रविवार, 28 अक्टूबर 2012


सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी महाराज की कृपा के 
अनुभव 

इस जीवन के एक एक पल में मैंने अपने प्यारे सद्गुरु की अपार कृपा का अनुभव किया है ! मुझे ऐसा लगता है जैसे इस जीवन में किया हुआ मेरा कोई भी कृत्य स्वामी जी की कृपाजन्य शुभ प्रेरणाओं के बिना मुझसे हो ही नहीं सकता था ! उनकी कृपा के बिना मैं, जीवन भर आधा अधूरा क्या , मात्र एक बड़ा शून्य ही बना रह जाता ! स्वामीजी की कृपा जन्य उपकारों की गणना करना असम्भव है !  मेरा मन कहता है 



हे स्वामी

तेरे गुण उपकार का पा सकूं नहि    पार 
रोम रोम कृतग्य हो  करे सुधन्य  पुकार

[स्वामी सत्यानन्द जी की "भक्ति प्रकाश'" से ]  

प्रियजन , इससे पूर्व मैंने अनेकों बार जोर दे कर कहा है कि मेरे आध्यात्मिक दीक्षा-गुरू ,श्रद्धेय स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ,प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में मेरी सारी सांसारिक उपलब्धियों ,तथा जीवनयापन हेतु किये मेरे सभी कर्मों ,की सफलता के साथ साथ मेरी समग्र आध्यात्मिक प्रगति के मूल कारण और मेरे बल-बुद्धि के एकमात्र स्रोत थे !  [प्रियजन स्वामी जी महाराज को "थे " कहना सर्वथा अनुचित है , भूल से लिख गया]




स्वामी जी  आज भी हमारे अंग संग हैं ! वह , हमारी मनोभावनाओं में, हमारे चिंतन और विचारों में इस क्षण भी उतने ही जीवंत और क्रियाशील हैं जितने वे आज से , ५६ वर्ष पूर्व मेरे दीक्षांत की घड़ी में थे ! 

मेरे दीक्षा के समय की विशेष स्थिति 


नवम्बर १९५९ में मुरार -ग्वालियर के सौदागर संतर  में डॉक्टर देवेन्द्र सिंह जी बेरी   के    निवास -स्थान पर ,उनकी पूजा की १० बाई १० की कोठरी में ,एक दूसरे से केवल हाथ भर की दूरी पर बिलकुल एकाकी ,मेरे सामने बैठे थे, नवोदित सूर्य की स्वर्णिम किरणों के समान जगमगाते परम आकर्षक व्यक्तित्व वाले मेरे सद्गुरु प्रातः स्मरणीय परम श्रद्धेय स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ! 

जरा सोचें , इससे अधिक एकाकी सामीप्य ,उस देवतुल्य महापुरुष का कब और किसे मिला होगा ?

एक कन्फेशन करूं ,प्रियजन स्वामीजी के तेजोमय  मुखमंडल पर मेरी आँखें कुछ एक पल से अधिक ठहर ही न सकीं ! महाराज जी के चहुँ ओर फैली ज्योतिर्मयी आभा और उनके तेजस्वी स्वरूप की चकाचौंध में मैं अपनी सुध बुध खो बैठा ! उसके बाद मुझे ,न तो समय का भान रहा न वस्तुस्थिति का ज्ञान ! 

मैं मंत्र मुग्ध सा  बैठा हुआ वह सब करता रहा जिसका आदेश स्वामी जी ने वहाँ , मुझे दिया ! आदेश पालन में मुझसे अवश्य ही कोई बड़ी भूल नहीं [ जी हाँ नहीं ] हुई होगी, तभी तो दीक्षा के उपरांत सही सलामत बच गया ! 

दीक्षा के समय की मेरी मनः स्थिति व्यक्त हैं संत ब्रह्मानंद जी के इन शब्दों में  --


किस देवता ने आज मेरा दिल चुरा लिया 
दुनिया कि खबर ना रही तन को भुला दिया 

सूरज न था न चाँद था बिजली न थी वहाँ ,
इकदम ही अजब शान का जलवा दिखा दिया 

स्वामी जी जैसे सिद्ध महापुरुष से ,"राम नाम" का  मंगलकारी गुरू मंत्र पाना स्वयमेव एक अनमोल उपलब्धि है !  मेरे विचार में मेरी  दीक्षा के समय की उपर वर्णित विशेष स्थिति , श्री राम शरणम के आम दीक्षा समारोहों से निश्चय ही बहुत भिन्न थी ! 


