रविवार, 4 दिसंबर 2011

दिसम्बर का पहला सप्ताह

माँ प्यारी माँ

महत्वपूर्ण - दिसम्बर का पहला सप्ताह

१९६२ के , दिसम्बर की ,शायद दूसरी या तीसरी तारीख़ थी ! हमारी प्यारी अम्मा , सूटरगंज ,कानपूर वाले घर की ऊपरी मंजिल के बाहरी बरामदे में आरामकुर्सी पर ,ध्यान की मुद्रा में बैठी , धूप खा रहीं थीं ! उस दिन मैं ,अनमने भाव से ,रोज की अपेक्षा थोड़ी देर से फेक्ट्री जाने के लिए निकला ! यह सोच कर कि , अम्मा नित्य की भांति मौन धारण कर अपने गोपालजी का ध्यान लगाये बैठी हैं ;मैं ,उनको बिना डिस्टर्ब किये उधर से चुपचाप निकल जाना चाहता था ! लेकिन ऐसा कर न पाया ! उनकी कुर्सी के सामने ठिठक कर खड़ा हो गया ! मेरा मन शंकाओं से जूझ रहा था ! क्या देर शाम , काम से लौटने पर भी अम्मा के इस सौम्य स्वरूप का ऐसा ही दर्शन कर पाउँगा ?

तभी अम्मा की बंद आँखे पल भर को खुलीं ! एक हल्की सी मधुर मुस्कुराहट से उनका प्यारा मुखड़ा खिल गया और उनकी चमचमाती दंत मुक्तावली उनके उस उम्र में भी देशी गुलाब की पंखुडियों जैसे लाल होठों के बीच से झाँकने लगी ! अम्मा के उस प्रेरणादायक स्वरूप ने बालपने से तब तक मेरा मार्ग दर्शन किया था ! जीवन के प्रति उतारचढाव में मैंने अपने आप को अपनी अम्मा के मुस्कुराते चेहरे से झांकते उनके मोती जैसे दांतों के निर्देशन के अनुरूप ढाल कर सदैव प्रगति ही की !

