मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

पिछले दो मास कैसे जिया


कैसे जिया ?

लगभग डेढ़ महीने में कुछ लिख न सका परन्तु मैं क्रिया हींन नही रहा !  प्यारे प्रभु" की कृपा से मैं उन दिनों भली भांति "जीवित" रहा , क्रियाशील रहा ,"उनके"आदेशानुसार कुछ न कुछ काम करता ही रहा !

कोई न कोई 'सेवा' कार्य मेरे "प्यारे प्रभु" मुझसे करवाते  रहे ! क्या करवाया "उन्होंने"? इस विषय में यह बात साफ़ कर दूँ कि इस जर्जर शक्तिहीन  काया द्वारा मुझसे कोई "परसेवा" अथवा "परोपकार'  का कार्य न तो हो सकता था न हुआ ही !!

भैया  इन दिनों मैंने न तो जगत की सेवा की न 'आत्मा' की और न 'परमात्मा की ही ! ,मैंने तो सतत केवल "अपने" नाते "अपनी" ही सेवा करी !  सर्व विदित सत्य है कि हम मानव इस संसार में अपनी इस 'काया' के नाम और अपने इस 'मन' के नाते ही जाने पहचाने जाते हैं ! और वर्तमान काल में हमारे तन मन दोनों ही प्यारे प्रभु की इस विशाल 'कला- कृति- इस "श्रृष्टि" अथवा इस "जगत"' के  अभिन्न अंश है !

इस सन्दर्भ में प्रज्ञाचक्षु स्वामी शरणानंदजी महाराज का यह कथन याद आया

परमात्मा के नाते जगत की  सेवा करें तो मानव की प्रत्येक  प्रवृत्ति  'पूजा 'बन  जाती है  !
आत्मा के नाते जगत की सेवा करें तो 'वह क्रिया मानव की "साधना" कहलाती है !
जगत के नाते जगत की सेवा करें तो वह क्रिया मानव का 'कर्तव्य 'कहलाती है !

प्रियजन मैंने उन दिनों न कोई "साधना" की और न कोई "पूजा" ही की मैंने , जैसा अभी कहा एकमात्र "निज" के नाते "निज" की ही सेवा की ! अपने उस "निज" की जो वर्तमान काल में इस समग्र "श्रृष्टि जगत" का एक अभिन्न अंग है ! स्वामी जी के उपरोक्त कथनानुसार , मैंने वह क्रिया की जो कि "मानव का कर्तव्य" है !

मैंने किया क्या ?

मुझे मेरे सद्गुरु जन के संदेश याद आये ! १९५९ में बाबा सद्गुरु स्वामीजी ने इशारे इशारे में  जताया था कि वर्तमान काल के "फिल्मी" भजनों को न गाकर हमे तुलसी . मीरा, सूर ,कबीर आदि संतों के भजन गाने चाहिए !

लगभग 198१ - ८२ में श्री प्रेमजी महाराज ने सुझाया कि सत्संगों में हमे आधुनिक कवियों के फिल्मी ढंग के गीत न गाकर अपने स्वामी जी महाराज द्वारा रचित सारगर्भित शिक्षाप्रद भजनों को गाना चाहिए ! और इस सन्दर्भ में श्रीराम शरणम के तत्कालीन प्रमुख साधकों से मुझे प्रेमजी महाराज का यह संदेश मिला  कि मैं सद  गुरु स्वामीजी महाराज के सब १८  भजन गा कर रेकोर्ड करूं और उन्हें दिल्ली भेजूं!

१९८१ से आज २०१४ तक विविध कारणों से मैं महाराज जी के इस सुझाव को कार्यान्वित न कर सका ! विविध व्यवधानों ने अवरोध प्रस्तुत किये , यहाँ तक कि २०१२ में मैं गुरुदेव डॉक्टर महाजन जी के समक्ष भजन गाने में असमर्थ रहा ! आज सोचता हूँ तो ये समझ पाता हूँ कि उस दिन मैं एक आधुनिक कवि की आधुनिक फिल्मी तर्ज़ की भक्ति रचना सुना रहा था और गुरुजन उसकी जगह स्वामी जी महाराज की रचना सुनना चाहते थे !

अस्तु अनायास ही इस वर्ष के अक्टूबर के अंत में यह आभास हुआ कि मुझे शीघ्रातिशीघ्र वह पुराना ऋण चुका देना चाहिए ! बुढापे में सर्दी जुखाम के कारण  अवरुद्ध कंठ , और फेफड़ों की कमजोरी के कारण सांस लेने में होती कठिनाइयों के बावजूद सद्गुरुजन की दिव्य प्रेरणाओं एवं उनसे प्राप्त  क्षमता के संबल से मैंने नवम्बर दिसम्बर में अपना वह वर्षों पुराना ऋण उतार लिया !

मैंने स्वामी जी महाराजजी के उन सभी भजनों को जो श्रीराम शरणं की भजन पुस्तिका में प्रकाशित हैं  स्वरबद्ध किया और गाकर उन्हें रेकोर्ड भी कर लिया !

बेताब न हों , आप को सुनाने हेतु ही गुरुजन ने यह काम मुझसे करवाया है ! सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी के उपदेशामृत से सिंचित ये पद जो जो सुन सकें सुने और लाभान्वित हों , आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रगति करें !

स्वामी जी का पहला पद नीचे प्रस्तुत है! सहयोगिनी धर्मपत्नी श्रीमती कृष्णाजी ने इसका वीडियो बनाकर "यू ट्यूब" के "भोला कृष्णा चेनेल "में प्रकाशित कर दिया है जिसका लिंक यहाँ दिया है :! तो लीजिए देखिये सुनिये

वन्दे रामं सच्चिदानंदम

भजन का यू ट्यूब लिंक http://youtu.be/Jk3WCt-dInI




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निवेदक : व्ही . एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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बुधवार, 26 नवंबर 2014

धन्यवाद दिवस THANKSGIVING DAY

धन्यवाद दिवस  
धन्यवाद प्रदर्शन के लिए 'वर्ष' में केवल एक दिवस ही क्यों ? 

प्रियजन , उचित होगा कि हम जीवन के प्रत्येक पल अपने " प्रियतम प्रभु" को धन्यवाद दें जिन्होंने केवल हमे ही नही वरन समस्त मानवता को यह देव दुर्लभ मानव काया दी है और उन सारे व्यक्तियों , वस्तुओं तथा परिस्थितियों का निर्माण किया है जिनसे उपकृत होकर हम आज उन विशिष्ट व्यक्तियों को धन्यवाद देने हेतु इतने आयोजन कर रहें हैं ! 

क्यों न आज हम "उन" एकैवाद्वितीय प्रभु को धन्यवाद दें जिन्होंने हमारी सुखसुविधा के लिए , झिलमिलाती जगमगाती नीली चादर में लिपटी इस समग्र सृष्टि का निर्माण किया ! 

क्यों  न हम "उन्हें" धन्यवाद दें जिन्हें हम जैसे साधारण लोग कभी कभी "नीली छतरी वाले" कह कर संबोधित करते हैं और पुरातन काल से आज तक भारतीय ज्ञानी  संत महात्मा जनों ने जिनकी वंदना " नीलाम्बुज श्यामलम् कोमलांगम" जैसी संज्ञा से की है !


