रविवार, 30 दिसंबर 2012

स्वामी विवेकानंद जी - फरवरी १४, २०१३

स्वामी विवेकानन्द जी
[गतांक से आगे]

 यह प्यारे प्रभु की कृपा है अथवा चमत्कार 
कि इन दिनों अपने जन्म के ८३  वर्ष बाद मुझे एक बार फिर
'विश्वगुरु' स्वामी विवेकानंद की याद आई
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आइये इस प्रसंग से सम्बन्धित अपनी 'आत्म कथा' का एक अंश सुनाऊँ 
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बहुत छोटा था, १९३४-३५ की बात है ! मैंने शायद उन्ही दिनों होश सम्हाला होगा ! तभी एक "समर वेकेशन" बिताने के लिए हम " बलिया सिटी " स्थित अपने पूर्वजों के घर  "हरवंश भवन" गये 

शायद आज बहुत लोगों को नहीं याद होगा कि यह ,'बलिया' यू.पी .के सुदूर पूर्व का वह पिछडा जिला है,किसी जमाने में जहां के निवासियों को "बलियाटिक" नाम देकर उनका खूब मजाक उडाया जाता था !  केवल भारत में ही नहीं वरन समस्त विश्व में भारत के ये कुख्यात "बलियाटिक" जन, "महामूर्ख" समझे जाते थे ! [ परन्तु वास्तविकता कतई ऎसी नहीं थी ]

भैयाजी ! सत्य तो यह है कि "बलिया" की धरती पर अनेक ऐसे प्रतिष्ठित महापुरुष अवतरित हुए जिनका लोहा समस्त विश्व ने समय समय पर माना ! '
बलियाटीकों' की   इस नामावली में अनेक देशभक्त और जाने माने वैज्ञानिक ,गणितशास्त्री आदि महापुरुष शामिल हैं!

सर्वप्रथम देशभक्तों का उल्लेख करूँगा ! १८५७ में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ मेरठ की फ़ौजी छावनी में बगावत की पहली चिंगारी प्रज्वलित करने वाले वीर सेनानी "मंगल पांडे" इसी बलिया जिले के थे !  

'महात्मा गांधी' के अगस्त १९४२ के "अंग्रेजों भारत छोडो" आंदोलन में ,इन बलियाटीकों ने ही ब्रिटिश शासकों को  लोहे के चने  चबवा दिए थे ! उन दिनों जब सारा भारत  अंग्रेजों के आतंक से थर्रा रहा था इन बलियाटीकों ने वीर चीतू पांडे के नेतृत्व में ,कुछ दिनों के लिए ब्रिटिश दासता की जंजीर तोड़ दी थी और बलिया की कलक्टरी पर से ब्रिटिश "यूनियन जेक" उतरवाकर गांधी का विजयी विश्व प्यारा तिरंगा फहरा दिया था ! उन्होंने कुछ समय के लिए बर्बर अंग्रेजी हुकूमत से अपने जिले को पूर्णतःस्वतंत्र करवा लिया था !  बलिया जेल से सभी राजनेतिक कैदी रिहा कर दिए गये थे ! अब तो ये बातें  शायद ही किसी को याद हो !, 

एक और बात याद आ रही है :  पुनः बलिया पर अपना अधिकार स्थापित करने के लिए ,यू.पी. के तत्कालीन गवर्नर सर मौरिस हेलेट नें भयंकर बारूदी शक्ति प्रयोग करके  सीधेसाधे निहत्थे अहिंसक बलियावासियों पर भयंकर ज़ुल्म तोड़े और बलिया की सत्ता पुनः वापस पाई ! इसका ज़िक्र शायद ही इतिहास की पुस्तकों में हो ! 

बलियावालों की शूरवीरता का अंदाजा आप इससे ही लगा सकते हैं कि इस गवर्नर ने  बलिया पर पुनः सत्ता स्थापित कर लेने के बाद बड़े गर्व से  ब्रिटिश साम्राज्ञी को 'तार' द्वारा सूचित किया था कि "ब्रिटिश फौजों ने बलिया को पुनःजीत लिया "! उस तार की शब्दावली कुछ ऎसी  थी, " Ballia Reconquered"! इस वाक्य से ही आप समझ गये होंगे कि उस बर्बर अंग्रेजी शासक  के मन में इन बलिया वासियों  से कितनी दहशत थी ! ये बात भी कदाचित अब तक हम सब पूरी तरह भूल चुके हैं ! 

बलिया मे जन्मे महापुरुषों की नामावली बहुत बड़ी है -देशभक्त मंगलपांडे  और चीतू पांडे के अलावा जो नाम अभी मुझे याद आ रहें हैं वे हैं - श्री जय प्रकाश नारायन , श्री राजेन्द्र प्रसाद जी ,चंद्रशेखरजी तथा विश्व प्रसिद्ध गणितज्ञ  गणेशी प्रसाद जी ! आज भी विश्व की बड़ी बड़ी यूनिवर्सिटियों में बलिया से सम्बन्धित अनेक 'साइंटिस्ट' वैज्ञानिक शोध कार्यों में लगे हैं और अति महत्वपूर्ण अनुसंधान कर रहें हैं ! 

अपनी मात्र भूमि का गुण गान यहीं छोड़ मैं स्वामी विवेकानंद सम्बन्धी अपनी आत्म- कथा आगे बढाता हूँ :-

हा तो १९३४ -३५ में बलिया पहुँच कर ,खानदानी कोठी "हरवंश भवन" में अपने ताऊजी के बड़े बेटे की बैठक की दीवारों पर करीने से लटकी तस्वीरों के बीच हमे दो ऎसी तस्वीरें दिखीं जो न तो हिंदू देवी देवताओं की थीं और न हमारे पूर्वजों की ! 





उनमे से एक "ब्लेक एंड  व्हाईट"' तस्वीर थी ! वह एक अति साधारण से मटमैले परिधान में लिपटे अर्धनग्न ग्रामीण ,बढी हुई दाढी और आधी मुंदी आँखों वाले किसी कृशकाय पुरुष की थी ! क्षमा प्रार्थी हूँ , उस समय ६ - ७ वर्ष की अवस्था में जब मुझे दुनिया जहांन का कोई ज्ञान नहीं था मुझे आश्चर्य हुआ था कि कानपूर के  हमारे घर के रसोइये मोतीतिवारी का चित्र वहाँ क्यों लगा था ?  प्रियजन ,चित्रित व्यक्तित्व इतना साधारण था ! वर्षों बाद जाना कि उस साधारण व्यक्तित्व का सूक्ष्माकार कितना दिव्य एवं चुम्बकीय आकर्षण युक्त था ! वह चित्र परमहंस ठाकुर रामकृष्ण देव जी का था !

