"दीक्षा"
दृष्टि , वाणी ,स्पर्श, एवं ध्यान द्वारा "दीक्षा"
पिछले पखवाड़े , "हरिकेन सेंडी" का भयंकर उत्पात झेल रहा था अमेरिका का यह भू खंड ;जहाँ विगत १२ वर्षों से हम दोनों अपने दो ज्येष्ठ पुत्रों और उनके परिवार के साथ , प्यारे प्रभु "श्री राम" के सुखद संरक्षण में रह रहें हैं !
प्रियजन , कबीर साहेब का यह सूत्रात्मक कथन कि :"दुःख में सुमिरन सब करें ,सुख में करे न कोय" ,की सच्चाई, उन दिनों की हमारी रहनी में अक्षरशः प्रमाणित हुई ! उस भयानक प्राणघातक प्राकृतिक प्रकोप से बचने के लिए सभी आस्थावान व्यक्ति किसी न किसी रूप में अपने अपने इष्टदेव और गुरुजन का स्मरण कर रहें थे ! सद्गुरु-स्मृति के साथ ही आस्तिक मानव के हृदयाकाश में दामिनी के समान कौंध रहां था ,"सद्गुरु" से "दीक्षा" में प्राप्त उनका "गुरुमंत्र" !
मुझ जैसे साधारण व्यक्ति को भी ऐसे में अपने सद्गुरु का स्मरण आना स्वाभाविक ही था ! "सद्गुरु" की स्मृति के साथ मुझे १९५९ की पंचरात्री सत्संग के किसी प्रवचन में स्वामी जी का यह वक्तव्य साफ़ साफ़ याद आया ! [ मेरी शब्दावली कदाचित भिन्न हो , लेकिन उसमे व्यक्त भावनायें पूर्णतः वास्तविक हैं ] - महाराज जी ने कुछ ऐसा कहा था :
" जीवन में विपत्तियां आजाती हैं ! हम संकट में घिर जाते हैं ! ऐसे में यदि विमल भाव से हम उचित पुरुषार्थ के साथ साथ निष्काम प्रार्थना करें तो भयंकर से भयंकर तूफ़ान में डगमगाती किश्ती से भी पार उतर जाएंगे !"
यहाँ "सेंडी" के आगमन पर अपनी निजी असमर्थताओं के होते हुए भी , प्यारे प्रभु की अहेतुकी अनुकम्पा एवं अपने गुरुजन के स्नेहाशीर्वाद और शुभचिंतकों की दुआओं के सहारे तथा इस देश की समुचित आपातकालीन व्यवस्था की मुस्तेदी के कारण अमरीका के इस भू खंड ,मेसाच्यूटीस में हमारी नैया भी उस भयंकर तूफ़ान में आखिरकार पार लग ही गयी !
आपको विदित ही है कि "सेंडी" के आगमन के बहुत पहले से ही मेरा मन, अपने सद्गुरु श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज की दिव्य स्मृति और उनसे मिली नाम दीक्षा के विचारों से भरा हुआ था ! सम्भवतः उसके फलस्वरूप ही मैंने उन्ही भावनाओं से ओत-प्रोत अपना पिछला आलेख , इत्तेफाक से ,जी हाँ बिलकुल इत्तेफाक से प्रेषित किया था "तीन नवम्बर" को !
प्रियजन ,"तीन नवम्बर " मेरे जीवन के एक अति महत्वपूर्ण दिवस की अंग्रेजी तारीख है और मुझे देखिये , मैं इस महत्वपूर्ण तारीख को भूला हुआ था ! अब सुनिये कि आज सहसा कैसे याद आगई - "तीन नवम्बर" की :
आज प्रातः कृष्णा जी ने अपनी "ट्रेवेलिंग तिजोरी" खोली . जिसमें हीरे मोतियों की जगह पड़े हैं ,दीमकों द्वारा कुतरे हुए मेरे कुछ उन पत्रों के भग्नावशेष जो मैंने ,धर्मपत्नी - कृष्णा जी के पास , १९६४- ६५ में लन्दन के भारतीय छात्रावास से अपने एकाकी प्रवास के दौरान भेजे थे ! कृष्णा जी ने उन पुराने पत्रों के साथ साथ अपने उस कागजी खजाने से निकाले थे मेरी पुरानी डायरियों [ रोजनामचों ] के चंद बचे खुचे पृष्ठ !
हाँ तो आज कृष्णाजी ने उसमें से निकाल कर मुझे पढ़ने को दिया ,मेरी १९५९ वाली डायरी का "तीन नवम्बर" वाला पृष्ठ ! अर्ध शताब्दी से भी पुराना वह बदरंग भूरा ,काल कवलित ,मटमैला जर्जर कागज और उसके अधिकाँश भाग पर मेरे द्वारा लिखित एक धुंधलाती अस्पष्ट शब्दावली , जिसे पूरी तरह पढ़ पाना भी आज मेरे लिए कठिन है !
उस् "तीन नवम्बर १९५९" वाले पृष्ठ पर चमचमाती लाल रोशनाई में अंकित दिखा मेरा एक बयान जो आज भी उतना ही दैदीप्तिमान है जितना तब - आज से ५३ साल पहले रहा होगा ! मैं उसे पढ़ सका ,अस्तु आपको भी बता रहा हूँ ,
मंगलवार - कार्तिक -शु. ३, वि. २०१६ - तदनुसार ३. नवम्बर १९५९ ई.
