स्वामी विवेकानंद ने गाया
"तुझसे हमने दिल है लगाया"
[गतांक के आगे]
अपनी प्रथम भेंट में ही परमहंस ठाकुर रामकृष्ण देव से 'दिव्य दृष्टि' पाकर 'नरेंद्रनाथ' ने विश्व के सभी प्रमुख धर्मों के अनुयाइयों द्वारा पूजित ,उनके 'इष्ट देवों" के भिन्न भिन्न स्वरूपों को ,निराकार "पारबृह्म परमेश्वर" की दिव्यता में प्रतिबिम्बित होते देखा ! ज्योति स्वरूप - "प्रभु" के उस मनमोहक सौंदर्य ने नरेंद्र को मंत्रमुग्ध कर दिया ! वह अपनी सुध बुध खोकर कुछ समय को समाधिस्थ सा हो गया !
इस अनुभव से उन्हें विश्वास हो गया कि समस्त मानवता का केवल "एक" ही ईश्वर है और यदि मानव अतिशय प्रीति ,श्रद्धा एवं विश्वास से अपने अपने इष्ट की आराधना करे तो वह निःसंदेह "उसका" साक्षातकार कर सक्ता है ! हिंदु अपने राम-श्याम-शिव के साथ परमेश्वरी माताओं के ,ईसाई अपने ईसामसीह के ,मुसलमान अपने अल्लाहताला के और सब जीवधारी अपने मन मंदिर में विद्यमान सत्यस्वरूप परमेश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं !
ईश्वर के वैसे ही आनंददायी ,हृदयग्राही दिव्य स्वरूप का दर्शन करके नरेंद्र अनेक बार आत्मलीन हुआ था ! प्रियतम प्रभु के ऐसे सामीप्य से रोमांचित होकर उसके रोम रोम से प्रार्थना के निम्नांकित शब्द स्वतः ही प्रस्फुटित होने लगते थे !
प्यारे प्रभु !
"कण कण में तू ही है समाया, जो कुछ है बस तू ही है"
इस समग्र सृष्टि के अणु अणु में मुझे केवल "तू ही तू" दीखता है
तेरे इस दिव्य सौंदर्य को देख कर मेंरी आंखें उसपर से हट नहीं रही हैं
मेरा तन मन जीवन सर्वस्व उस सौंदर्य पर न्योछावर हैं
मेरा दिल तुझसे लग ग़या है
तू मेरा सर्वस्व बन गया है
तेरे बिन इस जग में प्यारे मेरा और न कोई है
मेरा कहने को दुनिया में जो है बस इक 'तू' ही है
मेरे प्यारे प्रभु
"तुझसे मैंने दिल है लगाया जो कुछ है बस तू ही है"
अपने मन में ऎसी ही भावनाओं को संजोये नरेन्द्रनाथ कभी कभी गुरुदेव परमहंस ठाकुर के अनुरोध पर उन्हें भजनों द्वारा अपने हृदयोद्गार सुनाता जिन्हें सुनते ही गुरुदेव भी निज सुध बुध खो कर पूर्णतः ध्यानस्थ हो जाते थे !
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प्रियजन , मेरा अब तक का लेखन ,"पठन-पाठन-श्रवण" तथा टेलीविजन पर देखे सुने प्रवचनों से प्राप्त जानकारी के आधार पर हुआ है ! अब प्रेरणा हो रही है कि इसी संदर्भ के अपने कुछ निजी अनुभव आपके समक्ष पेश करूं :
लगभग ६५ वर्ष की आयु तक , रोज़ी रोटी कमाकर सांसारिक कर्तव्यों का निर्वहन करने में मैं इतना व्यस्त रहा कि मुझे , कुछ भी पढ़ने लिखने का सौभाग्य ही नहीं मिला ! ऐसे में मेरे लिए 'आध्यात्मिक ज्ञान' अर्जित करने का कोई सवाल ही नहीं था !
रिटायर होने के बाद लगभग ७४ वर्ष की आयु में .संन २००३ में यहाँ बोस्टन आने पर ,प्यारेप्रभु की कृपा और विधि के विधान से मुझे स्वामी विवेकानंद जी के जीवन पर आधारित ' नरेंद्र कोहली ' का उपन्यास "तोड़ो कारा तोड़ो" पढ़ने का सौभाग्य मिला ! कैसे ?
संभवतः यहाँ की बर्फीली बोरियत से हम दोनों को मुक्त कराने की सद्भावना से हमारी बड़ी बहू मणिका बेटी ने ,कदाचित अपने आराध्य "बाबाजी - गुरु नानकदेव" के प्रेरणात्मक निर्देश से , हम वह पुस्तक पढ़ने के लिए दी ! उस पुस्तक के पठन से मेरा कितना उपकार हुआ, मुझे बहुत बाद में समझ में आया !
