शनिवार, 31 दिसंबर 2011

नये वर्ष का सन्देश

नववर्ष २०१२ के शुभागमन पर 
हार्दिक मंगल कामनाएं 
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३१ दिसम्बर २०११ - लीजिए २०११ का अंतिम दिवस भी आ ही गया ! अभी यहा यू एस ए.  में नहीं आया नववर्ष , किन्तु पिछले १२ घंटों में कहीं न कहीं - संसार के किसी न किसी कोने से , नये वर्ष के शुभारम्भ के समाचार आते रहे हैं !

मैं यहाँ ,जब यह लिख रहा हूँ (३१/१२ के दिन के डेढ़ बजे) तब तक शायद  भारत में भी नये वर्ष - २०१२ ने दस्तक दे ही दी होगी ! सो  -

सब भारत वासियों को 
वर्ष २०१२ के प्रथम दिवस पर हमारी 
हार्दिक बधाई !
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आज की हमारी 
विशेष शुभ कामना 
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लोकपाल, यदि आज नहीं तो कल निश्चय ही आयेगा 
नही  मिला ग्यारह में तों  फिर बारह में मिल जायेगा

कब तक झूठ-फरेब ,सत्य को टालेगा झुठलाएगा  
एक दिवस होगा जब झूठा मुँह काला कर जायेगा 

वे जो हमको लूट रहे थे कहाँ तलक छुप पायेंगे 
हथकंडों से बचे आज तक ,और नहीं बच पायेंगे 

जाग गए हैं भारतवासी, लोकपाल को आने दो 
  एक एक कर सभी लुटेरों  को काराग्रह जाने दो    

 R J D ,  B S P , कोंग्रेस  कोई ना बच पायेगा 
          करी कमाई जिसने काली वह तिहार में जायेगा 


B J P के भ्रष्ट सभासद भी अब ना बच पाएंगे  
तीसतीस चूहे खा बिल्ले कब तक खैर मनाएंगे  

करो प्रार्थना रब से जिससे बदले यह अटपटी व्यवस्था 
सत्यमेव जय कह कर कोई ना तोड़े जनजन की आस्था

"भोला" 

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श्री राम प्रेरणा से उपरोक्त संदेश लेपटोप पर बैठते ही आप से आप बनता गया !
लेकिन ऐसा लगता है कि अभी "वह" और भी कुछ लिखवाना चाहते हैं !
सो लिख रहा हूँ :
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आपके समान हम भी उस व्यवस्था के सताए हुए हैं ! 

१९५० से १९८९ तक लगभग ४० वर्षों तक भारत सरकार के "काजल की कोठरी" में रह कर    हमने भी झेला है वह जो आप अब तक झेल रहे हैं !

एक बात बताऊँ , बिना 'काजल की एक भी लीक' लगाये , मैं साफ सुथरा निकल आया !
ऊपरी आमदनी न कमाई , न खुद खाई और न मंत्रियों को पार्टी फंड के लिए दी 
,
फलस्वरूप दो दो वर्ष में तबादले हुए , अपने रोगी पिताश्री तथा ५ बच्चों की टीम के साथ 
हम दोनों स्वदेश व विदेश भ्रमण करते रहे !
लेकिन  
सर्वत्र आनंद ही आनंद लूटा ! 
यह है प्यारे प्रभु की कृपा !
यह "कृपा" उसे ही मिलती है जो सब प्रकार से अपने इष्ट पर निर्भर हो ,
मंत्रियों और अफसरों पर नहीं ! 
और जिसे किसी और का आश्रय न हो  
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निवेदन : व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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सोमवार, 26 दिसंबर 2011

हमारी अम्मा

हमारी अम्मा 
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जिसका परम धर्म  है "परहित",   जिसकी पूजा "परसेवकाई" 
काबा काशी "तन" है जिसका "मन" जिसका शिवमंदिर भाई 

वह प्राणी  है परम   धार्मिक,  और वही है प्रभु को प्यारा  
जो जनजन से प्रीति करे है ,उर बहती जिसके मधु धारा  

परमसत्य जो जान गया यह,"प्रभु को केवल प्रेमपियारा" 
दोनों   हाथों  लुटा  रहा  "प्रभु"  अक्षय   प्रेमप्रीति  भंडारा 

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द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व ,अपने  जीवन के पहले ८-१० वर्षों में ,  [१९२९ से '३८-'३९ तक ] , हम अपने  बाबूजी के "राजयोग" का भरपूर आनंद लूटते रहे ! उन दिनों आलम यह था कि हर महीने के पहले रविवार की शाम बंगले के पिछवाड़े के "पेंट्री" के दरवाजे पर एक 'ठेला' खड़ा होता था , जिसपर  चार  बच्चों वाले  हमारे  बाबूजी अम्मा के छोटे से परिवार के लिए महीने भर की रसद लदी होती थी ! [ मित्रों ,तब तक "हम दो, हमारे दो" वाला नारा ईजाद नहीं हुआ था ]  !

बाबूजी के विश्वास पात्र ,घर के रसोइये , बलिया से आयातित , पंडित मोती तिवारी जी अपने सामने ही , कलक्टरगंज की आढतों से  अनाज के बोरे , शुद्ध देशी घी और सरसों तथा तिल्ली के तेल के बड़े बड़े कनस्तर ,तथा मसालों के कार्टन और विलायती चाय , होर्लिक्स ,ओवलटीन, क्वेकर ओउट्स ,तथा इंग्लेंड के "किंग जोर्ज द फिफ्थ" द्वारा सम्मानित ओरिजिनल ब्रितानिया कम्पनी के "डाइजेस्टिव" और "क्रीम क्रेकर" बिस्कुटों के टीन के सील बंद बक्से लदवाकर ,ठेले के साथ साथ पैदल चल कर बंगले तक लाते थे  !आपको यकींन नहीं होगा ,उस ठेले पर लदा वह सारा सामान [जिनिस] उन दिनों मात्र ६० चांदी के रुपयों में आ जाता था !  गजब की , सस्ती का जमाना था वह ! घी दूध की नदिया बहतीं थीं , अम्मा खुले हाथ खर्च करतीं थीं, इच्छानुसार दान दक्षिणा देतीं थीं , अपने परिवार के साथ साथ अडोस पडोस के जरूरतमंद लोगों को भी खिलाती पिलाती रहतीं थीं ! किसी प्रकार की कोई रोक टोक नहीं थी उनपर !

