मेरी प्यारी माँ
श्रीमती लालमुखी देवी
४९ वीं पुण्य-तिथि - ५ दिसम्बर
कौन है वह जिसे अपनी माँ प्यारी नहीं लगती ? मुझे विश्वास है कि सम्भवत : आप भी मेरी भांति या मुझसे कहीं ज़्यादा ही अपनी माता को प्यार करते होंगे ! यदि ,किसी कारणवश , कोई अपनी माँ को प्यार नहीं कर पाता ,उस प्यारे पाठक से मैं अनुरोध करूँगा कि वह सबसे पहिले अपने आप को टटोलें, अपने आप में उस कमी को खोजने का प्रयास करे जिसके कारण वात्सल्य के उस दिव्य सुख से वह वंचित रह गया है ! वह अपनी उस कमी को दूर कर के देखे कि , उसकी "माँ" का वात्सल्य निर्झर कैसे अपने पुत्र पर , अपनी अपार प्रीति की वर्षा करता है और कैसे वह माँ पुत्र को अपने आशीर्वादों के आंचल से ढक कर उसके जीवन के भावी संकटों को टाल सकती है !
माँ केवल हमारी जन्मदात्री ,हमारे शरीर की निर्मात्री ही नहीं है ! भ्रूणावस्था से शैशव तथा युवा अवस्था तक वह हमारी पोषक है ,शिक्षिका है ,मार्ग -दर्शिका है ,! इसी दिव्य -गुण के कारण वेदों में कहा गया है" मातृ देवो भव "'भ्रूणावस्था से ही वह हमारी प्रथम गुरु है !
गर्भ में ही माँ ,सद्गुणों एवं सुसंस्कारों से हमे दीक्षित कर देती है ! असंख्य उदाहरण हैं इसके ! भगवान श्री कृष्ण के भांजे, अर्जुनपुत्र अभिमन्यू ने माता सुभद्रा के गर्भ में ही चक्रव्यूह भेदन का विज्ञानं सीख लिया था ! महर्षि वेदव्यास के पुत्र शुकदेवजी को भी गर्भ में ही समग्र वेद का तथा ब्रह्म तत्व का ज्ञान प्राप्त हो गया था ! ये कथा तो आप जानते ही होंगे !
प्रियजन , हम भी अभिमन्यू एवं शुकदेवजी की तरह अपनी माँ के उदर से ही कुछ न कुछ ज्ञान अर्जित करके इस धरती पर उतरे हैं ! नगण्य समझ कर हम उस ज्ञान और संस्कार के बीज को कोई महत्व न देकर अपने जीवन को पूरी तरह से ,आधुनिक ज्ञान विज्ञानं के रंगों में रंग देते हैं और उन्हीं को अपने उत्थान का श्रेय देते रहते हैं !यहाँ तक कि कभी कभी हम माँ से प्राप्त उन बुनियादी संस्कारों की भी उपेक्षा कर देते हैं जो हमने गर्भ से लेकर शैशव तक उनकी गोद में रह कर पाए हैं !
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[गतांक से आगे]
माँ के आशीर्वाद से - असम्भव भी सम्भव हो जाता है
मेरा अपना अनुभव
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पिछले अंक में, आशीर्वादों की उस मंजूषा की चर्चा की थी जो मेरी प्यारी अम्मा ने, ५ दिसंबर १९६२ से दो तींन दिन पूर्व मुझे दी थी ! अम्मा ने अपनी बिहारी धरती की ठेठ भोजपुरी लहज़े में केवल इतना कह कर कि "होखी ना " (अवश्य होगा) ,मेरे सौभग्य का पिटारा मुझे सौंप दिया था ! अम्मा के आशीर्वाद के उस पिटारे में वह सब तो था ही ,जिसकी प्राप्ति के स्वप्न मैं बचपन से देखा करता था ,उसके आलावा उसमें वह भी था जिसकी मुझे तब तक कोई कल्पना भी नहीं थी !
प्रियजन, आज ८२ वर्ष की अवस्था में भी मैं थोड़ा बहुत भौतिकवादी तो हूँ ही !युवावस्था में ,तब जब मैं ३३ -३४ वर्ष का था ,मुझमें स्वभावत : आज से कहीं अधिक भौतिक उपलब्धियों की चाह रही होगी ! सो उन दिनों मुझे भी आस पास का वैभवयुक्त संसार बहुत मोहता था ! फलस्वरूप , मेरे मन में भी सदा उन सब सुख सुविधाओं को पाने की लालसा बनी रहती थी जो आसपास के अन्य लोगों को उपलब्ध थीं !