वास्तव में इस ११ वर्षीय अंतराल में अनेकानेक चमत्कार हुए
एक मध्यरात्रि पढते पढते , उस उपन्यास में यह प्रसंग आया कि एक दिन [शायद २२ अप्रैल १८६६ को ] ,"नरेंद्र नाथ दत्त" ने परमहंस ठाकुर रामकृष्ण को [जनाब 'जफरअली' रचित] एक गीत सुनाया ,जिसका शीर्षक था ,"तुझसे मैंने दिल को लगाया जो कुछ है बस तू ही है" !
अब सुनिए कि इससे मेरे साथ क्या चमत्कार" हुआ
आपके इस भोले निवेदक के मन में उस उपन्यास में छपे , नरेंद्रनाथ दत्त द्वारा गाये उस गीत का शीर्षक पढते ही , "शब्द एवं स्वर" का एक अद्भुत गंगा-यमुनी ज्वार अनायास ही उमड पड़ा ! और उस प्रथम पंक्ति के आधार पर , बोस्टन की उस बर्फीली रात्रि में ,[अवश्य ही ईश्वरीय प्रेरणा से ] ,मेरे द्वारा 'धुन समेत' एक सम्पूर्ण भजन की रचना हो गयी !
इस भय से कि कहीं सुबह तक वे शब्द और वह धुन गुम न हो जायें ,कृष्णा जी ने ,उनकी तकिया के नीचे रक्खे पोर्टेबल केसेट रेकोर्डर पर ( जिससे वह रात में सोने से पहले, भजन कीर्तन और संतों के प्रवचन सुनती और मुझे सुनाती भी हैं ) ,वह भजन ,धुन के साथ ,तत्काल रेकोर्ड भी कर लिया !
आज मुझे विश्वास हो गया है कि परमहंस ठाकुर रामकृष्ण देव जी और उनके शिष्य श्री विवेकानंद जी की इच्छा से तथा सद्गुरु , डॉक्टर विश्वामित्र महाजन जी के आशीर्वाद जनित प्रेरणा से ,ऊपरवाले "परम कुशल यंत्री"-"प्रभु" के द्वारा संचालित होकर "भोला" नामक इस यंत्र ने उस गीत की शब्द तथा स्वर रचना की ! उसके बाद भी गुरुदेव कृपा वृष्टि करते रहे,एक के बाद एक चमत्कार होते रहें और एक एक कर के अनेको भजन बने और उनकी स्टूडियो रेकोर्डिंग हुई ! श्री राम शरणम लाजपत नगर ने मेरे उन भजनों के अनेक केसेट और सी.डी बनवाए , मेरी रचनाओं की एक पुस्तिका भी छपवाई तथा मुझे गुरुदेव डॉक्टर महाजनजी का अति स्नेहिल आशीर्वाद भी प्राप्त होते ता रहे !
आज स्वामी विवेकानंद जी की १५०वी जयंती के शुभ अवसर पर कदाचित स्वामीजी ही मुझे प्रेरित कर रहे हैं कि मैं आपको वह भजन सुनाऊँ - जिसका उल्लेख मैंने अभी किया है ,यह वही भजन है जिसकी प्रथम पंक्ति मैंने स्वामी जी की जीवनी में पढ़ी थी !
तुझसे हमने दिल है लगाया , जो कुछ है बस तू ही है
हर दिल में तू ही है समाया ,जो कुछ है बस तू ही है
तुझसे हमने दिल है लगाया , जो कुछ है बस तू ही है
तू धरती है तू ही अम्बर , तू परबत है तू ही सागर
कठपुतले हम तू नटनागर ,जड़ चेतन सब को हि नचाया
तुझसे हमने दिल है लगाया , जो कुछ है बस तू ही है
सांस सांस मे आता जाता ,हर धड़कन में याद दिलाता
तू ही सबका जीवन दाता, रोम रोम मे तू हि समाया
तुझसे हमने दिल है लगाया , जो कुछ है बस तू ही है
बजा रहा है मधुर मुरलिया , मन-वृंदाबन में सांवरिया
सबको बना दिया बावरिया ,स्वर में ईश्वर दरस कराया
तुझसे हमने दिल है लगाया , जो कुछ है बस तू ही है
[शब्द-स्वर : "भोला"]
प्रियजन सच पूछिए तो , मेरे द्वारा जब उपरोक्त रचना हुई ,उस समय स्वामी विवेकानंद जी के आध्यात्मिक- दर्शन के विषय में मेरा ज्ञान नहीं के बराबर था ! इस वजह से तब से आज तक मेरे जहन में बार बार यह प्रश्न उठता रहा कि स्वामी जी के विचारों से पूर्णतः अनिभिग्य होते हुए भी मैंने इस रचना में उनके आध्यात्मिक दर्शन का इतना सच्चा उल्लेख कैसे कर दिया ?