उन्ही दिनों  अम्मा ने  एक बार घाट के भिखारियों को बंगले पर लंगर खाने के लिए बुला लिया !  तबसे  बंगले  के आगे प्रत्येक मंगलवार को हनुमान जी  के नाम पर तथा शुक्रवार को  अल्लाह् के नाम पर भीख माँगने वालों की भीड़ जमा होने लगी  ! इस संदर्भ का एक मनोरंजक अनुभव बताऊँ :

मैं तों बहुत छोटा था , बड़े भैया कहते थे कि उन्होंने देखा था कि  मंगलवार को जो भिखारी "महाबीर जी " के नाम पर भीख मांगते थे ,उनमे से ही कुछ शुक्रवार को तुर्की टोपी पहन कर "अल्लाह" की दुहाई देकर ,भीख  का अपना डिब्बा आगे बढा देते थे ! उनकी तुर्की टोपी के नीचे से  हिंदुत्व की प्रतीक -"चुरकी" [नारद मुनि जैसी चोटी] निडर हो कर झांकती थी !

बाद में, मैंने भी एक गर्मी के दिन, ट्रेन से यात्रा करते समय देखा कि बाल्टी में पानी भर कर यात्रियों को जल पिलाने वाला ,चलता फिरता प्याऊ जिसे उनदिनों "पानी पांडे" कहा जाता था ,पानी पिलाता हुआ जब रेल के इंजिन से गार्ड के डिब्बे की तरफ जाता था  तब उसके सिर पर गांधी टोपी होती थी और वह "हिंदू पानी. हिंदू पानी" की  आवाज़ लगाता  था और वही व्यक्ति जब गार्ड के डिब्बे से इंजिन की ओर वापस जाता था तब वह "तुर्की"  टोपी लगा कर "मुस्लिम पानी " की आवाज़ लगाता था ! बाल्टी वही थी , पानी वही था , मग्गा लोटा भी वही था , एक टोपी बदल लेने से एक "खुदा का बंदा" ,एक "  ईश्वर अंश अविनाशी जीव" कभी हिंदू और कभी मुसलमान बन जाता था ! जेठ असाढ़ की तपती दोपहरी में मानव शरीर को जीवन प्रदान करने वाला "पानी" कभी गंगा जल सा पवित्र "हिंदू पानी" हिंदुओं की ,और कभी "आबे ज़म जम " बन कर हमारे मुस्लिम भाइयों की प्यास बुझाता  था !

किस  पचडे में पड़ गया मैं ? हाँ  हिंदू-मुस्लिम के इस झगड़े में पड़ने के पहले मैं  यह कह  रहा था कि परिस्थिति  चाहे अनुकूल रही या प्रतिकूल ,अम्मा का स्वभाव अपरिवर्तित रहा , उनकी पर-सेवावृत्ति और भरसक अधिक से अधिक भूखों की क्षुधा पूर्ति करवाने की प्रवृत्ति आजीवन  बनी  रही !

लेकिन  हुआ ऐसा कि दूसरे विश्वयुद्ध के शुरू होते ही, पासा पलट गया ! बाबूजी की कुंडली के सभी योगकारक ग्रह वक्री हो गए, जिसकी वजह से वे आर्थिक अभाव से ग्रसित हो गए ! मित्र-वेशधारी शत्रुओं ने उन्हें घेर लिया ! सब्ज़ बाग दिखा कर उनकी पीठ में छुरा भोंक दिया ! पल भर में हमारे "राज योग" पर शनि देव की गाज गिरी और हम सब के सपने चकना चूर हो गए ! बेचारे बाबूजी की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय हो गयी !

लेकिन ऐसी स्थिति में भी , बाबूजी ने अम्मा से उनकी दान-दक्षिणा में कोई कमी करने का आग्रह नहीं किया  और अम्मा तंगी की इस वास्तविकता से सर्वथा अनभिज्ञ रहीं ! वह धनाभाव के उन दिनों में भी अपने घर से परमट घाट के बीच के रास्ते के दोनों किनारों पर कतार से बैठे भिक्षुक बच्चों पर तथा गंगा घाट के संस्कृत  विद्याल्रय के अनाथ निर्धन विद्यार्थियों पर अपनी करूंणा पूर्ववत लुटाती रहीं ! परमटघाट  के सभी दूकानदार ,बाबूजी के समृद्धि  के दिनों से  परिचित थे ,अतएव प्रति मास के आरम्भ में वे घर आकर अम्मा द्वारा  खरीद कर निर्धनों में वितरित सामग्री  की कीमत ले जाते थे !

हमारी अम्मा 

उनका "परम धर्म" था "परहित", उनकी पूजा  "परसेवकाई" 
"काबाकाशी" था "तन" उनका "मन" ही था "हरि मंदिर"भाई 
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क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

माँ का आशीर्वाद

अन्तिम भजन 

[ दिसम्बर २०११ के संदेश के आगे]
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दिसम्बर १९६२ की तीसरी या चौथी तारीख की बात है ! हम भलीभांति जानते थे कि अम्मा के जीवन के केवल कुछ एक दिन ही शेष हैं !

हमे याद है कि कैसे उस सुबह , फेक्ट्री जाते समय अम्मा ने मुझे रोका और बड़े प्यार से अपनी आरामकुर्सी के हत्थे पर बैठा कर काफी देर तक मुझे खूब प्यार से निहारा !  उस घड़ी ,ममता की साकार प्रतिमा हमारी अम्मा का संवेदनशील हृदय मानों आँखों ही आँखों  मुझ पर अपना अमित स्नेह सलिल बरसा देना चाहता था !








