शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

विवेकानंद - शिकागो - 'विश्व सर्व धर्म सम्मेलन' में


नरेन्द्र नाथ दत्त  बने  स्वामी विवेकानंद  
( गतांक से आगे )

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वैदिक काल से आज तक की हजारों वर्ष की पुरातन भारतीय संस्कृति में "गुरु शिष्य" परम्परा के अंतर्गत "गुरु-शिष्य" संबंधों के अनेकों अनूठे उदाहरण मिलते हैं ! 

प्रागैतिहासिक काल में "राजा रहूगण " ने उनकी पालकी उठाने वाले कंहार "जड़ भरत" को अपना गुरु बनाया ; ऋषि श्रेष्ठ "दत्तात्रेय" ने  "पशु-पक्षियों" तक को अपना गुरु स्वीकारा !  इतिहास गवाह है कि "मीराबाई" ने चर्मकार "रैदासजी " से गुरुदीक्षा ली !

ऐसे अनूठे "गुरु- शिष्य" संबंधों की श्रुंखला में "रामकृष्ण ठाकुर" और उनके लोक प्रिय शिष्य "नरेंद्रनाथ" का "गुरु -शिष्य" सम्बन्ध अपने ढंग का एक अनूठा सम्बन्ध है ! प्रियजन , मेरे मतानुसार भारतीय "गुरु शिष्य" जोड़ियों की सूचि में सद्गुरु रामकृष्ण देव और शिष्य नरेंद्र नाथ की जोडी सर्वोच्च स्थान पाने की अधिकारिणी है !


क्या अनूठापन है इस जोड़ी में ?


आमतौर से ऐसा होता है कि "शिष्य" आँख मूंद कर "गुरु" की सिखावन स्वीकार करते रहते हैं ! नरेंद्र ऐसा न था ,किसी तथ्य को स्वीकार करने से पूर्व वह उसकी सत्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण देखना चाहता था ! उसके पास थी ,विभिन्न भारतीय आध्यात्मिक ग्रंथों के पठन-पाठन तथा ,अध्ययन-मनन से अर्जित ज्ञान की सम्पदा और विश्व के अन्य प्रमुख धर्मों के प्रचारकों के साथ तर्क वितर्क से प्राप्त जानकारी की पूंजी !

एक तरफ था  उन्नीसवीं शताब्दी की तत्कालिक आंग्ल्य [ ब्रिटिश ] मानसिकता से प्रभावित तथा अंगरेज अध्यापको द्वारा प्रशिक्षित नरेंद्र नाथ सा शिष्य और  दूसरी तरफ  थे पागल से दीखते ,अर्ध उन्मीलित नेत्र वाले कालीमंदिर के अशिक्षित पुजारी !  
दोनों ही अनूठे थे -शिष्य था 'परम सत्य' जानने की अतृप्त पिपासा-युक्त एक 'अति  -तार्किक' नवयुवक और 'गुरु' थे ' चिन्मय तृप्ति युक्त ' ,दिव्य सिद्धियों एवं प्रत्यक्ष ईश्वरीय दर्शन के अनुभवी तथा 'परम सत्य' के जानकार - कालीमंदिर के पुजारी परमहंस ठाकुर रामकृष्ण देव ,जिनमे यह क्षमता थी कि वह उन  दिव्य अनुभूतियों का साक्षात्कार अपने चुनिन्दा योग्य शिष्यों को स्वेच्छा से करवा सकते थे ! 

यहाँ शिष्य ने उन्हें गुरु नहीं माना परन्तु ठाकुर ने नवम्बर १८८१ की पहली मुलाकात के बाद ही नरेंद्र को मन ही मन अपना शिष्य स्वीकार कर लिया था ! शायद वह ये भी जानते थे कि उनके जीवन के अब थोड़े से दिन ही शेष हैं जिस कारण वह अपनी समग्र दिव्य शक्तियों को शीघ्रातिशीघ्र "नरेंद्र" में स्थानान्तरित कर देना चाहते थे !

