बुधवार, 19 जनवरी 2011

साधन : "भजन कीर्तन" # 2 7 1

हनुमत  कृपा - अनुभव 
साधक साधन साधिये                          साधन : "भजन कीर्तन" 

पिछली रात भर मन में एक बात खटकती रही कि मैंने "भजन" द्वारा "भगवत कृपा प्राप्ति"  की बात के साथ आपको एक अत्यंत आवश्यक शर्त नहीं बतायी ! आइये आज सर्वप्रथम वही  बता देता हूँ ! वह यूं है :" प्रियजन ! परमानंद स्वरूप -"ईश्वर" की प्राप्ति हेतु ,"भक्ति" की कोई भी "साधना" करते समय ,"साधक" के मन में किसी प्रकार के   अन्य लाभ-प्राप्ति की "कामना" नहीं होनी चाहिए "!

ह्म सब जानते हैं  " प्रेम गली अति सांकरी तामे दो न समाय "! उस संकरी गली, में एक समय में केवल एक ही प्रेमास्पद समा सकते  हैं ! "वह" जिन्हें ह्म असंख्य नामों से पुकारते हैं, पर है वह एक ही! जैसे मुझे ही लीजिये , मैं तो एक ही हूँ पर सांसारिक सम्बन्ध के अनुसर मेरे स्नेही जन मुझे अनेक नामोँ से सम्बोधित करते हैं ! कोई मुझे पापा,कोई बाबा, कोई नाना, कोई फूफाजी, कोई मौसाजी ,कोई चाचा  कह कर पुकारता है ! 

इसी प्रकार अपने "इष्ट" को कर्ता ,भर्ता और संहर्ता जान कर उसके ही गुणों का, उसकी ही लीलाओं का, उसकी ही सर्वव्यापी  सर्वशक्तिमान सत्ता का गुणगान तथा कीर्तन -भजन करते हुए हमे "उसे" अपने अंत:करण में इस प्रकार बसाना है क़ि वहाँ किसी अन्य वस्तु , व्यक्ति अथवा और किसी सांसारिक कामना,को रख पाने के लिए खाली जगह ही न बचे !

सब सच्चे साधकों का  "प्रेमास्पद" केवल एक "परमेश्वर" ही है !ये बात भी सच है क़ि ह्म उस एक परमेश्वर को असंख्य नामोँ से पुकारते हैं जैसे "मेरे  राम" ,"मेरे घनश्याम","मेरे अल्लाह ","मेरे वाहे गुरू", "मेरे होली फादर"  इत्यादि ! ध्यान यह रखना है कि साधना करते समय ह्म अपने मन में  केवल , अपने प्रेमास्पद से मिलन की कामना ही रखें, अन्य कुछ नहीं ! हमारी एकमात्र कामना वैसी ही हो जैसी प्यारे भाई भरत जी की उनके परमप्रिय ज्येष्ठ भ्राता श्री राम जी के प्रति थी !

अर्थ न धर्म न काम रूचि गति न चहहूं निर्वान !
जन्म जन्म रति राम पद यह वरदान  न आन !!
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और फिर मैंने गाया :
सुमिरों निस दिन हरि नाम ,यही वर दो मेरे राम
रहे जन्म जन्म तेरा ध्यान ,यही वर  दो मेरे राम !!
मनमोहन छवि नयन निहारें, जिव्हा मधुर नाम उच्चारे ,
कनक भवन होवे मन मेरा, जिसमे हो रघुबर का डेरा,
तन कोसलपुर धाम ,यही वर दो मेरे राम !!

इस पर यह विचार आया क़ि वृत्तासुर ने भी तो अपने इष्ट  
श्री हरि से कुछ ऎसी ही प्रार्थना की थी  ; 
प्रभु !आप मुझ पर ऎसी कृपा कीजिए क़ि मुझे 
आपके चरणकमलों के मंगलमय गुणों का ज्ञान और स्मरण
  मेरे अगले जन्मों में भी ऐसा ही बना रहे ! 
मेरी वाणी सदा आपके श्री चरणों का ही गुनगान करे !
मेरा शरीर आपकी सेवा में निरंतर संलग्न रहे ! 
मैं आपको छोडकर स्वर्ग का साम्राज्य ,यहाँ तक क़ि मोक्ष भी नहीं चाहता !
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निवेदक : वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : धर्मपत्नी श्रीमती (डाक्टर) कृष्णा श्रीवास्तव 
   

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

साधन-"भजन कीर्तन" # २ ७ ०

हनुमत कृपा -अनुभव                  साधक साधन साधिये                                                                               
                                                 साधन -"भजन कीर्तन"

प्रियजन ! यदि एक बार भी आपको आपके "इष्ट देव" का "स्मरण" हुआ ,एक एक कर के आपको उनकी असीम करूणा , अपार दया, उनके अनंत गुणों तथा असंख्य उपकारों की याद आयी ,जी हाँ यदि एक बार ,केवल एक बार भी आपके हृदयाकाश में उनकी "याद" पावस की काली घटाओं में बिजली की एक रजत रेखा के समान कौंध गयी , ( आपको "उनका" वास्तविक "सिमरन" हो गया)  , तो क्या बात है ,आपकी तो बात ही बन गयी ! उसके बाद आप चाहे योगासन में बैठ कर पातंजली  द्वारा प्रतिपादित एवं निर्धारित वैज्ञानिक योगिक क्रियाओं को करें, अथवा अपने "अधिष्ठान" के सन्मुख आँख मूदे बैठ कर विधि पूर्वक ध्यान लगायें ,या माला लेकर नाम जाप करें , प्रत्येक साधन से आपके सभी अनुष्ठान सफल होंगे !

