आज हम सब लुट गये
"प्यारे प्रभु " को ठग कहने की धृष्टता नहीं करूँगा , पर लूटे तो हम हैं हीं !
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कल जुलाई की पहली तारीख को मैं अकारण ही अपने आप को ,एक अजीब सी उदासी के आलम में भटकता हुआ सा महसूस कर रहा था !
प्रातः काल , नाश्ते के बाद कोठी के अगले भाग के खुले " पेटियो" पर कनेडियन राष्ट्रीय वृक्ष "मेपिल" की छाया में ,छूट पुट घटाओं तथा 'यू एस ए' के न्यू इंग्लेंड के ' ग्रीष्म - कालीन" प्रखर सूर्य किरणों की 'लुका छुपी' का आनंद लेते हुए खुले आकाश तले,आँखें मूंदें हुए आराम कुर्सी पर बैठा था ! पास में ही कृष्णा जी भी बैठी थीं !
"प्रेमा भक्ति " के गीत गाने वाला मैं उस समय जो भजन गुनगुना रहा था वे सब ही मेरी अपनी रचनाओं से बहुत भिन्न ,मृत्य लोक में जीव के आवागमन अथवा - मानव के जन्म मृत्यु विषयक थे !
प्रातः काल से ही मेरे मन में उन भावों का प्राबल्य था अस्तु बिस्तर छोड़ने से पहले मैंने उन्हें अपने ब्लॉग में टंकित कर लिया और उसके बाद ही ऊपर गया ! आप उत्सुक हैं जानने को तो लीजिए देखिये कि वे भाव क्या थे :
संत महापुरुषों का कथन है कि जीव को यह सूत्र निरंतर याद रखना चाहिए कि,उसे कभी, किसी एक निश्चित पल में इस नश्वर शरीर को जिसे वह भूले से चिरस्थायी माने हुए हैं एक न एक दिन ,इस संसार रूपी रैन बसेरे में ,निर्जीव छोड़ कर जाना ही पडेगा ! उसका अपना कहा जाने वाला 'बोरिया बिस्तर' यहाँ ही रह जाएगा ! उसके अपने कहे जाने वाले सब सम्बन्धी यहीं रह जायेंगे ! पिंजड़ा छोड़ कर जीव पंछी उड़ जायेगा !
प्रियजन , मैंने बचपन में , सुप्रसिद्ध गायक "के. एल .सैगल " साहेब द्वारा ,पिंजडा छोड़ कर जाने वाले एक पंछी विषयक भजन सुना था :
पंछी काहे होत उदास ? तू छोड़ न मन की आस ,
पंछी काहे होत उदास ?
पंछी काहे होत उदास ?
उठ और उठ कर आग लगा दे, फूंक दे पिंजरा पंख जला दे ,
राख बबूला बन कर तेरी, पहुंचे उन के पास ,
पंछी काहे होत उदास ?
देख घटाएं आई हैं वो ,एक संदेसा लाई हैं वो ,
पिंजरा तज कर उड़ जा पंछी , जा साजन के पास ,पंछी काहे होत उदास ?
उठ और उठ कर आग लगा दे, फूंक दे पिंजरा पंख जला दे ,
राख बबूला बन कर तेरी, पहुंचे उन के पास ,
पंछी काहे होत उदास ?
आपको अपनी ८३ वर्षीय घिसी पिटी आवाज़ में सुनाने की धृष्टता कर रहा हूँ ---
उसी जमाने [ १९३०-४० ] का "पंकज मल्लिक जी" का गाया हुआ एक बहुत प्रसिद्ध गीत भी याद आया था :
कौन देश है जाना , बाबू कौन देश है जाना ?
खड़े खड़े क्या सोच रहा है , हुआ कहाँ से आना ? ,
कौन देश है जाना , बाबू कौन देश है जाना ?
सांस की आवन जावन हरदम , यही सुनाती गाना ,
जीते जी है चलना फिरना , मरें तो एक ठिकाना
कौन देश है जाना , बाबू कौन देश है जाना ?
प्रियजन , लगभग ७० वर्ष पूर्व - मेरे पिताश्री को ये दोनों ही गीत बहुत प्रिय लगते थे ! तब वह न केवल बहुत धनाढ्य थे वे प्रतिष्ठा के भी उच्चतम शिखर को छू चुके थे ! बाबूजी मुझसे और मेरी बड़ी बहन - उषा दीदी से ये दोनों गीत अक्सर सुना करते थे ! इन गीतों का आध्यात्मिक अर्थ उस समय हमारी समझ में नहीं आता था लेकिन आज हम दोनों इनका अर्थ भली भांति समझ गये हैं !
मानव शरीर में जीव के आगमन तथा उसमें से जीव के प्रयाण की समूची कथा उपरोक्त गीतों में निहित है !
थोडा बड़ा हुआ तो कबीरदास जी की , " जीवंन-मरण " संबंधी , गंभीर भावनाओं और गूढ़ रहस्यों को सरल बोलचाल की भाषा में समझाने वाली रचनाओं का एक पिटारा हाथ लग गया ! हम प्राय: सत्संगों में संत कबीर की ये रचनाएँ बड़े चाव से गाते थे !
कल पहली जुलाई की सुबह मुझे वे सब भजन भी एक एक कर के याद आते रहे और मैं उन सभी भजनों को ,पेटियो की आराम कुर्सी पर बैठा , धीरे धीरे गुनगुनाता रहा !
- दो दिन का जग में मेला , सब चला चली का खेला
- मन फूला फूला फिरे जगत में कैसा नाता रे
- हम का ओढावत चदरिया चलती बेरिया
- कौनो ठगवा नगरिया लूटल हो
- आई गवनवा की सारी,उमिर अबहीं मोरी बारी
ये न पूछिए कि आज,लगभग एक महीने की खामोशी के बाद ,आपके इन बुज़ुर्ग ब्लोगर- बन्धु ने जब ,एक बार फिर लिखना शुरू किया तब अनायास ही वैराग्य के विचारों से ओतप्रोत जनम -मरण के रहस्य को अभिव्यक्त करने वाले कबीर के इन भजनों को गाने की और आपको सुनाने की इच्छा जागृत हुई ! अगले ब्लॉग के लिए एक साथ ही ५ - ६ भजन गा कर रेकोर्ड कर लिए और उनकी यू ट्यूब पर शूटिंग भी कर ली !
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और आज ( जुलाई २ ) की प्रातः श्री राम शरणं ,लाजपत नगर ,
दिल्ली से जो ह्रदय विदारक समाचार मिला
उसने पीड़ा के सब बाँध तोड़ दिए !
प्रियजन
इसके आगे अब कुछ भी नही लिख पाऊंगा केवल इतना ही कहूँगा ,
"आज हम लुट गये"
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निवेदक : व्ही . एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा श्रीवास्तव
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सहयोग : श्रीमती कृष्णा श्रीवास्तव
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4 टिप्पणियां:
गीत सुनकर मन मगन हो गया, आभार!
जीवन का सार कहती अच्छी प्रस्तुति
सच कहा एक दिन जाना है कब कहाँ और कैसे ये वो ही जाने।
आभार
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