गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

संत समागम - प्रज्ञाचक्षु स्वामी शरणानंद जी के उपदेश

गृहस्थ संत माननीय शिवदयाल जी 
के जीवन पर 
प्रज्ञाचक्षु  स्वामी शरणानंद जी के उपदेशो का प्रभाव 
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जीव  पर ,सर्व प्रथम ,उसके पारंपरिक पारिवारिक आध्यात्मिक संस्कारों की छाप लगती है !  हमारे पूज्यनीय बाबू के जीवन पर भी पारिवारिक संस्कारों के कारण " साकार ब्रह्म भक्ति" की छाप लगी और उसके बाद  ७ वर्ष की अवस्था में नानकपंथी दीक्षागुरु की कृपा  से उन्हें "एक ओंकार" रूप  "ब्रह्म" का ज्ञान प्राप्त हुआ ! तदोपरांत सौभाग्यवश स्वामी सत्यानन्द जी ने बाबू को  निराकार "ओंकार" में , साकार ब्रह्म के प्रतीक "राम " नाम का दर्शन करवा कर यह दिशा दी कि ----ज्योति स्वरूप - "राम" (नाम) तथा चिन्मय "ब्रह्म" के अविनाशी स्वरूप "ओम्" में कोई अंतर नहीं है !  अटल विश्वास  तथा समर्पण भाव से प्रेम सहित  एक "इष्ट" की .आराधना करना ही साधक का "भक्ति धर्म" है ! यही उसकी "योगस्थ कुरु कर्माणि" वाली "कर्म योग" साधना भी है !

भक्ति भजन तव धर्म है ,कर्म-योग है काम !
पथ  तो  तेरा  प्रेम   है  , परम  भरोसा  राम  !!

कर  निश्चय  हरिनाम  में ,अंत:करण  के साथ !
भक्ति धर्म ही  समझ ले ,सबसे  उत्तम  पाथ !!

[स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के "भक्ति प्रकाश" से ] 

इन सिद्ध महात्माओं से अधिग्रहित "तत्व-ज्ञान" पर शिवदयाल जी ने  गहन चिंतन -मनन किया , उसे व्यवहारिक बनाया फिर  निजी अनुभूति के आधार पर दिव्य जीवन जीने  की  दिशा निर्धारित की :- "नाम जपता रहूँ ,काम करता रहूँ " और जीवन में सभी कर्म रामकाज  मान कर किये ! उन्होंने अपने कर्मक्षेत्र में देवीय संस्कार बसा कर एक कर्मठ योगी का ही नहीं अपितु संतत्व से परिपूर्ण आदर्श गृहस्थ का जीवन जिया !

-----अपने निवास स्थान  पर  आये संत -महापुरुषों  के सत्संग से तो वे  कृतकृत्य हुए ही , साथ ही समय समय पर  संत समागम से प्राप्त निर्देशन से उन्होंने अपने जीवन जीने की कला को निखारा और भारतीय दर्शन को व्यवहारिक बनाया !

पूजनीय बाबू पर जिन  संतों का गहन प्रभाव पड़ा उनमे अविस्मरणीय है श्रद्धेय पूज्य , प्रज्ञाचक्षु स्वामी श्री शरणानंदजी महाराज ! [ मानव सेवा संघ, वृन्दाबन के संस्थापक ] स्वामीजी  का अतुल्य  स्नेह था उन पर !वे  बाबू के निवासस्थान पर स्वयम पधार कर उनका मार्ग दर्शन करते रहते थे !
स्वामी जी अधिकांशतः "हरि शरणम " के अमृततुल्य  संकीर्तन का  रसास्वादन स्वयं करते और सबको कराते थे !  "बाबू"  की दैनिक पारिवारिक प्रार्थना में स्वामी जी के अनेक सूत्रों के अतिरिक्त इस कीर्तन का भी समावेश हुआ ! निजी भेंटों में , स्वामी जी ने बाबू को  मानव-जीवन - दर्शन के व्यवहारिक स्वरूप   की विविध कलाएं सिखाई  !

 Swami Sharnanandji                       

प्रात स्मरणीय प्रज्ञाचक्षु स्वामी श्री शरणानंद  जी महाराज  
की अनमोल सिखावन 

१. आस्था , श्रद्धा और विश्वास से अपने को समर्पित करने में ही शरणागति है !  आस्था का अर्थ है कि "प्रभु हैं"  ! परन्तु वह  कहाँ हैं ,कैसे हैं ? इस पचड़े में मत पडो , बस ये मानलो कि "प्रभु हैं" और उसका अनुभव करो और उनकी शरण लो !  

२.  जीवन का उद्देश्य प्रेम प्राप्ति है जिसके लिए हमे उस अनंत के समर्पित होना पड़ेगा 

३. प्रेम का क्रियात्मक रूप सेवा है ,विवेकात्मक रूप बोध है और भावात्मक रूप भक्ति है 

४  सबके प्रेम पात्र हो जाओ ,यही भक्ति है 

५. परमात्मा के नाते जगत की सेवा ही "पूजा "है :आत्मा के नाते यही  सेवा "साधना" है और जगत के नाते यही  सेवा " कर्तव्य "है  

६ शरणागत को आवश्यक वस्तुएँ बिना मांगे मिल जाती हैं 

७ शरणागत की अनावश्यक वस्तु पाने की दुराशा ,उसका इष्ट स्वयम नष्ट कर देता है  

८.कर्तापन के भाव को मिटाना  और  कुछ न माँगना समर्पण है  

९. शरणागत  के जीवन में भय ,चिंता तथा निराशा के लिए कोई स्थान  नहीं है 

इनके अतिरिक्त , मानव सेवा संघ की एक प्रार्थना के निम्नांकित सूत्र को बाबू  ने अपने जीवन में अक्षरशः उतार लिया ! वह  पूर्णतः शरणागत होगये !

मैं नहीं , मेरा नहीं , यह तन   किसी का है दिया !
जो भी अपने पास है सब कुछ किसी का है दिया !!

जग की सेवा , खोज अपनी ,प्रीति उनसे कीजिए !
जिंदगी  का राज है , यह जान कर जी लीजिए    !!

प्रार्थना के इन सूत्रों में समाहित जिंदगी के राज की सार्थकता समझ कर बाबू ने अपने गृहस्थ जीवन में संतत्व के बीज आरोपित किये ! वह विधिवत अपनी पारंपरिक पूजा आराधना करते रहे और उसके साथ स्वामी जी के निदेशानुसार , खुले हाथ "प्रेम - दान" द्वारा परिवार वालों की ही नहीं अपितु सम्पर्क में आये स्वजनों की सेवा करते रहे ,अपने प्रत्येक कर्म को राम काज मान कर करते रहे!

परस्पर मिलन के  अतिरिक्त पत्राचार द्वारा स्वामी जी यदाकदा "बाबू" को आध्यात्मिक साधना के बहुमूल्य गुर बताते रहते थे  ऐसे कुछ  पत्रों   के अंश यहाँ  उदधृत  कर रहा  हूँ :

सदुपदेश एवं आशीर्वाद युक्त :


१. स्वामी शरणानन्द जी का प्रथम पत्र - दिनांक १३- ५- १९५९ , ऋषिकेश से प्रेषित :

प्रत्येक घटना में "उन्ही" की कृपा का दर्शन करो ! सब प्रकार से "उन्ही" के होकर रहो ! "उनकी " मधुर स्मृति को ही अपना जीवन समझो ! जिन्होंने सरल विश्वास पूर्वक प्यारे प्रभु की कृपा का आश्रय लिया , वे सभी पार होगये , यह निर्विवाद सत्य है !