प्रियजन ,मेरी निजी धारणा है कि , हम प्रति दिवस , प्रात शैया छोड़ने के साथ  एक बार उस "प्यारे प्रभु - सृष्टिकर्ता" को हार्दिक धन्यवाद देते हुए  प्रणाम करे और केवल यह कहें कि  ,

"हें नाथ ,
बड़ी कृपा है आपकी !
ऎसी ही कृपा अपनी इस समग्र सृष्टि पर सदा बनाये रखिये!"
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'नीली छतरी वाले', 'श्यामल वदन श्रीकृष्ण' 
की यह वन्दना प्रस्तुत है 
दासानुदास "भोला" की वाणी में 
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श्यामल वदन सुखधाम हें श्रीकृष्ण शोभाधाम 
पाते सभी विश्राम सुमिरन कर तुम्हारा नाम 


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निवेदक  व्ही. एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा 'भोला' श्रीवास्तव 
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बुधवार, 12 नवंबर 2014

कैसे जियें ? सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी का प्रेरणात्मक सुझाव :

प्रातःस्मरणीय सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी महाराज 
के  ५४ वे निर्वाण दिवस - नवम्बर १३, २०१४ को 
हम जैसे सेवामुक्त वयोवृद्ध जीवों के लिए  
उनका दिव्य सिखावन संजोये भजन 
"राम ही राम भजो मन मेरे ,कलि क्लेश मिट जायेंगे तेरे "
प्रियजन ,

महीने महीने भर को कलम थम जाती है , पी सी  निष्क्रिय हो जाता है ! इससे यह न सोचें कि  मूल "विषय" भूल गया हूँ ! मेरे जैसे ही आप सब बखूबी जानते हैं कि परम सौभाग्य से प्राप्त इस दुर्लभ मानव तन में भी पशुओं के समान ही ,"विषय" हमे प्रतिक्षण घेरे हुए हैं ! हम विषयों के इस मायावी चंगुल से आजीवन कभी मुक्त हो पायेंगे या नही ,राम ही जाने !

अपनी दशा सुना चुका हूँ ! नेत्रों की ज्योति कम हो जाने से अब आँखें बंद रखना ही अच्छा लगता है ! जब आँखें खोल कर इधर उधर देखता हूँ तो सर्वत्र , - घर के अंदर आनंदरत सर्व जीवात्माओं की मधुर मुस्कानों में तथा चारों ओर करीने से सजी जड़ सजावटों से लेकर घर के प्रमुख दरवाजे के बाहर धरतीतल से ,अनंत गगन के एक छोर से दूसरे छोर तक,  पुरवैया के झोंकों में ,पांखें फैलाए पंछियों के कलरव में ,फल-फूलों से लदे वृक्षों ,पौधों से गमकती सुगंधि में  ,लहलहाती मखमली घास के मैदानों में, तथा मरुस्थल की गर्म छाती पर उभरे छोटे बड़े "सैंड ड्यून्स" के आकर्षक स्वरूप में , क्या दिखता है  ? 

समग्र दृश्य जगत के कण कण में , हमे प्रत्यक्ष दिखता है , "हमारा प्रियतम प्रभु" - हमे अपने वरद दिव्य उत्संग में लेने को आतुर , बेचैनी से  हमारे आगमन की प्रतीक्षारत , जी हा "वह" और केवल "वह" ही  !!

और जहां "वह" हो वहाँ अन्धेरा कैसा ? मेरी अधमुंदी आँखें भी सद्गुरु कृपा से कुछ रौशनी देख पाती हैं !"वह" प्रकाशपुंज गहन से गहन अन्धकार को निज ज्योति किरणों में लपेट कर नैराश्य की कालिमा को सदा सदा के लिए मिटा देता है ! सर्वत्र सौंदर्य ही सौंदर्य बिखर जाता है  !

अब मेरी सुनिये आज भी देहिक आँखें अध् मुंदी हैं लेकिन उन परम सनेही प्रियतम की असीम करुणा से दासानुदास का सूक्ष्म अदृश्य "मन" अभी भी जीवंत है !  नाती पोतों ,पुत्र -पुत्रियों , बहुओं ,दामादों के नाम तो अभी भी सहजता से भूल जाता हूँ , लेकिन ऐसे में  जब उन सब को वास्तविक प्रीति सहित "बेटा, गुडिया , मुनिया ,बिटिया कह कर पुकारता हूँ तब उनकी प्रफुल्लता का आभास पाकर कितना आनंदित होता हूँ उसका आंकलन कर पाना कठिन है !उस क्षण  उन परम कृपालु "प्यारेप्रभु" के श्रीचरणों पर इस दासानुदास का मस्तक बरबस ही झुक जाता है, थोड़ा गौरवान्वित भी महसूस करता हूँ ! आप चौंक गये ? प्यारे , मुझे गर्व इसका है कि "मेरे प्यारे "वह" मुझे इतना प्यार करते हैं ! "उन्होंने" मेरी सेवकायी स्वीकार की है और पारिश्रमिक स्वरूप "वह" मुझे इतना आनंद दिये जा रहे हैं  !   कैसे सम्भव हुआ यह ? 

प्रियजन , मानव जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि है "सद्गुरु मिलन"   
हमारे सद्गुरु  स्वामी जी महाराज ने कहा है :
भ्रम भूल में भटकते उदय हुए जब भाग  
मिला अचानक गुरु मुझे जगी लगन की जाग 

 मेरा सौभाग्य सूर्य भी उस क्षण उदित हुआ जब १९५९ के नवम्बर  मास  में मुझे सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के दर्शन हुए ! अतिशय करुणा कर उन्होंने मुझे "नाम दान" से नवाजा !गहन अन्धकार में डूबे मेरे अन्तःकरण में "नाम" ज्योति प्रज्वलित हुई  ! आज इस पल भी मेरा जीवन उस सौभाग्य सूर्य के दिव्य प्रकाश से जगमगा रहा है ! उनकी अनंत करुणा आज भी मुझे प्राप्त है ! हृदय परमानंद में सराबोर है !

उदाहरण स्वरूप कुछ दिनों पूर्व "उन्होंने  "अतिशय कृपा कर   मेरे कंठ की वयस जनिय अवरुद्धता घटा दी ! ८६ वर्ष के बालक की खांसी कम हो गयी ! साथ साथ स्मृति भी पुनर्जागृत हुई ! पुराने भूले बिसरे शब्दों की याद आई भजन नूतन कलेवर में याद आने लगे !शब्द याद आये लेकिन यह याद न आया कि इन शब्दों का स्रोत  कहाँ है !

जी हाँ हाल में ही कृष्णा जी  ने एक दिन ऐसे भजनों में से  एक भजन मेरे सन्मुख रखा ! यह भजन एक अति जर्जर पुर्जे पर अस्पष्ट शब्दों में अंकित था ! पर्चा देख कर केवल यह बात याद आयी कि यह भजन, किसी साधना सत्संग में  मुझसे भी बुज़ुर्ग  किसी साधक ने वर्षों पूर्व  मुझे  यह कह कर दिया था कि यह रचना हमारे सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी महाराज की है ! ,प्रियजन मुझे अभी भी याद नही आया कि उन व्यक्ति विशेष का नाम क्या है ! शब्द पढे , लगा कि जैसे सचमुच महाराज जी के ही शब्द हैं ! प्रेरणा की लहर उठी , धुन बनी ,गा दिया तुरंत ही भजन रेकोर्ड भी हो गया और , कृष्णा जी ने चित्रांकन करके उसे यू ट्यूब के "भोला कृष्णा चेनेल" में डाल भी दिया !

