेष नीचे लिखा है] 
लीजिए आप भी सुन लीजिए
(मेरे थकेमांदे बूढे अवरुद्ध कंठ की कर्कशता पर ध्यान न दें 
केवल उस प्रेमदीवानी मीरा के प्रेमाश्रुओं से भींगे शब्दों को सुनिए) 




प्रियजन इस भजन की निम्नांकित पंक्तियाँ , हमारे आज के 
इस प्रेम भक्ति योग के विषय में पूर्णतः सार्थक हैं   

 असुवन जल सींच सींच प्रेम बेल बोई  
अब् तो बेल फैल गयी आनंद फल होई!! 

भगत देख राजी भई जगत देखि  रोई
दासी मीरा लाल गिरिधर तारों अब् मोही !! 
(प्रेम दीवानी मीरा )
--------------------
यथासंभव क्रमशः अगले अंकों में 
---------------------
 निवेदक : व्ही . एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
======================





मंगलवार, 8 अक्टूबर 2013

"भक्ति योग"

 "नारद मुनि" का "प्रेम भक्ति"योग

सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ने कहा :

भक्ति करो भगवान से ,   मत मांगो फल दाम
तज कर फल की कामना भक्ति करो निष्काम
-----------------------
प्यारे स्वजनों 
सितम्बर के दूसरे सप्ताह में मुझसे केवल 
इतना ही लिखवाकर मेरा "प्रेरणास्रोत" अंतरध्यान  हो गया !
 पूरे सितम्बर भर मैं उसके आगे कुछ भी न लिख पाया !
पहली अक्टूबर को जो लिखा वो आपने पढ़ ही लिया होगा !
देखें आज क्या डिक्टेट करते हैं , मेरे "वह" ?
=============

क्यूँ बार बार मैं आपको अपनी परवशता से परिचित करवाने की चेष्टा करता रहता  हूँ , नहीं जानता ! कदाचित इसलिए कि मैं स्वयम अपने आपको याद दिलाता रहूँ कि परवशता ही मेरे जीवन का परम सत्य है ! 

प्रियजन, अब् तो मुझे यह विश्वास हो गया है कि मेरी यह धारणा समग्र मानवता के लिए सत्य है ,आपके लिए भी ! 

मुझे तो ऐसा लगता है कि शायद कुछ ऎसी ही अंतरात्मा को शीतलता प्रदान करती - "परवशता" का आनंद लूटकर ,'नंदनंदन कृष्ण' के ' प्रेमी भक्त' - "सूरदास" ने कहा है ,हमे नन्दनंदन मोल लियो !!

सब कोउ कहत गुलाम श्याम को ,सुनत सिरात हियो !
सूरदास हरि जू को चेरो ,जूठन खाय जियो ! 
हमे नन्दनंदन मोल लियो !!


मैं श्रद्धेय भाईजी श्री.हनुमान प्रसाद पोदार  के इस कथन से भी पूर्णतः सहमत हूँ  कि हम-आप सबही मात्र "यंत्र" हैं और हमे चला रहां है वह सर्वव्यापी सर्वज्ञ  सर्वशक्तिमान कुशल "यंत्री" - परमपिता परमात्मा !  
प्रियवर ! भाईजी के उस "यंत्री" को ही आपका यह तुच्छ स्वजन "भोला" "मदारी" कह कर संबोधित करता है !

एकबार फिर दुहरा लूँ अपनी परवशता का वह परम सत्य :


                  लिखता हूँ केवल उतना ही, जो, "वो"  मुझसे लिखवाते हैं ! 
करता हूँ केवल वही काम ,जो ,"वो" मुझसे करवाते हैं !!
मेरा है कुछ भी नहीं यहाँ , सब "उनकी" कारस्तानी है !!

मुझको दोषी  मत कहो स्वजन,  है सारा दोष "मदारी" का !,  
 "भोला बन्दर"-  मैं, क्या जानूँ अंतर मयका ससुरारी का !!
रस्सी थामें मेरी ,मुझसे "वो" करवाता मनमानी है !!
सब "उनकी" कारस्तानी है !!
"भोला"

(अब् तो आप जान गये कि इस "भोले" बन्दर का चतुर मदारी जो इसे-
 डुगडुगी बजाकर  जन्म जन्मान्तर से नचा रहा है, कौन है  )

प्रियजन , "मनमानी" नहीं तो और क्या है ये उस "मदारी" की ? 