२. स्वामी जी का दूसरा पत्र - दिनांक ६- १२- १९६० , खुरई से प्रेषित :

प्राप्त विवेक के प्रकाश में , विवेक विरोधी कर्म तथा सम्बन्ध एवं विश्वास का अंत कर , कर्तव्य परायणता ,असंगता एवं शरणागति प्राप्त कर कृत कृत्य हो जाना चाहिए ! यही इस जीवन का चरम लक्ष्य है !

३. स्वामी जी का तीसरा पत्र - दिनांक ३० - ५ - १९६२ ,वृन्दाबन से प्रेषित :

भक्तजनों का अपना कोई संकल्प नहीं रहता ! प्रभु का संकल्प ही उनका अपना संकल्प है ! इस दृष्टि से वे सदेव शांत तथा प्रसन्न रहते हैं और प्रत्येक घटना में अपने प्यारे प्रभु की अनुपम लीला का ही दर्शन करते हैं ! अर्थात करने में सावधान तथा होने में प्रसन्न रहते हैं ! प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग ही प्यारे प्रभु की पूजा है ! पूजा का अंत स्वतः प्रीति में परिणित हो जाता है जो वास्तविक जीवन है ! ---------= जहां रहें , प्रसन्न रहें  !  जो करें ,ठीक करें ! 

[ क्रमशः]
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आज ह्मुनान जयंती के शुभअवसर पर  
हमारी हार्दिक बधाई स्वीकार करें
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प्रियजन , बधाई गीत गाने को जी कर रहा है लेकिन कुछ नया नहीं गा पा रहा हूँ !
प्यारे प्रभु से करबद्ध प्रार्थना है कि 
क्षमा करें मुझे श्री हनुमान जी और मेरे अतिशय प्रिय पाठकगण 
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एक बात बताऊँ , हो सकता है कि आज के आप मेरे ५० हजारवें पाठक हों ! 
पिछले तीन वर्ष से आप मुझे और मेरी अधकचरी बातों को झेल रहे हैं ,
कैसे आभार व्यक्त करूं , कैसे धन्यवाद दूँ आपको ? 
आपके इस प्रोत्साहन के लिए 
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निवेदक: व्ही. एन .श्रीवास्तव "भोला"
सहयोगिनी : श्रीमती  कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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शनिवार, 20 अप्रैल 2013

बिनु सत्संग - ( भाग २ ) 'रामनवमी पर रामायनी सत्संग'


श्रीराम जन्मदिवस
( राम नवमी )
पर हमारी हार्दिक शुभ कामनाएं 
स्वीकारें  
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" बिनु सत्संग विवेक न होई "
 (गतांक से आगे)
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गृहस्थ संत - शिवदयाल जी , हमारे "बाबू"  को जन्म से ही सत्संग लाभ मिला ! माताश्री ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के दिव्य चरित्र से परिचित करवाया , दीक्षा गुरु ने ईश्वर के "एक ओम्कारीय" सत्य स्वरूप का दर्शन कराया , सद्गुर स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ने माताश्री के ईश्वर -"राम" का ,दीक्षा गुरु के 'ओमकार' के साथ एकीकरण करके कहा :

सर्वाधार ओंकार  जो , निराकार बिन पार !
उसे राम , श्रीराम  कह  ,नमूं सदा बहुबार !! 

माताश्री , दीक्षागुरु एवं स्वामीजी के सम्मिलित प्रभाव ने बाबू के आध्यात्मिक चिंतन की अस्पष्टता को दूर कर दिया ! वे साकार-निराकार के द्वंद से पूर्णतः मुक्त हो गये ! स्वामी  विवेकानंद की वेदान्ती दार्शनिकता मिश्रित साकार 'मातृ - भक्ति' के समान ही बाबू ने भी अपने  इष्ट मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम के स्वरूप में निराकार पारब्रहम के दर्शन किये , उनपर दृढ़ आस्था रखी , विधि विधान से आजीवन अपनी साधना करते रहे तथा सम्पर्क में आये साधारण से साधारण व्यक्ति में भी उस  'निराकार ब्रह्म' को उपस्थिति मान कर परहित और परसेवा करते रहे !

एक पारस्परिक सम्वाद में संत समागम के विषय में हम सब से वार्तालाप करते हुए बाबू ने सत्संग का महात्म्य बताते हुए कहा था :

धन्य  हैं वे जिज्ञासु शिष्य जिन्होंने आत्मोन्नति हेतु 'संत समागम" किया , गुरुजन को अपनी शंकाओं से अवगत कराया तथा उनसे उनका समाधान प्राप्त किया !  कोटिश प्रणाम उन दिव्य गुरुजन को भी , जिन्होंने अपने भ्रमित शिष्यों को आध्यात्मिक चिंताओं से मुक्त किया ,उन्हें "परमसत्य"  से परिचित करवाया तथा उन्हें माध्यम बना समस्त विश्व के हम जैसे करोड़ों साधकों को सत्य की अनुभूति कराई !

वेदव्यास रचित एवं योगेश्वर श्रीकृष्ण के द्वारा मुखरित "श्री मद् भगवद गीता" में सभी मानवीय शंकाओं के समाधान उपलब्ध हैं ! व्यथित अर्जुन ने यदि अपने सारथी श्रीकृष्ण के साथ कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि पर वह सत्संग न किया होता तो समग्र मानवता ,सदा सदा के लिए "गीता" के इस दिव्य सन्देश  तथा उसके गायन के सुमधुर स्वरों के श्रवण  से वंचित रह जाती  !

तुलसी कृत राम चरित मानस में तो ऐसे अनेक प्रसंग समाहित हैं जिनमे जिज्ञासु पात्रों ने निज शंकाओं के समाधान हेतु अपने गुरुजन से प्रश्न किये हैं ! उनमे से एक प्रसंग जो मुझे अभी याद आ रहा हैं ,वह  है श्री राम और ऋषि बाल्मीकि जी के बीच ,चित्रकूट का वह सम्वाद जिसमें , बनवास के दिनों में रामजी ने अपने गुरुदेव से यह जानना चाहा कि विन्ध्य के उस सघन वन्य प्रदेश में निवास हेतु वह किस स्थान पर अपनी कुटी बनायें !

इस साधारण से प्रतीत होते प्रश्न के उत्तर में ऋर्षि  बाल्मीकि ने जो कहा उसमे हमारे आध्यात्म का सार समाहित है ! उत्तर में अति आश्चर्य जताते हुए ऋषि ने  कहा " राम आप मुझसे पूछ रहे हो कि आप कहाँ निवास करो ? उलटे मैं अति संकोच से आपसे पूछ रहा हूँ कि आप मुझे बताएं कि इस समस्त सृष्टि में वह कौन सा स्थान है जहां आप  विद्यमान नहीं हैं ? "

इस प्रकार सद्गुरु ने उनके सन्मुख खड़े मानव   तनधारी ब्रह्म श्रीराम में ही निराकार ब्रह्म की सर्व व्यापकता तथा सर्वज्ञता उजागर की और समस्त  मानवता को "परब्रह्म" के साकार और निराकार ब्रह्म की अभिन्नता से अवगत करा दिया  !