हाँ , एक बात अवश्य थी कि मैं तब भी उतनी ऊंचीं उड़ाने नहीं भरता था जो मेरे कमजोर पंखों की क्षमता से परे थीं ! मैं कभी ये नहीं सोचता था कि एक पल भर में मैं एक सायकिल सवार "भोला" से बदल कर "सर पदमपत अथवा गौरहरि सिंघानिया" ,"मंगतूराम अथवा सीताराम जयपुरिया" या और कुछ नहीं तो , कम से कम "रावबहादुर रामेश्वर दयाल बागला" तो बन ही जाऊँ ! बात ऐसी थी कि इन लक्ष्मी पुत्रों की बड़ी बड़ी इम्पोर्टेड मोटर कारें , दिन में कम से कम दो बार तो निश्चय ही , मुझे मिडलैंड सायकिल कम्पनी के सौजन्य से मासिक किश्तों पर प्राप्त नयी ,हरी "रोबिनहुड" साईकिल पर हांफते हुए कचहरी की चढाई पर पछाड कर सरसराती हुई निकल जातीं थीं !
झूठ नहीं बोलूंगा ,कम से कम उन सुविधाओं का जिनका आनंद हम ,अपने बाल्यकाल में (जन्म से १०-१२ वर्ष की उम्र तक) उठा चुके थे , उन्हें दुबारा पाने की तीव्रतम इच्छा मेरे मन में तब भी थी ! १० वर्ष की अवस्था तक हम बड़े बड़े शानदार बंगलों और कोठियों में रहते थे ! १९३७ से १९३९ तक हम छावनी में गंगा तट पर स्थित एक चार एकड़ के प्लाट में बनी १२ कमरों वाली भव्य कोठी में रहे ! वह प्लाट इतना बड़ा था कि आज के दिन उसी में , उस पुरानी कोठी के साथ साथ एक बड़े से सरकारी सर्किट हाउस की इमारत भी खड़ी हो गयी है ! उसके पहले ७ वर्ष की उम्र तक हम सिविल लाइन्स के स्मिथ स्क्वायर के एक बड़े बंगले में रहते थे ! वह जीवन कुछ और था ! हम पिताश्री के साथ के अंग्रेजों , पारसियों ,मुसलमानों तथा भारत के भिन्न भिन्न प्रदेशों के पढ़े लिखे तबके के लोगों के बच्चों के साथ खेलते थे !पिताश्री के मित्र सिल्वर साहेब की पत्नी मेरी अम्मा की मित्र थीं ,साथ के बंगले में रहती थीं उनके कोई बच्चा नहीं था , वो अक्सर गोद में उठाकर मुझे अपने बंगले ले जातीं थीं और मुझे उनके पास , विलायत से आयी "मोर्टन" के चोकलेट का डिब्बा ही दे देतीं थीं ! 'मित्रा" साहेब के यहाँ के छेने के रसगुल्ले ; "सरदार गुरु बचन सिंह" के यहाँ का हलुए का कढाह प्रसाद जो प्रति रविवार आता ही था ; "एंन . के अग्रवाल जी" के घर की दाल बाटी और चूरमा ( जो पिकनिकों पर ही मिलती थी ) तथा अब्दुल हई साहिब के घी में तले मोटे मोटे चौकोर पराठे , मूलीगाजर का खटमीठा आचार और मीठे चावल (ज़र्दा) हमे बहुत प्रिय थे !
सात वर्ष की अवस्था तक जीवन ऐसा था ! इसके बाद के तींन वर्ष तो और भी वैभव पूर्ण थे !
लेकिन उसके बाद पिताश्री के जीवन में बदलाव आया ! बेंक बेलेंस की आहट पाते ही उनके दुश्मन भी मित्र बनने लगे , मित्र रिश्तेदारी कायम करने लगे ! और सभी साथ साथ कारबार करने की सलाह देने लगे !
[आशीर्वाद मिलने के समय और उससे पहले की दशा से अवगत कराना आवश्यक था कि , जिससे आशीर्वाद के फलस्वरूप हुए चमत्कार से आशीर्वाद की सार्थकता समझ मेंआये ]
शेष अगले अंकों में
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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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