उस समय जैसे ,उनकी अधखुली आँखों के झरोखे से झाँकतीं आंसुओं की बूँदें मेरे जीवन की सभी उलझनों को डुबो देने को मचल रहीं थीं ! अम्मा के उन आंसुओं में मेरे जनम जन्मान्तर के सभी पापों को धो देने की पूरी क्षमता थी ! उन अश्रुकणों में निहित प्यार को किसी भी सांसारिक पैमाने से नाप पाना असंभव था !

मैं उनकी प्यार भरी नजरों की भाषा बिलकुल समझ रहा था ! मैं जानता था वह क्या सोच रहीं थीं उस समय ! उन्हें अपने लाडले छोटे बेटे "भोलंग" के चेहरे पर उदासी की छोटी सी छाया भी नहीं देखी जाती थी ! "पर दुःख दुखी , सुखी पर सुख से" वाले स्वभाव की मेरीप्यारी अम्मा किसीभी , जी हाँ, किसी भी प्राणी को दुखी नहीं देख सकतीं थीं ! मैं तो सौभाग्य से उनका अतिशय प्रिय , दुलारा , छोटा वाला बेटा था !

मैंने बचपन में स्वयम देखा था और शायद पहले आपको एक बार बताया भी है कि कैसे अम्मा अपने बंगले की जमादारिन  की नवजात बिटिया 'मखनिया' तक की देखरेख और सेवा सुश्रूषा ,अपना नित्य कर्म - पूजा पाठ आदि छोड़ कर भी , उस समय करतीं थीं जब जमादारिन आस पास के दूसरी कोठियों में अपना काम किया करती थी !

कैसे वह द्वितीय विश्व युद्ध के जमाने की महंगाई और तंगी के दौरान भी ,[ जब बाबूजी की आर्थिक स्थिति बुरी तरह डांवाडोल हो गयी थी ] , बाबूजी के चोरी छुप्पे नित्य प्रतिगंगा घाट के भिक्षुकों को अन्न दान करतीं थीं !  यही नहीं , तीज त्योहारों पर , घाट पर स्थित वैदिक गुरुकुल के निर्धन विद्यार्थियों के छात्रावास में मिठाइयां पहुंचा कर उन अनाथ बच्चों के दिवस मिठास से भर देतीं थीं !

हाँ , अगले महीने के पहले सप्ताह में जब घाट का हलवाई मिठाइयों का बिल बना कर लाता था , और बाबूजी पूछते थे तो अम्मा अपनी सहज भोजपुरी भाषा में कहतीं थीं , " का खाली भोला गजाधर हमार लडिका बाडन , खाली ऊहे मिठाई खैहंन और कुल लडिका सब ना खैयें का ?" [ क्या केवल भोला-गजाधर ही हमारे बेटे हैं ? केवल वह ही मिठाई खाने के अधिकारी हैं? क्या और बच्चे मिठाई नहीं खा सकते ? ]

हमारी अम्मा, मंदिर-शिवालय भी जातीं थीं ! व्रत उपवास भी करतीं थीं ! कभी कभी घर पर भगवान श्री सत्यनारायण की कथा भी करवातीं थीं ! गाहेबगाहे संतों के प्रवचन सुनने के लिए घर से दूर सत्संगों में भी जातीं थीं !

लेकिन सड़क के किनारे भीख मांगते अनाथ बालकों के धूलधूसरित चेहरों पर खिची आंसुओं की रेखाओं को अपने आंचल से पोंछ कर, उन्हें कुछ खिला पिला कर, उनके उदास मुखमंडल पर प्रसन्नता की एक किरण बिखेरना , वह अपना सर्वोच्च धर्म मानती थीं !

सो ऎसी माँ अपने लाडले बेटे के मुख को कैसे उदास देख सकती है ? इशारे से ही उन्होंने पूछा "काहे उदास हो बेटा ? उदास नहीं ,उदासीन बनो !" अपनी कैंसर की भयंकर पीड़ा के प्रति पूर्णतः उदासीन बनीं वह ,मुझे भी अपने निश्चित पलायन के प्रति उदासीन बने रहने का संदेश दे रहीं थीं !

एक भेद की बात कहूँ, हमारी प्यारी अम्मा , हम चारों भाई बहनों से [ जो कोई भी सबेरे सबेरे उनकी पकड़ में आया उससे ] , प्रातः उठते ही ,प्रेम-भक्ति, शरणागति एवं वात्सल्य रस से भरे ,मीराबाई , तुलसीदास, सूरदास ,नन्ददास एवं  संत कबीर की भक्तिमयी रचनाएँ अवश्य सुनतीं थीं  ! बिना भजन सुनाये "पन पियाव" [ब्रेकफास्ट] नहीं मिलता था !  और हम उन्हें सहर्ष सुनाते भी थे - क्यूँकि  इस बहाने मैं अपनी छोटी बहन माधुरी  के रेडियो प्रोग्राम के भजन की धुन पक्की कर लेता और मधू का रियाज़ भी हो जाता था !

(१)
जागो बंसी वारे ललना जागो मेरे प्यारे ,

रजनी बीती भोर भयो है , घर घर खुले किवारे 
गोपी दही मथत सुनियत है ,कंगना के झंकारे  ,
जागो बंसी वारे ललना जागो मेरे प्यारे , 

मीरा के प्रभु गिरिधर नागर सरन आय को तारे  
जागो बंसी वारे ललना जागो मेरे प्यारे 

(२)
जागिये रघुनाथ कुंवर पंछी बन बोले 
जागिये रघुनाथ कुंवर पंछी बन बोले 

चंद किरण शीतल भयी, चकयी पिय मिलन गयी 
त्रिविधि मंद चलत पवन ,पल्लव द्रुम डोले 
जागिये रघुनाथ कुंवर पंछी बन बोले 

तुलसिदास अति अनंद निरखि के मुखारविंद 
दीनन को देत दान ,  भूषण बहुमोले 
जागिये रघुनाथ कुंवर पंछी बन बोले 