दूसरा वाला चित्र रंगीन था ! बड़ा ही मनमोहक , किसी देव पुरुष के समान आकर्षक व्यक्तित्व वाले ,बड़ी बड़ी तेजस्वी आँखों से हर देखनेवाले को निहारते गेरुआवस्त्र धारी किसी सन्यासी का !
उस नन्ही उम्र में भी वह चित्र देखते ही मेरा मन उस चित्रित व्यक्तित्व के प्रति आकर्षित हो गया था !  वह चित्र था स्वामी विवेकानंद का !



                                            


बहुत छोटा था , ५ - ६  वर्ष का ,कानपूर पहुँच कर उन दोनों महात्माओं के चित्रों को बिलकुल ही भूल गया !  यहाँ ,  बड़े भैया के कमरे की दीवारों पर 'अछूत कन्या' फिल्म के 'अशोक कुमार - देविका रानी' और देवदास के 'कुंदन लाज सैगल और उनकी पारो तथा चन्द्रवती  [ हीरोइनों के नाम नहीं याद आ रहे हैं ] के चित्र लगे थे ! यहाँ "बालम आय बसों मेरे मन में"  तथा "तडपत बीते दिन रैन" का रियाज़ चलता था ! मैं भी उसी रंग में रंगता गया ! छोडिए  भी इन बीती -बातोंको ---

समय बीतता रहा ! मैं  बढ़ते बढ़ते  २२-२३ वर्ष का होगया ! १९५० में , बनारस हिंदू  यूनिवर्सिटी से बी.एससी. [इंड.केम] की डिग्री प्राप्त करके आजीविका कमाने के चक्कर में पड़ गया ! 

अब आगे की कथा सुनिये कि 'गदह पचीसी' में ,जब नवयुवकों को बर्बाद करने के लिए ,अनेकानेक सांसारिक प्रलोभन  बांह फैलाए खड़े रहते हैं , मैं कैसे बाल बाल बचता रहा !

प्रियजन उस अवस्था में प्यारे प्रभु ने ही मेरी रक्षा की ,एक बार पुनः मुझे  परमहंस ठाकुर रामकृष्ण देव तथा स्वामी विवेकानंद जी की याद  दिलाकर :

ब मुश्किल तमाम उस जमाने में मुझे सरकारी नौकरी मिल ही गयी !  भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय की एक 'आयुध निर्माणी' में "नोंन गजेटेड  ऑफिसर - अंडर ट्रेनी " की ! इस केन्द्रीय संस्थान का हेड ऑफिस कलकत्ते में था अस्तु जैसा होता है इस कार्यालय  में मेरे साथ काम करनेवाले  अधिकतर  "कलीग्ज़" और "बौसेज़" -'सोनार बांग्ला' के मूल निवासी थे ! 

दफ्तर के उस 'लघु बंगाल' में, दिन के ९  घंटे केवल बांग्ला , हाँ केवल बांग्ला भाषा के 'लिंग भाव से मुक्त'  सम्वाद सुनने को मिलते थे ! "क्या भोला सा --- आज चाय नहीं खिलाएगा ? आज के तोमार चास आचे " !  स्वाभाविक है , तब मुझे यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता था ! हिन्दी प्रदेश में दिन भर बंगला सुनना - लेकिन कष्ट की बात  छोडिये  मुझे उन  बंगवासी मित्रों की संगत से कुछ बड़े लाभ भी हुए जिन्हें मैं  आज अपने ऊपर 
की हुई अपने प्यारे प्रभु की अहेतुकी कृपा ही मानता  हूँ !

लगभग ये सभी सहकर्मी बंधू मुझसे उम्र में काफी बड़े थे और इत्तेफाक से सभी परम 'आस्तिक' भी थे ! इनमे से कोई मा जगदम्बिके भवानी का , कोई माँ दुर्गा का,कोई माँ काली और कोई चैतन्य महाप्रभु तथा मा आनंदमयी का भक्त और उपासक था !  

हमारे इमीडीएट बोस श्री  मित्रा , परमहंस ठाकुर राम कृष्ण देव तथा स्वामी विवेकानंद जी के परम अनुयायी थे ! उन्होंने मुझे आर .के .मिशन द्वारा प्रकाशित अन्य ग्रंथों के साथ साथ 'गोस्पेल्स ऑफ रामकृष्ण" नामक इंग्लिश किताब पढ़ने को दी ! इन पुस्तकों के पढ़ने से ,परमहंस जी के अनेक ऐसे उपदेश मेरे सन्मुख आयेजो तत्क्षण ही मुझे भा गये और मैंने उन उपदेशों को पत्थर की लकीरों के समान अपने जीवन में उतार लिया !  उनमे से कुछ सूत्र जो मुझे अभी भी याद हैं  ,वे हैं  :-

  • अनहोनी प्रभु कर सके ! होनहार मिट जाय !! [सब हो सकता है ! कुछ भी असंभव नहीं , अपने कर्म, पूरी तन्मयता से करते रहो !]
  • जैसे समुद्र में रत्न हैं वैसे ही ईश्वर संसार में व्याप्त है ! [तत्परता से उसे खोजो वह , मिल जायेगा !!]
  • कीजिए ध्यान कोने में , वन में या मन में ! [कहीं भी ध्यान लगाओ  तुम्हे "प्रभु"  अवश्य मिल जायेगा !!]
  • एक ही प्रभु यहाँ "कृष्ण" बन कर अवतरित हुए और वहाँ "ईसा" बन कर !![दोनों ही पूज्यनीय  है , वन्दनीय हैं , आराधनीय हैं , किसी को कम न समझो !!]
  • आध्यात्म का लाभ ह्रदय की शुद्धता से होता है !! [अपना मन साफ़ रखो ! स्वच्छ आईने में सब कुछ साफ़ साफ़ दिखेगा - तुम अपना "सत्य" स्वरूप देख लोगे !!]

प्रियजन ,ठाकुर के दो आदेश जिनके अनुकरण ने मुझे  अत्यंत लाभान्वित किया ,वे थे  
" पर-चर्चा निषेध " - " पर-छिद्रान्वेषण निषेध "!
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शेष अगले अंक में 
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

विवेकानंद - शिकागो - 'विश्व सर्व धर्म सम्मेलन' में


नरेन्द्र नाथ दत्त  बने  स्वामी विवेकानंद  
( गतांक से आगे )

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वैदिक काल से आज तक की हजारों वर्ष की पुरातन भारतीय संस्कृति में "गुरु शिष्य" परम्परा के अंतर्गत "गुरु-शिष्य" संबंधों के अनेकों अनूठे उदाहरण मिलते हैं ! 