अब् इसी आलेख को देखिये , अनेक दिनों की खामोशी के बाद कुछ दिनों पूर्व 'उन्होंने' - जी हाँ 'उन्ही' ने, जिन्हें मैं अपना मदारी कहता हूँ , मुझसे "नटखट नारद" की शरारतों में निहित उन गंभीर सूत्रों को उजागर करने की आदेशात्मक प्रेरणा दी जिनके द्वारा  नारदजी ने कदाचित इस विश्व में सर्व प्रथम समग्र मानवता के कल्याण हेतु संगीतमयी   "प्रेम भक्ति" की सरलतम साधना के ८४ सूत्रों को उजागर किया था !  

देवरिषि , कब हुए ?  अथवा कब कब इस धरती पर अवतरित हुए ? और उन्होंने कब और कैसे "प्रेम  भक्ति" के उन ८४ सूत्रों की खोज की ? प्रियजन  ,मैं इस विषय में कुछ भी  नहीं जानता ! इस विषय पर या तो कोई त्रिकालयज्ञ महापुरुष अथवा स्वयम श्रीमदभागवत के रचयिता व्यास जी या कोई गहन शोधकर्ता प्रकाश डाल सकता है ! यहाँ हमे इनमे से कोई एक भी उपलब्ध नहीं है ! हमे तो अपने उन -सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ इष्ट   जी  हाँ उन्ही चतुर मदारीजी का भरोसा है .यदि "वो"आगे कुछ  सुझाएंगे तो आप को अवश्य बता दूँगा! 

सब उनकी ही मायाजनक कारस्तानी है  और यही सत्य भी है !

सो 'उनकी' कृपा से कलम रुक गयी . और रुकी तो रुक ही गयी !

========================================
अक्टूबर में धारा बदली  ! बजरंगी महावीर ने जोर मारा ! याद दिलाये अपने सब उपकार उन्होंने ! कब कब , कैसे कैसे कष्टों से उन्होंने अपने इस भोले बंदर और उसके अपनों की रक्षा की ! [ मैंने "उनकी" प्रेरणा के अनुसार 'अपनी आत्म कथा में जहां तहाँ उनका वर्णन भी किया है ] 

इस सन्दर्भ में याद आई , लगभग १० वर्ष पुरानी एक बात !


२००३ की अक्टूबर की पहली तारीख को हमारे परमप्रिय .श्रद्धेय सद्गुरु-समान आदर्श ग्रहस्थ संत बाबू (माननीय श्री शिवदयाल जी) "राम धाम" गये थे !  
२००४ के प्रारंभ में हम पिट्सबर्ग में थे !  हा तो वहीं हमारे पास सिंगापुर से बाबू के प्यारे छोटे बेटे अनिल का फोन आया ! 

श्रीराम परिवार के सदस्य आपसी बातचीत में परचर्चा और परछिद्रानुवेशन नहीं करते ! इधर उधर की बातें न करके हमारे ये स्वजन अधिकतर धर्म संबंधी बातें ही करते हैं ! भजन गाये और सुने जाते हैं ! भजन कीर्तन की म्यूजिकल अन्ताक्षरी होती है , संतों की वाणी पर विचार विमर्श होता है !  

हां मैं कह रहा था कि पिट्सबर्ग में सिंगापुर के अनिल बेटे का फोन आया ! 
कुछ दिवस पूर्व ही पूज्यनीय बाबू का निधन हुआ था ! अभी स्वजनों की आँखें गीली ही थीं ! कदाचित उस दिन रविवार था और अनिल बेटा अपने रविवासरी सत्संग से लौटा था ! सत्संग में उसे याद आया  कि कुछ वर्ष पूर्व पूज्यनीय बाबू उसके साथ उसी सत्संग में शामिल हुए थे ! उस सत्संग में किसी साधक ने हनुमान जी का एक अति सुंदर भजन गाया था !

उस भजन में हनुमानजी को संबोधित करके कहा गया था कि ' हनुमानजी  ,आपके तो आगे आगे ,पीछे पीछे , बांये दायें , ऊपर नीचे ; आपके शरीर के हर अंग में , आपके रोम रोम में ,  आपके अंतर्मन में एक और केवल एक आपके इष्ट "भगवान राम" ही बिराजमान है ! धन्य है आपकी अपने "राम" के प्रति यह प्रगाढ़ "प्रेममयी भक्ति"

भगवान राम के प्रति हनुमानजी की अतिशय प्रीति और उनका सम्पूर्ण समर्पण झलकाता वह भजन दिवंगत बाबू को बहुत अच्छा लगा था !फोन  
पर अनिल  ने वह भजन हमे सुनाया ! हमे भी वह भजन अति हृदयग्राही लगा ! यहाँ यू एस ए में हम सब- उनकी बुआ कृष्णा जी और हमारी बेटी श्री देवी , हम सब  रो पड़े ! याद आईं श्रद्धेय बाबू की  निष्काम 'राम भक्ति ', हनुमान जी के प्रति उनकी असीम श्रद्धा तथा उनका अटूट विश्वास !

