हमारी अम्मा
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जिसका परम धर्म है "परहित", जिसकी पूजा "परसेवकाई"
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जिसका परम धर्म है "परहित", जिसकी पूजा "परसेवकाई"
काबा काशी "तन" है जिसका "मन" जिसका शिवमंदिर भाई
वह प्राणी है परम धार्मिक, और वही है प्रभु को प्यारा
जो जनजन से प्रीति करे है ,उर बहती जिसके मधु धारा
परमसत्य जो जान गया यह,"प्रभु को केवल प्रेमपियारा"
दोनों हाथों लुटा रहा "प्रभु" अक्षय प्रेमप्रीति भंडारा
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द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व ,अपने जीवन के पहले ८-१० वर्षों में , [१९२९ से '३८-'३९ तक ] , हम अपने बाबूजी के "राजयोग" का भरपूर आनंद लूटते रहे ! उन दिनों आलम यह था कि हर महीने के पहले रविवार की शाम बंगले के पिछवाड़े के "पेंट्री" के दरवाजे पर एक 'ठेला' खड़ा होता था , जिसपर चार बच्चों वाले हमारे बाबूजी अम्मा के छोटे से परिवार के लिए महीने भर की रसद लदी होती थी ! [ मित्रों ,तब तक "हम दो, हमारे दो" वाला नारा ईजाद नहीं हुआ था ] !
बाबूजी के विश्वास पात्र ,घर के रसोइये , बलिया से आयातित , पंडित मोती तिवारी जी अपने सामने ही , कलक्टरगंज की आढतों से अनाज के बोरे , शुद्ध देशी घी और सरसों तथा तिल्ली के तेल के बड़े बड़े कनस्तर ,तथा मसालों के कार्टन और विलायती चाय , होर्लिक्स ,ओवलटीन, क्वेकर ओउट्स ,तथा इंग्लेंड के "किंग जोर्ज द फिफ्थ" द्वारा सम्मानित ओरिजिनल ब्रितानिया कम्पनी के "डाइजेस्टिव" और "क्रीम क्रेकर" बिस्कुटों के टीन के सील बंद बक्से लदवाकर ,ठेले के साथ साथ पैदल चल कर बंगले तक लाते थे !आपको यकींन नहीं होगा ,उस ठेले पर लदा वह सारा सामान [जिनिस] उन दिनों मात्र ६० चांदी के रुपयों में आ जाता था ! गजब की , सस्ती का जमाना था वह ! घी दूध की नदिया बहतीं थीं , अम्मा खुले हाथ खर्च करतीं थीं, इच्छानुसार दान दक्षिणा देतीं थीं , अपने परिवार के साथ साथ अडोस पडोस के जरूरतमंद लोगों को भी खिलाती पिलाती रहतीं थीं ! किसी प्रकार की कोई रोक टोक नहीं थी उनपर !
उन्ही दिनों अम्मा ने एक बार घाट के भिखारियों को बंगले पर लंगर खाने के लिए बुला लिया ! तबसे बंगले के आगे प्रत्येक मंगलवार को हनुमान जी के नाम पर तथा शुक्रवार को अल्लाह् के नाम पर भीख माँगने वालों की भीड़ जमा होने लगी ! इस संदर्भ का एक मनोरंजक अनुभव बताऊँ :
मैं तों बहुत छोटा था , बड़े भैया कहते थे कि उन्होंने देखा था कि मंगलवार को जो भिखारी "महाबीर जी " के नाम पर भीख मांगते थे ,उनमे से ही कुछ शुक्रवार को तुर्की टोपी पहन कर "अल्लाह" की दुहाई देकर ,भीख का अपना डिब्बा आगे बढा देते थे ! उनकी तुर्की टोपी के नीचे से हिंदुत्व की प्रतीक -"चुरकी" [नारद मुनि जैसी चोटी] निडर हो कर झांकती थी !