प्रागैतिहासिक काल में "राजा रहूगण " ने उनकी पालकी उठाने वाले कंहार "जड़ भरत" को अपना गुरु बनाया ; ऋषि श्रेष्ठ "दत्तात्रेय" ने  "पशु-पक्षियों" तक को अपना गुरु स्वीकारा !  इतिहास गवाह है कि "मीराबाई" ने चर्मकार "रैदासजी " से गुरुदीक्षा ली !

ऐसे अनूठे "गुरु- शिष्य" संबंधों की श्रुंखला में "रामकृष्ण ठाकुर" और उनके लोक प्रिय शिष्य "नरेंद्रनाथ" का "गुरु -शिष्य" सम्बन्ध अपने ढंग का एक अनूठा सम्बन्ध है ! प्रियजन , मेरे मतानुसार भारतीय "गुरु शिष्य" जोड़ियों की सूचि में सद्गुरु रामकृष्ण देव और शिष्य नरेंद्र नाथ की जोडी सर्वोच्च स्थान पाने की अधिकारिणी है !


क्या अनूठापन है इस जोड़ी में ?


आमतौर से ऐसा होता है कि "शिष्य" आँख मूंद कर "गुरु" की सिखावन स्वीकार करते रहते हैं ! नरेंद्र ऐसा न था ,किसी तथ्य को स्वीकार करने से पूर्व वह उसकी सत्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण देखना चाहता था ! उसके पास थी ,विभिन्न भारतीय आध्यात्मिक ग्रंथों के पठन-पाठन तथा ,अध्ययन-मनन से अर्जित ज्ञान की सम्पदा और विश्व के अन्य प्रमुख धर्मों के प्रचारकों के साथ तर्क वितर्क से प्राप्त जानकारी की पूंजी !

एक तरफ था  उन्नीसवीं शताब्दी की तत्कालिक आंग्ल्य [ ब्रिटिश ] मानसिकता से प्रभावित तथा अंगरेज अध्यापको द्वारा प्रशिक्षित नरेंद्र नाथ सा शिष्य और  दूसरी तरफ  थे पागल से दीखते ,अर्ध उन्मीलित नेत्र वाले कालीमंदिर के अशिक्षित पुजारी !  
दोनों ही अनूठे थे -शिष्य था 'परम सत्य' जानने की अतृप्त पिपासा-युक्त एक 'अति  -तार्किक' नवयुवक और 'गुरु' थे ' चिन्मय तृप्ति युक्त ' ,दिव्य सिद्धियों एवं प्रत्यक्ष ईश्वरीय दर्शन के अनुभवी तथा 'परम सत्य' के जानकार - कालीमंदिर के पुजारी परमहंस ठाकुर रामकृष्ण देव ,जिनमे यह क्षमता थी कि वह उन  दिव्य अनुभूतियों का साक्षात्कार अपने चुनिन्दा योग्य शिष्यों को स्वेच्छा से करवा सकते थे ! 

यहाँ शिष्य ने उन्हें गुरु नहीं माना परन्तु ठाकुर ने नवम्बर १८८१ की पहली मुलाकात के बाद ही नरेंद्र को मन ही मन अपना शिष्य स्वीकार कर लिया था ! शायद वह ये भी जानते थे कि उनके जीवन के अब थोड़े से दिन ही शेष हैं जिस कारण वह अपनी समग्र दिव्य शक्तियों को शीघ्रातिशीघ्र "नरेंद्र" में स्थानान्तरित कर देना चाहते थे !

आपने देखा कि कितना बेमेल था यह गुरु-शिष्य का जोड़ा !  दोनो के चिंतन में,  दोनों के स्वभाव में  जमीन आसमान का अंतर था !  दोनों के बीच ,उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव जैसी  दूरियां थीं ! अस्तु ठाकुर और नरेंद्र के बीच शुरुआती मुलाकातों में दीर्घ काल तक गुरु-शिष्य का सा पारंपरिक सम्बन्ध स्थापित नही हो सका  और जब हुआ भी तो वह सांसारिक भूमि पर बहुत ही अल्पकालिक रहा - फकत  ४-५ वर्ष का - नवम्बर १८८१ से अगस्त १८८६ तक !  

कालान्तर में 'नरेंद्र' ने भी परमहंस जी से अपनी सब आध्यात्मिक शंकाओं का उचित समाधान पा कर तथा उनकी सत्यता को अनुभव कर के स्वेच्छा से पूरी श्रद्धा विश्वास और समर्पण के साथ परमहंस ठाकुर रामकृष्णदेव को अपना आध्यात्मिक सद्गुरु स्वीकार कर लिया ! 

शिष्य के समर्पण के बाद , गुरु शिष्य सम्बन्ध स्थापित होते ही ठाकुर ने  निःसंकोच अपनी समग्र अलौकिक शक्तियाँ नरेंद्र में आरोपित कर दी ! उन्होंने स्पर्श, वाणी  एवं ध्यान की तीनों प्रक्रियाओं द्वारा नरेंद्र को दीक्षित किया और  जन्मजन्मांतर से संकलित अपनी सभी दिव्य क्रियाओं ,अलौकिक आध्यात्मिक शक्तियों को, सच पूछिए तो अपनी सम्पूर्ण साधना के प्रतिफल को अति उदारता से अपने इस सुयोग्य शिष्य में संचारित कर दिया ! 

रामकृष्ण देव को अपने इस विशिष्ट शिष्य से ऐसे कार्य करवाने थे जिसका लाभ केवल भारतीयों को ही नहीं बल्कि समग्र मानवता को मिले ! अस्तु नवयुवक नरेंद्र को उन्होंने अपनी निजी आराधना का यंत्र तथा अपने ध्येय की पूर्ति का साधन बनाया !  अपने इस शिष्य से उन्होंने  नर-नारायण सेवा को सम्पन्न करवाया,विश्व मंगल के लिए  ऐसे कार्य करवाए जिन्हें वह अपनी निरक्षरता जनित मजबूरियों  के कारण ,बहुत चाह कर भी ,स्वयम नहीं कर सकते थे !  

'नरेंद्र' ने ठाकुर के आदेशों का अक्षरश: पालन किया , उनकी इच्छाओं को ,उनके विचारों को अमली जामा पहनाया , उन्हें कार्यान्वित किया ! अपने गुरु के विश्वबंधुत्व , 'एकं ब्रह्म'  वं मानव सेवा के  चिंतन को समस्त विश्व में प्रसारित किया ! इस अभियान में ,परमहंस रामकृष्णदेव रहें "सिद्धांत यंत्री" और नरेंद्र बना उनका क्रियात्मक "यंत्र" !

