"भक्ति"
किसकी और कैसे
की जाये ?
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"निज अनुभूति"
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१९२९ की जुलाई में ,यू पी के पूर्वी छोर पर स्थित ,अति पिछड़े जनपद --"बलिया" में मेरा जन्म एक पढे लिखे तहसीलदार ,जज, मजिस्ट्रेट और वकीलों के परिवार में हुआ था जिसमे सदियों से प्रचलित था मूर्ति पूजन !
ऐसे में मेरे लिए स्वाभाविक था जन्म से ही परिवार की पारंपरिक मूर्ति -पूजन विधि का अनुयायी बन जाना !
सत्य तो यह है कि बचपन में मैं केवल देसी घी से निर्मित धनिया की पंजीरी , सूजी का हलवा और अति स्वादिष्ट पंचामृत का प्रसाद पाने की लालच में पारिवारिक धार्मिक अनुष्ठानों में अनुशासन से बैठ कर ध्रुव प्रहलाद सा "भक्त" दीखने का प्रयास करता था ! तत्पश्चात -
हां , ६-७ वर्ष से अधिक का नहीं था तभी मैंने परिवार में "मूर्ति पूजा" के विरोध के स्वर उभरते सुने ! मेरी एक बुआ और दो तीन चचेरी बहनों ने पारम्परिक "मूर्ति पूजा" के विरोध में अपने बलिया के खानदानी घर के परम पवित्र महाबीर ध्वजा वाले आंगन में ही युद्ध का बिगुल बजा दिया ! उन्होंने उसी आंगन में ,भजन कीर्तन की जगह अपने ठेठ भोजपुरी लहजे में ,परिवार के बुजुर्गों को सुनाने के लिए एक नया गीत गाना शुरू कर दिया - (नहीं जानता कि यह रचना उनमे से किसी एक की थी अथवा वह आर्य- समाज की किसी पुस्तिका से उन्हें मिली थी) ! जो भी हो उस नये गीत का मुखडा कुछ ऐसा था:
"हम आर्या समाज की लड़किन हैं पत्थर को कभी न पूजेंगीं"
आज लगभग ८० वर्ष बाद मुझे , इस गीत के मुखड़े के आगे का एक भी शब्द याद नहीं आ रहा है ! लेकिन अपने परिवार में मूर्ति पूजन के विद्रोह की इस पहली लहर को मैं भुला नहीं पाया ! आगे क्या हुआ सुनिए ----
कुछ समय बाद १९३८ से ४४ तक कानपुर के डी ए वी हाई स्कूल में नित्य की प्रातःकालीन समवेत प्रार्थना सभा तथा धर्म शिक्षा के प्रत्येक 'पीरियड' में मूर्ति पूजन के खंडन की अति गम्भीर चर्चा सुनने को मिली जिससे मैं एक अजीब दुविधा में पड गया ! एक तरफ घर में पारंपरिक मूर्ति पूजन और दूसरी ओर विद्यालय में उसका प्रचंड खंडन !
इन दोनों में सत्य क्या है ? एक भयंकर द्वंद उठता रहा मेरे मन में ! हमारे परिवार में बाप दादों के जमाने से चली आ रही मूर्ति पूजक सनातनी पद्धति अथवा आर्यसमाजियों द्वारा पुनः आविष्कारित समझा जाने वाला, परम पुरातन भारतीय ऋषिमुनियों द्वारा अनुभूत "परमसत्य" !
यह "परम सत्य" क्या है ?
मन में यह जानने की उत्सुकता तो थी लेकिन १९४९ तक यूनिवर्सिटी की पढाई में व्यस्त रहने के कारण इस परम सत्य को खोज निकालने के लिए मेरे पास समय नहीं था !
दैव योग से ,१९४९ - ५० में अवसर और अवकाश मिला कुछ स्वाध्याय करने के लिए ! ( इससे पूर्व मैं इसी श्रंखला के आलेखों मे आत्म कथा में सविस्तार लिख चुका हूँ कि कैसे वाराणसी के संकट मोचन महावीर जी ने फाइनल परीक्षा में फेल करवाकर - मेरी - इस दासानुदास के जीवन को एक चमत्कारिक मोड़ दिया , जिसका अमृततुल्य फल ,मैं आज ( १२ , दिसम्बर २०१३ ) तक भोग रहा हूँ ! )
हां तो १९४९ -५० में मुझे गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित मासिक पत्रिका कल्याण का एक वार्षिक विशेषांक पढ़ने का अवसर मिला : उसमे मैंने श्रीमद भागवत का एक सूत्र पढ़ा -
"एकम सद विप्रा बहुधा वदन्ति"
अर्थात
एक ही सत्य है
ब्रह्मज्ञानी जन इस एक ही परमसत्य का वर्णन अपनी अनुभूति के आधार पर भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं ! उन ज्ञानियों की शैली जुदा जुदा है लेकिन उनके भाष्य में वर्णित " परमार्थ -तत्व" एक ही है ,उसमें कोई भेद नहीं है !
उस परमसत्य - ईश्वर से की गयी "प्रीति"भक्ती है ! अस्तु प्यारे अपनी प्रीति ईश्वर से जोड़ो ! शास्त्रीय मार्ग से भक्ति करोगे तो "परम दयालु" के रूप में ईश्वर तुम्हे मिल जाएगा !
इस परम दयालु सत्ता का सम्पूर्ण श्रद्धा से भजन करने से साधक का हृदय सात्विक हो जाता है , सर्वत्र परमानंद की गंगा बहने लगती है !
