अनंतश्री स्वामी अखंडानंद जी महाराज
एवं
उनके स्नेहिल कृपा पात्र
माननीय शिवदयाल जी श्रीवास्तव
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"अब् मैं नाच्यों बहुत गोपाल"
कान्हा तुमने बहुत नचाया , बड़ा मज़ा नाचन में आया
बरसे अगणित पुष्प गगन से , रासामृत भी छम छम बरसा !!
ढांक दिया सुमनों ने तन को , मन-मरुथल रसकण को तरसा !!
["भोला" ]
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[ गतांक से आगे ]
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[ गतांक से आगे ]
१९७८ में मध्य प्रदेश उच्चन्यायालय के सम्मानीय चीफ जस्टिस पद से रिटायर होने तक हमारे पूजनीय "बाबू" -(जस्टिस शिवदयालजी) ने , जहां एक ओर आवश्यकतानुसार सभी भौतिक सुविधाओं का सुख प्राप्त कर लिया था , दूसरी ओर उनके "मन" में एक विशेष कसक शेष रह गयी थी ! उनका मन अतृप्त था ! मरुथल सा प्यासा उनका मन "प्यारे प्रभु" के दर्शनार्थ अति व्याकुल था ! उनका मन "प्रभु-मिलनामृत" पान को तरस रहा था !
पहली मार्च १९७८ , रिटायरमेंट के पहले दिन उनकी यह पिपासा चरम छू रही थी !
तब तक सभी जंजीरें टूट गयीं थीं ! सब बेटे बेटियाँ ,सभी बहनें-बहनोई ,भाई भतीजे तथा अन्य स्वजन भली भाँति अपने अपने जीवन में व्यवस्थित ('सेटेल') हो गये थे ! 'भैया' पिताश्री द्वारा सौंपी सारी ज़िम्मेदारियाँ निभा कर वह अब् घर-द्वार-ब्यापार के सभी बन्धनों से पूर्णतः मुक्त हो गये थे !
६५ वर्षों तक अधिकाँश समय जीविकोपार्जन में लगाने के बाद जीवन के शेष दिन वह व्यर्थ नहीं गंवाना चाहते थे ! बचे हुए पूरे समय का सदुपयोग वह अपने इष्ट - प्यारे प्रभु की उपासना में लगाना चाहते थे ! उनका मन चाहता था कि वह गुरुजनों द्वारा निर्धारित और निर्देशित "राम काम" एवं "आस्तिकता के प्रचार प्रसार" में लग जायें !
ऎसी स्थिति में सद्गुरु से परामर्श की आवश्यकता थी !
सौभाग्यशाली महापुरुषों के जीवन में आवश्यकता पड़ते ही ,ऐसे सिद्ध संत स्वयमेव प्रगट हो जाते हैं जो कठिनाइयों में न केवल उनका मार्गदर्शन करते हैं अपितु उनका हाथ थाम कर अंधियारी डगर में पड़े अवरोधों से बचा कर उन्हें आगे भी बढाते हैं !
हम आप जैसे साधारण प्राणियों के मार्ग दर्शन हेतु भी हमारा प्यारा प्रभु समय समय पर गुरुजनों को भेजता है - परन्तु दुर्भाग्यवश हम उन्हें पहचान नहीं पाते , परन्तु -
बाबू ,जिन्होंने अपने दैनिक प्रार्थना के द्वारा राम परिवार के एक एक सदस्य और सब स्वजनों और सगे सम्बन्धियों को यह सिखाया था कि उन सबके जीवन में " भला या बुरा जो कुछ भी भूतकाल में हुआ ,जो वर्तमान में हो रहा है और जो भविष्य में होगा वह केवल "प्यारे प्रभु" की आज्ञा और कृपा से ही हुआ है ,हो रहा है और आगे भी होगा !
जिस व्यक्ति की मूलभूत मान्यताओं के प्रभाव से उसके समग्र परिवार पर इस सोच की गहरी नीव पड़ गयी हो; वह व्यक्ति स्वयम कैसे,कभी भी दुखी और निराश हो सकता है ! हमारे बाबू वह व्यक्ति विशेष थे जो "हार" एवं "नैराश्य" को भी प्यारे प्रभू द्वारा उन्हें भेंट किया हुआ सौभाग्य ही समझते थे !