१६ अगस्त १८८६ को परमहंस जी के ब्रहमलीन होने के पश्चात 'देवी माँ शारदामणि' के आदेशानुसार ,सर्वसम्मति से ,ठाकुर के सभी अनुयायियों ने, "नरेंद्र" को ठाकुर का उत्तराधिकारी मान लिया !  इस दायित्व को निभाते हुए नरेंद्रनाथ ने अपने सभी गुरु भाइयों को व्यवस्थित करने के लिए , 'गुरु माँ' के आशीर्वाद से, बंगाल के "वराहनगर'' में प्रथम "रामकृष्ण मठ" की स्थापना  की  !

'नरेंद्र' बने भिक्षु से संन्यासी 

दिसम्बर १८८६ में अनौपचारिक ढंग से और १८८७ में विधि विधान से संन्यास ग्रहण करने के बाद नरेंद्र ने 'मानव सेवा' का लक्ष्य साधा और गुरुदेव के चिंतन और सिद्धांतों को क्रियात्मक स्वरूप देने के उद्देश्य से वह संन्यासी बन कर भारत भ्रमण करने निकल पड़े !  इस भ्रमण में उन्होंने , वेदिक कालीन वास्तविक भारतीय दर्शन के आधार पर तत्कालीन भारतीय समाज में प्रचलित अस्पृश्यता, जातीयता ,साम्प्रदायिकता ,दरिद्रता व रूढिवादिता की भ्रांतियों को समूल मिटा देने का संकल्प किया ! 

इस भारत भ्रमण में जनता -जनार्दन ने उनकी आत्मीयता तथा मानव सेवा के व्यवहार से प्रभावित हो कर उन्हें "भिक्षु नरेंद्र " के स्थान पर "स्वामी" कह कर पुकारना प्रारम्भ कर दिया ! 
   

तरुण  सन्यासी 'नरेंद्र' बने 'स्वामी विवेकानंद' 

कालान्तर में माउंट आबू में स्वामी नरेंद्र की भेंट वर्तमान राजस्थान के तत्कालीन  खेतड़ी राज्य के राजा अजीत सिंह से हुई जो बाद में उनके शिष्य बन गये ! इन अजित सिंह के आग्रहात्मक विनय पर "नरेंद्र  ने उनके द्वारा प्रस्तावित "विवेकानंद" नाम स्वीकारा और इस प्रकार नरेंद्र बन गये "स्वामी विवेकानंद" !

कुछ समय बाद १८९३ में ,खेतडी नरेश की प्रेरणा ,प्रोत्साहन और व्यवस्था से स्वामी विवेकानंद , सात समुन्द्र पार 'उत्तरी अमेरिका' के नगर 'शिकागो' गये जहाँ उन्होंने Parliament of World Religions [ विश्व सर्वधर्म सम्मलेन ] में स्वदेश 'भारत' का प्रतिनिधित्व किया !  


[शिकागो सम्मेलन का विस्तृत वृत्तान्त अगले अंकों में प्रस्तुत करेंगे] 

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निवेदक: व्ही .  एन  . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती [डॉक्टर] कृष्णा भोला श्रीवास्तव .  
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शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

स्वामी विवेकानंद - [यात्रा - गतांक से आगे ]


From
 Narendra Nath  to Swami Vivekanand 
[ An ordinary Seeker's journey to an extraordinary Sainthood ]

यात्रा - नरेन्द्रनाथ से स्वामी विवेकानंद तक 
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कलकत्ते के सुप्रसिद्ध स्कोटिश चर्च कोलेज के प्रिंसिपल और इंग्लिश के प्रोफेसर डॉक्टर   विलियम हेस्टी के  सुझाव से ,जिज्ञासु नरेंद्रनाथ दक्षिणेश्वर स्थित रानीरासमनी की काली बाडी के पुजारी रामकृष्णदेव से अपनी शंकाओं का समाधान करवाने और उनका पांडित्य एवं उनकी दिव्यता परखने के लिए मिला  ! 



रानी रासमनी की दक्षिणेश्वर स्थित काली बाड़ी मंदिर की सुरम्य वाटिका में नरेंद्र की भेट पुजारी रामकृष्ण देव से हुई ! उस भेंट में उन दोनों के बीच जो वार्ता हुई और उसके उपरांत पुजारी की छोटी कोठरी में जो घटना घटी ,उसका संक्षिप्त विवरण मैं पिछले अंकों में दे चुका हूँ ! 

आपको याद दिलादूं कि उस साधारण से दीखने वाले पुजारी के स्पर्श मात्र से नरेंद्र "ट्रांस" में चला गया था ,उसे भाव समाधि लग गई थी ,उसकी चेतना अंतर्मुखी हो गयी थी !  भाव समाधि में  उसे अपने भूत ,वर्तमान और भविष्य की जानकारी भी हो गयी थी  ! 
प्रियजन ,ऐसा अनुभव नरेंद्र को केवल एक बार ही नहीं हुआ था ! जब भी  वह ठाकुर से मिलता था उसे ऐसे अलौकिक एवं अद्भुत अनुभव होते !

परमहंस ठाकुर के स्पर्शजनित शक्ति-संचरण से जिज्ञासु नरेंद्र प्राय: पूर्णतः आत्मलीन हो जाता था , अपनी सुध-बुध खो बैठता था ,उसका  रोम रोम नाच उठता था ! इन विचित्र  अनुभूतियों के कारण नरेंद्र को ,ठाकुर की योगशक्ति पर , उनकी सिद्धियों पर और उनकी आध्यात्मिक उपलब्धियों  पर विश्वास होने लगता था  ,लेकिन अविलम्ब  ही   उसकी तर्कशील बुद्धि और संशयात्मक प्रवृति  उस पर  हावी हो जाती और उसके जहन में यह प्रश्न उठ आता कि " यह वास्तव में है क्या ? चमत्कार है ,सम्मोहन है ,जादूगरी है या यह वास्तविक "ब्रह्म" का प्रत्यक्ष  दर्शन है " ! अक्सर उसे ऐसा लगता था कि "स्पर्श करके  'ठाकुर' उसे सम्मोहित [हिप्नोटाईज़]  कर देता है ,उस पर बंगाल का 'जादू ' कर देता है ! वह एक जादूगर के अतिरिक्त कुछ नहीं है !"