बाद में, मैंने भी एक गर्मी के दिन, ट्रेन से यात्रा करते समय देखा कि बाल्टी में पानी भर कर यात्रियों को जल पिलाने वाला ,चलता फिरता प्याऊ जिसे उनदिनों "पानी पांडे" कहा जाता था ,पानी पिलाता हुआ जब रेल के इंजिन से गार्ड के डिब्बे की तरफ जाता था तब उसके सिर पर गांधी टोपी होती थी और वह "हिंदू पानी. हिंदू पानी" की आवाज़ लगाता था और वही व्यक्ति जब गार्ड के डिब्बे से इंजिन की ओर वापस जाता था तब वह "तुर्की" टोपी लगा कर "मुस्लिम पानी " की आवाज़ लगाता था ! बाल्टी वही थी , पानी वही था , मग्गा लोटा भी वही था , एक टोपी बदल लेने से एक "खुदा का बंदा" ,एक " ईश्वर अंश अविनाशी जीव" कभी हिंदू और कभी मुसलमान बन जाता था ! जेठ असाढ़ की तपती दोपहरी में मानव शरीर को जीवन प्रदान करने वाला "पानी" कभी गंगा जल सा पवित्र "हिंदू पानी" हिंदुओं की ,और कभी "आबे ज़म जम " बन कर हमारे मुस्लिम भाइयों की प्यास बुझाता था !
किस पचडे में पड़ गया मैं ? हाँ हिंदू-मुस्लिम के इस झगड़े में पड़ने के पहले मैं यह कह रहा था कि परिस्थिति चाहे अनुकूल रही या प्रतिकूल ,अम्मा का स्वभाव अपरिवर्तित रहा , उनकी पर-सेवावृत्ति और भरसक अधिक से अधिक भूखों की क्षुधा पूर्ति करवाने की प्रवृत्ति आजीवन बनी रही !
लेकिन हुआ ऐसा कि दूसरे विश्वयुद्ध के शुरू होते ही, पासा पलट गया ! बाबूजी की कुंडली के सभी योगकारक ग्रह वक्री हो गए, जिसकी वजह से वे आर्थिक अभाव से ग्रसित हो गए ! मित्र-वेशधारी शत्रुओं ने उन्हें घेर लिया ! सब्ज़ बाग दिखा कर उनकी पीठ में छुरा भोंक दिया ! पल भर में हमारे "राज योग" पर शनि देव की गाज गिरी और हम सब के सपने चकना चूर हो गए ! बेचारे बाबूजी की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय हो गयी !
लेकिन ऐसी स्थिति में भी , बाबूजी ने अम्मा से उनकी दान-दक्षिणा में कोई कमी करने का आग्रह नहीं किया और अम्मा तंगी की इस वास्तविकता से सर्वथा अनभिज्ञ रहीं ! वह धनाभाव के उन दिनों में भी अपने घर से परमट घाट के बीच के रास्ते के दोनों किनारों पर कतार से बैठे भिक्षुक बच्चों पर तथा गंगा घाट के संस्कृत विद्याल्रय के अनाथ निर्धन विद्यार्थियों पर अपनी करूंणा पूर्ववत लुटाती रहीं ! परमटघाट के सभी दूकानदार ,बाबूजी के समृद्धि के दिनों से परिचित थे ,अतएव प्रति मास के आरम्भ में वे घर आकर अम्मा द्वारा खरीद कर निर्धनों में वितरित सामग्री की कीमत ले जाते थे !
हमारी अम्मा
उनका "परम धर्म" था "परहित", उनकी पूजा "परसेवकाई"
"काबाकाशी" था "तन" उनका "मन" ही था "हरि मंदिर"भाई
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क्रमशः
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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5 टिप्पणियां:
अहा! बहुत ही सुन्दर लगा आपका यह वृतांत और
आदरणीय माता जी की श्रद्धा भक्ति.आप ने अति
सुन्दर चित्र खिंचा है उन दिनों का.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
आनेवाले नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ.
समय मिलने पर मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
'हनुमान लीला भाग-२' पर आपका स्वागत है.
बहुत ही सुन्दर व संदेशपरक संस्मरण्।
आपकी इस सुन्दर प्रस्तुति ने दिल को छू लिया ....बहुत ही अच्छा वर्णन किया है आपने ,आभार
प्रिय राकेशजी,
स्नेहमयी वंदनाजी एवं रेखा बेटी
राम राम! आप सब का आभार ,धन्यवाद !
सबको ही नये वर्ष की हार्दिक बधाई और शुभ कामनाएं ! सब पर श्री राम की असीम कृपा सदा सर्वदा बनी रहे ! -श्रीमती कृष्णा एवं व्ही.एन एस "भोला"
आनन्द आ गया।संस्मरण का सुस्पष्ट चित्रण।
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