शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

"मुकेश जी" और उनका नकलची "मैं"- # ४१४

गतांक से आगे

तू पर्दानशी का आशिक है यूं नामे वफा बर्बाद न कर

ये पर्दानशीं है कौन ?

आज ,शीला और मुन्नी के जमाने में वो झीना पर्दा , वो हलकी गुलाबी चिलमन , जो हमारे दिनों में हमारे और "उनके"दरमियाँ होती थी ,न जाने कहाँ गुम हो गयी है ! मेरे हमउम्र , ८० -९० वर्ष वाले जवानों को याद होगा कि उन दिनों हम कितनी बेताबी से उस बसंती बयार का इंतज़ार करते थे कि काश वह फकत एक बार ही आकर उस चिलमन को ,पल दो पल को ही सही ,थोड़ा, बस थोडा सा सरका भर दे ! हमारा गुज़ारा तो "उनकी" एक हल्की सी झलक से ही हो जाता , हमारी तसल्ली के लिए उतना ही काफी होता ! लेकिन हमे तो उन दिनों वह भी मयस्सर नहीं था !

कुछ अरसे बाद गुरुजन से जाना कि सच्चे आशिकों को परदे से परहेज़ नहीं करना चाहिए ! प्रेमियों के बीच पर्दे का लम्बे अरसे तक तना रहना उनके इश्क को चार चाँद लगा देता है ! प्रेमी से मिलने की तड़प जितनी ज़ोरदार होगी

पर्दे ने तेरे दीद का ख्वाहां बना दिया
जलवे ने चश्मे शौक को हैरा बना दिया

अब उनके इन्तिज़ार में आने लगा मज़ा
ऐ इश्क तूने दरद का दरमा बना दिया

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पाठकगण ,
मेरी असावधानी से ऊपर का अधूरा सन्देश कल रात आप से आप पोस्ट हो गया !
क्षमा प्रार्थी हूँ ! अज आपकी सेवा में पूरा सन्देश प्रेषित करने का प्रयास करूँगा !
भोला कृष्ण
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2 टिप्‍पणियां:

G.N.SHAW ने कहा…

काकाजी प्रणाम , यह भी दिल्लगी अच्छी है !

Bhola-Krishna ने कहा…

गोरख जी ,
"ये दिल्लगी कोइ और ही कर गया है मुझ पर
मेरा अधूरा ड्राफ्ट ही डिस्पैच हो गया"
प्रियवर विस्तृत सफाई अगले ब्लॉग में दूँगा ! आशीर्वाद
काका