उधर दूसरी तरफ परमहंस ठाकुर , "नरेंद्र " की नैसर्गिक - आतंरिक और बाहरी दिव्यता को बखूबी जान गये थे ! अपनी दिव्य दृष्टि से ठाकुर ने ,"नरेंद्रनाथ" को चारों ओर से घेरे उसके "धवल आभा मंडल'" को प्रत्यक्ष देखा था ! उन्होंने उसकी  विलक्षण प्रतिभा और असाधारण क्षमताओं को परखा और खरा पाया था ! 

स्वानुभूतियों से ठाकुर रामकृष्ण देव जानते थे कि " उत्तम भजन कीर्तन के गायन और श्रवण से चहु दिश सात्विक भावों का ज्वार उमड़ता है , श्रोताओं एवं गायक की चेतना सर्वोच्च शिखर तक पहुँच जाती है ,सबके ही भाव ऊर्ध्वगामी  हो जाते हैं ! ऐसे में यदि गायक और श्रोताओं के मनोभाव  "सात्विक" हों तो गायक एवं श्रोताओं दोनों को  एक साथ  "समाधि" का सुख  मिल जाता है ,उन्हें परमानंद की प्राप्ति होती है और सिद्ध साधकों को तो कभी कभी ईश्वर के साक्षात दर्शन तक हो जाते हैं ! "

आपको बता चुका हूँ कि "नरेंन्द्र" न केवल सुंदर शब्द रचना करता था वह एक अति सुंदर  गायक भी था ! उसके कंठ का माधुर्य नैसर्गिक था ! अपने पिताश्री से संगीत शिक्षा पाकर "नरेंद्र" के 'स्वर्णिम' संगीत को जैसे "सुहागा" मिल गया था ,उसकी गायन कला और भी चमचमा उठी थी ! 

वह स्वरचित गीतों द्वारा ,गूढ़ से गूढ़ आध्यात्मिक तत्वों को अति प्रभावशाली ढंग से , अपने मधुर कंठ से गाकर श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर  देता था !  उसके भजनों की शब्द रचना सभा में उपस्थित श्रोताओं की सामयिक आध्यात्मिकता के अनुरूप होती थी ! कंठ में माधुर्य-रस से भरे उसके ऐसे भजन श्रोताओं को तत्काल मुग्ध कर देते थे ! उसके  दार्शनिक भावयुक्त हृदयग्राही भजन सुनकर जन साधारण की क्या कहें ,ठाकुर रामकृष्णदेव जैसे महापुरुष भी भाव विभोर हो जाते थे ,उनकी समाधि लग जाती थी ! 

ठाकुर भी नरेंद्र की इस प्रतिभा से अप्रभावित न रह सके ! उन्हें उसके " निराकार ब्रह्म " को निरूपित करते भजन भी उतने ही उत्तेजक लगते जितने उसके काली बाडी में साकार ब्रह्म का निरूपण करते भजन ! दोनों भावों के भजन सुनकर ठाकुर उनमें "ब्रह्म" का  नाम आते ही  समाधिस्थ हो जाते थे !

कहते हैं कि एक बार कुछ ऐसा ही नरेंद्र के मित्र -"सुरेन्द्र नाथ मित्रा" के घर पर हुआ ;नरेंद्र का गायन सुनते ही  प्रतिष्ठित   "ब्रह्म-समाजियों" के सन्मुख ही ठाकुर "भाव समाधि" में चले  गये थे !  प्रियजन ,ऐसा केवल निजी छोटी बैठकों में ही नहीं वरन एकाध बार तो बड़ी बड़ी जन सभाओं में भी हुआ था ! 

नरेंद्र को ठाकुर का ऐसा व्यवहार सर्वथा असंगत लगता था ! ये सब देख सुन कर उसके मन में अनेकों संकल्प -विकल्प उठने लगते  ! उसे शंका होती कि वह पुजारी ठाकुर ढोंग रचा रहा है ,नाटक कर रहा है  !  


इन निरीक्षण -परीक्षण  की गतिविधियों में रत नरेंद्र का मन  ,ठाकुर को सद्गुरु के रूप में स्वीकार नहीं कर सका ! पर देवयोग से इस दौरान ही नरेंद्र के मन में शनैःशनैः ठाकुर के प्रति अपार  आकर्षण ,उनके प्रति असीम श्रद्धा और उनके विचारों के प्रति सघन आस्था जागने लगी जो निरंतर बढती ही रही ! प्रियजन ,इस प्रकार नरेंद्र की रहनी सहनी और करनी में दबे पाँव एक अद्भुत उन्मत्तता समा गई ! और यह दीवानगी इकतरफा नहीं थी ! आपने शायद एक कहावत सुनी हो " मुमकिन नहीं कि आग बराबर लगी न हो " ! प्रियजन  ,  नवम्बर १८८१ से ही  दिव्य प्रीति की  यह आग ठाकुर रामकृष्णदेव और 'नरेंद्र' ,दोनों के अंतर में  धीरे धीरे सुलगती  रही और  ये दोनों महात्मा "दिव्य प्रेम" के अटूट बंधन में दृढता से बंधते गये ! 

पिताश्री के गुजर जाने पर ,रिश्तेदारों के अन्याय से पीड़ित नरेंद्र के कंधों पर, असमय ही   उसकी  माता तथा घर के अन्य संदस्यों की देखरेख का भार आ पड़ा ! वह एक अजीब  उलझन  में पड़ गया ! एक ओर था उसका परम सत्य का खोजी जिज्ञासु मन जो उसे आध्यात्म की तरफ खींचता था तो दूसरी तरफ था उस पर उसके परिवार की परवरिश का दायित्व ! दोनों के बीच वह किसे चुने , क्या करे ?  उसे 'स्वार्थ -परमार्थ' ,'जीवन -निर्वाह और तत्वज्ञान'  तथा 'प्रेय  एवं श्रेय  के बीच जीवन का एक ध्येय चुनना था ! 

नरेंद्र जानता था कि उसके आध्यात्म सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर केवल ठाकुर के पास ही थे अस्तु उसका मन उनसे मिलने के लिए तड़पता रहता था ! कभी  तो उसके कदम उसके न चाहने पर भी  दक्षिणेश्वर की ओर चल पड़ते थे और  कभी हफ्तों वह काली बाडी नहीं जाता था !बता चुका हूँ कि जब नरेंद्र बहुत दिनों तक नहीं आता था ,ठाकुर उसके वियोग से तड़प जाते थे और वह  स्वयम उसकी खोज में निकल जाते थे ! वह  नरेंद्रनाथ  जैसे विलक्षण शिष्य को अपने हाथ से निकलने नहीं देना चाहते थे !