अथवा 
(३)
राम कृष्ण कहिये उठ भोर 
अवध ईश वे धनुष धरे हैं , यह बृज माखन चोर , 
राम कृष्ण कहिये उठ भोर 
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उन सागर में शिला तराई , इन राख्यो गिरि नख की कोर् ,
'नंददास' प्रभु सब तजि भजिये ,जैसे निरखत चंद चकोर 
राम कृष्ण कहिये उठ भोर  
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[ हमने इन भजनों को उस जमाने में इतना गाया, इतना गाया  कि उनके एक एक शब्द हमे अब तक याद है ! जी हाँ आज - अब भी , जब मैं दवाइयों के नशे में कभी कभी स्वयं अपना तथा अपने बालबच्चों  के नाम तक भूल जाता हूँ ]  

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परन्तु उन दिनों [नवम्बर -दिसम्बर १९६२ में] अम्मा हमसे कुछ और ही सुनना चाहतीं थीं  

आई गवनवा की सारी ,उमिर अबही मोरी बारी
साज सिंगार पिया ले आये और कहरवा चारी 
बम्ह्ना बिदर्दी अंचरा पकड़ के जोडत गाँठ हमारी 
भई हम सबका भारी 
  आई गवनवा की सारी ,उमिर अबही मोरी बारी
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कहत कबीर सुनो भाई साधो ,यह सब लेहू विचारी
अबके जाना बहुरि नहीं आना, करिलहू भेंट करारी
करम गति जाइ टारी

आयी गवनवा की सारी ,उमिर अबही मोरी बारी
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आप ही कहो मित्रों , कैसे सुनाते हम ,उस दशा में ,उनको ,
वास्तविकता दर्शाता यह करुण भजन ?
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अब तो इसके आगे कुछ लिखना भी मुश्किल लग रहा है ,
आश्वस्त हो कर फिर कभी लिखूँगा !
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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

मंगल भवन अमंगल हारी

राम नाम मुद मंगलकारी
विघ्न हरे सब पातक हारी
(अमृतवाणी)
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अब तो ऐसा लगता है जैसे यह भी भूल गया कि अंतिम सन्देश कब भेजा था ? क्या लिखा था उसमे मैंने ? एक बात और बताऊँ अभी अभी जब कम्प्यूटर चालू किया उस क्षण मुझे यह भी समझ में नहीं आ रहा था कि "नया सन्देश" कैसे शुरू किया जाता है ! कुछ समय लगा लेकिन शीघ्र ही "उन्होंने" कृपा कर दी , धीरे धीरे सम्हल गया ! कितनी कृपा है उनकी?
इतने दिनों तक , अपने "प्यारे प्रभु" के मूक आदेश का पालन करके मूक रहा और आज अब उनकी ही आज्ञा तथा कृपा से प्राप्त शक्ति के सहारे मुखर भीहो रहा हूँ ! जितना वह बोल रहे हैं उतना ही लिख रहा हूँ !

लगभग एक सप्ताह पूर्व जब लेखन रुका था , उन दिनों , हम दोनों के (कृष्णा जी और मेरे) मन में एक साथ ही यह प्रेरणा हुई थी कि अगला सन्देश अपने परम कृपालु ,"मंगल भवन अमंगलहारी - दसरथ अजर बिहारी" को "द्रवित "कर उनकी कृपा का आवाहन कर के शुरू करें , लेकिन हम वैसा नहीं कर सके ! मित्रों, विश्वास कीजिए कि उसके बाद हमने कितने ही ड्राफ्ट लिखने शुरू किये लेकिन हर बार अपना "मानुषी अहंकार", आड़े आया ! क्योंकि "उनसे" प्राप्त "प्रेरणा" को बलाए ताख डाल हम कुछ और ही लिखने लगे थे ! उसका फल यह हुआ कि हम शून्य के शून्य बने रहे !

प्रियजन !यूं तो प्रति प्रातः हम स्वामी जी महाराज की यह आदेशात्मक पंक्ति दुहराते हैं
"उत्तम मेरे कर्म हों राम इच्छा अनुसार" ,
पर आपने देखा ही , अक्सर हमसे अनेक कार्य "राम इच्छा" के प्रतिकूल हो जाते हैं !

सो आज - अब और अभी , हम "उनसे" प्राप्त "प्रेरणा-ज्योति" के प्रकाश से अपने " मानवी-अहंकार" के गहन अंधकार को मिटा कर "उनकी" इच्छानुसार ही आगे बढ़ें :

तुलसी ने मानस में मानवता को एक अमोघ मन्त्रात्मक सूत्र दिया है :
मंगल भवन अमंगल हारी , द्रवहु सु दसरथ अजिर बिहारी
इष्ट देव की अहेतुकी कृपा से इसी सूत्र की स्मृति जागी हमारे धूमिल मष्तिष्क पटल पर !

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आज से लगभग २५-३० वर्ष पूर्व कानपूर के प्रयाग नारायन शिवाले के प्रांगण के मंदिर में मुझे राम भजन गायन का सुअवसर मिला , जहां अमृतवाणी सत्संग के सभी सदस्यों के साथ मिल कर हमने तुलसी का यह पद गाया था ! प्रस्तुत है ३० वर्ष पूर्व गाया यह भजन :

राम
मंगल भवन अमंगल हारी , द्रवहु सु दसरथ अजिर बिहारी
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राम जपु, राम जपु , राम जपु बावरे ! घोर भव नीर महुं राम निज नाव रे!!
बावरे बावरे


एक हि साधन सब रिद्धि सिद्धि साधि रे ! ग्रसे कलि रोग जोग संजम समाधि रे !!
राम जपु - - - - - बावरे बावरे

भलो जो है पोच जो है दाहिनो जो बाम रे ! राम नाम ही सो अंत सब हीं को काम रे !!
राम जपु - - - - - बावरे बावरे

राम नाम छांड़ी जो भरोसो करे और रे , तुलसी परोसो त्यागि मांगे कूर कौर रे !!
राम जपु - - - - - बावरे बावरे
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निवेदक: व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