जो भी हो प्रियजन ,मुझे आज इस पल भी  उस दिव्य घड़ी के स्मरण मात्र से सिहरन हो रही है - वह शुभ घड़ी जब मेरे जैसे कुपात्र की खाली झोली में , स्वामी जी महाराज ने अपनी वर्षों की तपश्चर्या दारा अर्जित " राम नाम " की बहुमूल्य निधि डाल दी थी !


नहीं जानता कि अन्य कितने ऐसे भाग्यशाली साधक हैं जिनको स्वामी जी महाराज ने वैसे ही  एकांत में दीक्षा दी , जैसे उन्होंने मुझे दी थी ! काश मैं ऐसे अन्य साधकों से मिल सकता ! लेकिन दुःख तो ये है कि मेरे लिए अब भारत जाने की सम्भावनायें बहुत कम हैं और मुझे लगता है कि जो वैसे साधक अभी  हैं उनकी दशा भी मेरी जैसी है : सब के सब ही मेरी तरह------- कमर बाँधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं 

बहुत हैं जा चुके ,   बाकी जो हैं तैयार बैठे हैं 
कमर बाँधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं 

  न छेड़ अय निगहते बादे बहारी राह लग अपनी 
तुझे   अठखेलियाँ   सूझीं हैं    हम  बेज़ार बैठे हैं 
कमर बाँधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं 

श्रीराम शरणं के संस्थापक  स्वामी जी महाराज मुझे दीक्षित करने के एक वर्ष बाद ही यह संसार छोड़ गये ! प्रियजन , मैं दुर्भाग्य नहीं कहूँगा उनके बिछोह को !  आप पूछेंगे क्यूँ ? मेरी अपनी क्या दशा हुई -भाई ! एक भेद की बात बताऊँ , उनकी ही कृपा से तब से आज तक के अपने जीवन  के लगभग ५५   वर्षों में  मैं पल भर को भी निगुरा नहीं रहा ! बाबा के उत्तराधिकारी  श्री प्रेम जी महाराज  और उनके बाद परम श्रद्धेय डॉक्टर विश्वमित्तर जी महाराज का आश्रय और स्नेहिल आशीर्वाद मुझे मिला और  उन्होंने हर प्रकार से मुझे सम्हाला !

क्रमशः 
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निवेदक : व्ही.  एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग:  श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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बुधवार, 24 अक्टूबर 2012

सद्गुरु कृपा

"माँ " हमारी प्रथम सद्गुरु 

महापुरुषों से सुना एक चिरंतन सत्य है -"इस धरती पर जन्मा कोई भी जीव अपनी "माँ" के होते हुए कभी भी 'निगुरा' अर्थात- 'गुरू विहीन' नहीं है "!  जीव' को उसका यह प्रथम गुरू उसके जन्म से पूर्व ही मिल जाता है और उसकी यह जननी "माँ" , आजीवन उसकी "गुरू" बनी उसका मार्ग दर्शन करती है ! वही उसकी प्रथम सद्गुरु है ! 

अपनी 'माँ' का , बल- बुद्धि- ज्ञानप्रदायक अमृततुल्य "पय"पान कर "जीव" शनै शनै विकसित होकर सम्पूर्ण मानव बन जाता है !  

उपदेशक एवं "आध्यात्मिक सद्गुरु"  अथवा "दीक्षा गुरू "   

जीवनयात्रा में  जीव के पथ पर सदैव उसके साथ चलते हैं उसके "उपदेशक गुरू" तथा उसके आध्यात्मिक सद्गुरु ("दीक्षा गुरु") ! प्यारे प्रभु की विशेष अनुकम्पा प्राप्त मानव अपने इन गुरुजन की शिक्षा-दीक्षा तथा आशीर्वाद एवं उनके  अनुग्रह से सिंचित हो कर आजीवन फूलता फलता रहता है

उपदेशक- गुरू 

'सद्गुरु'  के अतिरिक्त मनुष्य के साथ सतत बने रहने वाला गुरू है "उपदेशक गुरू"! 

मनुष्य का निर्मल आत्मा  ही  उसका उपदेशक गुरू है ! यह शुद्ध आत्मा अपने हित -अहित का निर्णय स्वयम करने में पूर्ण समर्थ है !  लेकिन ऐसा देखा ग्या है कि अशांत व विक्षिप्त बुद्धि वाले शिष्य अपने अंत:करण के इन सूक्ष्म आदेशों को सुनने और समझने में असमर्थ रहते हैं ! 