वह नरेंद्र को भारत के पर्वतीय गुफा-कन्दराओं के एकांत में ध्यानस्थ परम ज्ञानी योगियों के समान , संसारियों से अलग थलग नहीं रखना चाहते थे ! वह चाहते थे कि नरेंद्र अपने जन्मजात नेसर्गिक आध्यात्मिक ज्ञान को , इस जीवन की अपनी निजी  आध्यात्मिक  अनुभूतियों के आधार पर परिष्कृत करे और समग्र  मानवता के हित में उस वास्तविक "धर्म"  को विश्व के समक्ष "मानव धर्म" के रूप में प्रस्तुत करे ! 


परमहंस सर्वदर्शी "ठाकुर" को "नरेंद्र" से ,भविष्य में वे महत्वपूर्ण काम करवाने थे, जिन्हें बहुत चाह कर भी ठाकुर स्वयम अपनी निरक्षरता के कारण  नहीं कर पा रहें थे !  नरेंद्र जैसे पढे लिखे , डिग्री याफ्ता, अनेक भाषाओं तथा भारतीय आध्यात्म ,सस्कृति ,दर्शन के युगान्तकारी जानकार कर्मयोगी में उन्हें एक महान विचारक ,उपदेशक ,प्रचारक के दर्शन होते थे !  उनकी इच्छा थी कि वह नरेंद्र के आध्यात्मिक  चिंतन को अपने सत्संगों द्वारा मांज कर, और भी अधिक चमका दें ! 

मन ही मन  "ठाकुर", अपने इस  विलक्षण शिष्य नरेंद्र नाथ दत्ता को ,निकटतम भविष्य में  "विश्वगुरु" के रूप में स्थापित करवाना चाहते थे !  

 क्रमशः 
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निवेदक : व्ही.  एंन .  श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

स्वामी विवेकानंद - 'दीक्षा विशेष'

'यात्रा'
  
 तार्किक "नरेंद्र नाथ"  से  विश्वधर्मगुरु "विवेकानंद" तक 
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(गतांक से आगे)
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पितामह' संन्यासी  ,'पिता' पाश्चात्य सभ्यता के साथ  ब्रह्मसमाजी निरंकारी विचारधारा से प्रभावित और 'माँ' कट्टर सनातनी, साकार ब्रह्म की उपासिका ,'शिव भक्त' ! तीर्थराज प्रयाग  में ,गंगा यमुना सरस्वती की त्रिवेणी के जल के समान तीन पतित पावन संस्कारों में गुथा  था कलकत्ते का वह "दत्त" परिवार ! 


जन्म से पूर्व माता के गर्भाशय में नरेंद्र को विरासत के रूप में प्राप्त हुआ,अपने संन्यासी पितामह से विरक्ति ,त्याग और सेवा का भाव ; अपने कर्मठ ,कर्तव्यनिष्ठ  पिताश्री से 'कर्म योग' का ज्ञान तथा इनके अतिरिक्त साकार ब्रह्म' की उपासिका अपनी प्यारी माँ से उसे मिली ,प्रेमभक्ति युक्त देवोपासना एवं सत्य, प्रेम, करुणा युक्त सात्विक जीवन जीने की कला !   

दिव्यदृष्टि के धनी  ठाकुर ने पहली नजर में ही आँक ली इस १८ वर्षीय विलक्षण नरेन्द्र  की आतंरिक दिव्य सम्पन्नता ! दूर से देखकर ही ठाकुर ने इस तेजस्वी युवक के बाहरी दिखावे वाले भ्रान्ति उत्पादक  आवरण से ढंकी उसकी वास्तविक दिव्यता का आंकलन कर लिया ! ठाकुर को नरेंद्र के स्वरूप में साक्षात  "श्री  नारायण" के दर्शन हुए और  उन्होंने नरेंद्र के अन्तस्तल में बिराजे उस 'महात्मा' को भी देखा जो विश्व कल्याण हेतु  इस धरती पर अवतरित हुआ था ! 

यहाँ ,परमहंस , नरेंद्र में उस भावी "युग पुरुष" का दर्शन कर रहें थे जो भविष्य में ,केवल भारत में ही नहीं ,समस्त विश्व में एक अनूठी आध्यात्मिक जागृति पैदा करने वाला था  और उधर ठाकुर के विचित्र बाह्य स्वरूप उनकी अर्धनग्नता और उनके व्यवहार की असाधुता को देख कर ,युवक "नरेन्द्र" इस सोच में पड़ गया था कि प्रोफेसर विलियम हेस्टी  की बात मान  कर कहाँ फंस गया वह ?!  उसके मन में बार बार यह प्रश्न उठ रहां था कि " जब बड़े बड़े पंडित, वेदान्ती  मेरे प्रश्नों के उत्तर न दे सके तब  काली मंदिर का यह निरक्षर पुजारी  मेरी शंकाओं का क्या समाधान करेगा ?"

"नरेंद्र" के ताम्र वर्ण के ,गठीले कसरती शरीर से निरंतर फूटता ,दिव्यता का प्रतीक उसका "आभा मंडल" ठाकुर को दिन के प्रकाश में भी साफ़ साफ नजर आ रहां था ! ठाकुर ने प्रथम दृष्टि में ही तत्त्वजिज्ञासु नरेंद्र की सात्विकता और उसकी अंतर्चेतना पर दृढता से आसीन उसकी श्रद्धा - भक्ति की गहनता को भलीभाँति नाप लिया  ! और ---

नरेंद्र के इस प्रश्न के उत्तर में , कि क्या ठाकुर उसे भी 'भगवान' का दर्शन करवा सकते हैं ,उन्होंने कहा "चलो हमारे साथ हमारी कोठरी में चलो , वहीं एकांत में तुम्हारे सब  प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे "! तदोपरांत ------


परमहंस राम कृष्ण देव नरेंद्र नाथ को अपनी कोठरी की ओर ले चले ! 


दीक्षा विशेष 

ठाकुर  विचित्र थे ,दीक्षा देने के लिए  उनकी कोई एक निश्चित 'विधि पद्धति' अथवा प्रणाली' नहीं थी ! दीक्षा-आकांक्षी साधकों की योग्यता देख कर प्रत्येक साधक को वे उसकी अपनी समझ तथा ग्राह्य शक्ति के अनुरूप नई नई विधि से दीक्षित करते थे ! 

ठाकुर के प्रमुख शिष्यों में जहां एक तरफ उनके ही समान निरक्षर उनका निजी सेवक "लाटू" जैसा अति साधारण व्यक्ति था ,वहीं दूसरे छोर पर था एक अति प्रतिभाशाली कलकत्ता विश्व विद्यालय का स्नातक ] Graduate ] और संसार के विविध धर्मों को गहराई से समझने बूझने वाला ,परमज्ञानी नवयुवक-"नरेंद्र नाथ दत्त",जिसकी आभा मंडल में ठाकुर को "सप्त ऋषियों" सा जगमगाता  तेज पुंज दृष्टिगत होता था ! 
  