प्रेरणास्रोत "मेरे मदारी" ने बाबू की उस प्रीति को मेरी निम्नांकित रचना में
अंकित करवाया - मैंने लिखा और गाया तथा श्री राम शरणं दिल्ली ने उस भजन के केसेट तथा सी डी बनवाए  !

हनुमान जी के समान ही हमारे बाबू भी भगवान श्री राम जी के अनन्य भक्त थे ! वह अपने इष्ट श्रीरामजी  से 'हेतु रहित अनुराग एवं निःस्वार्थ; निष्काम प्रेम करते थे ! वह अपने प्रेमास्पद "श्री राम" के श्री चरणों में पूर्णतः समर्पित थे ! उनके एकमात्र अवलम्ब थे " राम " -

राम हि राम बस राम हि राम और नाहीं काहू सों काम 

पूज्य.बाबू को अपने "राम" के अलावा किसी और से कुछ लेना देना नहीं था]  लीजिए आप भी सुन लीजिए 


राम ही राम बस राम हि राम -और नाहि काहू सों काम 

तन में राम तेरे मन में राम , मुख में राम वचन में राम
जब बोले तब राम हि राम , राम हि राम बस राम हि राम 

जागत सोवत आठहु याम, नैन लखें शोंहा को धाम 
ज्योति स्वरूप राम को नाम , राम हि राम बस राम हि राम 





कीर्तन भजन मनन मे राम ,ध्यान जाप सिमरन में राम .
मन के अधिष्ठान में राम , राम हि राम बस राम हि राम

सब दिन रात सुबह अरु शाम ,बिहरे मनमधुबन में राम  
परमानंद शान्ति सुखधाम ,  राम हि राम बस राम हि राम
====================
शब्दकार स्वरकार और गायक -
उस चतुर मदारी का नटखट बंदर
 "भोला"  
 =====
प्रियजन , देख रहे हैं आप कि मेरे चतुर मदारी ने मुझे कहाँ  कहाँ घुमाया , किस किस घाट का पानी पिलाया ?  परन्तु अन्ततोगत्वा उसने अपने इस भोले बंदर को उसके गंतव्य  तक पहुचा ही दिया !

 घूम फिर कर हम नटखट नारद के भक्ति सूत्रों तक पहुच  गये जिनमे  भक्ति की व्याख्या करते हुए नारद जी ने कहा है :  

अथातो भक्तिम व्याख्यास्याम 
सा त्वसमीन परम प्रेम रूपा

 [विस्तार से अगले आलेख में ]
==================
                           निवेदक :   व्ही . एन . श्रीवास्तव "भोला" 
सहयोग : श्रीमती कृष्णा :भोला" श्रीवास्तव 
 ++++++++++++++++++++++++++++

मंगलवार, 1 अक्टूबर 2013

जय जय बजरंगी महावीर

ओम श्री हनुमते नमः 



अतुलित बल धामं, हेम शैलाभ देहं ,  
दनुज बन कृशानु  ज्ञानिनाम अग्रगण्यम  

सकल गुण निधानं वानरा नामधीषम ,
रघुपति प्रिय भक्तं वात जातं नमामि !!
=================== 
स्नेही स्वजनों ,

जय जय बजरंगी महावीर 
                                  तुमबिन को जन की हरे पीर 

आप कहोगे आज ही क्यूँ मुझे आपको यह भजन सुनाने की इच्छा हुई ? मैं नहीं जानता ! मंगलवार है ,प्रति सप्ताह आता है ! आज क्या खास बात है ?

अक्टूबर का महीना है और U S A में इस समय अक्टूबर की पहली तारीख है ! वहाँ भारत में तो कदाचित अक्टूबर की दूसरी तारीख शुरू हो रही होगी, सम्पूर्ण भारत के राम भक्तों के लिए दोनों ही तारीखें महत्वपूर्ण हैं ! हैं ना ?

क्यूँ ?  

प्रियजन ये दोनों तारीखें याद दिलातीं हैं हमे- हमरे परमप्रिय 

राम भक्त , ह्नुमानोपासक  हमाँरे "मार्ग दर्शक - मेंटर", परम श्रद्धेय माननीय श्री शिवदयाल जी की !! 

विश्व विख्यात रामनामोपासक  हमरे राष्ट्रपिता गांधीजी की !! 