श्रीमदभागवत पुराण के एकादश स्कंध [अध्याय ७ श्लोक २० में] योगेश्वर श्री कृष्ण ने उद्धव को उपदेश देते हुए  कहा है कि मनुष्य का आत्मा  ही  उसके हित और अहित  को दर्शाने वाला "उपदेशक गुरू" है ,जो सद्गुरु के समान  पल भर को भी अपने शिष्य का साथ नहीं छोड़ता !

सद्गुरु श्री विश्वामित्र महाराज ने अपने प्रवचन में इस सूत्र की ओर संकेत करते हुए कहा   कि जीवन काल में जीव का वास्तविक आध्यात्मिक दीक्षा -गुरू केवल एक ही होता है !  दीक्षा एक रहस्यमयी प्रक्रिया है जिसे केवल वास्तविक समर्थ गुरू ही कार्यान्वित कर पाते हैं  ! ऐसे  ही सक्षम सद्गुरु  शिष्यों को दीक्षित करने के अधिकारी हैं ! अपने  बाबा गुरू श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज पूर्णतः सक्षम थे !

सद्गुरु एक कवच के समान अपने शिष्य के शरीर को हर तरफ से ढंक कर उसकी रक्षा करता रहता है ! वह योगेश्वर कृष्ण के समान जीवन रण में अर्जुन जैसे अपने शिष्य को उचित निर्देश भी देता रहता है ! 

वास्तविक समर्थगुरू अपने शिष्य को पल भर के लिए भी अकेला नहीं छोड़ता ! जहाँ वह सशरीर पहुंच कर  शिष्य का कष्ट निवारण नहीं कर पाता वह वहाँ सूक्ष्म रूप में पहुंच कर "प्रेरणा" बनकर ,शिष्य की शंकाओं का समाधान कर देता है ! 

कभी कभी आध्यात्मिक सद्गुरु अपने  शिष्य का साक्षात्कार अन्य सक्षम गुरुजनों से करा कर उसे चिंता मुक्त कर देता  है  !   इस प्रकार सदाचारी जीवन जीने के लिए 'जीव' को अन्य सक्षम गुरूओं से शिक्षा ग्रहण करने की व्यवस्था सद्गुरु स्वयं कर देता है !  उसे छूट है अन्य शिक्षा गुरुओं से उपदेश प्राप्त कर  आध्यात्मिक प्रगति करने की !  

चलिए अपनी निजी अनुभूतियों की ही बात आगे बढाएं !  हाँ तो  जन्मदात्री "माँ" मेरी भी प्रथम गुरू थीं ! उन्होंने बचपन में ही मेरे मन में "प्रेम भक्ति" का बीज आरोपित कर दिया  था ! उसके बाद जीवन में अनेक शिक्षा गुरू और उपदेश गुरू मिले जिन्होंने मेरी लौकिक-यात्रा पर प्रगति करने का सम्बल दिया !  इस बीच नवम्बर १९५९ में तीस वर्ष की अवस्था में मुझे उच्च कोटि के महान  समर्थ सदगुरु  प्रातः  स्मरणीय श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज से दीक्षित होने का सौभाग्य मिला ! आइये ---

  गुरू को करिए वन्दना भाव से बारम्बार 
नाम सुनौका से किया जिसने भाव से पार  

 अनुभूतियों की आत्म कथा फिर भी अधूरी रह गयी , क्रमशः अगले अंकों में पूरी करूँगा 
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 सब पाठकों को "विजय दशमी" की हार्दिक शुभकामनायें 
   
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 निवेदक : व्ही. एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती डॉक्टर कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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शनिवार, 20 अक्टूबर 2012

सद्गुरु कृपा

 सद्गुरु कृपा 

परमगुरू "प्रभु" * एक है ,सद्गुरु ** भी है एक 
पर  जीवन पथ पर  मिलें ,जन को गुरू अनेक 

परम गुरू जय जय राम 

* हमारे परमगुरू  हैं  सर्वशक्तिमान परमात्मा श्री "राम" !
,औरों के प्रभु, अल्लाह, गौड अथवा किसी और नाम के हो सकते हैं  
इन सभी दिव्य विभूतियों को मेरा श्रद्धायुक्त प्रणाम !

हमारे एकमात्र सद्गुरु हैं श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज 
पर अन्य सभी गुरुजन का भी मैं नमन करता हूँ ! 