नरेंद्र जैसे तेजस्वी अनुयायी को पाकर श्री रामकृष्णदेव कृतार्थ हो रहें थे !उनको नरेंद्र में अपनी समग्र आध्यात्मिक संपत्ति का वास्तविक उत्तराधिकारी मिल गया था ! वह शीघ्रातिशीघ्र नरेंद्र में अपनी समस्त संचित साधना संचारित कर देना चाहते थे ! अस्तु -


ठाकुर, नरेंद्र को वहीं काली बाड़ी के प्रांगण में स्थित अपनी छोटी सी अंधेरी कोठरी में ले आये ! कोठरी में "माँ" की प्रतिमा के सन्मुख एक नन्हा सा दीपक टिमटिमा रहा था ! वहाँ ठाकुर स्वयम एक काठ के पीढे पर बैठे और उन्होंने नरेंद्र को कोठरी के एक कोने में पडी सतरंगी बिछाकर , ठीक सामने बैठने का आदेश  दिया !

ठाकुर के आदेशानुसार नरेन्द्र सतरंगी बिछा कर ठाकुर के सामने बैठ गया, तदोपरांत ठाकुर ने  नरेंद्र के शरीर पर से उसकी गंजी और कमीज़ उतरवाई ! नरेंद्र झुझूला उठा ! वह  मन ही मन बडबडाया "क्या पागलपन है यह ? आखिर करना क्या चाहता है यह पाखंडी ?    

स्थिति यह थी कि जहाँ समर्थ गुरु को अपने चेले में साक्षात् "प्रभु" के दर्शन हो रहें थे वहीं तार्किक बुद्धि वाले ,नास्तिक शिष्य को उस गुरु के व्यवहार में पागलपन के अतिरिक्त कुछ और नजर ही नहीं आ रहा था ! ठाकुर भाप गये नरेंद्र के मन की दुविधा मिटाने के लिए  नरेंद्र के उघारे शरीर पर उसके "मन" और "प्राण" के केंद्र -स्थल का स्पर्श किया ! 

ठाकुर का दिव्य स्पर्श पाते ही नरेंद्र को एक अनूठी अनुभूति हुई, उसे आत्म साक्षात्कार हुआ ! नरेंद् की बाह्य चेतना अंतर्मुखी हो कर ऊर्ध्वगामी हो गई ! ठाकुर के उस अति सूक्ष्म स्पर्श से 'नरेंद्र' को अलौकिक आनंद का अनुभव हुआ ,  परम तत्व का बोध हुआ और उसका आध्यात्मिक पथ प्रशस्त हुआ ! 


१८८१ नवम्बर से अपने जीवन की अंतिम घड़ी -१८८६ तक के पांच वर्षों में  परमहंस श्री रामकृष्ण देव ने अन्य साधकों और शिष्यों  के ,अनेकानेक आरोपों और आक्षेपों की परवाह किये बिना बड़े लगन से,शनैः शनैः नरेंद्र के व्यक्तित्व का विकास किया ,उसकी विद्वता में ,दार्शनिक और व्यावहारिक  आध्यात्म का संगम करवाया ,उसे मानवतावादी कर्मयोगी बनाया और इस प्रकार उसे परम नास्तिक से परम आस्तिक बना  कर भारतीय आध्यात्म और संस्कृति का विश्व गुरु बना दिया ! 


नरेन्द्र नाथ दत्ता से विश्वगुरु स्वामी विवेकानंद 
बनने और उसकेआगे की कथा 
अगले अंक में 

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निवेदक : व्ही. एंन . श्रीवा स्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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रविवार, 2 दिसंबर 2012

स्वामी विवेकानंद जी की दीक्षा



        स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद जी की दीक्षा 

कलकत्ता महानगर  के एक सम्पन्न उच्चवर्गीय परिवार में १२ जनवरी १८६३ की प्रातः लगभग ७ बजे जन्मा एक तेजस्वी एवं चुम्बकीय आकर्षण युक्त सुंदर सलोना शिशु !

शिशु के 'पिता' श्री विश्वनाथ दत्ता ,कलकत्ता हाईकोर्ट के एक जाने माने अति-व्यस्त एडवोकेट थे ! वह पाश्चात्य संस्कृति के प्रबल पक्षधर थे !  उनकी  धर्मपत्नी , श्रीमती भुवनेश्वरीदेवी धार्मिक विचारों एवं सनातन सिद्धांतों में दृढ़ आस्था रखने वाली भद्रमहिला थीं !  वह देवाधिदेव महादेव "शिव"  की परमभक्त व अनन्य उपासिका थीं !

बालक के जन्म से पूर्व , उसके विरक्त संन्यासी पितामह [ठाकुर दा ] - श्री दुर्गादासजी  यह असार संसार छोड़ चुके थे !

कहते हैं कि यह बालक हाव भाव स्वभाव ,चाल ढाल , नाक नक्शे तथा रंगरूप में बिलकुल अपने पितामह ब्रहमलीन संन्यासी दुर्गाचरनदास जी का 'नन्हा प्रतिरूप' ( abridged edition - संक्षिप्त संस्करण ) लगता था ! कोई कोई तो यह भी कहता था कि दिवंगत संन्यासी श्री दुर्गादास जी ने  ही उस शिशु के रूप में दत्त परिवार में पुनर्जन्म लिया है !

ऐसे में इस बालक के माता पिता एवं परिवारजनों को बालक के बालपन से ही यह चिंता और आशंका सताने लगी कि कहीं , बडा होकर यह बालक भी अपने ठाकूर दा (दादा जी) की तरह  ,विरक्त होकर संन्यास न ले ले !

बालक का नाम बताना तो भूल ही गया ! प्रसव काल में "माँ" सतत अपने इष्ट भगवान "शिवशंकर" का स्मरण करती रहीं ! उनके जहन में घूम फिर कर बार बार भगवान शिव  का "वीरेश्वर" नाम  उभरता रहा ! अस्तु माँ ने मन ही मन आगंतुक बालक का नाम रख लिया "वीरेश्वर" ! दुलार में वह उसे "बिले " नाम से पुकारने लगीं ! परन्तु बहुत दिन नहीं चला यह नाम ! यज्ञोपवीत के समय ज्योतिष के आधार पर बालक की जन्म राशि के अनुकूल ,उनका नामकरण हुआ ! ज्योतिषाचार्य की सलाह से ,दत्त परिवार के कुल पुरोहित ने उस बालक को ,"न" अक्षर का नाम दिया - "नरेंद्र नाथ" !