माँ का आशीर्वाद

मेरी प्यारी माँ
श्रीमती लालमुखी देवी
४९ वीं पुण्य-तिथि - दिसम्बर


कौन है वह जिसे अपनी माँ प्यारी नहीं लगती ? मुझे विश्वास है कि सम्भवत : आप भी मेरी भांति या मुझसे कहीं ज़्यादा ही अपनी माता को प्यार करते होंगे ! यदि ,किसी कारणवश , कोई अपनी माँ को प्यार नहीं कर पाता ,उस प्यारे पाठक से मैं अनुरोध करूँगा कि वह सबसे पहिले अपने आप को टटोलें, अपने आप में उस कमी को खोजने का प्रयास करे जिसके कारण वात्सल्य के उस दिव्य सुख से वह वंचित रह गया है ! वह अपनी उस कमी को दूर कर के देखे कि , उसकी "माँ" का वात्सल्य निर्झर कैसे अपने पुत्र पर , अपनी अपार प्रीति की वर्षा करता है और कैसे वह माँ पुत्र को अपने आशीर्वादों के आंचल से ढक कर उसके जीवन के भावी संकटों को टाल सकती है !
माँ केवल हमारी जन्मदात्री ,हमारे शरीर की निर्मात्री ही नहीं है ! भ्रूणावस्था से शैशव तथा युवा अवस्था तक वह हमारी पोषक है ,शिक्षिका है ,मार्ग -दर्शिका है ,! इसी दिव्य -गुण के कारण वेदों में कहा गया है" मातृ देवो भव "'भ्रूणावस्था से ही वह हमारी प्रथम गुरु है !
गर्भ में ही माँ ,सद्गुणों एवं सुसंस्कारों से हमे दीक्षित कर देती है ! असंख्य उदाहरण हैं इसके ! भगवान श्री कृष्ण के भांजे, अर्जुनपुत्र अभिमन्यू ने माता सुभद्रा के गर्भ में ही चक्रव्यूह भेदन का विज्ञानं सीख लिया था ! महर्षि वेदव्यास के पुत्र शुकदेवजी को भी गर्भ में ही समग्र वेद का तथा ब्रह्म तत्व का ज्ञान प्राप्त हो गया था ! ये कथा तो आप जानते ही होंगे !
प्रियजन , हम भी अभिमन्यू एवं शुकदेवजी की तरह अपनी माँ के उदर से ही कुछ न कुछ ज्ञान अर्जित करके इस धरती पर उतरे हैं ! नगण्य समझ कर हम उस ज्ञान और संस्कार के बीज को कोई महत्व न देकर अपने जीवन को पूरी तरह से ,आधुनिक ज्ञान विज्ञानं के रंगों में रंग देते हैं और उन्हीं को अपने उत्थान का श्रेय देते रहते हैं !यहाँ तक कि कभी कभी हम माँ से प्राप्त उन बुनियादी संस्कारों की भी उपेक्षा कर देते हैं जो हमने गर्भ से लेकर शैशव तक उनकी गोद में रह कर पाए हैं !
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[गतांक से आगे]
माँ के आशीर्वाद से - असम्भव भी सम्भव हो जाता है
मेरा अपना अनुभव
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पिछले अंक में, आशीर्वादों की उस मंजूषा की चर्चा की थी जो मेरी प्यारी अम्मा ने, ५ दिसंबर १९६२ से दो तींन दिन पूर्व मुझे दी थी ! अम्मा ने अपनी बिहारी धरती की ठेठ भोजपुरी लहज़े में केवल इतना कह कर कि "होखी ना " (अवश्य होगा) ,मेरे सौभग्य का पिटारा मुझे सौंप दिया था ! अम्मा के आशीर्वाद के उस पिटारे में वह सब तो था ही ,जिसकी प्राप्ति के स्वप्न मैं बचपन से देखा करता था ,उसके आलावा उसमें वह भी था जिसकी मुझे तब तक कोई कल्पना भी नहीं थी !
प्रियजन, आज ८२ वर्ष की अवस्था में भी मैं थोड़ा बहुत भौतिकवादी तो हूँ ही !युवावस्था में ,तब जब मैं ३३ -३४ वर्ष का था ,मुझमें स्वभावत : आज से कहीं अधिक भौतिक उपलब्धियों की चाह रही होगी ! सो उन दिनों मुझे भी आस पास का वैभवयुक्त संसार बहुत मोहता था ! फलस्वरूप , मेरे मन में भी सदा उन सब सुख सुविधाओं को पाने की लालसा बनी रहती थी जो आसपास के अन्य लोगों को उपलब्ध थीं !

हाँ , एक बात अवश्य थी कि मैं तब भी उतनी ऊंचीं उड़ाने नहीं भरता था जो मेरे कमजोर पंखों की क्षमता से परे थीं ! मैं कभी ये नहीं सोचता था कि एक पल भर में मैं एक सायकिल सवार "भोला" से बदल कर "सर पदमपत अथवा गौरहरि सिंघानिया" ,"मंगतूराम अथवा सीताराम जयपुरिया" या और कुछ नहीं तो , कम से कम "रावबहादुर रामेश्वर दयाल बागला" तो बन ही जाऊँ ! बात ऐसी थी कि इन लक्ष्मी पुत्रों की बड़ी बड़ी इम्पोर्टेड मोटर कारें , दिन में कम से कम दो बार तो निश्चय ही , मुझे मिडलैंड सायकिल कम्पनी के सौजन्य से मासिक किश्तों पर प्राप्त नयी ,हरी "रोबिनहुड" साईकिल पर हांफते हुए कचहरी की चढाई पर पछाड कर सरसराती हुई निकल जातीं थीं !