सच तो ये है कि 
परमगुरु परमेश्वर की कृपा से ही शिष्य के भाग्य जगते हैं और सद्गुरु, शिष्य के हृदय में  प्रेम भक्ति की अग्नि प्रज्वलित करता है 

प्रभु-सद्गुरु की कृपा से जगते 'सिख के भाग'  
जलती  उनके  हृदय  में  प्रेमभक्ति की आग 
  
हो जाते उस हवन में भस्म शिष्य के पाप 
 कर्तापन  का भाव  औ  अहंकार की छाप

निर्मल मन सिख को गुरू तब अधिकारी मान   
 देते "ज्योति स्वरूप" में "परमसत्य" का ज्ञान 

परमात्मा श्रीराम परमसत्य ,प्रकाशरूप  परमज्ञान आनन्दस्वरूप हैं-
[सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी महाराज द्वारा रचित 'अमृतवाणी' से उदधृत ]


"परमगुरू"- सर्वशक्तिमान प्रभु की प्रेरणात्मक इच्छानुसार ही "सद्गुरु "  अपने साधकों पर कृपा कर नाम दीक्षा देते हैं  ,तत्पश्चात
परमेश्वर के परम सत्य के रहस्य का बोध शिष्य को कराते  हैं ! 

दीक्षित होकर सद्गुरु के सम्पर्क में रहने वाले नित्य साधनरत शिष्य को आजीवन अपने "इष्ट" के अतिरिक्त संसार में न तो कुछ और दिखाई देता हैं ,न सुनाई ही !   

सद्गुरु ,से प्राप्त "साधन भक्ति" के अनुरूप "सतत" -"नित्य" साधनारत  शिष्य को वांछित "सिद्ध भक्ति" की प्राप्ति निश्चय ही होती है !  


अंततः गुरू आज्ञा का पालन करने वाले साधक को परिपूर्णता मिलती है ! उसका अन्तःकरण शुद्ध होता है ! वह जीवन भर परिपूर्णता के आनंद रस में सराबोर रहता है !

इस् संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस की निम्नांकित  पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं -----

मातु  पिता  गुरु   स्वामी निदेसू ! सकल धरम धरनीधर सेसू !
साधक एक सकल सिधि देनी ! कीरति सुगति भूतिमय बेनी  !
                                                                 अयोध्याकाण्ड दो.३०५ 

चित्रकूट में भाई भरत को सम्बोधित करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने उपरोक्त सूत्र जगमंगल हेतु उजागर किया था ! उन्होंने कहा : " अपने सद्गुरु तथा गुरू सद्र्श्य अपने माता पिता की आज्ञा का पालन करते हुए ,अपने नित्य कर्म एवं जगत व्यवहार करने वाले साधनारत  साधक को इस जीवन में ही सम्पूर्ण सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है ! उसे कीर्ति, सद्गति और ऐश्वर्य  की त्रिवेणी स्वयमेव ,बिना प्रयास के ही प्राप्त हो जाती है !

श्री राम शरणं वयम प्रपन्ना 

निज अनुभव 

श्री राम शरणं के हमारे गुरुजन का कथन है कि सोते जगते , खाते पीते , उठते बैठते ,आते जाते ,यहाँ तक कि दफ्तर में काम करते समय भी एक पल को भी अपनी यह सहज एवं सरलतम साधना -"नाम जाप" छोडो नहीं, सतत करते रहो !  प्रियजन ,असम्भव नहीं है उपरोक्त गुरू आज्ञा का पालन ! 

अपने पिछले ८३ वर्षों के जीवन में से , लगभग ५५ वर्षों का मेरा निजी अनुभव है -  इष्ट का नाम न भुलाने वाले व्यक्ति को अनेकानेक चमत्कारिक लाभ होते हैं -सांसारिक सिद्धियों और सफलताओं के साथ साथ ऐसे साधक को ,आध्यात्मिक उपलब्धियों की आनंदमयी अनुभूतियां भी होती है और उसे यदा कदा , आनंदस्वरुप प्यारे प्रभु के साक्षात्कार का भी अनुभव होता है )

सिद्धि भक्ति से प्राप्त रस की मिठास अनिर्वचनीय है ! उसको शब्दों में बयान करना असम्भव है ! वैसे ही जैसे गहरे जल में डूबा व्यक्ति निर्वचन हो जाता है , वैसे ही जैसे गूंगा गुड खाता है लेकिन उसकी मिठास का शब्दों में वर्णन नहीं कर पाता !ऎसी सिद्ध भक्ति की प्राप्ति सतत एवं नित्य भक्ति द्वारा होती है ! 