"जय जवान जय किसान" के प्रणेता , राष्ट्र हित हेतु सप्ताह में एक दिन स्वयम अन्न त्यागने तथा देशवाशियों को उसे अनुकरण हेतु प्रेरित करने वाले हमारे भूतपूर्व प्रधान मंत्री श्री लाल बहादुर शाश्त्रीजी की !! 

श्रीराम शरणं दिल्ली के जनसेवक गुरुदेव श्री प्रेमनाथ जी महाराज जो हनुमान जी के समान 'द्रोंनगिरी पर्वत' अपनी दो पहिया सवारी पर लादे दिल्ली की प्रचंड गर्मी ,भयंकर शीत और मूसलाधार बारिश में भी रोगी साधकों के पास संजीवनी बूटी पहुचाते थे ! 

धन्य हैं ये सभी दिव्य आत्माएं !

जर्जर तन और वयस के साथ खरखराती आवाज़ में, श्री हनुमान जी की यह वन्दना गाकर मैं ,अंतर्मन से इन सभी विभूतियों , इन सभी दिव्यात्माओं का नमन कर रहा हूँ ! 

[ प्रेरणास्रोत इस बार एक अज्ञात व्यक्ति है - २०१०  के एक ब्लॉग में मैंने इस भजन के शब्द लिखे थे ! तब तक हमारे पास रेकोर्डिंग के तथा Utube के द्वारा वीडियो / साउंड ट्रेक प्रेषित करने की सुविधा उपलब्ध नहीं थी ! उस समय इस अनजान व्यक्ति ने मुझसे इस भजन की धुन जानने की इच्छा प्रगट की थी ! मैं भूल गया था इसे ! परंतु अभी कुछ दिनों पूर्व किसी ने मेरे उसी ब्लॉग पर कुछ कमेन्ट किया और मेरी नजर  , २०१०  के उस अनजान व्यक्ति की फरमाइश पर पडी !, फिर क्या था  कृष्णा जी ने प्रोत्साहित किया और उनके सहयोग से वो भजन रेकोर्ड हो गया ! कृष्णा जी ने बड़े भाव से मंजीरा भी बजाया ! अब् इस उम्र [८४ प्लुस ] में जैसा गा सकता था , गाकर श्री हनुमान जी और आप सब को सुना रहा हूँ :]

जय जय बजरंगी महावीर 
                                  तुमबिन को जन की हरे पीर 



अतुलित  बलशाली तव काया ,गति पिता पवन का अपनाया
    शंकर से देवी गुन पाया  शिव पवन पूत हे धीर वीर 
                              जय जय बजरंगी  महावीर -----
     

दुखभंजन सब दुःख हरते हो , आरत की सेवा करते हो ,
     पलभर बिलम्ब ना करते हो जब भी भगतन पर पड़े भीर 
                            जय जय बजरंगी महावीर-----
     
जब जामवंत ने ज्ञान दिया , तब सिय खोजन स्वीकार किया
     सत योजन सागर पार किया  ,रघुबंरको जब देखा अधीर
                             जय जय बजरंगी महावीर -----
     

शठ रावण त्रास दिया सिय को , भयभीत भई मइया जिय सो .
     मांगत कर जोर अगन तरु सो ,दे मुदरी माँ को दियो धीर
                            जय  जय बजरंगी महाबीर----- 
      
जय संकट मोचन बजरंगी , मुख मधुर केश कंचन रंगी
निर्बल असहायन  के संगी , विपदा संहारो साध तीर 

जय जय बजरंगी महाबीर 
तुमबिन को जन की हरे पीर 
=======================

 उपरोक्त भजन का निम्नांकित भाग मैं आज नहीं गा पाया:-

 जय जय बजरंगी महाबीर  
तुमबिन को जन की हरे पीर  
      
  जब लगा लखन को शक्ति बान,चिंतित हो बिलखे बन्धु राम 
      कपि तुम साचे सेवक समान ,लाये बूटी संग द्रोंनगीर 
           जय जय बजरंगी  महावीर------ 

हम पर भी कृपा करो देवा  , दो भक्ति-दान हमको देवा 
      है पास न अपने फल मेवा , देवा स्वीकारो नयन नीर
       जय  जय बजरंगी महाबीर  
                               तुमबिन को जन की हरे पीर
================
शब्दकार स्वरकार गायक 
"भोला"
===============
निवेदक : 
व्ही. एन . श्रीवास्तव "भोला"
=======
सहयोग 
चित्रांकन , यू ट्युबी करण , मजीरा वादन-
श्रीमती डॉक्टर कृष्णा भोला
==================