सद्गुरु कृपा
परमगुरू "प्रभु" * एक है ,सद्गुरु ** भी है एक
परमगुरू "प्रभु" * एक है ,सद्गुरु ** भी है एक
पर जीवन पथ पर मिलें ,जन को गुरू अनेक
परम गुरू जय जय राम
परम गुरू जय जय राम
* हमारे परमगुरू हैं सर्वशक्तिमान परमात्मा श्री "राम" !
,औरों के प्रभु, अल्लाह, गौड अथवा किसी और नाम के हो सकते हैं
इन सभी दिव्य विभूतियों को मेरा श्रद्धायुक्त प्रणाम !
हमारे एकमात्र सद्गुरु हैं श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज
पर अन्य सभी गुरुजन का भी मैं नमन करता हूँ !
सच तो ये है कि
परमगुरु परमेश्वर की कृपा से ही शिष्य के भाग्य जगते हैं और सद्गुरु, शिष्य के हृदय में प्रेम भक्ति की अग्नि प्रज्वलित करता है
प्रभु-सद्गुरु की कृपा से जगते 'सिख के भाग'
जलती उनके हृदय में प्रेमभक्ति की आग
जलती उनके हृदय में प्रेमभक्ति की आग
हो जाते उस हवन में भस्म शिष्य के पाप
कर्तापन का भाव औ अहंकार की छाप
निर्मल मन सिख को गुरू तब अधिकारी मान
देते "ज्योति स्वरूप" में "परमसत्य" का ज्ञान
परमात्मा श्रीराम परमसत्य ,प्रकाशरूप परमज्ञान आनन्दस्वरूप हैं-
[सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी महाराज द्वारा रचित 'अमृतवाणी' से उदधृत ]
कर्तापन का भाव औ अहंकार की छाप
निर्मल मन सिख को गुरू तब अधिकारी मान
देते "ज्योति स्वरूप" में "परमसत्य" का ज्ञान
परमात्मा श्रीराम परमसत्य ,प्रकाशरूप परमज्ञान आनन्दस्वरूप हैं-
[सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी महाराज द्वारा रचित 'अमृतवाणी' से उदधृत ]
"परमगुरू"- सर्वशक्तिमान प्रभु की प्रेरणात्मक इच्छानुसार ही "सद्गुरु " अपने साधकों पर कृपा कर नाम दीक्षा देते हैं ,तत्पश्चात
परमेश्वर के परम सत्य के रहस्य का बोध शिष्य को कराते हैं !
दीक्षित होकर सद्गुरु के सम्पर्क में रहने वाले नित्य साधनरत शिष्य को आजीवन अपने "इष्ट" के अतिरिक्त संसार में न तो कुछ और दिखाई देता हैं ,न सुनाई ही !
सद्गुरु ,से प्राप्त "साधन भक्ति" के अनुरूप "सतत" -"नित्य" साधनारत शिष्य को वांछित "सिद्ध भक्ति" की प्राप्ति निश्चय ही होती है !
अंततः गुरू आज्ञा का पालन करने वाले साधक को परिपूर्णता मिलती है ! उसका अन्तःकरण शुद्ध होता है ! वह जीवन भर परिपूर्णता के आनंद रस में सराबोर रहता है !
इस् संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस की निम्नांकित पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं -----
मातु पिता गुरु स्वामी निदेसू ! सकल धरम धरनीधर सेसू !
साधक एक सकल सिधि देनी ! कीरति सुगति भूतिमय बेनी !
अयोध्याकाण्ड दो.३०५
चित्रकूट में भाई भरत को सम्बोधित करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने उपरोक्त सूत्र जगमंगल हेतु उजागर किया था ! उन्होंने कहा : " अपने सद्गुरु तथा गुरू सद्र्श्य अपने माता पिता की आज्ञा का पालन करते हुए ,अपने नित्य कर्म एवं जगत व्यवहार करने वाले साधनारत साधक को इस जीवन में ही सम्पूर्ण सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है ! उसे कीर्ति, सद्गति और ऐश्वर्य की त्रिवेणी स्वयमेव ,बिना प्रयास के ही प्राप्त हो जाती है !
श्री राम शरणं वयम प्रपन्ना
निज अनुभव
श्री राम शरणं के हमारे गुरुजन का कथन है कि सोते जगते , खाते पीते , उठते बैठते ,आते जाते ,यहाँ तक कि दफ्तर में काम करते समय भी एक पल को भी अपनी यह सहज एवं सरलतम साधना -"नाम जाप" छोडो नहीं, सतत करते रहो ! प्रियजन ,असम्भव नहीं है उपरोक्त गुरू आज्ञा का पालन !
अपने पिछले ८३ वर्षों के जीवन में से , लगभग ५५ वर्षों का मेरा निजी अनुभव है - इष्ट का नाम न भुलाने वाले व्यक्ति को अनेकानेक चमत्कारिक लाभ होते हैं -सांसारिक सिद्धियों और सफलताओं के साथ साथ ऐसे साधक को ,आध्यात्मिक उपलब्धियों की आनंदमयी अनुभूतियां भी होती है और उसे यदा कदा , आनंदस्वरुप प्यारे प्रभु के साक्षात्कार का भी अनुभव होता है )
सिद्धि भक्ति से प्राप्त रस की मिठास अनिर्वचनीय है ! उसको शब्दों में बयान करना असम्भव है ! वैसे ही जैसे गहरे जल में डूबा व्यक्ति निर्वचन हो जाता है , वैसे ही जैसे गूंगा गुड खाता है लेकिन उसकी मिठास का शब्दों में वर्णन नहीं कर पाता !ऎसी सिद्ध भक्ति की प्राप्ति सतत एवं नित्य भक्ति द्वारा होती है !
क्रमशः
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निवेदक : व्ही, एन, श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती डॉक्टर कृष्णा भोला श्रीवास्तव ===============================
1 टिप्पणी:
sundar v sarthak abhivyakti badhai
जैसे पिता मिले मुझे ऐसे सभी को मिलें ,
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