क्रमशः 

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निवेदक : व्ही, एन,  श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती डॉक्टर कृष्णा भोला श्रीवास्तव ===============================

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

 सद्गुरु - कृपा 

इस दासानुदास- "भोला" पर 
सद्गुरु श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज की अनन्य कृपा 
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यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानाम सृजाम्यहम


श्रीमदभगवद्गीता में उच्चारित अपना उपरोक्त वचन अक्षरशःनिभाकर तथा मृत्यलोक  में अपने सभी कार्य सम्पन्न करके योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण ने अपनी सवा सौ वर्ष की  जीवन यात्रा समाप्त करने का मन बना लिया !

उधर देवलोक में देवगण अति आतुरता से प्रभु श्री कृष्ण के धरती से "स्वधाम" लौट आने की प्रतीक्षा कर रहे थे !

द्वारका में अपशकुन होने लगे ! बुज़ुर्ग यादवों ने द्वारकाधीश श्रीकृष्ण को सलाह दी कि अब ऋषियों द्वारा शापित "द्वारका" में रहना अनिष्ट कारक है अस्तु "प्रभास क्षेत्र" में बस जाना ही हमारे लिए  हितकर होगा !

समाचार मिलते ही श्री कृष्ण के मथुरा प्रवास काल से ही उनके अंतरंग सखा उद्धव जी उनके समक्ष पधारे ! उद्धवजी  रिश्ते में कान्हा के भाई ही नहीं वरन उनके अनन्य भक्त और उनके शिष्य सद्र्श्य थे !  व्यक्तित्व में वह  श्री कृष्ण के समान ही हृदय-ग्राही आकर्षण युक्त श्यामल स्वरूप के स्वामी थे !

श्रीकृष्ण ने अपने इन ज्ञान योगी मित्र उद्धवजी को अहंकार मुक्त करने हेतु मथुरा से ब्रिन्द्राबन भेजा था !  वहाँ ब्रिज की  विरहनी गोपियों ने उन्हें प्रेमामृत का रसास्वादन करवाया और उनके ह्रदय में प्रेम-भक्ति  का बीज आरोपित कर दिया था ! समय के साथ यह प्रेम बीज अंकुरित पुष्पित फलित होकर अब उद्धवजी के समग्र मानस को आच्छादित कर चुका था ! गोपियों के समान ही अब उन्हें कृष्ण का क्षणिक वियोग भी असह्य था !

ऐसे में बन्धु श्रीकृष्ण के देह त्यागने के  दुखद निश्चय को सुन कर उद्धव अति व्याकुल हुए ! वह समझ गये कि सर्वत्र धर्मराज्य के स्थापना हेतु कटिबद्ध श्रीकृष्ण  अन्याय अनाचार तथा अत्याचारों में व्यस्त अपने यदुवंश को किसी मूल्य पर क्षमा नहीं कर पाएंगे और "यादवों" का समूल संहार करके ही वह इस लोक का परित्याग करेंगे !

वह श्रीकृष्ण के समक्ष  अश्रुपूरित नेत्रों तथा अवरुद्ध कंठ से सिसक  सिसक कर बोले :  "कान्हा , बालपन से आज तक मैं एक मात्र आपकी छत्रछाया में  आपके साथ ,आपकी शरण में रहा हूँ ! आपसे विलग होकर मेरा न कोई अस्तित्व है और न कोई पहचान  !  आपही कहें आपके बिरह में मैं कैसे जी सकूंगा  ? कृपया मुझे भी अपने साथ ले चलिए !

उत्तर में , देवी-देवताओं के भी गुरु श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा :

परमगुरु योगेश्वर श्रीकृष्ण के अमृत वचन 

" प्यारे , जो मेरे साथ आया नही , वह मेरे साथ जा कैसे सकता है ?  
यह संसार एक रंगमंच है जिसमे सभी संसारी अपनी अपनी भूमिका निभा रहे हैं ! 
अपने किरदार के अनुरूप सब को मानव चोला [कोस्ट्यूम] मिला है ! 
सभी कलाकार नाटक की निदेशिका ठगनी "माया" [कोरियोग्राफर] के इशारों 
पर रोकर ,गाकर ,नाचकर अपनी अदाकारी पेश कर रहे हैं  ! 
नाटक की समाप्ति पर सब कलाकार अपने अपने घर चले जाएंगे ! 
मुझे अपने और तुम्हे अपने घर जाना पडेगा ! 
कोई भी किसी अन्य व्यक्ति के साथ न तो  आया है और न जा ही पायेगा !  
अस्तु मेरा तुम्हारा साथ भी असंभव है पर 
तुम्हे यह विश्वास अवश्य दिलाता हूँ कि ----
प्रियवर , 
तुम आर्तभाव से व्याकल होकर जब भी मुझे पुकारोगे ,
मुझे अपने साथ ही पाओगे !"