ये न सोचें कि उनपर आपदायें -विपदाये पड़ी ही नहीं !प्रियजन .विपदा पड़ीं और उन्होंने झेलीं भीं परन्तु वह उनसे विचलित नहीं हुए अस्तु पूरी तरह सुरक्षित रहे ! उनका बाल भी बांका नहीं हुआ इन आपदाओं से !
ऐसे विशेष सौभाग्य के कारण ही उन्हें आजीवन ,(आपत्काल में भी) बड़े बड़े सिद्ध संत-महापुरुषों की छत्रछाया प्राप्त होती रही; सतत सत्संगत मिलती रही और उनकी चेतना एवं विवेक का विकास सही दिशा में होता रहा ! संतों के निदेशानुसार चल कर उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन अति सात्विकता से 'साधनावत' जिया और वह भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनो ही क्षेत्रों में सफलता के शिखर छूते रहे !
सेवानिवृति के बाद पूरी तरह मन बना कर कि अब् तो कोई विशेष राज्य-प्रतिष्ठित कार्य -भार नहीं लेना है पूज्य बाबू मन ही मन एक ऐसे सन्यासी संत के मार्गदर्शन की तलाश में लग गये जिनके पथ -प्रदर्शन से वे आध्यात्मिक -यात्रा के चरम शिखर पर पहुँच सकें , सन्यास -वृत्ति को आचरण में ढाल सकें ,गृहस्थ संत सा जीवन जी सकें !
यद्यपि वे प्रज्ञाचक्षु स्वामी शरणानंद जी के मानव सेवा संघ से , स्वामी शिवानंदजी की डिवाइन लाइफ सोसाइटी से , स्वामी चिन्मयानंद के चिन्मय मिशन - से ,स्वामी सत्यानंदजी की साधनामय -जीवन जीने की पद्धति से ; परमार्थ -निकेतन ;अरविन्द आश्रम आदि से पूरी तरह जुड़े हुए थे फिर भी मन संन्यासी- वृत्ति की ओर प्रेरित हो रहा था ,हिचकोले खा रहा था !,
सेवा निवृत्ति के बाद बाबू दिल्ली में अपने छोटे बेटे अनिल के साथ रहने लगे जहां पर उनकी भौतिक सुख समृद्धि पूर्ववत बनी रही पर उनका 'मन -मरुथल' प्यासा का प्यासा ही रहा और वह अपनी पिपासा तृप्त करने वाले जलाशय की खोज में लग गये !
तभी सौभाग्य से आशा की एक किरण उनके अँधेरे मन में सहसा कौंध गयी ; कूप स्वयम चल कर प्यासे के पास आया ! विचार कर देखिये कितना भाग्यशाली था वह "तृषित" मन- मरुथल ? ऐसा हुआ कि --
एक दिन संयोगवश बिरला मंदिर में पूज्य बाबू की भेंट अनंतश्री स्वामी अखंडानन्द जी महाराज से हो गयी ! हाव भाव एवं वाणी द्वारा अपनत्व की झडी लगाते महाराजश्री ने अपनी नैसर्गिक मुस्कान के साथ दूर से ही प्रश्न किया -
" हो गये मुक्त ,व्यावसायिक बन्धनों से जज साहेब , बधाई हो ,बहुत बहुत बधाई हो "
बाबू सोच रहे थे , "क्या बात है ? प्यारे प्रभु ने इतनी जल्दी मेरी फरियाद सुन ली ! मेरे मार्गदर्शक गुरुदेव को मेरे सन्मुख उपस्थित कर दिया ! मेरा जीवन धन्य हो गया "
क्रमशः
प्रियजन , आशा है, रामकृपा से, अगले अंक के प्रकाशन में विलम्ब नहीं होगा
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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1 टिप्पणी:
" हो गये मुक्त बन्धनों से जज साहेब , बधाई हो ,बहुत बहुत बधाई हो "
sahi prashan -vastav me yahi mukti hai .sundar prastuti aabhar
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