पूछहु  मोहिं  कि  रहों कह   मैं पूछत सकुचाऊ !
जह न होहु तहं देहु कहि , तुम्हहिं देखावौं ठाऊँ ![
[अयों .कां - दोहा १२७ ]

[ Ram , I wonder , you are asking me to suggest [tell you ] the spot where you should have your abode . Dear I hesitate to  ask you to name a single spot in this entire universe , where you are not already present ]

इसके अतिरिक्त राम चरित मानस' के अरण्य काण्ड में भाई लक्ष्मण ने बड़े भैया राम से  ईश्वर ,जीव , माया  एवं भक्ति सम्बन्धी जिज्ञासा की--

लक्ष्मण के प्रश्न :

कहहु ज्ञान बिराग अरु माया, कहहु सो भगति करहु जेहि दाया !! 
[अरण्य ,१३/ ४]

[ O Lord, Kindly discourse to me on spiritual wisdom and dispassion as also on MAYA [Illusion] : and also speak to me about BHAKTI [devotion] about which it is said that - it wins Your GRACE ]

ईश्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाई !
जाते होई चरण रति ,सोक मोह ,भ्रम जाई !!
[अरण्य .दोहा १४ ]

Please also explain to me all the difference between GOD and the individual soul so that I may be devoted to THEE and my sorrows ,infatuations, and delusion may vanish .]

प्रत्युत्तर में श्री राम ने लक्ष्मण को संक्षेप में ही बताया :

             मैं अरु मोर मोर ते माया ! जेहि बस कीन्हे जीव निकाया !![अ .१४/१]
            गो गोचर जहँ लगि मन जाई ! सो सब माया जानेहु भाई  !![अ .१४/२]

The feeling of "I" and "Mine" and "You" and "yours" is MAYA.which holds sway over all created beings., Whatever is perceived by the senses  and that which lies within the reach of the mind , know it all to be MAYA.

माया ईस न आपु कहूँ  जान कहिअ सो जीव  !
बंध  मोच्छ  प्रद   सर्बपर     माया प्रेरक सीव  !!
[अरण्य  कांड - १५ ]

That alone deserves to be called a JIVA  (individual soul) which knows not MAYA  nor GOD nor ones own self , And SIVA  (GOD) is HE who awards bondage and liberation [according to what one deserves ] HE transcends all and is also the motivator of Maya.


पूज्य बाबू ने तत्पश्चात "मानस" के एक अन्य सत्संग की चर्चा की ! यह  अति ज्ञान प्रदायक गुरु शिष्य सम्वाद था  ;

"काकभुशुण्डि -गरुड़ सम्वाद" ; बाबू से सुने इस प्रसंग ने हमे अति प्रभावित किया -

१९७५-१९७८ में अपने "गयाना साउथ अमेरिका" प्रवास में वहाँ के हिंदू मंदिर के पुरोहित पंडित गोकर्ण शर्मा के अनुरोध पर हमने गाय्नीज़ गायकों के सहयोग से इस सम्वाद के कुछ अंश रेकोर्ड किये और उस देश का सर्व प्रथम "एल पी" निर्मित करवाया !

लीजिए पहिले वह 'एल पी' चालू कर लीजिए और उसके साथ साथ प्रासंगिक कथा और "भुशुण्डिजी - गरुड़ संवाद" का भाष्य भी पढ़ लीजिए :





रणक्षेत्र में लीला करते हुए श्री राम मेघनाद के नाग पाश में बंध गये ,और भगवान विष्णु के वाहन पक्षीराज गरुड़जी ने उन्हें नागपाश से मुक्त किया !  इस घटना से गरुड़जी अति भ्रमित हो गये ! उन्हें रामजी के ईश्वरीय अस्तित्व में संदेह होने लगा , उन्हें अहंकार और अभिमान हुआ ! मनः व्यथा से  व्याकुल हो  गरुड़जी ,अपनी शंकाओं के समाधान हेतु  नारदजी  के पास गये ! नारदजी  ने उन्हें शिवजी के पास और शिवजी ने उन्हें परम ज्ञानी काक भुशुण्डिजी  के पास भेजा !

पक्षिराज गरुड़  ने व्यास आसन पर आसीन परम ज्ञानी श्री काग भुशुण्डिजी  से रामचरित का पाठ सुना और उसके पश्चात उन्होंने कागभुशुण्डिजी  से विनती की कि कृपया वह उनके  प्रश्नों का उत्तर देकर  उसका शंका समाधान करें :

गरुड जी के प्रश्न थे :

प्रथमहिं  कहहु नाथ  मत धीरा  ! सबते   दुरलभ  कवन सरीरा  !!
Tell me my learned Lord which "physical form"  is most difficult to obtain ?.

काग भुशुण्डिजी  का उत्तर :

नर तन सम नहिं कवनिउ देही ! जीव   चराचर   जाचत  जेही !!
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी   ! ज्ञान बिराग भगति सुभ  देनी !! 
Human form is the most excellent  of all forms and it is the desire of all living creatures to obtain . It is the ladder that takes the soul tc final emancipation     and it is the human form only which is blessed with wisdom dispassion and devotion . 

गरुड़जी का प्रश्न  :

बड दुःख कवन कवन सुख भारी !  सोई संक्षेप हि कहौ विचारी !!
My Lord which is the worst suffering  and what is the greatest happiness ?

काकभुशुण्डिजी  का उत्तर :

नहिं दरिद्र सम दख जग माही ! संत  मिलन सम सुख जग नाहीं !!
There is no suffering in the world so great as poverty .and no happiness like that which results from communin  with saints  

अगले प्रश्न :

संत असंत मरम तुम जानहु ! तिन्ह कर सहज  सुभाव  बखानहु!!
Now my Lord tell me about the essential characteristics of saints and the evil , for this is the secret you understand .  

उत्तर :

पर उपकार वचन मन काया ! संत सुभाव सहज खग राया !! 
संत सहें दुःख परहित लागी !  पर  दुःख हेतु असंत अभागी !! 
Saints are charitable to others in thoughts words and deeds and they are always willing to help others while the evil rejoices over others misery

प्रश्न : .
  
कवन पुण्य श्रुति बिदित बिसाला ! कहहु कवन अघ परम कराला!!
What is the greatest virtue and which is the worst sin ?

उत्तर :

परम धरम श्रुति विदित अहिंसा ! परनिंदा सम अघ न गरीसा !! 
परहित सरिस धरम   नहीं भाई !  पर पीड़ा सम् नहिं अधमाई !!
The greatest virtue is nonviolence and speaking ill of others is the worst sin.
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 (क्रमश )
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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोगिनी : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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सोमवार, 15 अप्रैल 2013

बिनु सत्संग विवेक न होई


गृहस्थ संत - हमारे "बाबू" - माननीय शिवदयाल जी 

गतांक से आगे

"बाबू" के जीवन पर उनके दीक्षा गुरु से प्राप्त मंत्र के जाप से ,श्रीजपुजी साहिब के नित्य पाठ से , उनकी माँ के "पय" में मिश्रित सुमधुर " रामचरितमानस" के रसास्वादन से , तथा  "श्रीमद भगवद्गीता" एवं "श्रीअमृतवाणी जी" आदि सद्ग्रन्थों के दैनिक पारायण से और भारत के प्रख्यात "आध्यात्मिक-विज्ञानी" सर्वश्री स्वामी रामतीर्थ, स्वामी विवेकानंद ,श्री अरविन्द  आदि धर्मगुरुओं के जीवन तथा विचारों के पठन-पाठन  का अनिर्वचनीय प्रभाव पड़ा !