अम्मा के परमधाम गमन के दो दिन पूर्व मैं उनकी आराम कुर्सी से सट कर बैठा था

प्यारी अम्मा ने तब बड़े प्यार से मुझे हृदय से लगाकर अनेक आशीर्वाद दिये
अम्मा की भावभंगिमा से मैं समझ गया कि वह क्या चाहतीं थीं ! पहला यह कि मैं काम पर देर से क्यों जा रहा था ?और दूसरा यह कि घर में अचानक इतने मेहमान क्यूँ नज़र आ रहे थे ? कैसे कहता उनसे कि उन दिनों घर में ,जो कुछ भी हो रहा था वह सब का सब "उनके" अति चिंताजनक स्वास्थ्य के कारण हो रहा था ?
कैसे बताता उनसे यह सच्चाई कि --उस सप्ताह में ही किसी दिन 'वह' यह संसार ,यह घरबार ,यह परिवार छोड़ कर जाने वाली हैं ! शीघ्र ही हम चारों भाई-बहन अपनी प्यारी प्यारी माँ को खोने वाले हैं ! हमारे बच्चे रवी छवी शशि रूबी प्रीती मोना रामजी अपनी दादी के प्यार दुलार से सदा सदा के लिए वंचित होने वाले हैं और कैसे हमारे वयोवृद्ध पिताश्री अर्धशताब्दी से भी अधिक वर्षों की अपनी जीवन संगिनी से जल्दी ही हमेशा हमेशा को जुदा होने वाले हैं !कानपूर के सिविल सर्जन और मेडिकल कोलेज के कन्सल्टेंट डॉक्टरों ने पूरी जाँच पड़ताल कर के यह कह दिया था कि वह अब कुछ दिनों की ही मेहमान थी !
अम्मा कैंसर के एक अति द्रुतगामी प्रकार से जूझ रही थीं और उनका रोग अंतिम स्टेज तक पहुंच चुका था ! गिने चुने दो चार दिन ही अब उनके जीवन में शेष थे !
मैं कुछ क्षणों तक अवाक बैठा रहा ! अवश्य ही तब अम्मा ने मेरे चेहरे पर चिंता की गहरी रेखाएं उभरती देख ली होंगी ,क्यूंकि तभी मैंने देखा कि अम्मा के सदा मुस्कुराते चेहरे पर भी सहसा किसी अज्ञात आशंका की काली बदली घिर आई ! उन्होंने मुझे स्पर्श किया ! उनके स्पर्श की शीतलता से मेरा रोम रोम काँप गया ! मैं इस चिंता से व्याकुल हो गया कि माँ का शरीर शीतल हो रहा था !
उन्हें परमधाम लेजाने वाला विशेष विमान "ए.टी.एस" से लेंडिंग का निर्देश पाने की प्रतीक्षा में एयर पोर्ट के आकाश में बेताबी से मंडरा रहा था ! इस विचार से कि वह विमान किसी भी क्षण उतर सकता था और बोर्डिंग का आदेश पारित होते ही माँ उस विमान पर सवार हो - अपने गोपाल जी के धाम "गोलोक" की ओर प्रस्थान कर जाएंगी और ह्म कुछ न कर पाएंगे ,बस हाथ मलते रह जायेंगे मैं विचलित हो रहा था ! मेरी रूह कांप रही थी यह सोंच कर कि अगले किसी पल ही हमारे सिर से माँ की क्षत्र छाया छिनने वाली थी !
मन ही मन ,केंसर की भयंकर पीड़ा झेलते हुए अम्मा ने किसी को भी यह महसूस नहीं होने दिया कि उन्हें कितनी पीड़ा है ! हमे चिंतामुक्त रखने के लिए वह एक बार भी हमारे सामने पीड़ा से कराही नहीं ! कभी किसी ने उनकी आँखों से आंसू बहते नहीं देखे ! हम जब भी उनके सामने गए , वह हमे मुस्कुराती हुई दिखाई दी ! उस समय भी जहाँ माँ के ठंढे स्पर्श ने मुझे चेताया था कि अब अधिक विलम्ब नहीं है और मैं बुरी तरह घबडा रहा था अम्मा आराम कुर्सी पर बैठी मंद मंद मुस्कुरा रहीं थीं !
मुझे घबडाया देख कर माँ ने निकट ही खड़े बड़े भैया, उषा दीदी , और छोटीबहिन् माधुरी को भी पास बुला लिया और माहौल बदलने के लिए भोजपुरी भाषा में कहा "आज भजन ना होखी का ?" ! ( क्या आज भजन नहीं होगा ?)
उस सुबह हमने अम्मा को "श्री कृष्णा गोविन्द हरे मुरारे , हे नाथ नारायण बासुदेव " की धुन सुनाई और उन्होंने एकएक करके हम चारों को जी भर कर खूब सारे आशीर्वाद भी दिए ! मेरा तीसरा नम्बर था ! मैं अम्मा का छोटका, दुलरुआ लडिका जो था , हमेशा की तरह उन्होंने मुझे कसके चिपका लिया और इशारतन मुझे समझा दिया कि उन्हें मेरी सारी फर्माइशे ज्ञात हैं ,इसलिए बिना मुझसे कुछ पूछे ही उन्होंने मुस्कुराते हुए भोजपुरी में मुझे आशीर्वाद दे दिया , बोलीं "होखी ना,कूल वैसने होखी,जईसन तू चहिबा ! ("होगा, जरूर होगा , सब वैसा ही होगा जैसा तुम चाहोगे ) ! आत्मकथा के किसी अन्य प्रसंग में बता चूका हूँ - मेरे सपने असम्भव थे लेकिन वे सब असम्भव स्वप्न ,समय आने पर सत्य सिद्ध हुए ! मुझे ऐसी अप्रत्याशित सफलताएं हुईं जिनकी भविश्यवाणी किसी ज्योतिषी ने नहीं की थी और उनकी प्राप्ति के लिए मैंने कोई अनुष्ठान भी नहीं करवाये थे और न कोई कीमती नगीने ही धारण किये थे !
गुरुजनों के आशीर्वाद , प्यारे प्रभु की कृपा दृष्टि, अपना दृढ संकल्प, तथा कर्तव्य निष्ठां के अतिरिक्त मेरे पास कोई अन्य उपाय और साधन था ही नहीं ! अवश्य मैं इनकी प्राप्ति के लिए सतत अथक प्रयास करता रहा, प्रार्थना करता रहा और फिर प्रारब्ध को भी मेरे अनुकूल होना पड़ा ! मैंने वह सब पाया जिनकी प्राप्ति का आशीवाद मेरी अम्मा ने मुझे दिया था !

"प्रयास-पुरुषार्थ-परिश्रम"
"प्यारेप्रभु एवं गुरुजन की कृपा" तथा
"प्रार्थना" के सहारे जीव अपना भाग्य और प्रारब्ध भी बदल सकता है !
ये सुनी सुनाई नहीं है ,निज अनुभव से कह रहा हूँ मैं !
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निवेदक: व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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Posted by Picasa

1 टिप्पणी:

रेखा ने कहा…

सही कहा आपने ...प्राथना में बहुत शक्ति है