झूठ नहीं बोलूंगा ,कम से कम उन सुविधाओं का जिनका आनंद हम ,अपने बाल्यकाल में (जन्म से १०-१२ वर्ष की उम्र तक) उठा चुके थे , उन्हें दुबारा पाने की तीव्रतम इच्छा मेरे मन में तब भी थी ! १० वर्ष की अवस्था तक हम बड़े बड़े शानदार बंगलों और कोठियों में रहते थे ! १९३७ से १९३९ तक हम छावनी में गंगा तट पर स्थित एक चार एकड़ के प्लाट में बनी १२ कमरों वाली भव्य कोठी में रहे ! वह प्लाट इतना बड़ा था कि आज के दिन उसी में , उस पुरानी कोठी के साथ साथ एक बड़े से सरकारी सर्किट हाउस की इमारत भी खड़ी हो गयी है ! उसके पहले ७ वर्ष की उम्र तक हम सिविल लाइन्स के स्मिथ स्क्वायर के एक बड़े बंगले में रहते थे ! वह जीवन कुछ और था ! हम पिताश्री के साथ के अंग्रेजों , पारसियों ,मुसलमानों तथा भारत के भिन्न भिन्न प्रदेशों के पढ़े लिखे तबके के लोगों के बच्चों के साथ खेलते थे !पिताश्री के मित्र सिल्वर साहेब की पत्नी मेरी अम्मा की मित्र थीं ,साथ के बंगले में रहती थीं उनके कोई बच्चा नहीं था , वो अक्सर गोद में उठाकर मुझे अपने बंगले ले जातीं थीं और मुझे उनके पास , विलायत से आयी "मोर्टन" के चोकलेट का डिब्बा ही दे देतीं थीं ! 'मित्रा" साहेब के यहाँ के छेने के रसगुल्ले ; "सरदार गुरु बचन सिंह" के यहाँ का हलुए का कढाह प्रसाद जो प्रति रविवार आता ही था ; "एंन . के अग्रवाल जी" के घर की दाल बाटी और चूरमा ( जो पिकनिकों पर ही मिलती थी ) तथा अब्दुल हई साहिब के घी में तले मोटे मोटे चौकोर पराठे , मूलीगाजर का खटमीठा आचार और मीठे चावल (ज़र्दा) हमे बहुत प्रिय थे !
सात वर्ष की अवस्था तक जीवन ऐसा था ! इसके बाद के तींन वर्ष तो और भी वैभव पूर्ण थे !

लेकिन उसके बाद पिताश्री के जीवन में बदलाव आया ! बेंक बेलेंस की आहट पाते ही उनके दुश्मन भी मित्र बनने लगे , मित्र रिश्तेदारी कायम करने लगे ! और सभी साथ साथ कारबार करने की सलाह देने लगे !
[आशीर्वाद मिलने के समय और उससे पहले की दशा से अवगत कराना आवश्यक था कि , जिससे आशीर्वाद के फलस्वरूप हुए चमत्कार से आशीर्वाद की सार्थकता समझ मेंआये ]
शेष अगले अंकों में
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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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रविवार, 4 दिसंबर 2011

दिसम्बर का पहला सप्ताह

माँ प्यारी माँ

महत्वपूर्ण - दिसम्बर का पहला सप्ताह

१९६२ के , दिसम्बर की ,शायद दूसरी या तीसरी तारीख़ थी ! हमारी प्यारी अम्मा , सूटरगंज ,कानपूर वाले घर की ऊपरी मंजिल के बाहरी बरामदे में आरामकुर्सी पर ,ध्यान की मुद्रा में बैठी , धूप खा रहीं थीं ! उस दिन मैं ,अनमने भाव से ,रोज की अपेक्षा थोड़ी देर से फेक्ट्री जाने के लिए निकला ! यह सोच कर कि , अम्मा नित्य की भांति मौन धारण कर अपने गोपालजी का ध्यान लगाये बैठी हैं ;मैं ,उनको बिना डिस्टर्ब किये उधर से चुपचाप निकल जाना चाहता था ! लेकिन ऐसा कर न पाया ! उनकी कुर्सी के सामने ठिठक कर खड़ा हो गया ! मेरा मन शंकाओं से जूझ रहा था ! क्या देर शाम , काम से लौटने पर भी अम्मा के इस सौम्य स्वरूप का ऐसा ही दर्शन कर पाउँगा ?

तभी अम्मा की बंद आँखे पल भर को खुलीं ! एक हल्की सी मधुर मुस्कुराहट से उनका प्यारा मुखड़ा खिल गया और उनकी चमचमाती दंत मुक्तावली उनके उस उम्र में भी देशी गुलाब की पंखुडियों जैसे लाल होठों के बीच से झाँकने लगी ! अम्मा के उस प्रेरणादायक स्वरूप ने बालपने से तब तक मेरा मार्ग दर्शन किया था ! जीवन के प्रति उतारचढाव में मैंने अपने आप को अपनी अम्मा के मुस्कुराते चेहरे से झांकते उनके मोती जैसे दांतों के निर्देशन के अनुरूप ढाल कर सदैव प्रगति ही की !