इसके अतिरिक्त "बाबू" आजीवन अपने समकालीन अनेक महान संतों से निजी स्तर पर मिलते रहे ,उनसे पत्र-व्यवहार करते रहे , उनसे मार्ग दर्शन प्राप्त करते रहे ! इस प्रकार बाबू  को उन सभी महापुरुषों के सान्निध्य से ,उनकी दिव्य अनुभूतियों का सार ग्रहण करने का  सौभाग्य प्राप्त होता रहा ! आगे, मैं वैसे कुछ दिव्यात्माओं के विषय में जिनके सुमधुर  सत्संग ने बाबू का जीवन भी दिव्यता से आलोकित किया   प्रकाश डालने का प्रयास करूँगा !

प्रियजन सर्वप्रथम मैं  आपको पूज्य बाबू और महामंडलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानन्द जी के पारस्परिक  अन्तरंग स्नेह से अवगत कराना चाहता हूँ ! १९६० के दशक में  दोनों  का परिचय आध्यात्मिक -साधना विषयक विचारों के आदान-प्रदान से  हुआ ! पूज्यपाद स्वामीजी  ने बाबू  में सर्वांगीण विकसित व्यक्तित्व की झलक देखी , मानवीय गुणों से संपन्न युग पुरुष के रूप में उन्हें आंका ,उनकी  आध्यात्मिक साधना ,कर्मठता ,सरलता नियमितता , विनम्रता ,ज्ञान एवं विद्वता को सराहा !

निवर्तमान शंकराचार्य हामंडलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानंदजी महाराज के साथ दिवंगत 
गृहस्थ  संत  माननीय श्री शिवदयाल जी  



"बाबू" के देहावसान से  पूर्व मार्च २००३ में जबलपुर में उनके अभिनन्दन हेतु आयोजित एक जन सभा में स्वामी जी ने यह सन्देश दिया था कि " जबलपुर की आधी से अधिक जनता को आध्यात्म की तरफ प्रेरित माननीय जस्टिस शिवदयाल जी ने किया है और आप सभी जो प्रातः श्री रामचरितमानस का गायन रेडियो पर सुनते हैं उसको प्रारम्भ करने का पूरा श्रेय भी माननीय शिवदयाल जी को ही है ! उन्होंने ही A.I.R भोपाल से इसे शुरू करवाया था और आज उसका प्रसारण पूरे देश में हो रहा है ! " 

 बाबू के ब्रह्मलीन होने पर  महामंडलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानंदजी ने  अपनी हृदयांजलि अर्पित करते हुए कहा :"उन जैसे सद्पुरुष कभी कभी ही धरती पर आते हैं ! 

चलिए अब उन अन्य दिव्यात्माओं की चर्चा हो जाए जिनका स्नेहिल आशीर्वाद और मार्गदर्शन बाबू को प्राप्त हुआ !

१. उनके दीक्षागुरु ,नानकपंथी बाबा नारायण रामजी [ गुरुद्वारा रानोपाली अयोध्याजी]

बाबू के दीक्षा गुरु ने जो गुरुमंत्र उन्हें सात वर्ष की अवस्था में दिया  उसका  जाप वह  आजीवन अति निष्ठा पूर्वक करते रहे ! केवल इतना ही नहीं बाबू ने उस मंत्र को परिवार की सामूहिक प्रार्थना में सर्वोपरि स्थान दिया !  'जपु जी साहिब' का  पाठ करने से उस ग्रन्थ के प्रारम्भ में आया यह "बीज मंत्र" समस्त परिवार को भी कंठस्थ हो गया !
"एक ओमकार सतनाम करतापुरुख, निरभउनिरवैर अकालमूरती अजूनी सैभं गुरुप्रसाद"
यह था बाबू की आध्यात्मिक यात्रा का पहला  सोपान ! धर्म का वास्तविक शाश्वत स्वरूप दर्शाता ज्ञान का यह वह  अलौकिक प्रकाशपुंज  था जिसने उस छोटी अवस्था में ही उनको "परम सत्य" का दर्शन करवा दिया !

२. तत्पश्चात  १९४८ में "बाबू" को मुरार ग्वालियर में , डॉ देवेन्द्र सिंह बेरीजी के निवास स्थान पर प्रातःस्मरणीय ब्रह्मलीन  श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज [श्री रामशरणम ] के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ और १९५२ में स्वामीजी महाराज के कर कमलों से अधिष्ठान भी मिला, जिसके सन्मुख बाबू विधिपूर्वक आजीवन ध्यान  -जाप करते रहे ! पंचरात्री -के साधना सत्संग के अनुरूप वे  ब्रह्म मुहूर्त में जाप-ध्यान करते फिर पारिवार के साथ प्रार्थना और अमृतवाणी पाठ करते ,प्रातराश  में "दूध दलिया" लेते ,भोजन से पूर्व की और बाद की प्रार्थना करते तथा यथासम्भव परिवार के साथ ही रात्रि का भोजन करते और उसके बाद  हास्य परिहास युक्त एक "विनोद सभा" करते  ! उनकी यह दिनचर्या आजीवन बनी रही !

पूज्यपाद स्वामीजी महाराज बाबू की साधना तथा उनकी आध्यात्मिक उपलब्धियों से भली भाँति परिचित थे और उन्हें समुचित स्नेह व आदर देते थे ! [ स्पष्ट करदूं कि तब बाबू हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस नहीं थे ! तब वह ` पारिवारिक जिम्मेदारियों को लिए हुए एडवोकेट थे ,जब जज हुए तो पंचरात्री सत्संग में उनके लिए अमृतवाणी के समय खुला सत्संग महाराजजी ने प्रारम्भ करा दिया था !

३  ऋषिकेश सदैव से ही , संत-महात्माओं के आश्रमों और योग केन्द्रों का विश्व प्रसिद्ध स्थल  रहा है ! गंगाजी के पावन तट पर , सिद्ध -महापुरुषों के  समागम से लाभान्वित होने के लिए व आध्यात्मिक शिविर की भांति  साधनामय जीवन जीने के लिए  बाबू परिवार सहित ग्रीष्मावकाश में वहाँ जाते रहते थे !

ऋषिकेश में गंगा के उस पार स्थित  Divine Life Society, The Yoga Vedant Forest University  तथा शिवानंद आश्रम ऋषिकेश के प्रणेता एवं संस्थापक  - श्री श्री स्वामी शिवानन्दजी महाराज ,"बाबू" से अतिशय स्नेह करते थे और उन्हें "संन्यासी" कह कर संबोधित करते थे !