संत कबीर ने कहा है :
१.जो सुख पाऊँ राम भजन में ,सों सुख नाहीं अमीरी में !
मन लागो मेरो यार फकीरी में !!
२. कहत कबीरा राम न जा मुख , ता मुख धूल भरी !
भजो रे भैया राम गोविन्द हरी !!
३. कहत कबीर सुनो भाई साधो पार उतर गये संत जना रे !!
बीत गये दिन भजन बिना रे
बीत गये दिन भजन बिना रे
इस परमानंद 'गंग' के मूल स्रोत को इंगित करते हुए कबीर ने स्पष्ट किया:
रस गगन गुफा में अजर झरे -
जुगन जुगन की तृषा बुझाती करम भरम अध् व्याधि हरे ,
कहे कबीर सुनो भाई साधो ,अमर होय कबहूँ न मरे !!
आकाश की गुफा में निरंतर रस झरता रहता है ! अमृतरस में सराबोर गंगा रूपी झरना हृदय में बहता है ! उस जल के रस, गंध, रूप, स्पर्श, ध्वनि, में निहित आनंद अतुलनीय है निर्मल है सच पूछिए तो सर्वथा अकथनीय है !
तो क्या यह अतुलनीय दिव्य आनंद केवल सघन बनों तथा दुर्गम पर्वतीय कन्दराओं में तपश्चर्या करने वाले साधकों को ही उपलब्ध है ?
प्रियजन , ऐसा कुछ भी नहीं है ! हम आप जैसे साधारण मनुष्यों को प्यारे प्रभु ने अपनी अहेतुकी कृपा से भरे पूरे परिवार दिये हैं और अपने अपने परिवार के लालन पालन करने की क्षमता-योग्यता दी है ! वह "प्यारा" यह जानता है कि इस कलिकाल में हमआप घरबार छोड़ अपने उत्तरदायित्वों
को बलाए ताख रख कर जंगलों में तपस्या करने नहीं जा सकते हैं ! अस्तु
प्यारे प्रभु ने हम आप जैसे साधारण व्यक्तियों के समक्ष रोजगारी करके जीवनयापन करने वाले अनेकों सिद्ध महात्माओं के उदाहरण प्रस्तुत किये जिन्होंने घर बार नहीं छोड़ा और ईमानदारी से रोज़ी कमाने के दैनिक कार्य कलाप के साथ साथ अपनी ईशोपासना भजन चालू रखी ! ऐसे संतात्माओं ने भी कबीर के शब्दों में वर्णित उस "गगन गुफा " में अजर झरती आनंद गंगा का सुरस पान किया ! उन्हें भी उस अतुलनीय निर्मल आनंद का आस्वादन हुआ !
प्रियजन अपने निज अनुभूतियों के आधार पर मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि सदगुरु नानक देव , नरसी भगत , संत तुलसीदास आदि के समान ही ,जुलाहे- 'कबीरदास' , मांस ब्यापारी कसाई- 'सदना' , भीलनी- 'शबरी' तथा चर्मकार (मोची ) 'रैदास जी' को वह निर्मल आनंद बिना अपना पेशा छोड़े , इमानदारी से अपने अपने दैनिक कर्म करते हुए , सहजता से मिल गया होगा !
मीरा बाई ने ऐसे कुछ सिद्ध महात्माओं के नाम याद दिलाए :
तुम तो पतित अनेक उधारे भव सागर से तारे
मैं सब का तो नाम न जानूँ कोई कोई नाम उच्चारे
धना भगत का खेत जमाया ,
सबरी का जूठा फल खाया
सदना औ सेना नाई को तुम लीन्हा अपनाई
कर्मा की खिचडी तुम खाई , गनिका पार लगाई
चर्मकार संत रैदास ने कहा था कि एक बार जो नाम भक्ति का नशा चढ़ गया तो फिर वह उतरता नहीं ! आजीवन उस नाम की रटन लगी रहती है! अन्ततोगत्वा नाम और नामी तो एक हो ही जाते हैं "नामाराधक साधक" भी नाम और नामी में ऐसे रचबस जाता है जैसे त्रिवेणी में गंगा यमुना और सरस्वती ! साधक साध्य से वैसे ही मिलजाता है जैसे चन्दन और पानी , सघन बन और मोर , दीपक और बाती तथा श्रेष्ठ स्वामी और उसका सच्चा निष्कपट सेवक !
रैदास जी का एक पद है जिसमे इस भाव का सारांश समाहित है : बहुत दिनों बाद मुझे आज उस भजन की याद आई , सहजता से उसके शब्द भी मिल गये , मैंने गाया, रेकोर्ड किया और कृष्णाजी ने चित्रांकन कर , उसको "यू ट्यूब" पर प्रेषित कर दिया , आप भी सुने :
भजन है
अब कैसे छूटे नाम रट लागी
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प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा , ऎसी भगति करे रैदासा
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संत रैदास संत कबीर आदि महात्माओं की निजी अनुभूतियों के अनुसार कोई भी कर्मठ व्यक्ति यदि अपने सांसारिक "कर्म" ईमानदारी से करता हुआ ,साथ साथ श्रद्धायुक्त भजन (उपासना) भी करता रहे तो निश्चय ही वह परमानंद स्वरूपी प्यारे प्रभु का साक्षातकार पा सकता है !---------------------------------------------
निवेदक : व्ही एन श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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