आपने देखा कि कितना बेमेल था यह गुरु-शिष्य का जोड़ा !  दोनो के चिंतन में,  दोनों के स्वभाव में  जमीन आसमान का अंतर था !  दोनों के बीच ,उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव जैसी  दूरियां थीं ! अस्तु ठाकुर और नरेंद्र के बीच शुरुआती मुलाकातों में दीर्घ काल तक गुरु-शिष्य का सा पारंपरिक सम्बन्ध स्थापित नही हो सका  और जब हुआ भी तो वह सांसारिक भूमि पर बहुत ही अल्पकालिक रहा - फकत  ४-५ वर्ष का - नवम्बर १८८१ से अगस्त १८८६ तक !  

कालान्तर में 'नरेंद्र' ने भी परमहंस जी से अपनी सब आध्यात्मिक शंकाओं का उचित समाधान पा कर तथा उनकी सत्यता को अनुभव कर के स्वेच्छा से पूरी श्रद्धा विश्वास और समर्पण के साथ परमहंस ठाकुर रामकृष्णदेव को अपना आध्यात्मिक सद्गुरु स्वीकार कर लिया ! 

शिष्य के समर्पण के बाद , गुरु शिष्य सम्बन्ध स्थापित होते ही ठाकुर ने  निःसंकोच अपनी समग्र अलौकिक शक्तियाँ नरेंद्र में आरोपित कर दी ! उन्होंने स्पर्श, वाणी  एवं ध्यान की तीनों प्रक्रियाओं द्वारा नरेंद्र को दीक्षित किया और  जन्मजन्मांतर से संकलित अपनी सभी दिव्य क्रियाओं ,अलौकिक आध्यात्मिक शक्तियों को, सच पूछिए तो अपनी सम्पूर्ण साधना के प्रतिफल को अति उदारता से अपने इस सुयोग्य शिष्य में संचारित कर दिया ! 

रामकृष्ण देव को अपने इस विशिष्ट शिष्य से ऐसे कार्य करवाने थे जिसका लाभ केवल भारतीयों को ही नहीं बल्कि समग्र मानवता को मिले ! अस्तु नवयुवक नरेंद्र को उन्होंने अपनी निजी आराधना का यंत्र तथा अपने ध्येय की पूर्ति का साधन बनाया !  अपने इस शिष्य से उन्होंने  नर-नारायण सेवा को सम्पन्न करवाया,विश्व मंगल के लिए  ऐसे कार्य करवाए जिन्हें वह अपनी निरक्षरता जनित मजबूरियों  के कारण ,बहुत चाह कर भी ,स्वयम नहीं कर सकते थे !  

'नरेंद्र' ने ठाकुर के आदेशों का अक्षरश: पालन किया , उनकी इच्छाओं को ,उनके विचारों को अमली जामा पहनाया , उन्हें कार्यान्वित किया ! अपने गुरु के विश्वबंधुत्व , 'एकं ब्रह्म'  वं मानव सेवा के  चिंतन को समस्त विश्व में प्रसारित किया ! इस अभियान में ,परमहंस रामकृष्णदेव रहें "सिद्धांत यंत्री" और नरेंद्र बना उनका क्रियात्मक "यंत्र" !

१६ अगस्त १८८६ को परमहंस जी के ब्रहमलीन होने के पश्चात 'देवी माँ शारदामणि' के आदेशानुसार ,सर्वसम्मति से ,ठाकुर के सभी अनुयायियों ने, "नरेंद्र" को ठाकुर का उत्तराधिकारी मान लिया !  इस दायित्व को निभाते हुए नरेंद्रनाथ ने अपने सभी गुरु भाइयों को व्यवस्थित करने के लिए , 'गुरु माँ' के आशीर्वाद से, बंगाल के "वराहनगर'' में प्रथम "रामकृष्ण मठ" की स्थापना  की  !