बाबू को श्रद्धांजिली देते हुए जस्टिस उषा कान्त वर्मा जी ने उनके संस्मरण में लिखा है कि उन्होंने स्वयम स्वामी जी को ,"बाबू" को "सन्यासी" कहकर संबोधित करते हुए देखा है ! वह लिखते हैं कि - " I recall having met H.H.Sri Swami Sivanand --on the bank of  Ganga --the great saint noticing Babu instantly greeted him with a sparkle of joy , loudly acclaiming "Here, is the SANYASI JUDGE "

विवाह से पूर्व कृष्णा जी स्वामी जी का आशीर्वाद प्राप्त कर चुकीं थीं ! स्वामी जी ने निज हस्ताक्षर के साथ यह लिखकर "Sm. Krushnaa, May Lord bless you " Sivananda , अपनी निजी भक्ति रचनाओं की पुस्तक  INSPIRING SONGS and KIRTANS - Sri Swami Sivananda भेंट की थी !  उनके आशीर्वाद स्वरूप दी गयी इस  पुस्तक से  वेदांत ,उपनिषद ,संक्षिप्त रामायण ,को कीर्तन के रूप में गाया और समझा जा सकता है ! इस पुस्तक का एक पद , "पढ़ो पोथी में राम " बाबू को अतिशय प्रिय था ; बाबू ने इसे परिवार के बच्चे बच्चे को सिखाया और दैनिक प्रार्थना में वह इसे किसी न किसी से सुनते ही थे !

स्वामी शिवानंद जी महाराज के देहावसान के बाद भी आश्रम के अन्य संतजन बाबू को उतना ही आदर देते रहे ! स्वामीजी की शिष्या साध्वी स्वामी शान्तानंदा जी भी बाबू का बहुत सम्मान करतीं थीं !  हम दोनों [भोला कृष्णा] जब एक  बार बेंगलूर के आश्रम में  साध्वी जी से मिले  तब वह अधिक समय तक 'बाबू' के उच्च आध्यात्मिक स्थिति के विषय में ही चर्चा करती रहीं ! उन्होंने हम दोनों को भी अपना अति स्नेहिल आशीर्वाद  प्रदान किया !

४ . ऋषिकेश स्थित  परमार्थ निकेतन के संस्थापक  पूज्य श्री स्वामी शुकदेवानंद जी  ,  स्वामी  भजनानंदजी , स्वामी  प्रकाशानंद जी ,  स्वामी धर्मानान्द जी,  स्वामी  सदानंद जी ,तथा  स्वामी चिदानंद "मुनि" जी महाराज आदि महात्माओं के साथ बाबू का अति आत्मीय - घनिष्ठ सम्बन्ध था ! इन संत महात्माओं के सत्संग ने बाबू के समग्र जीवन को संतत्व से परिपूरित कर दिया ! परमार्थ निकेतन की प्रातः कालीन प्रार्थना की छाप बाबू कि पारिवारिक प्रार्थनाओं  में प्रचुरता से झलकती है ! वहाँ से प्राप्त उपदेशों को बाबू स्वयम तो अपने आचरण में लाते ही रहे ; उसके साथ साथ ही वह अपने समग्र परिवार को भी उन्हें अपनाने के लिए प्रोत्साहित करते रहे !

परिवार के सदस्यों को अनुशासित करने और उनके जीवन में ईश्वर के प्रति निष्ठां तथा श्रद्धा का संस्कार आरोपित करने के उद्देश्य से बाबू ने यहाँ के ही संत श्री स्वामी एकरसानंद जी सरस्वती के निम्नांकित १० सूत्रीय  उपदेशों को राम परिवार की दैनिक प्रार्थना में शामिल कर  लिया और उसे परिवार के छोटे से छोटे सदस्य को कंठस्थ करवा दिया !

पहला - संसार को स्वप्नवत जानो
दूसरा - अति हिम्मत रखो
तीसरा - अखंड प्रफुल्लित रहो , दुख में भी
चौथा  -  परमात्मा का स्मरण करो , जितना बन सके
पांचवा - किसी  को दुःख मत दो , बने तो सुख दो
छठा   -  सभी पर अति प्रेम रखो
सातवाँ - नूतन बालवत स्वभाव रखो
आठवाँ - मर्यादानुसार चलो
नवां     - अखंड पुरुषार्थ करो ,गंगा प्रवाह वत ; आलसी मत बनो
दसवां   - जिसमे तुमको नीचा देखना पड़े , ऐसा काम मत करो

परमार्थ निकेतन के वर्तमान अध्यक्ष श्रद्धेय श्री स्वामी चिदानंद जी "मुनि" महाराज , हमारे पूज्यनीय "बाबू" को  "बाबूजी" नाम से पुकारते थे ! वह बाबू के व्यक्तित्व में "श्री राम के परम भक्त हनूमान" के स्वरूप का दर्शन करते थे ! श्रद्धेय मुनि जी बाबू के जीवन को , भक्ति, कर्म एवं ज्ञान योग का परम पवित्र संगम मानते थे !

बाबू के दिवंगत होने पर उनकी दिव्य स्मृति को अभिनंदित करते हुए मुनि जी महाराज ने उनकी दिव्यात्मा को प्रणाम करते हुए कहा -

"उनका प्रत्येक कर्म परमार्थ के लिए और अंतकरण की शुद्धि के लिए था"
"उनका जीवन श्री राम की भक्ति में श्री राम मय हो गया" तथा

"एक ज्योति जो जीवन पर्यन्त 
तेज और प्रकाश बिखेरती रही 
आज बुझ कर भी सुगंध दे रही है" 


[शेष  अगले आलेख में] 
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निवेदक: व्ही . एन. श्रीवास्तव"भोला" 
सहयोगिनी: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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बुधवार, 10 अप्रैल 2013

संत स्वभाव अधिग्रहण - कैसे ?

संत स्वभाव अधिग्रहण 
कैसे ?

हम स्वाध्याय करते हैं ,अपने अपने सम्प्रदायों के धर्मग्रंथों का अध्ययन करते हैं और मत   के प्रचारकों के आध्यात्मिक अनुभव जनित संस्कारों का अनुसरण-अनुकरण करते है ; हम विद्वान और सिद्ध महापुरुषों के मर्मस्पर्शी ओजपूर्ण प्रवचन सुनते हैं ; हम उनके वन्शी-वायलिन , ढोलक-तबला ,बेंजो-सितार ,झांझ मजीरा और हारमोनियम आदि वाद्यों से सजे भक्ति भाव से भरे  पद सुनते  हैं और मंत्रमुग्ध हो कर झूम झूम कर नाचते हैं ! लेकिन ====

स्वाध्याय से उठते ही और प्रवचन पंडाल से घर वापस आते आते , मार्ग में ही हम भूल जाते हैं कि हमने क्या पढ़ा था और प्रवचन में क्या सुना था ! लेकिन , प्रियजन , हम  अपनी मा  के गर्भ में और उनकी गोद में उनके आंचल तले उनका सुमधुर पय पान करते समय जो वार्ता और जो गीत सुनते हैं वह हमे आजीवन विस्मृत नहीं होते !


गृहस्थ संत माननीय श्री शिवदयालजी -

"बाबू" का जीवन बालपने से ही मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्री राम के अलौकिक चरित्र से प्रभावित रहा ! शैशव में अपनी अम्मा की गोदी में , तुलसी कृत  "राम चरित मानस" के प्रेरणात्मक भक्ति उत्पादक प्रसंगों तथा हनुमान चालीसा को सुनना और सात  वर्ष की अवस्था में ही "गुरु दीक्षा" पा लेना ; तदोपरांत  सिद्ध साधू संतों के सत्संग का और उनके सान्निध्य का लाभ पाना , फल स्वरूप उनके चरित्र में अति सहजता से "संतत्व" के लक्षण" अवतरित  होना दैविक  कृपा का प्रत्यक्ष दर्शन ही तो है !

