सिया राम के अतिशय प्यारे,
अंजनिसुत मारुति दुलारे,
श्री हनुमान जी महाराज
के दासानुदास
श्री राम परिवार द्वारा
पिछले अर्ध शतक से अनवरत प्रस्तुत यह

हनुमान चालीसा

बार बार सुनिए, साथ में गाइए ,
हनुमत कृपा पाइए .

आत्म-कहानी की अनुक्रमणिका

आत्म कहानी - प्रकरण संकेत

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

जो भजे हरि को सदा


पिछले अंक में मैंने आपको   
परमहंस ठाकुर राम कृष्ण देव जी 
 के वे दो उपदेशात्मक सूत्र बताये थे जिनके अनुकरण ने मुझे  
अत्यंत लाभान्वित किया था ,
उन सूत्रों की शब्दावलि कुछ ऎसी थी -
  
" पर-चर्चा निषेध " - " पर-छिद्रान्वेषण निषेध "

प्रियजन , यदि कोई आज मुझसे पूछें कि मैंने ये दोनों सूत्र ,"आर के मिशन" के किस  प्रकाशन में पढ़े तो मैं नहीं बता पाउँगा लेकिन यह एक परम सत्य है कि लगभग  ६० वर्ष पूर्व ,२० -२२ वर्ष की अवस्था में पढे ये दोनों सूत्र मुझेआज भी ,ज्यों के त्यों याद हैं शायद इसलिए कि मैंने ठाकुर जी के इन दोनों निषेधात्मक उपदेशों का आजीवन पालन किया ! 

हाँ तो ,यौवन की दहलीज पर ,२२ से २५-२६ वर्ष की अवस्था तक ,लगातार ५ - ७ वर्षों के लिए,मुझे    उस 'बंगाली माहौल' में ,अपने से उम्र में काफी बड़े सहयोगियों [कलीग्ज़ ] के 'सत्संग' में  दिन के १० घंटे काटने पड़े ! अपनी आपसी "आमी तुमी" वाली भाषा में वे बंगाली भद्र पुरुष चाहे जो भी बतियाते रहें हों , ये ठाकुर-भक्त सज्जन ,मेरे साथ अधिकतर "काम की बातें" ही करते थे और 'लंच तथा टी ब्रेक' में मेरी - उनकी बातें केवल "सत्संग" तक ही सीमित रहतीं थीं !

आर के मिशन से सम्बन्धित ये प्रवासी बंगाली भद्रपुरुष ,"ठाकुर" के उपरोक्त दोनों आदेशों का पालन स्वयम तो करते ही थे और साथ साथ [ मुझमें अपना छोटा भाई या बडा पुत्र देख कर ] वे मुझे भी सदाचारी बनाने की सदेच्छा से ठाकुर के उन दोनों आदेशों का पालन करने के लिए प्रोत्साहित करते थे  ! आमतौर से नौजवानी में कुसंगत के कारण व्यक्ति बिगड़ जाते हैं, इसके विपरीत  मेरे साथियों ने मुझे सन्मार्ग दिखाया ! 

प्रियजन ,यह है मेरे जैसे एक क्षुद्रतम 'जीव' पर उस 'प्यारे प्रभु की 'अहैतुकी कृपा' का एक जीवंत उदाहरण ,जिसका अनुभवात्मक आनंद मैंने जीवन भर उठाया !  संतकबीर  ने सत्य ही कहा है कि 
" राम झरोखे बैठ के सबका मुजरा लेत ! जैसी जाकी चाकरी वैसा वाको देत !"

प्रियजन मैं नहीं जानता कि मेरी कैसी "चाकरी" है और आज तक मैंने कैसी कमाई की है ,जिसका "बोनस" मुझे  अभी तक प्राप्त हो रहा है ! 

सच पूछिए तो केवल मुझ पर ही नहीं वरन सभी जीव धारियों पर वह ," 'दीन बन्धु ,दया निधान' ,प्यारा भगवान" ,प्रति पल  कुछ न कुछ उपकार करता ही रहता हैं और  "जीव" निर्लज्जता से "प्रभु" के इन उपकारों को सतत भुनाता रहता है ,'सुफल' प्राप्त  करके 'सुखी' होता है , लेकिन वह भूले से भी ,प्रभु को उनके इन उपकारों के लिए  धन्यवाद नहीं देता  फिर भी वह "कारण बिनु कृपालु"दीन दयाल निर्बल का बल प्यारा भगवान" असहाय जीव को  मझधार में डूबते हुए  नहीं छोड़ता  ! वह जीव पर कृपा करता  ही रहता है ! 

मेरे ऊपर भी प्यारे प्रभु की अहेतुकी कृपाओं की सूची वहीं १९५१-५६ तक की कथा तक ही सीमित नहीं है वो तो आज २५ फरवरी २०१३ के दिन भी मेरे ऊपर कृपा कर रहे हैं !


उपकारन को कछु अंत नहीं छिन ही छिन जो बिस्तारे हो 

१९५० के दशक के उत्तरार्ध - नवम्बर १९५६ में मेरा विवाह ग्वालियर के एक ऐसे धार्मिक परिवार में हुआ जिसका बच्चा बच्चा ,श्री राम शरणम के संस्थापक स्वामी सत्यानन्द जी महाराज  के सानिध्य से प्रभावित था ! परिवार के मुखिया-दिवंगत गृहस्थ संत भूतपूर्व चीफ जस्टिस ,म.प्र .माननीय शिव दयालजी ने घर को श्री राम शरणम के सत्संग भवन सा बना रखा था !  परिवार के सभी सदस्य ,जितना उनसे बन पाता था , अपने दैनिक जीवन में भी 'पंचरात्रि' सत्संग के नियमों का पालन करते थे ! प्रातः ५ बजे नाम जाप ध्यान आदि होता था और दिन भर के अपने कार्य निपटाने के बाद , रात्रिकाल में "अमृतवाणी जी" का  तथा स्वामी जी के अन्य ग्रंथों का पाठ   होता  था ! दैनिक रहनी सहनी ,खांन  पान भी  साधना -सत्संगों के समान   होता था ! प्रातराश में दलिया दूध , भोजन अति सात्विक पर सरस ,भोजन से पूर्व  एवं उसके उपरान्त की  प्रार्थना ,सामूहिक प्रार्थना आदि आदि,!