स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के निर्वाण दिवस पर यह भजन आप की सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ ! 
राम राम भजो मन मेरे , कलि क्लेश मिट जायेंगे तेरे
राम नाम आधार बनावो , सिमरो नाम सदा सुख पावो 
राम नाम रखो मन माही , नाम बिना दुख जावत नाही
राम नाम से लागी प्रीति , व्यर्थ गयी अब लग जो बीती 
राम नाम की धुन लगावो ,आप जपो औरों को जपावो 
घट घट में है राम समाया , धन्य धन्य जिन नाम ध्याया 
नाम की मूरत मन में राखो , राम नाम अमृत रस चाखो 
राम हि जीव जन्तु के दाता ,राम हि पावन नाम विधाता 
जिन जिन भजा राम रघुराया ,तिन तिन पद अविनासी पाया 
( रचना - श्रीश्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ?)
गायक - श्रीवास्तव - "भोला"

,

अब आज्ञा  दीजिए !
आँखें मूंद कर "उन्हें" याद करें ,गदगद हो "उन्हें" उनकी अनंत कृपाओं के लिए धन्यवाद देते रहें !
बडा मज़ा आता है , मज़ा लूटते रहिये ! 
http://youtu.be/ROFXxABxRcQ?list=UUPNIoVIa1-1eASYIQ8k84EQ
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निवेदन  : 
व्ही . एन . श्रीवास्तव  "भोला"
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तकनीकी सहयोग और सम्पादन :
श्रीमती डॉक्टर कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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बुधवार, 1 अक्टूबर 2014

सर्वेश्वरू माँ - (सेवा निवृत्तिके बाद कैसे जियें के अंतर्गत )

परमप्रिय स्वजनों 
 नवरात्रि के पावन पर्व पर 
हमारा हार्दिक अभिनन्दन स्वीकार करें !

प्रियजन ! अनंत काल से , सृष्टि के हर खंड ,  हर संस्कृति . सम्प्रदाय  एवं मत में
आदि शक्ति "माता श्री" की उपासना होती है ! 
देशकाल और तत्कालिक प्रचलित मान्यताओं  के अनुसार  मानवता के विभिन्न वर्गों में सिद्ध साधकों  के अनुभवों तथा  पौराणिक आख्यानों के अनुरूप आद्यशक्ति माँ के अनेकों रूप हैं,अनेकों नाम हैं  ! 
जननी माँ की प्रतिरूपनी ये दिव्य माताएं सभी साधकों की सफलता ,स्वास्थ्य ,सुख और समृद्धि की दात्री हैं !

भारतीय संस्कृति में  नवरात्रि के मंगलमय उत्सवों के नौ दिनों में  माँ की आराधना के प्रसाद स्वरूप साधकों को माँ से मिलता है   सांसारिक कष्टों से बचने का "रक्षा कवच ". सफलता हेतु मार्गदर्शन एवं  दिव्य चिन्मय जीवन जीने की कला तथा प्रेरणामय यह सन्देश "जागो ,उठो ,आगे बढ़ो उत्कर्ष करो "

सेवा निवृत्ति के  बाद लगभग पिछले २५ वर्ष कैसे जिया , ये बात चल रही थी ,कि श्राद्धों का पखवारा आया और साथ साथ लाया नवरात्री का यह "मात्र भक्ति भाव रस सिंचित" ,दिव्य दिवसों का अद्भुत समारोह !

खाली नहीं बैठा , माँ सरस्वती शारदा की विशेष अनुकम्पा से  इन २५ -३० दिनों में ,प्रेरणात्मक तरंगों में बहते हुए ,"प्रेम-भक्ति रस सेओतप्रोत अनेक रचनाएँ हुईं , और उनकी धुनें बनी ,बच्चों द्वारा उपलब्ध करवाई इलेक्ट्रोनिक सुविधाओं के सहारे उनकी रेकोर्डिंग  हुई , कृष्णा जी ने उनको  यू ट्युब पर भोला कृष्णा  चेनल पर प्रेषित भी किया !सों इस प्रकार मेरा जीवन क्रम अग्रसर  रहा , सुमिरन भजन द्वारा सेवा कार्य चलता रहा  

सरकारी सेवाओं से निवृत्ति के बाद .इससे उत्तम और कौनसी सेवा कर पाता ? इस सेवा से जो परमानंद मिलता है उस दिव्य अनुभव के लिए आदिशक्ति माँ  के अतिरिक्त और किसे धन्यवाद दूँ  !

प्रियजन   इन नौ दिनों  में जो रचनाएँ हुईं उनमें से  एक इस आलेख के अंतर्गत आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ  ! मेरी यह रचना - "सर्वेश्वरी जय जय जगदीश्वरी माँ", मेरे परम प्रिय मित्र एवं गुरुभाई श्री हरि ओम् शरण जी" के एक पुरातन भजन की धुन पर आधारित है 






सर्वेश्वरी जय जय जगदीश्वरी माँ 
तेरा ही एक सहारा है तेरी आंचल की छाहँ छोड़ अब नहीं कहीं निस्तारा है  

सर्वेश्वरी जय जय ------------

मैं अधमाधम ,तू अघ हारिणी ! मैं पतित अशुभ तू शुभ कारिणी 
हें ज्योतिपुंज तूने मेरे, मन का मेटा अंधियारा   है !!
सर्वेश्वरी जय जय --------------

तेरी ममता पाकर किसने ना अपना  भाग्य सराहा है 
कोई भी खाली नहीं गया जो तेरे दर पर आया है !!
सर्वेश्वरी जय जय --------------


अति दुर्लभ मानव तन पाकर आये हैं हम इस धरती पर, 
तेरी चौखट  ना छोड़ेंगे ,अपना ये अंतिम द्वारा है !!
सर्वेश्वरी जय जय ---------

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रचनाकार एवं गायक "भोला "
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शुभाकांक्षी 
(श्रीमती) कृष्णा एवं व्ही.  एन.  श्रीवास्तव "भोला" 
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बुधवार, 17 सितंबर 2014

हम 'रिटायर्ड' बुज़ुर्ग कैसे जियें? - गतांक के आगे

 यही वर दो मेरे राम -- रहे जनम जनम तेरा ध्यान 


( पिछले अंक से आगे )

निवेदक : 
व्ही  एन   श्रीवास्तव "भोला",
सहयोग : 
श्रीमती डॉक्टर कृष्णा श्रीवास्तव  एम् ए. पी एच  डी
एवं 
श्रीमती श्रीदेवी कुमार  एम् बी ए - चेन्नई 


मैंने पिछले अंक में वादा किया था कि अपनी उपरोक्त रचना को गाकर आपके समक्ष पेश करंगा !  सों उस भजन का  youtube स्वरूप एवं उसका लिंक नीचे प्रस्तुत कर रहां हूँ ! प्लीज़ सुनियेगा अवश्य !


LINK - <iframe width="560" height="315" src="//www.youtube.com/embed/jnjOpGN5JmE?list=UUPNIoVIa1-1eASYIQ8k84EQ" frameborder="0" allowfullscreen></iframe>

वीडियो देख सुन कर आप जानेगे कि आपका यह मित्र अपनी 'फेमिली' के साथ ,सन १९८९ में भरत सरकार की सेवा से रिटायर् होने के बाद से आज तक कैसे जिया, जी रहा है और जब तक "वो" जिलायेंगे तन तक कैसे जियेगा !:

प्रियजन जरा हंस लीजिए - उपरोक्त कथन में मेरी "फेमिली" बलियाटिक भोजपुरियों द्वारा उच्चारित फेमिली के शब्दार्थ वाली 'फेमिली'है  ऑक्सफोर्ड डिक्सनरी वाली फेमिली नहीं है ! उदाहरण स्वरूप पत्नी कृष्णा जी मेरी एकमात्र फेमिली हैं  वैसे ही जैसे लालूजी की फेमिली हैं श्रीमती राबडी देवी जी ! हम, सब भोजपुरी ही तो हैं !

