स्वामी विवेकानंदजी की वाणी
अथाह है स्वामी विवेकानंद द्वारा रचित आध्यात्मिक साहित्य और असीम है उनकी रचनाओं मे संग्रहीत ज्ञान ! किसी ने ठीक ही कहा है कि उनकी समस्त रचनाओं के गूढ़ रहस्यों को साधारण मनुष्यों को समझाने के लिए कदाचित उन्हें ही एक बार फिर इस धरती पर अवतरित होना पड़ेगा !
प्रियजन , हमने तो सागर तट पर बैठे बैठे कुछ कंकर पत्थर बीन लिए और आपकी सेवा में प्रस्तुत कर दिए ! सागर की गहराई में पैठ कर ज्ञान के अमूल्य मोती ले आना इस उम्र में , हमारे सामर्थ्य के बाहर है ! गुरुजन की प्रेरणा से हमने अब तक लिखा है और जितना बन पायेगा आगे भी लिखते रहेंगे !
चलिए अब हम गतांक से आगे बढ़ें :-
आज हम आपके समक्ष स्वामी जी के विविध सम्वादों से संकलित उनके अनमोल वचनों को अपने शब्दों में प्रस्तुत कर रहे हैं ! हमारे कथन में भाषा भेद अवश्यम्भावी है ! हमारी कम अकली के कारण भाव भेद भी होंगे , जिनके लिए क्षमा प्रार्थी हैं हम !
मानव तुम सर्व प्रथम अपने आप को पहचानो ! तुम्हारी यह देह [यह नश्वर काया] "तुम" नहीं हो ! यह मानव शरीर, मात्र तुम्हारा वस्त्र है, परिधान है ! वास्तव में "तुम", वह सनातन चैतन्य "आत्मा" हो जो इस देह रूपी परिधान को धारण किये हुए है ! अविनाशी सूक्ष्म आत्मा का यह काया रूपी वस्त्र जड़ है , नाशवान है !
श्रीमदभगवदगीता के सांख्य योग के श्लोक - " वासांसि जीर्णानि -----नवानी देही " तथा "नैनं छिन्दन्ति ----मारुतः" का उल्लेख करते हुए स्वामी जी ने समझाया :-
जैसे पुराने वस्त्र तज कर मनुज नूतन वस्त्र धारे ,
[ मृत्योपरांत ]
जीर्ण तन को त्याग वैसे जीव भी नव् देह धारे !!
[श्रीमद भ.गीता, अध्याय -२ ,श्लोक २२ ]
--------------------------
[ अनश्वर आत्मा के गुण ]
आत्मा कटे ना शस्त्र से ,ना ये जले है आग से
ना सूखता यह वायु से, ना 'जल' गला पाए इसे !!
[श्रीमद भ.गीता ,अध्याय- २ ,श्लोक २३ ]
(भोला )
-----------------------------------
"आत्मा" न तो "पुरुष" है न "स्त्री"! न "हिंदू"' है , न "मुसलमान"'! न "यहूदी" है , न "पारसी" और न "ईसाई" ! वास्तव में आत्मा-"कर्म-प्रवर्तक" ,याज्ञिक और परम पवित्र, दैवी शक्ति से युक्त ऊर्जा है ! -----------------------------------
हमारा धार्मिक लक्ष्य है कि हम अपनी आंतरिक और बाहरी प्रकृति को नियंत्रित करके , सहज आत्मज्ञान द्वारा अति स्पष्टता से प्रत्येक आत्मा की असंदिग्ध दिव्यता को , पहचाने और स्वीकारें !
याद रखिये कि सभी धर्मगुरु आत्म ज्ञान की ईश्वरीय प्रेरणा तथा तत्कालिक मनोविज्ञान एवं दर्शन शास्त्र के अध्ययन से अपने अनुयायियों के लिए उचित कर्म काण्ड ,उपासना , आराधना तथा साधना की क्रियायें निर्धारित करते हैं ! देवी प्रेरणा से अनुसंधानित सब धर्मों के सभी मौलिक कर्म सार्थक हैं ! आत्मिक ज्ञान से उपजी कोई भी धार्मिक क्रिया निंदनीय नहीं है , निरर्थक नहीं है !
ये दूसरी बात है कि कालांतर में सभी धर्मों के बाह्य स्वरूपों में कुछ परिवर्तन हुए , वे प्रदूषित हुए परन्तु उनका मूल स्वरूप नहीं बदला है ! अस्तु आस्थावान सभी विश्वासी जनों को अपने अपने धर्म का पालन करते रहना चाहिए ! अन्य धर्मों के दोष देखने के बजाय अपने धर्म के पालन से ही मानव का कल्याण होगा !
मानव धर्म- के सनातन मूल सूत्र यें है ----
१. सिद्ध गुरु की कृपा से "परम सत्य" को जानना !
२. सत्य जानकर निजी आध्यात्मिक अनुभूतियों के आधार से सब प्राणियों को अपना मानना और सबसे "प्रेम" करना !
३. "प्रेम" के कारण मन में जागी "करुणा' से "परहित" करना और "सेवारत" होना !
४ अहिंसा का प्रतिपालन करना !
सभी "धर्मों" के सद्गुरुओं के सिद्धान्तात्मक उपदेश तथा उनके परम्परागत निर्धारित कर्मकांड ,उनके सदग्रन्थ और उनके मंदिर , मस्जिद , गिरिजाघर और गुरुद्वारे ,"सत्य ,प्रेम और करुणाजनित अहिंसा ,दया , क्षमा, सेवा ,परहित आदि मानवीय आचरणों को ही "मानव धर्म" की संज्ञा देते हैं !"