आज तक मेरे पास इस प्रश्न का एक साधारण उत्तर था , "शायद इत्तेफाक से" ,जो अब मुझे गलत लग रहा है ! आज अचानक मुझे यह विश्वास हो गया है कि ,मेरे प्यारे प्रभु ने ही मुझसे स्वामी जी के समग्र "आध्यात्मिक दर्शन; चिंतन-मनन" का सार समाहित किये वे शब्द लिखवाये थे !
अब हम भली भांति समझ गये हैं कि स्वामी जी को "मानवता" से कितना "प्यार" था ! मनुष्यों की छोडिये वह तो सृष्टि के कण कण से ही बेतहाशा प्यार करते थे ! वह प्रत्येक जीव में 'परमप्रिय प्रभु' के दर्शन करते थे , उनसे श्रद्धायुक्त प्रीति करते थे और उनकी सेवा भी करते थे !
परमेश्वर के प्रति उनकी "प्रीति" इतनी गहन थी कि अपने सद्गुरु ठाकुर के समान उन्हें भी मातेश्वरी के विग्रह में तथा वृन्दावन के सांवरिया, मुरली बजैया , कृष्ण कन्हैया की मूर्ति में और उनकी वंशी के स्वर में "परमेश्वर" का प्रत्यक्ष दर्शन होता था ! वह अपनी स्वास स्वास में तथा अपने हृदय की प्रत्येक धड़कन में दिव्य "ब्रह्मनाद" को प्रतिध्वनित पाते थे ! सप्तक के प्रत्येक 'स्वर' में वह ईश्वर का दर्शन करते थे !"
तभी तो उनके जीवन का एकमात्र आदर्श बन गया था "दरिद्र नारायण की सेवा" जिसे उन्होंने "धर्म" की संज्ञा दी !
उनका दृढ़ मत था कि, ईश्वर की प्रत्येक कृति में, सर्वग्य सर्वव्यापी परमेश्वर का दर्शन करते हुए उनसे गहरी प्रीति करना और उनकी सेवा करना ही मानव का "परम धर्म" है !वास्तव में "मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है" !
आज तक मेरे पास इस प्रश्न का एक साधारण उत्तर था , "शायद इत्तेफाक से" ,जो अब मुझे गलत लग रहा है ! आज अचानक मुझे यह विश्वास हो गया है कि ,मेरे प्यारे प्रभु ने ही मुझसे स्वामी जी के समग्र "आध्यात्मिक दर्शन; चिंतन-मनन" का सार समाहित किये वे शब्द लिखवाये थे !
अब हम भली भांति समझ गये हैं कि स्वामी जी को "मानवता" से कितना "प्यार" था ! मनुष्यों की छोडिये वह तो सृष्टि के कण कण से ही बेतहाशा प्यार करते थे ! वह प्रत्येक जीव में 'परमप्रिय प्रभु' के दर्शन करते थे , उनसे श्रद्धायुक्त प्रीति करते थे और उनकी सेवा भी करते थे !
परमेश्वर के प्रति उनकी "प्रीति" इतनी गहन थी कि अपने सद्गुरु ठाकुर के समान उन्हें भी मातेश्वरी के विग्रह में तथा वृन्दावन के सांवरिया, मुरली बजैया , कृष्ण कन्हैया की मूर्ति में और उनकी वंशी के स्वर में "परमेश्वर" का प्रत्यक्ष दर्शन होता था ! वह अपनी स्वास स्वास में तथा अपने हृदय की प्रत्येक धड़कन में दिव्य "ब्रह्मनाद" को प्रतिध्वनित पाते थे ! सप्तक के प्रत्येक 'स्वर' में वह ईश्वर का दर्शन करते थे !"
तभी तो उनके जीवन का एकमात्र आदर्श बन गया था "दरिद्र नारायण की सेवा" जिसे उन्होंने "धर्म" की संज्ञा दी !
उनका दृढ़ मत था कि, ईश्वर की प्रत्येक कृति में, सर्वग्य सर्वव्यापी परमेश्वर का दर्शन करते हुए उनसे गहरी प्रीति करना और उनकी सेवा करना ही मानव का "परम धर्म" है !वास्तव में "मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है" !
क्रमशः
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निवेदक: व्ही, एन . श्रीवास्तव "भोला"
सह्योग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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