चलिए आत्म कथा में आगे बढ़ें

हम दोनों पतिपत्नी अधिकाँश समय टेलीविजन पर संत महात्माओं के प्रवचन सुनते हैं !  श्रीराम शरणम का वेबसाईट तो दिन भर चालू ही रहता है उसके साथ साथ हम जगद्गुरु कृपालुजी महराज , राधास्वामी सत्संग दयालबाग / व्यास के प्रबुद्ध गुरुजन  के तथा माउंट आबू से "ब्रह्म कुमाँरीज़  के "अवेकनिंग"  के प्रवचन लगभग नित्य ही सुनते हैं !

नजर कमजोर होने के कारण मुझे एक और एडवांटेज है -  कभी कभी ,दुराग्रह नहीं सस्नेह आग्रह करके मैं अपनी धर्मपत्नी श्रीमती कृष्णा जी से आध्यात्मिक प्रवचन भी सुनता हूँ !  रामायण ,गीता ,भागवत आदि सद्ग्रन्थों से  पढ़ पढ़ कर वह हमे हमारा "वास्तविक धर्म" समझाती हैं  ! मुझे यह अच्छा लगता है !  ये है हम दोनों पर एक विशेष भगवद कृपा ! 

प्रियजन आप यदि मेरी उम्र के हैं तो अवश्य जानते होंगे कि इस उम्र में रात की नींद कितनी दुर्लभ होती है !  इए विषय में एक 'कन्फेशन'' करूं , इस सत्संग में ,श्रीमती जी के प्रवचन सुनते सुनते मुझे अक्सर बहुत मीठी नींद आजाती है! सत्संग का सुखद प्रसाद मुझे तत्काल मिल जाता है !आप भी यह नुस्खा आजमायें ,फायदा होगा !

तो लीजिए बूढे तोते की  राम राम सुन ही लीजिए


सोमवार, 8 सितंबर 2014

ओम् गम गणपतये नम:

विघ्नेश्वर सिद्धविनायक श्री गणपति गणेश जी के 
शुभ जन्मोत्सव 
पर सभी पाठकों को 
हार्दिक बधाई 
मंगलमय हो आनंदमय हो आप सब का जीवन
प्रार्थी - "भोला" - कृष्णा
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परमप्रिय स्नेही स्वजनों ,

कदाचित डेढ़ महीने के अंतराल के बाद आपको सम्बोधित कर रहा हूँ ! ये न सोचें कि मैं आप को भूल गया ! ऐसा कुछ भी नहीं हुआ ! मेरे मन में अपने सब स्वजनों प्रियजनों शुभचिंतकों की याद सतत बनी रही ! मन ही मन आप सब शुद्ध आत्माओं पर "परमपिता परमेश्वर" की अहैतुकी कृपा सदा सर्वदा बनी रहे , उस हेतु शुभकामनाएं एवं प्रार्थना भी करता रहा !

स्नेही प्रियजनों के  जन्म दिवस आये , उन्हें बधाई दी ,उनके लिए शुभ कामनाएं कीं और प्यारे प्रभु से "उनके "सभी प्रियजनों  पर उदारता से कृपा वृष्टि करते रहने का अनुरोध किया ! यह उचित था या अनुचित , इसका निर्णय "प्यारे प्रभु" के हाथों सौपता हूँ !  

जी हाँ इस बीच ,जुलाई में स्वयम मेरा ही जन्म दिवस आया , यहाँ विदेश में भी रात बारह बजे से ही टेलीफोन की घंटी घनघनाने लगी और फिर ईमेंल ,फेस बुक , और न जाने कौन कौन से आधुनिक उपकरणों पर बधाई एवं शुभ कामनाओं के सन्देश भी आये ! प्रियजन बुरा न माने , अनेक व्यवधानो के कारण ,मैं कदाचित उन सारे संदेशों को पढ़  भी नहीं पाया और  न उनके उत्तर ही प्रेषित कर पाया , क्षमा प्रार्थी हूँ ....

आत्म कथा है यह मेरी इसलिए पहले यह ही सुनिए कि मैंने स्वयम अपने लिए क्या शुभकामना की ,क्या प्रार्थना की और प्यारे प्रभु से अपने लिए क्या 'वर' माँगा : 

संत तुलसीदास जी का सुप्रसिद्ध सूत्रात्मक दोहा मार्ग दर्शक बना 

अर्थ न धर्म न काम रूचि गति न चहहु निरवान !
जनमजनम रति राम पद , यह ,वरदान न आन !! 

प्यारे प्रभु ! अर्थोपार्जन अथवा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति के प्रति अब मुझे तनिक भी रूचि नहीं है ! सच पूछिए तो अब मेरे मन में मुक्ति प्राप्ति की भी कामना शेष नहीं है ! प्रियतम् मुझे जनम जनम तक "अपने श्रीचरणों" के प्रति अखंड प्रीति प्रदान करो , मैं 'आपको' अनंतकाल तक न भूलूं ,ऐसा वरदान दो मुझे मेरे नाथ ! मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए !

कम्प्यूटर जी साथ दे रहे हैं , सोचता हूँ उपरोक्त संत तुलसी का दोहा तथा उस विचार से प्रेरित अपनी एक रचना आपको सुनाऊँ ,राम कृपा से :

सुमिरूं निष् दिन तेरा नाम यही वर दो मेरे राम 
रहे जनम जनम तेरा ध्यान यही वर दो मेरे राम 

मनमोहन छबी नैन निहारें जिव्हा मधुर नाम उच्चारे 
कनक भवन होवे मन मेरा 
(जिसमे हो श्री राम का  डेरा) 
कनक भवन होवे "मन" मेरा ,"तन" कोशालपुर धाम 
यही वर दो मेरे राम

गुरु आज्ञा ना कभी भुलाऊँ , परम पुनीत नाम गुण गाऊँ 
सुमिरन ध्यान सदा कर पाऊँ दृढ़ निश्चय दो राम 
यही वर दो मेरे राम 

सौपूं तुझको निज तन मन धन , अर्पित कर दूँ सारा जीवन, 
हर लो माया का आकर्षण , प्रेम भक्ति दो दान !!
यही वर दो मेरे राम 

प्रारब्धों की मैली चादर, धौऊँ सत्संगों में आकर 
तेरे शबद धुनों में गाकर पाऊँ मैं विश्राम 
यही वर दो मेरे राम 

बाक़ी है जो थोड़े से दिन , व्यर्थ न हो उनका इक भी छिन 
अंत काल कर तेरा सिमरन ,पहचूँ तेरे धाम
 यही वर दो मेरे राम 
रहे जनम जनम तेरा ध्यान यही वर दो मेरे राम
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(शब्द एवं स्वरकार - व्ही  एन   श्रीवास्तव "भोला")
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सोचा था इस आलेख के साथ भजन का एम् पी ३ अथवा यू ट्यूब संस्करण भी प्रेषित करूं   नहीं कर पाया - हरि इच्छा , आगे फिर कभी होगा ही !
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बुधवार, 9 जुलाई 2014

कैसे जियें , भाग ३

कैसे जियें - भाग 3

प्रियजन , प्यारेप्रभु ने अब् तक लिखवाया ,अनवरत लिखता रहा!  
अब् शायद विश्राम देना चाहते हैं इस काया को  ,
देखोना   
  "वो"आजकल लिखने को उकसाते ही नहीं ! 
फिर कैसे लिखूँ ?
जब आदेश आएगा लिखूँगा प्रेषित करूँगा !
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पिछले अंक में मैंने कहा कि "प्रातः उठते ही मन लगा कर हम सर्व प्रथम अपने परम - उदार , कृपा निधान प्रियतम प्रभु को अति श्रद्धा सहित "याद" करें ! अर्थात उनका "'स्मरण","सुमिरन" ,"सिमरन" करें और उनकी अनंत अहेतुकी कृपाओं के लिए अपना हार्दिक आभार व्यक्त करें !  