विश्व के लगभग सभी धर्मगुरुओं का कहना है कि " मनुष्यों द्वारा करणीय [करने योग्य] सब सत्कर्म ही मानव धर्म हैं "
अस्तु हे मानव कुशल कर्मों की सम्पदा अर्जित कर और उनके द्वारा अपना चित्त [मन] निर्मल कर ! निर्मल चित्त से किया हुआ प्रत्येक कार्य ही धर्म है ! इस धर्म के पालन से अन्ततोगत्वा मनुज अपना अभीष्ट प्राप्त कर लेगा ! तुलसी के ईश "राम" ने स्वयम ही कहा है , "निर्मल मन जन सो मोहि पावा , मोहि कपट छल छिद्र न भावा' !
अब संत शिरोमणी तुलसीदास जी की याद आगयी तो आइये सुन लीजिए तुलसीकृत रामचरित मानस में "मानव धर्म" के विषय में रामायण के दिव्य पात्रों द्वारा बोले कुछ अनमोल वचन , अपने इस दासानुदास "भोला" के स्वर में :-
मानव धर्म
धरम न दूसर सत्य समाना , आगम निगम पुरान बखाना !
परम धरम श्रुति विदित अहिंसा ,पर निंदा सम अघ न गरीसा !
पर हित सरिस धर्म नहि भाई , पर पीड़ा सम नहि अधमाई !
पर हित बस जिनके मन माही ,तिनकहु जग दुर्लभ कछु नाही !
साधू चरित शुभ चरित कपासू , निरस विसद गुनमय फल जासू
जो सहि दुःख पर छिद्र दुरावा , बंदनीय तेहि जग जस पावा
अघ कि पिसुनता सम् कछु आना , धरम कि दया सरिस हरि जाना
'निर्मल मन जन सो मोहि पावा , मोहि कपट छल छिद्र न भावा'
मनुज तुम अपनी नैसर्गिक दिव्यता को जानो, ! साधुता अपनाओ ! संत महात्माओं जैसे कर्म करो ! उनके "कपास" सदृश्य चरित्र से शिक्षा ग्रहण करो ! परछिद्रानुवेष्ण न करो ! इसके विपरीत , तुम साधुओं के समान , दूसरों के अवगुणों को अपने अस्तित्व की बाजी लगाकर भी , ढकने का प्रयास करो !
अस्तु प्यारे भाई बहनों तुम सर्वप्रथम अपने इस "आत्मिक स्वरूप " को पहचानो , अपनी दिव्यता पर विश्वास करो , अपनी सात्विक ऊर्जा को जानों और मानो ! प्रियजन विश्वास करो इस प्रक्रिया से तुम परमात्मा के अस्तित्व को जान लोगे और अपने इस मानव जीवन का "प्रेय" और "श्रेय" दोनों ही प्राप्त कर लोगे !
क्रमशः
====
निवेदक:- व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग :- श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
============================
हिन्दी भली भांति न पढ़ पाने वाले बंधुओं के लिए हम अंग्रेजी भाषा में
स्वामी विवेकानंद द्वारा शिकागो के विश्व धर्म सम्मलेन में दिए प्रथम भाषण
के कुछ अंश यहाँ उध्रत कर रहें हैं -
Swami Vivekanand 's Address to the
World Parliament of Religions (1893)
----------------------------------------------------
Sisters and Brothers of America.
[At this moment came the three minute standing ovation from the audience of 7,000]
- It fills my heart with joy unspeakable to rise in response to the warm and cordial welcome which you have given us. I thank you in name of the most ancient order of monks in the world; I thank you in the name of the mother of religions; and I thank you in the name of millions and millions of Hindu people of all classes and sects.
- My thanks also to some of the speakers on this platform who, referring to the delegates from the Orient, have told you that these men from far-off nations may well claim the honor of bearing to different lands the idea of toleration.
- I am proud to belong to a religion which has taught the world both tolerance and universal acceptance. We believe not only in universal toleration but we accept all religions as true. I am proud to belong to a nation which has sheltered the persecuted and the refugees of all religions and all nations of the earth. I am proud to tell you that we have gathered in our bosom the purest remnant of the Israelites who came to Southern India and took refuge with us in very year in which their holy temple was shattered to pieces by Roman tyranny. I am proud to belong to the religion which has sheltered and is still fostering the remnant of the grand Zoroastrian nation.
- I will quote to you brethren a few lines from a hymn which I remember to have repeated from my earliest childhood, which is every day repeated by millions of human beings: 'As the different streams having their sources in different places all mingle their water in the sea, so, O Lord, the different paths which men take through different tendencies, various though they appear, crooked or straight, all lead to Thee...
- The present convention, which is one of the most august assemblies ever held, is in itself a vindication, a declaration to the world of the wonderful doctrine preached in the Gita: 'Whosoever comes to me, though whatsoever form, I reach him; all men are struggling through paths which in the end lead to me.'
- Sectarianism, bigotry, and it's horrible descendant, fanaticism, have long possessed this beautiful Earth. They have filled the earth with violence, drenched it often and often with human blood, destroyed civilization, and sent whole nations to despair. Had it not been for these horrible demons, human society would be far more advanced than it is now.
- But their time is come; and I fervently hope that the bell that tolled this morning in honour of this convention may be the death-knell of all fanaticism, of all persecutions with the sword or with the pen, and of all uncharitable feelings between persons wending their way to the same goal.
1 टिप्पणी:
vivekanand ji kee vani ke sath tulsidas ji kee vani ,sone pe suhaga post.aabhar .बेटी न जन्म ले यहाँ कहना ही पड़ गया . आप भी जाने मानवाधिकार व् कानून :क्या अपराधियों के लिए ही बने हैं ?
एक टिप्पणी भेजें