कदाचित पूर्वजों एवं अपनी माँ के धार्मिक संस्कार  तथा स्वयम अपने पूर्व जन्मों के संचित प्रारब्धानुसार बाल अवस्था से ही, मेधावी दार्शनिक और तार्किक बुद्धिवाला "नरेंद्र" विभिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों की वास्तविकता जानने की कोशिश में लग गया !

उसका मन कभी अपनी माताश्री की सुदृढ़ आस्तिकता तथा मूर्ति पूजन में उनकी अचल  आस्था की ओर तो कभी उस समय के बंगाल के जागृत पढे लिखे समाज की 'नास्तिकता' के कगार पर खडी धार्मिक प्रवृत्ति की ओर झुक जाता ! ऐसे में उसके भ्रमित  मन में कभी कभी यह प्रश्न भी उठ खड़ा होता था  कि 'भगवान' अथवा   'ईश्वर' नामक कोई सत्ता है भी या  नहीं ! अस्तु जीवन के १८ वें  वर्ष तक 'नरेंद्र नाथ' ,की तार्किक बुद्धि हिंदू सनातनियों  के मूर्ति पूजन और ब्रह्म समाज द्वारा इस मत के पुरजोर खंडन की गुत्थी सुलझाने और वास्तविक मानव धर्म की तलाश में जुटी रही  !

सदगुरु का प्रथम दर्शन  

हिंदुत्व के अतिरिक्त ,स्वदेश में  दृढता से पाँव पसारे इस्लाम और ईसाई धर्म तथा इन धर्मों के मत मतान्तरों की दार्शनिक विसंगताओं में मानव धर्म के "वास्तविक सत्य" का दर्शन न मिलपाने से क्षुब्ध नरेन्द्र ने इन सभी धर्मों के अभिनन्दनीय ग्रंथों का गहन अध्ययन किया ! तदोपरांत उसने इन सभी धर्मों के गुरुओं का साक्षात्कार किया ! इन साक्षात्कारों द्वारा नरेंद्र ने , तथाकथित इन महापुरुषों की आध्यात्मिक दिव्यता का आंकलन भी किया !

इन गुरुओं से नरेंद्र नाथ को न  तो अपने प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर  मिले और न उसे उनमे "आत्मसाक्षातकार" करा देने वाली दिव्य शक्ति के दर्शन ही हुए ! सुना है कि इस अभियान में जिज्ञासु "नरेंद्र" ने ,५२ (बावन ,जी हाँ  ५२ ही )  विविध धार्मिक गुरुओं से मुलाक़ात की !

अन्ततोगत्वा अपने कोलेज के अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर की सलाह से   परम सत्य का खोजी ,१८ वर्षीय "नरेंद्र नाथ"  नवम्बर १८८१ में , आज से लगभग १३१ वर्ष पूर्व दक्षिणेश्वर  के काली मंदिर में ,परमहंस ठाकुर रामकृष्णजी से अपनी जिज्ञासाओं की शांति तथा ईश्वर संबंधी अपने सभी प्रश्नों का सही उत्तर पाने की लालसा से गया !

५२ धर्म गुरुओं के उत्तरों से असनतुष्ट  नरेन्द्र नाथ अपने ५३वे परिक्षार्थी के सन्मुख खड़ा था ! उस समय ,ठाकुर खुली आँखों से समाधिस्थ  बैठे थे ! उनका चेहरा निर्विकल्प निर्लेप भाव विहींन था ! अपने नये परीक्षार्थी , उस पागल से दीखते ,अधनंगे वैरागी  'ठाकुर राम कृष्ण' पर प्रथम दृष्टि पड़ते ही  तर्कशील नोरेंन का मन उनका मजाक उड़ाने को हुआ !  उसके जी में आया कि वह उस ध्यानस्थ ठाकुर को छुए ,उसे गुदगुदाए , उनकी दिखावटी  समाधि भंग कर दे !  लेकिन बहुत चाह कर भी वह वैसा नहीं कर सका [क्या जाने क्यूँ उसे उतना साहस ही नहीं हुआ ]

ध्यान भंग होते ही ठाकुर ने मुस्कुरा कर ,उस मेधावी  युवक पर अपनी प्रश्नसूचक दृष्टि डाली ! इधर युवक पहिले से ही ,अपनी ओर से प्रश्नों की गोलियां दागने को  तय्यार बैठा था ! व्यंगात्मक भंगिमा से बोला " ध्यान में आपको भगवान के दर्शन तो हुए ही होंगे ?" ! ठाकुर कुछ बोले नहीं मुस्कुराते रहे !

युवक  चुप न रहा फिर बोला " बाबा,सब गेरुए वस्त्रधारी  नकली जटाजूट वाले सन्यासी ढोल पीट पीट कर कहते फिरते हैं कि उन्होंने भगवान को देखा हैं ! आप भी बोल दीजिए , क्या लगता है बोलने में ?" ! ठाकुर फिर भी कुछ न बोले !

वह ढीठ युवक बोलता ही गया ! इस् बार उसने बात थोड़ी घुमा दी ,पूछा ,"महाराज , कम से कम हमे ये तो बता ही दीजिए कि ,"भगवान" है भी या नहीं ? "

उत्तर में ठाकुर बोले " है अवश्य है ! क्यूँ ,तुम्हे कोई शक है क्या ?"!

युवक बोला ," बाबा, शक न होता तो पूछता ही क्यूँ ? आपकी तरह सब कहते फिरते हैं कि 'भगवान हैं' लेकिन कोई साबित नहीं कर पाता ! आप ही बताइए क्या आपने स्वयम देखा  है अपने उस भगवान को " !

ठाकुर अब और चुप  न रह सके ,दृढता से बोले ,"मैंने ईश्वर को  वैसे ही देखा है जैसे  मैं इस समय तुम्हें देख रहा हूँ , मेरी तो उनसे बातचीत भी होती है "!

असंतुष्ट नरेंद्र पुनः ठाकुर को छेड़ते हुए बोला " मान लिया बाबा आपको भगवान का दर्शन होता है ! लेकिन मुझे तो तब विश्वास होगा जब  आप मुझे अपने उस भगवान के दर्शन करायेंगे "!

ठाकुर ने आश्वासन देते हुए कहा -" निश्चय ही , तुझे तो अवश्य दर्शन करवाऊंगा ,उचित समय आने दे ! "

[ क्रमशः ]
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आज यहीं समाप्त कर रहा हूँ ! "दीक्षा विशेष" की चर्चा ,अगले अंक में होगी !
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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