श्री कृष्ण के उपरोक्त कथन की सार्थकता का अनुभव आज तक प्रेमी संतों को हो रहा है  

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सद्गुरु  श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ने कहा  

अभ्यास के लिए अनंत बार नाम जाप  करना अनिवार्य है ! 

नामोच्चारण  पूरी तन्मयता  तथा  !  
अनन्यता ,अटूट विश्वास  ,और भरपूर श्रद्धा से किया  जाय !

सच्चे साधक के ह्रदय से उठी "नाम" पुकार  कभी अनसुनी  नहीं रहती  !

[निवेदक  के   जीवन में स्वामी जी के उपरोक्त  कथन की सत्यता अनेकों बार प्रमाणित हूई है] 

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निवेदक : व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : 
श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
तथा 
श्रीमती श्रीदेवी कुमार 
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शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2012

सद्गुरु कृपा

सद्गुरु कृपा

आध्यात्मिक गुरुजन की कृपाओं का उल्लेख करने जा रहा हूँ ! अन्तः प्रेरणा हो रही है कि क्रमानुसार शुरू से ही शुरू हो यह वर्णन ! तो सुनिए -

आध्यात्म के क्षेत्र में हमारे प्रथम एवं अंतिम मार्ग दर्शक थे ,हैं और जीवन पर्यन्त  रहेंगे  परम पूज्यनीय , प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद  स्वामी श्री सत्यानन्द सरस्वती जी महाराज !जिनकी अनंत कृपा से मुझे मिला "राम नामामृत" ! याद आ रहा है कि  ---

-- कैसे नवम्बर १९५९ में , नाम दीक्षा के समय , मुरार [ग्वालियर] में डॉक्टर बेरी के पूजा प्रकोष्ठ में ,महाराज जी के दिव्य स्वरूप के प्रथम दर्शन से मेरा रिक्त अंतरघट 'नामामृत ' से भर गया !  और सदा सदा के लिए मेरा जीवन संवर गया ! तत्काल तो उस दिव्य लाभ  का  वर्णन न कर सका ! तब तक गूंगा था ! गुड की मिठास का अनुभव तो कर रहा था , उसको व्यक्त नही कर पाया !

वर्षों बाद कानपूर के एक प्रेमी ,छोटेभाई जैसे भजनीक मित्र के सहयोग से  रचना हुई तथा गुरुदेव महाजन जी के अनुमति से मैंने उसकी स्टूडियो रेकोर्डिंग करवा कर श्री राम शर णं नई दिल्ली  को समर्पित कर दी जहाँ इसके केसेट और सीडी बने और वितरित  हुए !

वह भजन था 

पायो निधि राम नाम , 
सकल शांति सुख निधान 

सिमरन से पीर हरे , काम कोह मोह जरे , 
आनंद रस अजर झरे ,होवे मन पूर्ण काम    

[ यू ट्यूब पर "भोला कृष्णा चेनल" तथा 'श्री राम शरणं ,लाजपत नगर , नई दिल्ली की वेब साईट पर पूरा भजन उपलब्ध है ] 

प्रियजन , नाम दीक्षा दिवस के बाद आगे क्या हुआ सुनिए:

उस पूजा की कोठरी में प्रज्वलित भक्ति स्नेह सिंचित , 'नाम दीप शिखा' की अखंड ज्योति के प्रकाश ने मेरे भ्रमित मन के अज्ञान का अंधकार पूर्णतः नष्ट कर दिया !  उस क्षण एक  अकथनीय आत्मिक शान्ति  की अनुभूति हुई ,एक अनूठा  रंग चढ़ गया , तब तक के , मेरे कोरे पड़े मानस् पटल पर !