'नरेंद्र' बने भिक्षु से संन्यासी 

दिसम्बर १८८६ में अनौपचारिक ढंग से और १८८७ में विधि विधान से संन्यास ग्रहण करने के बाद नरेंद्र ने 'मानव सेवा' का लक्ष्य साधा और गुरुदेव के चिंतन और सिद्धांतों को क्रियात्मक स्वरूप देने के उद्देश्य से वह संन्यासी बन कर भारत भ्रमण करने निकल पड़े !  इस भ्रमण में उन्होंने , वेदिक कालीन वास्तविक भारतीय दर्शन के आधार पर तत्कालीन भारतीय समाज में प्रचलित अस्पृश्यता, जातीयता ,साम्प्रदायिकता ,दरिद्रता व रूढिवादिता की भ्रांतियों को समूल मिटा देने का संकल्प किया ! 

इस भारत भ्रमण में जनता -जनार्दन ने उनकी आत्मीयता तथा मानव सेवा के व्यवहार से प्रभावित हो कर उन्हें "भिक्षु नरेंद्र " के स्थान पर "स्वामी" कह कर पुकारना प्रारम्भ कर दिया ! 
   

तरुण  सन्यासी 'नरेंद्र' बने 'स्वामी विवेकानंद' 

कालान्तर में माउंट आबू में स्वामी नरेंद्र की भेंट वर्तमान राजस्थान के तत्कालीन  खेतड़ी राज्य के राजा अजीत सिंह से हुई जो बाद में उनके शिष्य बन गये ! इन अजित सिंह के आग्रहात्मक विनय पर "नरेंद्र  ने उनके द्वारा प्रस्तावित "विवेकानंद" नाम स्वीकारा और इस प्रकार नरेंद्र बन गये "स्वामी विवेकानंद" !

कुछ समय बाद १८९३ में ,खेतडी नरेश की प्रेरणा ,प्रोत्साहन और व्यवस्था से स्वामी विवेकानंद , सात समुन्द्र पार 'उत्तरी अमेरिका' के नगर 'शिकागो' गये जहाँ उन्होंने Parliament of World Religions [ विश्व सर्वधर्म सम्मलेन ] में स्वदेश 'भारत' का प्रतिनिधित्व किया !  


[शिकागो सम्मेलन का विस्तृत वृत्तान्त अगले अंकों में प्रस्तुत करेंगे] 

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निवेदक: व्ही .  एन  . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती [डॉक्टर] कृष्णा भोला श्रीवास्तव .  
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4 टिप्‍पणियां:

Shalini kaushik ने कहा…

स्वामी विवेकानंद के बारे में जानना बहुत अच्छा लग रहा है मैं स्वयं भी स्नातक में इनपर निबन्ध लिखकर पुरुस्कार प्राप्त कर चुकी हूँ किन्तु तब भी बहुत सी बाते जो आप बता रहे हैं मेरे लिए नयी हैं .मैं आपकी ह्रदय से आभारी हूँ. सार्थक अभिव्यक्ति फाँसी : पूर्ण समाधान नहीं

Bhola-Krishna ने कहा…

धन्यवाद और आभार टिप्पडी के लिए ! आपका वह लेख कहाँ उपलब्ध होगा ?-भोला-कृष्णा

ZEAL ने कहा…

इस सारगर्भित आलेख के लिए बहुत बहुत घन्यवाद ! मैंने अपने बेटे को पढाया , उसे बहुत ज्ञान लाभ हुआ ! आप दोनों को चरण स्पर्श प्रेषित कर रहा है ! --प्रणाम

Bhola-Krishna ने कहा…

धन्यवाद जील जी !आपके पुत्र ने पढ़ा,जानकर प्रसन्नता हुई ! मेरा प्रयास सफल हुआ !उनके लिए ही लिख रहा हूँ ! वर्षों भटकने के बाद स्वयम मुझे ये गूढ़ तथ्य समझ में आये हैं !अब कोशिश कर रहा हूँ कि पौत्रों प्रपौत्रों को इनसे अवगत कराऊँ ! जीवन में अब क्षण कम ही बचे हैं , क्षमताएं भी घट रहीं हैं ,कितना कर पाऊंगा राम जाने ! आप सब को आशीर्वाद - 'भोला - कृष्णा'