परन्तु विडंबना  ये है कि हम ऐसा नहीं करते ! साधारणतःऐसा होता है कि हम अपनी सब मनचाही वस्तुओं, अपने शुभचिंतक सम्बब्धियों मित्रों बीवी बच्चों तथा अन्य व्यक्तियों , यहाँ तक कि अपने शत्रुओं तक की याद अनवरत करते रहते हैं और हम अपने एकमात्र  शुभचिंतक ,एकमात्र प्रेमी सकल विश्व के श्रजक  रक्षक संघारक उन परम पिता का सुमिरन नहीं कर पाते  ! किसी ने , कदाचित कबीर ने ही कितना सच कहा है कि अरे मानव    
तूने रात गवाई सोय के , दिवस गवाया खाय के , 
हीरा जन्म अमोल था कौडी बदले जाय "

पर होता ये है कि प्रातः की इस अमृत बेला को हम अपने प्यारे प्रभु को धन्यवाद देने  की जगह अपने परिवार के लिए रोटी कपड़ा मकान जुटाने , अपने बच्चों के लिए पढाई लिखाई की उचित व्यवस्था करने   तथा दफ्तर अथवा कारखाने में अपनी नौकरी बचाने के जुगाड करने की चिंता में बिताते हैं !  

इस दैनिक आपा धापी में हमे अपने एकमात्र सहायक , उन परम कृपालु , परम उदार ,परम हितकारी ,प्यारे प्रभु" की याद पलभर को भी नहीं आती और हमारा समग्र जीवन यूँ ही बीत जाता है !

इसी से गुरु नानक देव जैसे दिव्य महात्मा ने सिमरन की महत्ता दर्शाते हुए अपने मन को ही आदेश दिया  :

सिमरन कर ले मेरे मना , तेरी बीती उमर हरि नाम बिना 

हमआप जैसे रिटायर्ड साधारण गृहस्थ व्यक्ति अपने घर में बिस्तर पर चादर ओढ़े पड़े पड़े अकेले सिमरन करने  का प्रयास करें -   प्रियजन वास्तव में किसी भी साधारण घर संसार में  ध्यान कर पाना कठिन  है क्योंकि  घर की खटर पटर में जहाँ कभी थाली गिरती है कभी प्याला टूटता है , कभी नाती पोते रोते हैं तो कभी बीवी या बहूरानी प्यार से  चाय का प्याला खड्का कर सामने रख देती हैं ! और कभी कभी घर के दरवाजे पर कोई उत्तेजक आवाज़ जोर से आती है और हम   तत्क्षण चीत्कारते  हैं "कौन है रे? " ऐसे में कैसे याद कर पायेगा कोई ? कैसे ध्यान लगेगा , कैसे सुनिरन होगा और कैसे हम धन्यवाद देंपायेंगे  "उन्हें" ?

तो फिर सिमरन  कैसे हो ? इस प्रश्न के उत्तर में गुरुजन ने बताया , 


"उनसे" - अपने प्रियतम प्रभु से ,प्यार का कोई संबंध स्थापित करलो ,  ! उनके अनंत उपकारों का विचार कर ,उन्हें अपना परम हितैषी मानो और "उन्हें" अपना  सबसे प्यारा सम्बन्धी, रिश्तेदार मित्र बना लो ! बार बार उनकी कृपा के क्षणों को याद करो - याद करो उनके अनंत उपकारों को !

"उनके"उपकारों को याद करके देखो प्रियजन आभार के अश्रु कण आपकी आँखों से छलकने लगेंगे एक दिव्य आनंद से हृदय छलछला उठेगा ! 

आज इतना ही ! शेष जब "उनका" इशारा मिलेगा 
तब तक के लिए राम राम 
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निवेदक :  व्ही   एन   श्रीवास्तव  "भोला"
सहयोग :   श्रीमती डॉक्टर कृष्णा भोला श्रीवास्तव 

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गुरुवार, 13 मार्च 2014

हम रिटायर्ड लोग , जीवन कैसे जियें ? (१)


सेवा निवृत्ति के उपरान्त 
जीवन कैसे जियें ?
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जीवन के ८५ वें रंगींन वर्ष में 
बीते दिनों के रोजनामचे के पृष्ठ पलटने बैठा हूँ ! 

  ६०  वर्ष की अवस्था - (स्पष्टतः सन १९८९ तक) ,काजल की कोठरी के समान ,जैसी भी है वैसी मूलतः  ,
 तिरंगिनी अथवा केसरिया  केन्द्रीय सरकारों 
 तथा 
उनके समान ही कजरारे चरित्र वालीं ,
प्रातीय सरकारो तथा उनके द्वारा संचालित प्रतिष्ठानों से 
सेवा निवृत्त होकर , 
मैं ,
पिछले २४ - २५  वर्ष कैसे जिया ? 

सुना रहा हूँ :
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यह समझना और कहना ('क्लेम करना') कि "मैं" रिटायरमेंट के बाद एक आदर्श एवं अनुकरणीय जीवन जी रहा हूँ ,सर्वथा अनुचित  तो है ही , इसे समझदार व्यक्तियों द्वारा अहंकार प्रेरित ही कहा जाएगा  ! सो, जान बूझ कर यह अपराध तो मैं करूँगा नहीं परन्तु इतना अवश्य कहूँगा कि -जो भी हो ,आप माने या न माने "मेरे 'प्यारे प्रभु' मुझे बहुत प्यार करते हैं, और हाँ इस बात का 'अभिमान' मुझे अवश्य है !

अन्य प्रेमी भक्त जनों से प्रार्थना है  "बुरा न  माने ! मैंने कब कहा कि "वह" केवल मुझे ही प्यार करते हैं ? प्रियवर "वह" तो सब को ही प्यार करते हैं और निश्चय ही "वह" आपको , मुझसे कहीं अधिक प्यार करते होंगे ! "उनपर" अटूट विश्वास रखने वाले , "उनको" पूर्णतः समर्पित , सब प्रकार "उनके" शरणागतजन सतत ऎसी प्रीति का अनुभव करते हैं !

बात करनी थी रिटायरमेंट के बाद एक आदर्श जीवन जीने के विषय में और एक पागल प्रेमी की नाई मैं छेड़ बैठा ,'अपनी -"उनकी" - प्रेम  - कहानी' ! क्या करूं स्वजनों ,अब् उसके सिवाय और कुछ याद ही नहीं रहता !