हम 'जनता' से ग्वालियर आये ! दोपहर बाद दादा के साथ , ( शर्मा बिल्डिंग ,लश्कर से परमेश्वर भवन ) , मुरार गये श्री स्वामी जी के दर्शन करने तथा पंच रात्रि सत्संग में सम्मिलित होने की आज्ञा प्राप्त करने !
आज्ञा मिल गयी !
आज सायंकाल श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ने हमे "नाम दीक्षा" दी ! कितना "सुख" मिला ? कौन वर्णन कर सकता है ?
ग्वालियर - ३-११-१९५९
प्रियजन , आप अब तो जान ही गये हैं कि यह तारीख - "तीन नवम्बर" मेरे लिए इतनी महत्वपूर्ण क्यों है !
प्रातः स्मरणीय श्री स्वामी सत्यानन्द जी सरस्वती महाराज
आज से ठीक ५३ वर्ष पहले , ( ३ नवम्बर १९५९) को , 'मुझे' -[ आपके इस वयोवृद्ध ८३ वर्षीय शुभ चिंतक को , जिन्हें आप 'व्हीएन','विश्वम्भर' ,'श्रीवास्तवजी' 'भोला' आदि नामों से जानते हैं ] ,अपने जन्म जन्मान्तर के संचित पुण्य के फलस्वरूप ,प्यारे प्रभु की विशेष कृपा से , सद्गुरु स्वामी श्री सत्यानन्द जी महाराज के प्रथम दर्शन हुए थे !
कितना सत्य है यह सूत्र कि जिस् व्यक्ति को उसका सद्गुरु मिल गया उसके जीवन का अन्धकार सदा सदा के लिये मिट गया और उसके सौभाग्य का भानु उदय हो गया !
हाँ तो मैं सुना रहा था स्वामीजी महाराज के प्रथम दर्शन की कथा ! उस दिव्य प्रथम दर्शन के साथ साथ स्वामी जी ने मुझे दीक्षित करके " परम कृपा स्वरूप, परमप्रभु ,"श्रीराम" के शुभ मंगलमय नाम का गुरू मंत्र भी दे दिया था !
वह "दीक्षा" इस मानव जन्म में मेरी प्रथम और अंतिम गुरू दीक्षा थी ! उस समय मैं नहीं कह सकता था कि मेरी वह दीक्षा स्पर्श,दृष्टि ,वाणी एवं ध्यान "दीक्षा", में से कौन सी थी ! क्यूंकि
दीक्षा के समय मैंने क्या देखा , क्या सुना , क्या किया मुझे ठीक से याद नहीं ! याद है तो केवल यह कि मैं उस समय श्री महराज जी की तेजस्वी आभा से ऐसा सकपकाया हुआ था कि मुझे स्वामी जी महाराज के मुखमंडल की ओर आँख उठाकर देखने का साहस ही नहीं हुआ ! मैं केवल उनके गुलाबी गुलाबी नव् विकसित कमल कलिकाओं जैसे श्री चरणों की ओर लालची भंवरे के समान निहारता रहा !
प्रियजन , उस दिन महाराज जी के एकाकी सानिध्य ने मेरे मन को परमानंद से भर दिया था ! मेरा प्यासा साधक मन , स्वामी जी की मधुर वाणी से नि:सृत अमृत कंण से सिंचित हो रहा था ! श्री चरणों के आलावा मैं और कुछ देख नहीं सका था लेकिन मुझे उस समय अपने मस्तक पर स्वामी जी महाराज के वरद हस्त का कल्याणकारी स्पर्श अवश्य ही महसूस हुआ था ! निश्चय ही उस समय स्वामीजी ने अति करुणा करके मुझे अपनी मंगलमयी कृपा दृष्टि से देखा होगा ! इस प्रकार , वाणी ,स्पर्श एवं कृपा दृष्टि द्वारा श्री स्वामी जी महाराज ने मुझे दीक्षित कर के मेरा यह मानव जन्म सुधार दिया !
आइये आज हम अपने अपने "इष्ट" और "सदगुरू" से यह प्रार्थना करें कि कृपा करके वो हमारे जीवन के शेष क्षणों में भी हमारे मस्तक पर अपना वरद हस्त फेरते रहें जिससे हमारे मन का आस्तिक भाव दिन प्रति दिन दृढ़ होता जाये और हम अपने "परम प्रिय इष्ट" को एक पल के लिए भी नहीं भूलें -------
क्रमशः
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निवेदक : व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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1 टिप्पणी:
दीक्षा के समय मैंने क्या देखा , क्या सुना , क्या किया मुझे ठीक से याद नहीं ! याद है तो केवल यह कि मैं उस समय श्री महराज जी की तेजस्वी आभा से ऐसा सकपकाया हुआ था कि मुझे स्वामी जी महाराज के मुखमंडल की ओर आँख उठाकर देखने का साहस ही नहीं हुआ ! मैं केवल उनके गुलाबी गुलाबी नव् विकसित कमल कलिकाओं जैसे श्री चरणों की ओर लालची भंवरे के समान निहारता रहा !
सदगुरु की अनुपम कृपा ऐसे ही बरसती है।
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