गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

 सद्गुरु - कृपा 

इस दासानुदास- "भोला" पर 
सद्गुरु श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज की अनन्य कृपा 
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यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानाम सृजाम्यहम


श्रीमदभगवद्गीता में उच्चारित अपना उपरोक्त वचन अक्षरशःनिभाकर तथा मृत्यलोक  में अपने सभी कार्य सम्पन्न करके योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण ने अपनी सवा सौ वर्ष की  जीवन यात्रा समाप्त करने का मन बना लिया !

उधर देवलोक में देवगण अति आतुरता से प्रभु श्री कृष्ण के धरती से "स्वधाम" लौट आने की प्रतीक्षा कर रहे थे !

द्वारका में अपशकुन होने लगे ! बुज़ुर्ग यादवों ने द्वारकाधीश श्रीकृष्ण को सलाह दी कि अब ऋषियों द्वारा शापित "द्वारका" में रहना अनिष्ट कारक है अस्तु "प्रभास क्षेत्र" में बस जाना ही हमारे लिए  हितकर होगा !

समाचार मिलते ही श्री कृष्ण के मथुरा प्रवास काल से ही उनके अंतरंग सखा उद्धव जी उनके समक्ष पधारे ! उद्धवजी  रिश्ते में कान्हा के भाई ही नहीं वरन उनके अनन्य भक्त और उनके शिष्य सद्र्श्य थे !  व्यक्तित्व में वह  श्री कृष्ण के समान ही हृदय-ग्राही आकर्षण युक्त श्यामल स्वरूप के स्वामी थे !

श्रीकृष्ण ने अपने इन ज्ञान योगी मित्र उद्धवजी को अहंकार मुक्त करने हेतु मथुरा से ब्रिन्द्राबन भेजा था !  वहाँ ब्रिज की  विरहनी गोपियों ने उन्हें प्रेमामृत का रसास्वादन करवाया और उनके ह्रदय में प्रेम-भक्ति  का बीज आरोपित कर दिया था ! समय के साथ यह प्रेम बीज अंकुरित पुष्पित फलित होकर अब उद्धवजी के समग्र मानस को आच्छादित कर चुका था ! गोपियों के समान ही अब उन्हें कृष्ण का क्षणिक वियोग भी असह्य था !

ऐसे में बन्धु श्रीकृष्ण के देह त्यागने के  दुखद निश्चय को सुन कर उद्धव अति व्याकुल हुए ! वह समझ गये कि सर्वत्र धर्मराज्य के स्थापना हेतु कटिबद्ध श्रीकृष्ण  अन्याय अनाचार तथा अत्याचारों में व्यस्त अपने यदुवंश को किसी मूल्य पर क्षमा नहीं कर पाएंगे और "यादवों" का समूल संहार करके ही वह इस लोक का परित्याग करेंगे !

वह श्रीकृष्ण के समक्ष  अश्रुपूरित नेत्रों तथा अवरुद्ध कंठ से सिसक  सिसक कर बोले :  "कान्हा , बालपन से आज तक मैं एक मात्र आपकी छत्रछाया में  आपके साथ ,आपकी शरण में रहा हूँ ! आपसे विलग होकर मेरा न कोई अस्तित्व है और न कोई पहचान  !  आपही कहें आपके बिरह में मैं कैसे जी सकूंगा  ? कृपया मुझे भी अपने साथ ले चलिए !

उत्तर में , देवी-देवताओं के भी गुरु श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा :

परमगुरु योगेश्वर श्रीकृष्ण के अमृत वचन 

" प्यारे , जो मेरे साथ आया नही , वह मेरे साथ जा कैसे सकता है ?  
यह संसार एक रंगमंच है जिसमे सभी संसारी अपनी अपनी भूमिका निभा रहे हैं ! 
अपने किरदार के अनुरूप सब को मानव चोला [कोस्ट्यूम] मिला है ! 
सभी कलाकार नाटक की निदेशिका ठगनी "माया" [कोरियोग्राफर] के इशारों 
पर रोकर ,गाकर ,नाचकर अपनी अदाकारी पेश कर रहे हैं  ! 
नाटक की समाप्ति पर सब कलाकार अपने अपने घर चले जाएंगे ! 
मुझे अपने और तुम्हे अपने घर जाना पडेगा ! 
कोई भी किसी अन्य व्यक्ति के साथ न तो  आया है और न जा ही पायेगा !  
अस्तु मेरा तुम्हारा साथ भी असंभव है पर 
तुम्हे यह विश्वास अवश्य दिलाता हूँ कि ----
प्रियवर , 
तुम आर्तभाव से व्याकल होकर जब भी मुझे पुकारोगे ,
मुझे अपने साथ ही पाओगे !"

श्री कृष्ण के उपरोक्त कथन की सार्थकता का अनुभव आज तक प्रेमी संतों को हो रहा है  

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सद्गुरु  श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ने कहा  

अभ्यास के लिए अनंत बार नाम जाप  करना अनिवार्य है ! 

नामोच्चारण  पूरी तन्मयता  तथा  !  
अनन्यता ,अटूट विश्वास  ,और भरपूर श्रद्धा से किया  जाय !

सच्चे साधक के ह्रदय से उठी "नाम" पुकार  कभी अनसुनी  नहीं रहती  !

[निवेदक  के   जीवन में स्वामी जी के उपरोक्त  कथन की सत्यता अनेकों बार प्रमाणित हूई है] 

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निवेदक : व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : 
श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
तथा 
श्रीमती श्रीदेवी कुमार 
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