सच पूछिए तो  यदि रिटायरमेंट के बाद के मेरेजीवन का ढंग किसी को आदर्श लगता है तो इसका श्रेय केवल  मेरे प्रति मेरे 'प्यारे प्रभु' की इस अटूट प्रीति "  को ही है ! प्रियजन मैंने तो अपनी ओर से इसके लिए कोई विशेष प्रयास किया  ही नही ! मेरे "वह", (चाहे मैंने माँगा नहीं माँगा) "वो" अनवरत मुझ पर अपनी अहेतुकी कृपा की अमृत वर्षा करते रहे और रिटायरमेंट के बाद का मेरा जीवन संवारता ही गया !  

मानव हूँ देवता नहीं अस्तु जीवन में सजा पाने योग्य  गलतियाँ भी मैंने की ही होंगी  ,लेकिन मेरे "उनकी" उदारता तो देखिये "वो सर्वज्ञ" न्याय मूर्ति (चीफ जस्टिस ऑफ द सुपर सुप्रीम कोर्ट) सब जानते बूझते  अनिभिग्य बने रहे !मुझे , सजा दी भी तो ऎसी जिसे झेलने में मुझे कष्ट कम आनन्द अधिक प्राप्त हुआ ! मुझे  "उनकी" दी हुई सजा में मज़ा ही मज़ा आया  !


मिर्ज़ा गालिब साहिब ने कदाचित ऐसे अनुभवों के   बाद
 ही फरमाया होगा :

रहमत पे "उनकी" मेरे गुनाहों को नाज़ है 
बंदा हूँ जानता हूँ "वो" बंदा नवाज़ है !
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एकबार फिर याद दिला दूँ दोस्तों कि 
मेरे "वो" ,
जो मुझे सबसे अधिक प्यार करते हैं , 
"मेंरे  प्यारे प्रभु" ही हैं !
 अवश्य ही ग़ालिब साहेब के "वो" भी "वही
कृपा निधान ,सर्व शक्तिमान, सर्वज्ञ 
परमेश्वर ही थे !
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बार बार "मेरे प्यारे प्रभु - मेरे प्यारे प्रभु" की बात छेड़ कर आपको 
क्यूँ उत्तेजित करता रहता हूँ ?  - 
कदाचित किसी आतंरिक प्रेरणा से , 
जब भी इसका कारण मुझे समझ में आ जायेगा आपको अवश्य बताउंगा !

हाँ तो अभी केवल यह समझ में आया है कि मैं एक अति साधारण मानव हूँ अस्तु एक साधारण स्वार्थी व्यक्ति की भाँति मैं केवल उन व्यक्तियों , वस्तुओं और परिस्थितियों को ही प्यार करता  हूँ जिनके द्वारा मेरे  निजी स्वार्थ की सिद्धि होती है !

अब् देखिये मेरे जीवन में , इतना उदार वह कौन "दाता" है जो मेरे द्वारा बिना मांगे ही मेरी सारी आवश्य्क्ताओं (ज़रूरियात)  की पूर्ति कर देता है और  इस पे तुर्रा ये कि मुझे  अनमोल उपहार  देकर "वह"  मुझसे उसका कोई मोल;- (उसकी कीमत) भी नहीं माँगता !  


गोस्वामी तुलसीदास ने उस परम कृपालु सत्ता को पहचान कर जो कहा  -
आपको गाकर सुना रहा हूँ 

ऐसो को उदार जग माही !!
बिनु सेवा जो द्रवे दीन पर  "राम" सरिस कोउ नाही !!



जो गति जोग  बिराग जतन कर नहि पावत मुनि ज्ञानी ! 
सो गति देत गीध सबरी कहं , प्रभु न बहुत जिय जानी  !!


ऐसो को उदार जग माही !!


जो सम्पति दस सीस आरप करि रावण शिव पहँ लीनी !
सों सम्पदा विभीषन कहन अति सकुच सहित हरि दीनी !!
ऐसो को उदार जग माही !!

तुलसिदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि  मन मेरो, 
तो भजु राम काम सब पूरन करहिं कृपा निधि तेरो !!


ऐसो को उदार जग माहीं  !!
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प्रियजन मेरा दृढ विश्वास है कि प्यारे  प्रभु की अहेतुकी उदारता का पात्र केवल अकेला मैं ही नहीं हूँ बल्कि वे सब रिटायर्ड सरकारी अधिकारी भी हैं जिन्होंने  नेकनाम और बदनाम सभी सरकारी  विभागों में सेवाओं के दौरान  पूरी सच्चाई से अपनी ड्यूटी  बजाई है जिन्होंने अनैतिक नेताओं तथा उच्चाधिकारियों की संतुष्टि हेतु मजबूरन गलत काम नहीं किये और हुक्मुदीली करने पर हँस हँस कर ऎसी सजाएं झेलीं जैसे असामयिक एवं कष्टप्रद समझी जाने वाली जगहों पर पोस्टिंग ! ऐसे सभी व्यक्तियों को वैसा ही मज़ा आया होगा जैसा मुझे आया और अभी भी आ रहा है !!


 नेताओं और उच्चाधिकारियों की 'मार' झेल झेल कर , 
आपका यह बुज़ुर्ग स्वजन सरकारी   
काजल की कोठरी की कालिख से अछूता ,बेदाग़ निकल आया
र आज ८५ वर्ष की अवस्था में भी सम्मान सहित  
रिटायर मेंट के दिन जी रहा है    
क्यूँ और कैसे ? 
क्रमशः पढ़िए 
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 निवेदक : व्ही  एन श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

ओम् नमः शिवाय 
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शिवरात्रि के परम पावन दिवस ,
सभी पाठकों को 
भोला कृष्णा के 
"महावीर बिनवउँ हनुमाना" 
की ओर से 
हार्दिक शुभ कामनाएं 
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वर्षों पूर्व (कदाचित १९५९ में ) 
इस दासानुदास ने , सुप्रासिद्ध पौराणिक सूत्र 

"राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे 
सहस्त्र नाम ततुल्यम राम नाम वरानने" 

से प्रेरित होकर निम्नांकित रचना की और गाया :

"राम नाम मधुबन का भ्रमर बना मन शिव का 
निशदिन सुमिरन करता 'नाम' पुण्यकारी" 

कौन सा नाम और कौन है वह नामोपासक ?
नाम है  
"राम राम राम राम"
और
नामोपासक है 

"शंकर शिव शम्भु", साधु संतन सुखकारी
सतत जपत  राम नाम अतिशय शुभ कारी !!

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विश्वम्भर नाथ श्रीवास्तव "भोला"
  द्वारा 
१९६०-६१ में रचित 
"शंकर वन्दना" 
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यू ट्यूब पर सुनने के लिए लिंक : http://youtu.be/KzoJ7isIxfs

लीजिए आप यहीं सुन लीजिए 

शंकर शिव शम्भु साधु संतन सुखकारी
सतत जपत राम नाम अतिशय शुभ कारी !!

लोचन त्रय अति विशाल, सोहे नव् चन्द्र भाल !
रुंड मुंड ब्याल माल, जटा-गंग-धारी !!
 शंकर शिव शम्भु साधु संतन सुखकारी !!





शंकर शिव शम्भु साधु संतन सुखकारी !!

पार्वती पति सुजान, प्रमथराज, बृषभ यान !
सुर नर मुनि सेव्यमान, त्रिविधि ताप हारी !!
शंकर शिव शम्भु साधु संतन सुखकारी !!