पर मैं स्वयं उपरोक्त साधनों में से एक भी उचित ढंग से नहीं कर सका ! ६५ वर्ष की अवस्था से पहिले जब शरीर में शक्ति थी , सारे अंग प्रत्यंग ठीक ठाक थे ,नेत्रों को छोड़ अन्य सभी अवयव सुचारू रूप से गतिमान थे ,उन दिनों इमानदारी और इज्जत से परिवार पालन में चौबीसों घंटे जुटा मैं ,न तो "ध्यान" लगा पाया, न "योगिक क्रियाएँ " कर पाया , न विधिवत "जाप"  ही कर पाया ! और उसके बाद जब काम धंधे से छुट्टी मिली तब तक  शरीर ढीला पड़ गया था !

भक्ति का एकमात्र साधन जो मैंने बचपन से आज तक किया (या यूं कहें क़ि ,मैं कर पाया) वह है "भजन गायन" और "कीर्तन" ! शायद इसलिए क़ि मा के गर्भ में मैंने केवल भजन ही सुने ! भगवान का "रसरूप" इस प्रकार, अम्मा के हृदय से "आनंदरस" के रूप में परिवर्तित हो कर मेरे अंतर्मन में तभी से बस गया ! महापुरुषों से सुना है "नादोच्चारण "से "शब्द ब्रह्म" और "नाद एवं शब्द ब्रह्म" के  संयोग से "परब्रह्म" प्रकट होते हैं ! इसप्रकार मुझे ऐसा लगता है जैसे "सृष्टि सृजन  क्रम" के अनुसार अम्मा के भजन के स्वरों से ,"नाद ब्रह्म", नाद से "शब्द ब्रह्म" और अंत में प्रभु का "परम आनंदस्वरूप रस " - "रूप ब्रह्म" बन कर मेरे अंतर्मन में तब ही प्रकट हो गया होग़ा ! प्रियजन ! मैं यह अटकल "उनकी" प्रेरणा से ही कर रहा हूँ ! इससे अधिक और कुछ जानता समझता नहीं हूँ इस विषय में !

सुना है भजन कीर्तन में तल्लीनता ,"मैं - तुम" अथवा "अहम तवम" का भेद मिटा देती है  जिससे एक अपूर्व आनंद रस का अनुभव होता है ! आनंद रस में सराबोर रसिया (साधक)
एक प्रकार से "समाधिस्थ  ही हो जाता है ! उस मीठे नाद में ऐसा रम जाता है ,इतना मस्त हो जाता है क़ि उसे तन मन की सुधि नहीं रहती ! कीर्तन में गायक साधकों के स्वरों के अतिशय मधुर नाद एवं वाद्यों की झंकार तथा करतल ध्वनि के संयोग से एक अद्भुत दिव्यता अवतरित होती है जिससे गायकों एवं श्रोताओं को "परब्रह्म" के परमानंद स्वरूप में "परब्रह्म"के दर्शन की अनुभूति होती  है ! गायक साधक की ऑंखें भर आतीं हैं , गला अवरुद्ध हो जाता है, मुंह से बोल नहीं निकलते , वह रोमांचित हो जाता है , शीत काल में भी स्वेद से उसके वस्त्र गीले हो जाते हैं उसका , शरीर कम्पायमान होता है अथवा सुन्न होकर मूर्तिवत पड़ा रह  जाता है !


इसी स्थिति के सम्बन्ध में स्वामी जी महाराज ने भक्ति प्रकाश में कहा है :


                  गीत गाय के प्रेम के जब जन गद गद होय !
खिले नयन रोमांच से ,भक्ति जानिए सोय !!

राम चरित मानस में भगवान श्री राम ने भाई लक्ष्मण को "भक्त- भक्ति" के लक्षण  समझाते हुए यह कहा क़ि "कीर्तन भजन" करते करते,जिस साधक की  ऎसी स्थिति हो जाये वही मेरा सच्चा भगत है और मैं निरंतर ऐसे भगत के वश में रहता हूँ !! 
मम गुन गावत पुलक सरीरा !गद गद गिरा नयन भर  नीरा !!
काम आदि मद दम्भ न जाकें ! तात निरंतर बस मैं ताके !!

क्रमशः 
निवेद्क: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : धर्मपत्नी - श्रीमती (डाक्टर) कृष्णा श्रीवास्तव