स्वाध्याय और सत्संगति से उपलब्ध संतत्व के  लक्षणों को शिवदयाल जी  आजीवन बहुमूल्य आभूषणों के समान अपने आचार -विचार और व्यवहार में  संजोये रहे ! पिताश्री के निधन के बाद भी वह अनेकों  सामाजिक और आध्यात्मिक संस्थानों से जुड़े रहे , यथा संभव उनकी सेवा करते रहे  ; घर पर साधु संतों का स्वागत करते रहे  ,आजीवन  महान संतों के दर्शन किये ,उनके सानिद्ध्य में रहें ,उनसे आत्मीयता बनाये रहेऔर उनसे मार्ग -दर्शन पाते रहे   !

श्री शिव दयालजी के चिंतन -मनन ,आचार-विचार-स्वभाव तथा उनके दैनिक व्यवहार एवं  कार्य कलाप पर तुलसीकृत मानस एवं श्रीमद-भगवद्गीता की अमिट छाप अंकित हुई ;जिसके कारण  वह सतत प्रबुद्ध और जागृत रहे  और  अपने आप को संयमित और नियंत्रित रख सके !

चलिए अब  कुछ हल्की फुल्की बात भी हो जाए ,अपनी आत्मकथा से ही कुछ सुनाता हूँ  :

नवम्बर २९ ,१९५६, दूल्हे - "भोला बाबू" [अर्थात मेरी ] बारात , "नख से शिख" तक पूर्ण रूप में ढकीं दुल्हिन "कृष्णा जी" के साथ विदा हो रही थी ! वायुमंडल में नर-नारियों की "सिसकियों" का तरल-सरल-संगीत हौले हौले प्रवाहित हो रहा था ! ऐसे में "कोमल चित अति दीन दयाल - "भोला बाबू" भी अपने आँसुओं का प्रवाह नियंत्रित न रख सके और 'स्थानीय सामूहिक सिसकी सम्मेलन' में सम्मिलित हो गये ! उस समय वहाँ उपस्थित , वधु के परिवार के मुखिया - पिता सदृश्य बड़े भाई शिवदयाल जी ने तुरंत ही अपनी जेब से एक सफेद रूमाल निकाला और  नये नये बहनोई बने -"भोलाबाबू" की सेवा में पेश कर दिया ! वधुपक्ष की सिसकियाँ तत्काल खिलखिलाहट में तब्दील हो गयीं ! भोले भाले वर महोदय थोडा लजाये लेकिन कुछ समय में ही उन्होंने , अपने को सम्हाल लिया !

आप इसे मेरी ओर से इस वर्ष की 'होली' का बचा खुचा [बासी ही सही] परिहास प्रसाद समझ कर स्वीकारें  , अनुग्रहित होउंगा !

 स्वजन  मुझे यहाँ ,अपनेआप पर , आप सबको , हंसाने की एक और बात याद आ रही है ,सुनादूं :रूमाल देने के बाद श्री शिवदयाल जी ने  एक पोटली मेरी ओर बढाई  ! दान दहेज के अभिशाप से  रंजित समाज का सपूत - 'मैं' तत्कालिक सोच के अनुरूप , मन ही मन प्रफुल्लित हुआ कि शायद साले साहब  कुछ धन राशि देकर अपनी  प्रिय बहन की उचित रख रखाव का आश्वासन मुझसे लेना चाहते हैं !  हाथ बढाते हुए ,मैंने लखनउवा तकल्लुफी अंदाज़ में कहा, --"अरे , भाई साहब इसकी क्या ज़रूरत है ? [ लेकिन मेरा हाथ आगे बढा ही रहा, इस डर से कि कहीं वो पोटली वापस न रख लें ] ! वह निराश न होंजाएँ, इस सद्भावना से मैंने समुचित मनावन के बाद वह पोटली स्वीकार कर ली !

सबके समक्ष मैं वह पोटली खोलना नहीं चाहता था [कारण आप समझ गये होंगे] अस्तु उसे किसी अन्य को सौंप कर  पाक साफ़ दिखने का प्रयास कर रहा था कि तभी एक होनहार वकील सदृश्य उन्होंने समझाया " आप सरकारी अफसर हैं ,आपको इस प्रकार बिना देखे किसी से कोई पोटली स्वीकार नहीं करनी चाहिए " ! एक बार फिर सिसकियों पर खिलखिलाहट हाबी हो गई !

अब आगे की सुनिए , पोटली खोल कर मैं अवाक रह गया ! उसमें नोटों का बंडल नहीं था ! इस पोटली में थी एक लघु पुस्तिका "उत्थान पथ"! यह पुस्तिका शिवदयाल जी ने  मेरे विवाह के अवसर पर सभी अतिथियों तथा स्वजनों में वितरित करने के लिए छपवाई थी !

उस  पुस्तिका में  श्रीमद्भगवद्गीता और रामचरितमानस से उद्धृत वो अमूल्य श्लोक , दोहे तथा चौपाइयां हैं जिनके पठन -पाठन ,मनन- चिंतन एवं आचरण में उतार लेने से अति सहजता से मानव जीवन का समग्र विकास होता है और उसके भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही उत्थान सुनिश्चित हो जाते हैं ! श्री राम परिवार की दैनिक प्रार्थनाओं में  उस पुस्तिका का पाठ अनिवार्य रूप से प्रतिदिन होता है !

बुधवार के रामायण पाठ में संतत्व के लक्षण युक्त वो अंश हैं जिनके व्यवहार में लाने से हम अपने जीवन में अति सहजता से ,सरलता ;विनम्रता ,मधुरता आदि सद्गुनों का समावेश कर सकते हैं , जिससे अन्ततोगत्वा हमारा भौतिक एवं आध्यात्मिक समग्र उत्थान सुनिश्चित हो जाता है !

आइये आपको तुलसी रामायण से , संतो के लक्षण गा कर बताऊँ :  





चलिए मैं आपको ,तुलसी के इन दोहे चौपाइयों का भावार्थ भी बता देता हूँ 

संत तुलसीदास ने संत स्वभाव का निरूपण करते हुए बतलाया है कि संत सतत सावधान रहता है , दूसरों को उचित सम्मान देता है ! वह अभिमान रहित और धैर्यवान होता है और अपने आचरण में अत्यंत निपुण होता है !

संत-जन  अपने कानों से अपना गुणगान सुनने में सकुचाते हैं और दूसरों के गुण सुनकर विशेष हर्षित होते हैं ! वे स्वभाव से "सम" और "शीतल" होते हैं ! वे किसी भी परिस्थिति में न्याय का परित्याग नहीं करते और अति सरलता से सभी से प्रेम करते है !

संतजन जप, तप, व्रत , दम, संयम और नियम में सतत रत रहते हैं और अपने गुरुजन , अपने इष्ट देव तथा विद्वानजन  के चरणों में विशेष प्रेम रखते हैं ! संतजन श्रद्धा , क्षमा , मैत्री, द्या ,मुदिता [प्रसन्नता] से युक्त होते हैं और उनके हृदय में अपने इष्ट - "प्रभु" के चरणों के प्रति  निष्कपट प्रेम होता है !