औघड दानी महान, काल कूट कियो पान !
आरत-हर, तुम समान को है त्रिपुरारी !?!
शंकर शिव शम्भु साधु संतन सुखकारी !!
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(शब्दशिल्पी एवं गायक  "भोला")
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पुनः शिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ 
दासानुदास निवेदक -  
विश्वम्भर नाथ श्रीवास्तव "भोला" तथा 
श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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नोएडा (उ.प्र)) . भारत से प्रेषित 
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बुधवार, 19 फ़रवरी 2014


 स्वजनों के नाम, 
"भोला कृष्णा " का,  
भारत से प्रेषित , पहला सन्देश
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प्रियवर ,

जनवरी ११ के बाद आज "लेपटॉप" पर  बैठा हूँ ! १४ जनवरी को आँख में तीसरी सुई लगी ! २३ को भारत के लिए प्रस्थान किया , २५ को पहुंचा  ! 

बोस्टन जैसी ठंड तो न थी , लेकिन  पालम एयर पोर्ट और उसके आसपास का समग्र वायुमंडल धूल धुंआ और धुंध से लदा हुआ था ! ४० - ५० गज से अधिक दूर की सड़क की 
'नियोंन लाइट्स" भी ढिबरियों की लौ के समान टिमटिमा रहीं थीं ! हवा इतनी भारी कि सांस लेने में भी अत्यंत कठिनाई हो रही थी ! 


ऐसे में इस बार , ५ वर्ष के  अंतराल के बाद भारत आने पर भी वही हुआ जो हर बार होता है ! आशंका के अनुरूप दिल्ली पहुँचते ही खांसी और ज्वर ने जकड लिया ! 


फिर भी ,परिवार का बुज़ुर्ग होने के नाते,जिस पारिवारिक उत्सव में शामिल होने  के लिए भारत आया था , वहाँ पहुचना आवाश्य्क था , अस्तु ३, ४, ५ फरवरी को लखनऊ और ६ से १० फरवरी तक कानपुर में रहा और अब् वापस छोटे पुत्र माधव जी के पास नोएडा में रह रहा हूँ !  पूर्व निश्चित कार्यक्रम के अनुसार , प्यारे प्रभु की कृपा से , इस बार के भारतीय प्रवास के अंतिम दिवस तक यहीं रहूँगा ! 


वैसे हमसब जानते ही हैं कि "फाइनली" 
होगा तो वही जैसी हरि इच्छा होगी !  


प्रियजन , फिलहाल , इतना ही !


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  ५ वर्ष बाद भारत पहुंचे हम दोनों के कुछ चित्र देखिये 
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१. भारत भूमि पर उतरते ही पालम एयर पोर्ट के आगे व्हील चेयर्स पर पौत्री आकांक्षा की देख रेख में बेटी प्रार्थना के कार की प्रतीक्षा करते समय का चित्र संलग्न है !




२. एक अन्य चित्र , "पापा अम्मा , बाबा दादी , नाना नानी के भारत आगमन पर  खुशियाँ मनाते "भोला कृष्णा" और उनके प्यारे बच्चे" !


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अब् तो विश्वास हुआ आपको कि ५  वर्षों के लम्बे अंतराल के बाद , आपके स्नेही ,शुभाकांक्षी ,बुज़ुर्ग भोला बाबू  सपत्नीक भारत पहुँच ही गये !

प्यारे प्रभु श्री राम की अहेतुकी कृपा सब पर सदा सर्वदा बनी रहे !


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निवेदक :- व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग :- श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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शनिवार, 11 जनवरी 2014

कलिकाल की भक्ति


भक्ति 

अनंतश्री स्वामी अखंडानन्दजी सरस्वती ने कहा था  
"जीवन" जीने का वह ढंग जिससे भगवान की प्राप्ति हो उसे 
"भगवत धर्म" कहते हैं !


जिज्ञासु साधक के हृदय में "प्यारे प्रभु" के प्रति 'अखंड प्रीति' अर्थात "भगवद भक्ति", जगाने और उसे अविचल बनाये रखने के लिए किया गया कर्म - (उनकी 'क्रिया')  ही "भगवत धर्म" है !    

पौराणिक ग्रन्थों में ऐसे नौ [ ९ ] कर्म उल्लिखित हैं

  
 श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
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परन्तु कलिकाल में हम आप जैसे साधारण इंसानों के लिए, अपने प्यारे इष्ट देव की प्रीति, श्रद्धा और विश्वास को अविचल रख कर उनकी "भक्ति" प्राप्त करने हेतु, उपरोक्त नौ साधनों में से आसानी से अपनाने योग्य केवल निम्नांकित तीन साधन सुझाये गये हैं -

श्रवण, कीर्तन और स्मरण 

इन साधनों के द्वारा साधकों का प्रेमास्पद इष्ट "आनंद-रस" के रूप में प्रकट होता है ! 

उपनिषद के अनुसार ईश्वर का स्वरूप ही रस है !

कलिकाल में मीरा, सूर, तुलसी, चैतन्य महाप्रभु , नरसी मेहता आदि को कीर्तन श्रवण स्मरण के सुरस में सराबोर होने से ही निज वास्तविक स्वरूप का बोध हुआ था , उन्हें दिव्य आनंद का अनुभव हुआ था ! परमानंद की उस अनुभूति में उन्हें उनके प्रेमास्पद प्रभु मिल गये थे !


अनंत काल से प्रसुप्त मानव आत्मा को जगाने 
और उसमे भक्तिभाव स्थापित करने का सवोत्तम साधन रहा है 
"हरि कथा श्रवण, स्मरण एवं भजन - कीर्तन"!

कलियुग के सिद्ध संतों ने कठिन तपश्चर्या एवं यज्ञादिक कर्मों की अपेक्षा,
उपरोक्त इन तीनों साधनों को अन्तःकरण को कोमल बनाने और 
 निज "हृद्यासन" को "प्रभु" के स्वागत योग्य पवित्र  बनाने का 
सरलतम साधन बताया है !


१. श्रवण : श्रवण भक्ति एक कला है! पूरी लग्न लगाकर .एकाग्र मन से निष्ठा से जिज्ञासा की तृप्ति हेतु परमेश्वर की अलौलिक लीला, उनके जन्म , कर्म ,गुण की कथा, महत्व, स्त्रोत इत्यादि को सतत सुनते रहने की अतृप्त पिपासा , इतना कि जैसे बिना सुने रहा ही न जाए ! साधक की यह स्थिति ही है "सात्विकी श्रवण भक्ति"  ! ऐसे श्रवण द्वारा साधक अपने मन को अपने इष्ट के गुणों की कथा में तन्मय कर के "प्रेम रस" में सराबोर हो जाता है !

२. कीर्तनं : मन मंदिर में अपने "प्यारे प्रभु" का विग्रह प्रतिष्ठित कर, बंद नेत्रों से "प्यारे" की छवि निरंतर निहारते हुए , सुध बुध खोकर "उनका" गुणगान करना , गीत संगीत द्वारा "उनकी" अनंत कृपाओं के लिए अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करना, यह है भजन कीर्तन ! 

कीर्तन आत्मा  से निकली हुई झंकार है ! कीर्तन में मोहक शक्ति है  ! 

कीर्तन दो प्रकार का होता है, धुनात्मक और गीतात्मक ! अपने सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी ने कहा था :-

राम राम सुगुनी जन गाते, 
स्वर संगीत से राम रिझाते !! 
कीर्तन कथा करते विद्वान, 
सार सरस संग साधनवान !! 