सद्गुरु हो महाराज मो पे सांई रंग डाला
शबद की चोट लगी मन मेरे बेध गया तन सारा
औषधि मूल कछु  नहीं लागे  का करे बैद बिचारा

कबीर ने ५-६ सौ वर्ष पूर्व गाया था और मेरे संगीत के उस्ताद गुलाम मुस्तफाखां साहेब ने भी एक दिन भारत में , कानपुर में ,मेरे स्थान पर आयोजित "अमृतवाणी सत्संग " मे , स्वामी जी के कट आउट के सन्मुख यही भजन गा कर मेरी मनोभावना उजागर की थी ! उनसे सीख कर मैंने भी यह भजन अनेक बार गाया लेकिन आज कल मेरे छोटे पुत्र माधव जी इसे इतने भाव से गाते हैं कि वो तो वो ,सब सुननेवाले भी गद गद होकर भाव विभोर हो द्रवित हो जाते हैं !  चाहता था कि आपको माधव जी का वह गायन सुनवाऊँ पर
हर चाही हुई इच्छा पूरी नहीं होती ! अस्तु  आगे बढ़ते हैं :

कदाचित पहले कभी बता चूका हूँ , उस समय  श्री स्वामी जी महाराज के दिव्य स्वरूप ने मुझे इतना सम्मोहित कर लिया कि मैं अपनी सुध बुध ही खो बैठा ! जीवन में कभी इतने निकट से , एक दम एकांत में, स्वामी जी के समान तेजस्वी देव पुरुष के दर्शन नहीं किये थे ! पर तब उनकी वाणी से नि:सृत 'राम नाम' ने रोम रोम में राम  को  रमा दिया !ऐसा कि आज  यहाँ यू एस ए में भी पुत्र राघव जी की मित्र मंडली के साथ मिलकर राम नाम उच्चारित करने में बड़ा आनंद आता है --- सब मिल कर गाते हैं तथा प्रेरित करते हैं जन जन को नामोच्चारण हेतु !  आप भी सुनिए और हमारे साथ साथ बोलिए :

"बोलो राम बोलो राम" 
[ केवल दो मिनट का सवाल है ]





स्वामी जी महाराज के साथ उस पूजा प्रकोष्ठ में मैंने नाम दीक्षा के समय १० - १५ मिनिट
से अधिक नहीं बिताया होगा !  लेकिन उस दिव्य दीक्षा - दर्शन ने जो अमिट छाप मेरे मानस पटल पर छोडी है उसका असर न केवल मुझ पर वरन मेरे पूरे परिवार पर पड़ा है जो जग जाहिर है ! तुलसी ने कितना सच कहा है कि :

एक घड़ी आधी घड़ी ,आधी से भी आध
तुलसी संगत साधु की हरे कोटि अपराध
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निवेदक : व्ही एन श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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बुधवार, 3 अक्टूबर 2012

सर्व शक्तिमते परमात्मने श्री रामाय नमः 

परम गुरू जय जय राम  

महाबीर बिनवौ हनुमाना

श्री राम शरणम , लाजपत नगर , दिल्ली के साधक 
व्ही.एन . श्रीवास्तव "भोला"
की आध्यात्मिक अनुभूतियों पर आधारित उनकी आत्मकथा 
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"दो" अक्टूबर 
समस्त विश्व के लिए एक अविस्मरणीय तारीख -
भारत के राष्ट्र पिता "बापू", स्वख्यातिधनी प्रधानमंत्री "लाल बहादुर शाश्त्री "
 एवं हमारे 
सद्गुरु श्री प्रेमनाथ जी महाराज का जन्म दिवस - 
साथ ही "म.बि.हनुमाना"  की दूसरी खेप के प्रथम अंक का प्रकाशन दिवस 
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'राम नाम मुद् मंगलकारी  ; विघ्न हरे सब पातक हारी' 
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एप्रिल २०१० से प्रारंभ करके इस वर्ष अगस्त के अंत तक ,पिछले लगभग ढाई वर्षों में "गुरू आज्ञा" एवं अपने इष्टदेव "सर्वशक्तिमान परमात्मा श्रीराम " की दिव्य प्रेरणा से ,   स्वयम अनंत विकारों से युक्त तथा सर्वथा अज्ञानी ,एवं  वास्तविक आध्यात्म से पूर्णतः अनभिज्ञ होते हुए भी ,,एकमात्र श्री राम कृपा से ,अपने ब्लॉग- "महाबीर बिनवौ हनुमाना" के प्रथम खेप में लगभग ५०० आलेख प्रेषित किये; जिनके द्वारा मैंने निजी अनुभूतियों पर आधारित  अपनी आत्म कथा का निवेदन किया ! पर ---- सितम्बर २०१२ के आते ही न जाने क्या हुआ ,कि मैं पूर्णतः मूक हो गया !   कारण ?