संतों को विवेक, वैराग्य ,विनय , विज्ञान [अर्थात 'परम तत्व' का ]तथा  पौराणिक ग्रंथों का यथार्थ ज्ञान होता है ! वे कभी भी दम्भ ,अभिमान तथा मद नहीं करते और भूल कर भी कुमार्ग पर पैर नहीं रखते !

संतों को उनकी निंदा और स्तुति दोनों ही एक समान प्रतीत होते हैं और उन्हें प्यारे प्रभु के चरण कमलों में अथाह  ममता होती है  ! वे सद्गुणों के धाम और सुख की राशि होते हैं ! ऐसे  सद्गुणों से सम्पन्न संतजन परमात्मा को अतिशय प्रिय होते हैं !

प्रियजन  ,हम ईश्वरीय सत्ता के किसी भी स्वरूप के विश्वासी हों ,हम परब्रह्म परमात्मा को चाहे  सगुण निराकार माने ,या निर्गुण निराकार माने अथवा 'सगुण साकार मांन कर उनके प्रति अपनी आस्था रखें ; चाहे हम उनके  किसी  भी स्वरूप के उपासक हों,  हमे ये जानना चाहिए कि ये सभी ईश्वरीय सत्तायें  केवल ऐसे ही जीवों से  प्यार करती हैं जो उपरोक्त "संतत्व के सभी लक्षणों"  से युक्त हों !

आज नव् वर्ष के प्रथम दिवस - ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिप्रदा पर हमारी हार्दिक बधाई स्वीकारें और प्यारे प्रभु से प्रार्थना करें कि सहजता से हमें संतत्व के उपरोक्त गुण प्राप्त हो जाएँ !  

[क्रमशः] 

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निवेदक: व्ही एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

संतत्व की साधना

आदर्श गृहस्थ संत के सतसंकल्प 
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संत महात्मा छोटी छोटी कथाओं के द्वारा जन साधारण को गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य समझा देते हैं ! मैंने वर्षों पूर्व एक महापुरुष के श्री मुख से ऎसी अनेक कथाएं सुनी थीं ! उनमे से एक जो मुझे आज भी याद है , आपको सुनाता हूँ :
  
एक किसान था  ,जिसने अपने जीवन के अंतिम दिनों में , अपनी भूमि पर सैकड़ों आम के वृक्ष आरोपित किये ! स्वजन सम्बन्धियों और मित्रों ने उससे पूछा कि " अब चलाचली की बेला  में" आप इतने सारे बृक्ष क्यों लगा रहें हो ? ! इस जीवन में  खाना तो दूर की बात है  आप तो इनके  फलों को देख भी नहीं पाओगे ,फिर आप इतना श्रम क्यों कर रहे हो ?

 उस किसान का उत्तर बहुत ही सारगर्भित था ! उसने कहा ,बाल्यावस्था में मैंने  जो भी फल खाए ,जिनके अमृत तुल्य रस का सदुपयोग किया , वे सब  बृक्ष मेरे पूर्वजों ने आरोपित किये थे !  उन की पुण्यायी और , उनके परिश्रम के फलस्वरूप मुझे वे मीठे फल खाने को मिले  ! मैं आज जो बृक्ष बो रहा हूँ उनके फलो का उपभोग भविष्य में , मेरे वंशज तथा गाँव वाले करेंगे !

इस छोटी सी कहानी द्वारा उन संत महापुरुष ने निसर्ग का एक अति महत्वपूर्ण नियम हमे समझाया -"निष्काम भाव से की हुई कोई भी क्रिया व्यर्थ नहीं जाती , उस क्रिया का सुफल , कभी न कभी , किसी न किसी  के काम आता ही है ! प्रागैतिहासिक काल के वैद्य सुषेण , धन्वन्तरी आदि द्वारा पहचानी जडी बूटियाँ तथा उनसे निर्मित औषधियां आज तक मानव का कल्याण कर रहीं हैं ,लाखों करोड़ों को जीवन दान दे रही हैं , मृतप्राय जीवों को संजीवनी शक्ति प्रदान कर रही हैं !

हाँ हम ,गृहस्थ संत माननीय शिव दयाल जी की चर्चा कर रहे थे ! वह हमारी धर्मपत्नी कृष्णा जी के पिता सदृश्य बड़े भाई थे ! उन्हें हम दोनों ही बड़े आदर तथा  श्रद्धा  से "बाबू"' कह कर पुकारते थे ! प्रियजन   उनकी जीवनी में  उपरोक्त कथा की सार्थकता  प्रत्यक्ष  रूप में बिम्बित हो रही है ! वह  आध्यात्मिकता के क्षेत्र में हमारे प्रथम मार्ग दर्शक थे !

आत्मोत्थान हेतु , उन्होंने अपने पूर्वजों एवं गुरुजनों द्वारा आरोपित वृक्षों से जो बीज मंत्र ग्रहण किये , वे थे : [१]. जीवन में अपना "लक्ष्य " निर्धारित करना [२]. लक्ष्य प्राप्ति हेतु दृढ़ संकल्प करना  [३]. स्वधर्म का अक्षरशः पालन करना  [४]  मन में 'प्यारे प्रभु' की स्मृति संजोये हुए कर्तव्य परायण बने रहना  !

बालकपन से ही शिवदयाल जी के पिताश्री ,उन्हें "महान" बनने को प्रोत्साहित करते रहें !पिताश्री उन्हें 'श्री मोती लाल नेहरू' के समान महान एडवोकेट तथा उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ एडवोकेट और न्यायाधीश के रूप में देखना चाहते थे ! पर जैसा आप जानते हैं कि हरि इच्छा से उनका यह स्वप्न साकार नहीं हो पाया ! शिवदयाल जी ने प्रेक्टिस चालू की और एक वर्ष के भीतर ही उनके पिताश्री परलोक सिधार गये !

ऐसे में शिवदयाल जी ने स्वयम ही अपना लक्ष्य निर्धारित किया और उसकी प्राप्ति हेतु  तन मन से जुट गये ! अपने चेम्बर में ,मेज़ के सामने , दीवार पर , ठीक अपनी आँखों के आगे एक तख्ती पर उन्होंने अपने नाम निम्नांकित आदेशात्मक संदेश लिख रखा था :
 
प्रभु ने मुझे इस धरती पर महान बनने के लिए भेजा है ! 

मेरे संकल्प , मेरे विचार ,मेरे कार्य सभी महान स्तर के हों ! 

दूसरों के स्तर से हमे क्या लेना देना ?

अपनी अपनी करनी ,अपने अपने साथ ! 

सबके काम आऊँ ,किसी से कुछ न चाहूँ  !

"शिवदयाल"


उपरोक्त संकल्प उस होनहार पौधे के थे जिसे 'खिजां' ने पनपने से पहले ही सुखा देने की जुर्रत की थी ! इस  पौधे का नाम पिताश्री "परमेश्वर" ने रखा था "शिव" और उनके   नाज़ुक कंधों पर अपनी "कच्ची" गृहस्थी का पूरा भार डाल कर ,अल्पायु में अपने लोक प्रस्थान कर गये थे !