गायन के दौरान केवल गायक का ही नहीं वरन सभी वास्तविक प्रभुप्रेमी श्रोताओं का उस निर्मल आनंद में सराबोर होकर  रोमांचित होना तथा उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु का झरना है भजन कीर्तन का चमत्कारी प्रभाव !

३.स्मरण :( सुमिरन या सिमरन )  हमारे सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी ने अमृतवाणी में कहा है:  

राम नाम सिमरो सदा अतिशय मंगल मूल,
विषम विकट संकट हरण कारक सब अनुकूल !' 
और 
'सिमरन राम नाम है संगी ! सखा सनेही सुहृद शुभ अंगी !!'  

प्रियजन, श्रवण तथा कीर्तन  तभी आनंद प्रदायक होंगे जब साधक निरंतर अनन्यभाव से परमेश्वर का स्मरण करेगा ! जब साधक अपने प्यारे के महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर पूर्ण रूप से अपने इष्ट के प्रेम में लीन होगा, जब वह तन मन की सुधि भुला कर मीरा की भांति " पग घुँघरू बाँध" कर नाचेगा तभी उसे  उस निर्मल परमानंद   की अनुभूति होगी  !

साधक प्रियजनों, आपको याद दिलाऊँ "स्मरण" ( सुमिरन ) का महत्व उजागर करते हुए सद्गुरु नानकदेव ने गाया था :-


सुमिरन कर ले मेरे मना 
तेरी बीती उमर हरि नाम बिना 

और संत सूरदास जी ने भी स्वयं को चेतावनी देते हुए कहा था   :-


कितक दिन हरि सुमिरन बिन खोये !  
पर निंदा  रस  में   रसना ने  अपने परत  डबोये !!
कितक दिन हरि सुमिरन बिन खोये !! 
काल बलीते सब जग कम्पत ब्रह्मादिक भी रोये !
  सूर अधम की कहो कौन गति उदर भरे पर सोये !! 

ये तीनों साधन अपने प्रभु को याद रखने और उन्हें अपने अंग संग बनाए रखने में सहायक हैं ! इनसे मन प्रसन्न रहता है , नेत्र सजल हो जाते है, शरीर पुलकित होता है और अंतरतम की ऊर्जा जाग्रत रहती है ! 

श्रवण, कीर्तन, स्मरण के सरल साधनों  द्वारा हम आप जैसे साधारण साधकों के हृदय में भी अति सुगमता से उस प्रेम लक्षणा भक्ति का अवतरण होता है जो न केवल हम साधकों को बल्कि हमारे इष्ट मित्रों को भी आत्मिक आनंद में डुबो देता है !  

राग  रागिनी गाय कर जो  भजते  भगवान 
सफल जन्म उनका गिनो सफल कर्म शुभ ज्ञान 

जिनके मन में राम का  बसे सुरीला राग 
बजे बाँसुरी प्रेम की , हैं वे ही बड भाग

[सद्गुरु श्री स्वामी सत्यानन्द जी] 


मेरा निज अनुभव इस तथ्य की पुष्टि करता  है ! स्मरण-श्रवण-कीर्तन इन तीनों युक्तियों को एक ठांव संजोये, महात्माओं के संगीतमय प्रवचन सुन कर , गदगद होकर मैं कितना रोमांचित होता हूँ ? आनंदित होकर कितने अश्रु ढलकाता हूँ ? मैं स्वयम नही जानता ! शब्दों में अपने मन की उस स्थिति को बयान करने का साहस मैं नहीं करूँगा !

प्रियजनों, सदियों पूर्व बाबा हरिदास तथा सूफियों का भक्ति पूर्ण गायन सुनने का सौभाग्य तो मुझे मिला नहीं परन्तु आजकल के अनेक संगीत-निपुण महात्माओं के प्रवचन सुनने का सुअवसर मुझे अक्सर मिला है!श्रीश्री माँ आनंदमयी  तथा लक्षमन टीला अयोध्या के संत शिरोमणि श्री सीता राम सरन जी के संगीतमय प्रवचन सुन कर मुझे दिव्य आनन्द मिलता था और मेरी आँखे  छल छलाती रहतीं थीं ! 


मम गुण गावत पुलक सरीरा ! गदगद् गिरा नयन भरि  नीरा !!
(संत तुलसीदास) 

मुझे आनंदाश्रु ढल्काते देख "श्रीश्री माँ" ने एक सभा में अपने प्रवचन के अधिकांश अंश मे, मेरे कहे बिना ही ,केवल मेरी शंकाओं का ही समाधान किया ! ऎसी ही स्थिति में एक बार संत सीतारामसरनजी ने व्यास आसन से दूर श्रोताओं की पिछली पंक्ति में बैठे इस दासानुदास पर , आंसू पोछने के लिए केसरिया रंग का एक सुगन्धित रूमाल फ़ेंक कर इस दास को चौंका दिया ! रूमाल पाकर अश्रु झडी थमी नहीं और  बढ़ गयी !

ऐसे अनेकानेक अनुभव मुझे अभी तक होते रहते हैं ! यहाँ यू एस ए में पंडित जसराज के एक बार के प्रणवाक्षर "ओम" के उच्चारण ने केवल मुझे ही नहीं हजारों श्रोताओं को रोमांचित कर दिया था और "हॉल" में उपस्थित लगभग सभी व्यक्तियों की आँखें डबडबा गयीं !

जब जीभ से प्रभु का भजन-कीर्तन हो , कान से उसका श्रवण  हो ,  मन से उनका स्मरण कर उनके लीला , रूप ,गुण ,धाम का मनन हो   तब  साधक संसार  को भूल जाता है और उसका मन प्रभु से जुड़ जाता है !


श्री मद् भागवद  पुराण  में योगेश्वर श्री कृष्ण का कथन है -----

जैसे भोजन करने वाले को प्रत्येक ग्रास के साथ  ही तुष्टि {तृप्ति अथवा सुख } पुष्टि {जीवन शक्ति का संचार } और क्षुधा निवृत्ति --ये तीनों एक साथ मिल  जाते हैं वैसे ही  जो मनुष्य भजन करने लगता है , उसे भजन के प्रत्येक पल में भगवान के प्रति प्रेम, अपने आराध्य के स्वरूप का अनुभव और अन्य पदार्थों से वैराग्य -- इन तीनों की प्राप्ति हो जाती है !

प्रियजन 
 यदि आपके पास सुविधा है और सुनने के लिए ७-८ मिनट का अवकाश है ,  
तो कृपया मेरा यह भजन सुन लीजिए !
पहली जनवरी '१४ के प्रात दैविक प्रेरणा से यह पुराना भजन 
नूतन कलेवर में मेरे कंठ से प्रस्फुटित हुआ ,

प्रस्तुत है सूरदास जी का "स्मरणं" सम्बन्धी यह पद 

हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो  
हरि चरणारविन्द उर धरो 

हरि की कथा होय जब जहां , गंगा हू चलि आवे तहां 

हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो


हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो 

जमुना सिंधु सरस्वती आये , गोदावरी विलम्ब न लाये 
सर्व तीर्थ को बासा तहां , सूर हरि कथा होवे जहां 
हरि की कथा होय जब जहां , गंगा हू चलि आवे तहां 

हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो
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("संत सूरदास" का पद , गायक - "भोला" )
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निवेदक : व्ही . एन .श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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यह भजन निम्नांकित लिंक पर उपलब्ध है   .