अम्मा के परमधाम गमन के दो दिन पूर्व मैं उनकी आराम कुर्सी से सट कर बैठा था

प्यारी अम्मा ने तब बड़े प्यार से मुझे हृदय से लगाकर अनेक आशीर्वाद दिये
अम्मा की भावभंगिमा से मैं समझ गया कि वह क्या चाहतीं थीं ! पहला यह कि मैं काम पर देर से क्यों जा रहा था ?और दूसरा यह कि घर में अचानक इतने मेहमान क्यूँ नज़र आ रहे थे ? कैसे कहता उनसे कि उन दिनों घर में ,जो कुछ भी हो रहा था वह सब का सब "उनके" अति चिंताजनक स्वास्थ्य के कारण हो रहा था ?
कैसे बताता उनसे यह सच्चाई कि --उस सप्ताह में ही किसी दिन 'वह' यह संसार ,यह घरबार ,यह परिवार छोड़ कर जाने वाली हैं ! शीघ्र ही हम चारों भाई-बहन अपनी प्यारी प्यारी माँ को खोने वाले हैं ! हमारे बच्चे रवी छवी शशि रूबी प्रीती मोना रामजी अपनी दादी के प्यार दुलार से सदा सदा के लिए वंचित होने वाले हैं और कैसे हमारे वयोवृद्ध पिताश्री अर्धशताब्दी से भी अधिक वर्षों की अपनी जीवन संगिनी से जल्दी ही हमेशा हमेशा को जुदा होने वाले हैं !कानपूर के सिविल सर्जन और मेडिकल कोलेज के कन्सल्टेंट डॉक्टरों ने पूरी जाँच पड़ताल कर के यह कह दिया था कि वह अब कुछ दिनों की ही मेहमान थी !
अम्मा कैंसर के एक अति द्रुतगामी प्रकार से जूझ रही थीं और उनका रोग अंतिम स्टेज तक पहुंच चुका था ! गिने चुने दो चार दिन ही अब उनके जीवन में शेष थे !
मैं कुछ क्षणों तक अवाक बैठा रहा ! अवश्य ही तब अम्मा ने मेरे चेहरे पर चिंता की गहरी रेखाएं उभरती देख ली होंगी ,क्यूंकि तभी मैंने देखा कि अम्मा के सदा मुस्कुराते चेहरे पर भी सहसा किसी अज्ञात आशंका की काली बदली घिर आई ! उन्होंने मुझे स्पर्श किया ! उनके स्पर्श की शीतलता से मेरा रोम रोम काँप गया ! मैं इस चिंता से व्याकुल हो गया कि माँ का शरीर शीतल हो रहा था !
उन्हें परमधाम लेजाने वाला विशेष विमान "ए.टी.एस" से लेंडिंग का निर्देश पाने की प्रतीक्षा में एयर पोर्ट के आकाश में बेताबी से मंडरा रहा था ! इस विचार से कि वह विमान किसी भी क्षण उतर सकता था और बोर्डिंग का आदेश पारित होते ही माँ उस विमान पर सवार हो - अपने गोपाल जी के धाम "गोलोक" की ओर प्रस्थान कर जाएंगी और ह्म कुछ न कर पाएंगे ,बस हाथ मलते रह जायेंगे मैं विचलित हो रहा था ! मेरी रूह कांप रही थी यह सोंच कर कि अगले किसी पल ही हमारे सिर से माँ की क्षत्र छाया छिनने वाली थी !
मन ही मन ,केंसर की भयंकर पीड़ा झेलते हुए अम्मा ने किसी को भी यह महसूस नहीं होने दिया कि उन्हें कितनी पीड़ा है ! हमे चिंतामुक्त रखने के लिए वह एक बार भी हमारे सामने पीड़ा से कराही नहीं ! कभी किसी ने उनकी आँखों से आंसू बहते नहीं देखे ! हम जब भी उनके सामने गए , वह हमे मुस्कुराती हुई दिखाई दी ! उस समय भी जहाँ माँ के ठंढे स्पर्श ने मुझे चेताया था कि अब अधिक विलम्ब नहीं है और मैं बुरी तरह घबडा रहा था अम्मा आराम कुर्सी पर बैठी मंद मंद मुस्कुरा रहीं थीं !
मुझे घबडाया देख कर माँ ने निकट ही खड़े बड़े भैया, उषा दीदी , और छोटीबहिन् माधुरी को भी पास बुला लिया और माहौल बदलने के लिए भोजपुरी भाषा में कहा "आज भजन ना होखी का ?" ! ( क्या आज भजन नहीं होगा ?)
उस सुबह हमने अम्मा को "श्री कृष्णा गोविन्द हरे मुरारे , हे नाथ नारायण बासुदेव " की धुन सुनाई और उन्होंने एकएक करके हम चारों को जी भर कर खूब सारे आशीर्वाद भी दिए ! मेरा तीसरा नम्बर था ! मैं अम्मा का छोटका, दुलरुआ लडिका जो था , हमेशा की तरह उन्होंने मुझे कसके चिपका लिया और इशारतन मुझे समझा दिया कि उन्हें मेरी सारी फर्माइशे ज्ञात हैं ,इसलिए बिना मुझसे कुछ पूछे ही उन्होंने मुस्कुराते हुए भोजपुरी में मुझे आशीर्वाद दे दिया , बोलीं "होखी ना,कूल वैसने होखी,जईसन तू चहिबा ! ("होगा, जरूर होगा , सब वैसा ही होगा जैसा तुम चाहोगे ) ! आत्मकथा के किसी अन्य प्रसंग में बता चूका हूँ - मेरे सपने असम्भव थे लेकिन वे सब असम्भव स्वप्न ,समय आने पर सत्य सिद्ध हुए ! मुझे ऐसी अप्रत्याशित सफलताएं हुईं जिनकी भविश्यवाणी किसी ज्योतिषी ने नहीं की थी और उनकी प्राप्ति के लिए मैंने कोई अनुष्ठान भी नहीं करवाये थे और न कोई कीमती नगीने ही धारण किये थे !
गुरुजनों के आशीर्वाद , प्यारे प्रभु की कृपा दृष्टि, अपना दृढ संकल्प, तथा कर्तव्य निष्ठां के अतिरिक्त मेरे पास कोई अन्य उपाय और साधन था ही नहीं ! अवश्य मैं इनकी प्राप्ति के लिए सतत अथक प्रयास करता रहा, प्रार्थना करता रहा और फिर प्रारब्ध को भी मेरे अनुकूल होना पड़ा ! मैंने वह सब पाया जिनकी प्राप्ति का आशीवाद मेरी अम्मा ने मुझे दिया था !

"प्रयास-पुरुषार्थ-परिश्रम"
"प्यारेप्रभु एवं गुरुजन की कृपा" तथा
"प्रार्थना" के सहारे जीव अपना भाग्य और प्रारब्ध भी बदल सकता है !
ये सुनी सुनाई नहीं है ,निज अनुभव से कह रहा हूँ मैं !
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निवेदक: व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

शरणागति

शरणागति

(गृहस्थ जीवन के शुभारम्भ से ही "प्यारे प्रभु" की अहेतुकी कृपा का अनुभव)

जीवन में समय समय पर आईं अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण मनुष्यों को सुख , दुःख , आनंद तथा ताप-संताप का अनुभव होता है ! कष्ट के क्षण मानव के मन को विचलित कर देते हैं और सत्य और धर्म की राह पर बढते हुए उसके कदम डगमगा जाते हैं ! परन्तु गुरुजन से आशीर्वादप्राप्त मानव को जीवन की हर सुखद या दुखद घटना में प्यारे प्रभु की कृपा का ही अनुभव होता है !