मेरे ससुराल द्वारा अपनायी , श्री स्वामी जी महाराज की "नामोपासना" की नियम बद्ध अनुशासित पद्धति मुझे भी बहुत अच्छी लगी ! मूर्ति पूजन तथा निराकार ब्रह्म की उपासना के बीच का यह सहज सरल साधना पथ मुझे भा गया ! मैंने मन बना लिया स्वामी सत्यानन्द जी महाराज से दीक्षित होने का ! मेरी धर्मपत्नी पहले से ही स्वामी जी महाराज से दीक्षित थीं !

वर्षों भ्रम भूलों में भटकने के बाद मेरा भाग्योदय हुआ और अनंत काल से बिछड़े हमारे मार्गदर्शक हमे मिल गये ! महाराज जी ने मुझ "निर्गुनिया"को श्री राम शरणम में शरण दी !  मुझे नाम दान दिया ! 

  
 

स्वामी सत्यानन्द जी महाराज 

साधना सत्संग में महाराज जी ने भजन गाने का आदेश दिया [कितनी नाटकीयता से यह आदेश मिलता था -उसका विवरण मैंने पिछले आलेखों में किया है ] ! मैं धन्य हो गया था ! पहले सत्संग में कौन सा भजन गाया था ठीक से याद नहीं है ! आदरणीय मूलचंद्र जी ने मुझसे उस भजन के विषय में कितनी बार चर्चा की लेकिन उन्हें भी वह भजन याद नहीं आया ! उन दिनों मैं ज्यादातर ये भजन गाता था :

  • हारिये न हिम्मत बिसारिये न राम 
  • अब तुम कब सुमिरोगे राम 
  • राम बिनु तन को ताप न जाई 
  • नारायण जिनके ह्रदय में
  • राम करे सो होय रे मनुआ   
लम्बी है लिस्ट उन भजनों की जिन्हें मैं तब गाता था ! 

आइये आप को उस साधना सत्संग के दिनों में ही ग्वालियर के एक साधक से सुना   ब्रह्मानंद जी महाराज का एक सारगर्भिक भजन सुनाऊँ  :


जो भजे हरि को सदा , सो परम पद पायेगा !! 
देह के माला तिलक अरु भस्म नहिं कुछ काम के 
प्रेम भक्ती के बिना नहिं नाथ के मन भायेगा !! 
         जो भजे हरि को सदा , वो परम पद पायेगा !!




जो भजे हरि को सदा वो परम पद पायेगा 

छोड़ दुनिया के मज़े सब बैठ कर एकांत में ,
 ध्यान धर गुरु के चरण का फिर जनम नहिं पायेगा !!
जो भजे हरि को सदा , वो परम पद पायेगा 

दृढ़ भरोसा मन में रख कर जो भजे हरि नाम को ,
कहत ब्रह्मानंद , ब्रह्मानंद  बीच समायेगा !!
 जो भजे हरि को सदा , वो परम पद पायेगा !!
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आप जानना चाहेंगे कि क्यूँ ,  
१.युवा-अवस्था में उन बंगाली सहयोगियों [ कलीग्ज़ ] से मेरे मिलन को  
२.ग्वालियर के राम भक्त परिवार में अपने विवाह को ,
३.सद्गुरु स्वामी जी महाराज  के दर्शन को तथा 
४ .उनसे भजन गाने का आदेश मिलने को -
मैं अपने लिए अति सौभाग्य की बात  तथा परम पिता परमेश्वर की मेरे ऊपर की हुई अति विशिष्ठ कृपा मानता हूँ   

प्रियजन ,अपने ब्लॉग ,"महाबीर बिनवौं हनुमाना"  के अब तक के प्रकाशित ५३० अंकों में हमने अपनी निजी अनुभूतियों के आधार पर अपनी आत्म कथा द्वारा , केवल उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर ही दिए हैं ! पर बार बार अपने उस उत्तर को दुहराना हमें बुरा नहीं लगता !   
हमे लगता है कि आपने हमे एक और अवसर दिया कि हम एक बार फिर प्यारे प्रभु को याद करें , उन्हें अंतरात्मा से धन्यवाद दें उनकी अनंत कृपाओं के लिए !

अब तो एकमात्र यही प्रार्थना है कि हर घड़ी "उनकी" याद बनी रहे  ,और हमारा रोम रोम पल पल उन्हें धन्यवाद देता रहे !   मन सतत गाता रहें :

बाक़ी हैं जो थोड़े से दिन ,व्यर्थ न हो उनका इक भी छिन 
पल पल करके "उनका" सिमरन , मैं पाऊँ विश्राम 
यही वर मांगूं राम 

सिमरूं निशि दिन हरि नाम , यही वर मांगूं राम 
रहे जनम जनम तेरा ध्यान,  यही वर मांगू राम 

मनमोहन छवि नैन निहारे ,  जिव्हा मधुर नाम उच्चारे 
काबा काशी हो तन मेरा , [औ "तू"] मन में कर  विश्राम
यही वर मांगू राम 
["भोला"]

क्रमशः
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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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