मेरा  मन २ जुलाई २०१२ से ही उचटा उचटा सा था , कारण सर्व विदित है - उस दिन हमारे
प्यारे सद्गुरु


डॉक्टर विश्वामित्र जी महाजन  अपना समाधिस्थ  मानव शरीर  त्याग कर "परम धाम"  की ओर अग्रसर हो गये ! सैकड़ों साधकों के सन्मुख , हरिद्वार में मातेश्वरी गंगा की 'नीलधारा' के अति पावन तट पर , उन्ही पवित्र शिला खंडों पर आसीन होकर गुरुदेव ने अपनी इहलीला का समापन किया जिनपर उन्होंने स्वयम तथा उनके अग्रज संत , श्री राम शरणम के प्रात: स्मरणीय परम पूज्यनीय संस्थापक , मेरे सद्गुरु, श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज एवं गुरुवर श्री प्रेमनाथ जी महराज ने पिछले लगभग ८५ वर्षों से अनवरत "नाम साधना" का प्रचार प्रसार किया तथा लाखों 'भ्रम भूल में भटकते', मेरे जैसे अनाड़ियों का मार्ग दर्शन किया और उन्हें वास्तविक "मानव धर्म" से परिचित कराया !

हाँ २ जुलाई २०१२ के बाद कुछ ऐसा हुआ कि मैं सब कुछ भूल गया - लिखना पढ़ना गाना बजाना सब ! प्रकोष्ठ का केसियो सिंथेसाइजर , इलेक्ट्रोनिक तानपूरा , डिजिटल तबला  सब के सब , मेरे समान ही निर्जीव पड़े रहे !  ब्लॉग लेखन का क्रम टूट गया !

चिरसंगिनी धर्म पत्नी एवं अपने छोटे से परिवार के अतिशय प्यारे प्यारे , पुत्र-पुत्रवधुओं, पुत्रियों ,पौत्र-पौत्रियों का प्रेम पात्र 'मैं' , सब सुख सुविधाओं से युक्त जीवन वाला' 'मैं'  धीरे धीरे सब से विरक्त हो गया ! आजीवन स्वान्तः सूखाय, लिखने पढ़ने ,गाने बजाने वाला मैं पूर्णतः मौन हो गया !  सहसा जैसे सब कुछ थम गया !

आज  २ अक्टूबर को ब्रह्मलीन गुरुदेव पूज्यपाद श्री प्रेमजी महाराज  की जयंती पर, उनकी प्रेरणा दायक स्मृति ने झकझोर दिया -

१९८१-८२ की घटना है , उनदिनो मैं पंजाब में पोस्टेड था ! सरकारी नौकरी में पूरी तरह व्यस्त रहने के कारण औपचारिक साधना - नाम जाप ध्यान भजन नहीं कर पाता था ! [बहाना है प्रियजन, सच पूछिए तो , करना चाहता तो अवश्य ही कर सकता था ! प्रार्थना है आप मेरा अनुकरण न करें ]

हाँ तो उन दिनों भी मेरी मनःस्थिति लगभग आज जैसी ही थी ! मेरे परम सौभाग्य से पंजाब की पोस्टिंग में मुझे स्वामी जी के एक अति प्रिय पात्र प्रोफेसर अग्निहोत्री जी से  भेंट हुई ! स्वामी जी महाराज , गुरुदासपुर में प्रोफेसर साहेब के पिताजी के निवास स्थान में अक्सर आते जाते थे ! गुरुदेव प्रेम नाथ जी महराज भी प्रोफेसर साहेब पर बहुत कृपालु थे उनका बहुत सम्मान करते थे !

पंजाब की दो वर्षों की पोस्टिंग में प्रोफेसर साहेब हमारे बड़े भाई सद्र्श्य हो गये थे ! उनकी प्रेरणा से वर्षों से 'श्री राम शरणं' से भटका मेरा मन पुनः 'गुरू मंत्र' में लग गया  ! उनके सत्संग में मुझे भी श्रद्धेय श्री प्रेम नाथ जी महाराज के निकट आने का सौभाग्य मिला और नेरा जीवन धन्य हुआ !

प्रेमजी महाराज की किन कृपाओं की स्मृति ने मुझे आज पुनः उठ बैठने की प्रेरणा दी , ये अगले अंकों में बताऊंगा ! आज इतना ही !

क्रमशः 
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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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