शिवदयाल जी के पिताश्री "परमेश्वर दयाल जी" दयालुता के साकार स्वरूप थे !  उनके देहावसान के पूर्व उनकी मित्रमंडली तथा उनके परिवार का कोई भी व्यक्ति यह नहीं जानता था कि अपनी कमाई का कितना भाग वह अनाथ, असहाय, व निर्धन बालिकाओं के विवाह पर , साधनहीन मेधावी अनाथ बच्चों की पढाई की व्यवस्था करने में तथा  अपाहिज  भिक्षुओं  तथा  निर्धन रोगियों के इलाज में व्यय करते थे ! परिवार तो बड़ा  था ही उस पर घर में आने जाने वाले , दूर के और नजदीकी  रिश्तेदार भी कम न थे ! दो चार रिश्तेदारों के बच्चे साल साल भर यहीं घर पर रह कर उनके संरक्षण  में अपनी स्कूली पढाई पूरी करते थे !  इसके अतिरिक्त उन्होंने लोक कल्याण हेतु अपने नगर "मुरार"की प्रथम सार्वजनिक पुस्तकालय व वाचनालय [ Public Library / Reading room ] की स्थापना की , विधि सम्बन्धी हिन्दी के सर्वप्रथम "शब्द -कोष"  बनाने का बीडा उठाया  !

ऐसे कर्मठ , परोपकारी ,जनसेवक पिताश्री के असामयिक निधन पर २२-२३ वर्ष की छोटी  अवस्था में ही ,अचानक  विरासत  में मिले उपरोक्त सभी  पारिवारिक  एवं सामजिक उत्तरदायित्वों को - "योग़ : कर्मसु कौशलम" की पृष्ठभूमि  पर लोह-अक्षरों में अंकित  करके  श्री शिव दयालजी  ने युवावस्था में ही अपने लिए सत्य और धर्म की राह निश्चित कर ली !  गुरुजनों से प्राप्त  मार्गदर्शन एवं आत्मचिंतन से उन्होंने 'दैविक संस्कार' ग्रहण किये तथा जीवन की दिशा निर्धारित की,  एवं कर्मठ योगियों के समान जीवन जीने का संकल्प लिया !

यह कैसे सम्भव हुआ :

पिताश्री परमेश्वर दयाल जी ने अपने सात वर्षीय ज्येष्ठ पुत्र  शिव दयाल को  अयोध्या स्थित गुरुद्वारा "ऋश्याश्रम रानुपाली" के महंत बाबा नारायणरामजी से दीक्षा दिलवा दी ! यह पन्थ बाबा गुरु नानकदेव जी  के ज्येष्ठ पुत्र बाबा "श्रीचंदजी" ने स्थापित  किया  था ! शिवदयाल जी की मां श्रीमती गिरिजेश्वरी देवी ( ब्रह्मलीन हो जाने के कारण जिनका प्यार-दुलार इन्हें केवल ११ वर्ष तक ही मिल पाया } ने  बाल्यावस्था  में ही  तुलसी के
' राम चरित मानस  का  "राम-हनुमान-मिलन" प्रसंग सुनाकर उन्हें "परब्रह्म राम" की व्यापकता तथा उनके  निष्काम सेवक श्री हनुमान जी की अनन्य भक्ति से परिचित करवाया तथा इनके चरित्र से  विनम्रता, अनुशासन , कर्तव्य परायणता , पितृ भक्ति , सेवा-सिमरन  आदि  जीवन मूल्यों के बीज बो दिये  !

इसके अतिरिक्त परिवार में पूर्वजों के समय से ही सिद्ध महापुरुषोंके आने जाने से श्री शिव  दयाल जी को शैशव से  ही अनेकानेक महात्माओं का सान्निध्य प्राप्त  हुआ ! इन   सत्संगों का भरपूर लाभ इन्होंने  उठाया ! उन्होंने सब से कुछ न कुछ सीखा  ! भ्रमर की भंति सबसे मकरंद संचित किया ,जीवन का प्रेय और श्रेय निर्धारित किया ,जीवन को  साधनामय  बनाया और फिर उसका सुरस स्वजनों में वितरित किया ,परिवार के सदस्यों में मानवीय मूल्यों का बीज आरोपित किया !

गृहस्थ संत श्री शिव दयालजी ने पूर्वजों से , संस्कार से ,रूचि से ,कर्मभूमि से ,स्वाध्याय से ,संत-समागम से जो जाना ,समझा ,माना ,आचार-व्यवहार में उतारा , अपनी निष्ठा ,समर्पण और अथक प्रयास से चरितार्थ किया वही  सर्वहितकारी  बीज बन गया ,भावी पीढ़ियों के लिए आदर्श पथ प्रदर्शक ! अन्ततोगत्वा यह उनकी अपनी पहचान बन गया !


प्रियजन हमने श्री शिव दयालजी  के जीवन में चरितार्थ होते देखा है प्रज्ञाचक्षु स्वामी शरणा नंदजी महाराज  के इस वक्तव्य को  कि "कर्तव्य निष्ठ होने से कर्तव्य परायणता फैलती है ! समझाने से नहीं ,उपदेश से नहीं ,शासन करने से नहीं ,भय से नहीं ,प्रलोभन देने से नहीं "


गृहस्थ संत माननीय शिव दयालजी की मान्यता थी कि
१] महान बनना है तो महान विचार रखो ,महान कार्य करो ,और महान व्यवहार करो,
२] विनम्र बनो ,
३] कुसंग से  बचो
४] करनी में सावधान रहो ,
५] परचर्चा मत करो , परनिंदा होगी ही नहीं
६] चरित्रवान बनो
७] त्याग और सेवा से महान कार्य करने वाले महापुरुषों के पद चिन्हों का अनुकरण करो !८] गुरुजनों के आशीर्वाद लेते रहो

स्वयम वे सबको आशीर्वाद देते थे ---" महान बनो "

उनका कथन था  कि महात्मा गांधी और डा-राजेन्द्र प्रसाद सत्य ,अहिंसा ,सेवा ,निर्मलता ,सरलता ,विनम्रता व-आस्था और न्यायोचित कर्तव्यनिष्ठता के पथ पर चलकर अपने युग के महानतम पुरुष हुए ! इन्हें मानवता युगों युगों तक भूल नही पायेगी !

इतिहास साक्षी है कि महान व्यक्तियों ने  मानवीय मूल्यों को व्यावहारिक  बनाकर लोक कल्याण का बीज बोया है ! 

"प्रभु ने हमे अलौकिक विवेक इसलिए दिया है कि हम अपने दोषों को जानकर अपने आपको ,न्याय पूर्वक निर्दोष बनालें !" अपने अन्तःकरण की शुद्धि के लिए तथा महानतम दिव्य जीवन जीने के लिए वे इस कसौटी पर स्वयम अपने को  परखते रहते थे -------वह अपनी  दिनचर्या की   समय सारिणी  बना कर,  अमल करते रहने के लिए हर घड़ी अपनी आँखों के सामने  उसको अपनी मेज़ पर  रखते थे ! पहले बता चुका हूँ कि अपने आचरण को सतत  संत स्वभाव में ढालने के लिए उन्होंने तुलसी का यह पद " कबहुक हों यह रहनी रर्होंगो " फ्रेम करवा कर अपनी मेज़ के सामने लगा रखा था !

स्वामी विवेकानंद ने कहा था "जब तक जियो ,सीखो "
श्री शिव दयालजी का सूत्र था कि उपरोक्त सूत्र में यह जोड़ लो "जो सीखो ,वैसा जियो "
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निवेदक : व्ही. एन.  श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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