आज स्मृति की बीथियों में विचरती हमारी आँखों के सामने हमारे दाम्पत्य जीवन के पिछले ५५ वर्ष के वे मनोहारी चित्र जीवंत हो रहे हैं जो उस "महान-अदृश्य-चित्रकार" ने बड़े प्यार से हमारे जीवन के कैनवैस पर चित्रित किये और जिनका सुदर्शन हमे तब से लेकर आज तक आनंदरस प्रदान किये जा रहा है !

मैंने आत्म कथा में पहले भी कहा है कि हमे विवाहोपरांत अपने ससुराल से उपहार में मिली थी दैनिक-प्रार्थना की एक पुस्तिका जिसका नाम था "उत्थान-पथ" ! जो मुझको ही नहीं अपितु सभी स्वजन -सम्बन्धियों को उपहार स्वरूप दी गयी थी ! कृष्णाजी के भाई ,मेरे पितृतुल्य पूजनीय ब्रह्मलीन श्री शिवदयालजी द्वारा संकलित रामचरितमानस की चौपईयो और श्रीमद भगवदगीता के अनमोल श्लोकों में निरूपित सूत्रों से भरपूर इस पुस्तिका ने आजीवन हमारा आध्यात्म पथ प्रशस्त किया !

उत्थान पथ के दैनिक पाठ ने मेरे मन में सद्गुरु से मिलने की प्रबल इच्छा जगा दी और हमे सत्संगों में जाने की प्रेरणा हुई ! फिर धीरे धीरे सच्चे खोजी पर प्रभु की कृपा हो गई और मुझे सद्गुरु की शरण मिल गयी ! हमारी धर्मपत्नी कृष्णाजी तो पहले से ही महाराज जी से दीक्षित थीं ! हमारी जीवन गाड़ी के दोनों दृढ़ पहिये अब महराज जी द्वारा निर्धारित पथ पर चलने को सक्षम हो गए ! सद्गुरु की क्षत्र छाया में जो शांति मिली ,जो आनंद मिला ,वह बयां करना कठिन है ! :

सच्चे संत की शरण में ,बैठ मिले विश्राम !
मन माँगा फल तब मिले ,जपे राम का नाम !!
(भक्ति -प्रकाश )
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सन १९५९ में दीवाली की दोज से प्रारम्भ होने वाले ग्वालियर पंचरात्रि सत्संग में मुझे मेरे सद्गुरु स्वामी श्री सत्यानान्दजी महाराज मिले ! जिनके दर्शन मात्र से मैं कृतार्थ हो गया ! महाराज जी ने नाम-दीक्षा दे कर मुझे वास्तविक अध्यात्म का बोध कराया ,जीवन जीने की कला सिखाई ;परमकृपास्वरूप श्री राम के प्रेम में रंग कर हमारा जीवन राममय बना दिया ! महाराज जी के श्रीचरण आज तक मेरे जीवन का सम्बल है !स्वामीजी महाराज ने मुझे शरणागत साधक के रूप में स्वीकार किया और करुणा से भरा अपना वरदहस्त मेरे मस्तक पर रखा ,मैं धन्य धन्य हो गया !

सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि जो मुझे गुरुदेव के "कृपा-प्रसाद" से प्राप्त हुई , वह है ,अनेकानेक परमहंस संतों के दर्शन और उनके सान्निध्य का सुअवसर ! जिनमे स्वामी अखंडानंदजी ,स्वामी मुक्तानंद जी ,स्वामी चिन्मयानंदजी ,श्री श्री माँ आनंदमयी , श्री श्री माँ निर्मला देवी ,योगीराज श्री श्री देवराहा बाबा, अनंत श्री श्री राधाबाबा उल्लेखनीय हैं !इन संत-महात्माओं ने अपनी दिव्य दृष्टि से और अपने स्नेहिल आशीर्वाद से मुझे और मेरे परिवार को अनुग्रहित किया, ! हमें भी इन दिव्य आत्माओं के समक्ष भजन-कीर्तन की प्रस्तुति का अवसर मिला और इस प्रकार हम उन महात्माओं के श्री चरणों पर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित कर सके और उनका स्नेहिल आशीर्वाद और उनकी शुभकामनायें प्राप्त कर सके !
इतनी कृपा करी है प्रभु ने किस किसको मैं याद करूं
करुणासागर उनसा पाकर अब किससे फरियाद करूं

कह पाऊँ मैं सारे जग को तेरी कृपा गुणों की गाथा
ऎसी शक्ति बुद्धि दो दाता
रहूँ सदा तेरे गुण गाता

"भोला '

स्वामीजी महाराज की असीम कृपा की छत्रछाया में मैंने अपने पारिवारिक जीवन को जिया है! उनकी दी हुई नाम दीक्षा ने ,उनकी और इष्टदेव की परम कृपाने ;जीवन में पग पग पर आयी हुई सभी बाधाओं ,आपदाओं ;पीड़ाओं ,कष्टों ,रोगों ;शारीरिक व्याधियों को सहन करने के लिए और उन्हें दूर करने के लिए आत्म बल प्रदान किया है !

सद्गुरु या इष्टदेव के आशीर्वाद और प्रसाद से आप सभी को अधिक से अधिक उपलब्धियां हुई होंगीं और लाभ भी हुए होंगे ; आइये !प्रतिपल को मंगलकारी बनाने के लिए ,विघ्न बाधाओं से पार पाने के लिए ,जन जन के कल्याण के लिए ,आप भी मेरे साथ गायें ----

बोलो राम ,बोलो राम बोलो राम राम राम
राम नाम मुद् मंगल कारी विघ्न हरे सब पातक हारी
राम नाम शुभ शकुन महान ,स्वस्ति शांति शिवकर कल्याण
बोलो राम बोलो राम बोलो राम राम राम
(अमृतवाणी)

फरवरी २००५ में यह कीर्तन छोटे बेटे माधव ने जर्मनी में रिकोर्ड किया ===================================
क्रमशः
निवेदक: व्ही . एन.श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग:- श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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