स्वामी विवेकानंद जी की दीक्षा
कलकत्ता महानगर के एक सम्पन्न उच्चवर्गीय परिवार में १२ जनवरी १८६३ की प्रातः लगभग ७ बजे जन्मा एक तेजस्वी एवं चुम्बकीय आकर्षण युक्त सुंदर सलोना शिशु !
शिशु के 'पिता' श्री विश्वनाथ दत्ता ,कलकत्ता हाईकोर्ट के एक जाने माने अति-व्यस्त एडवोकेट थे ! वह पाश्चात्य संस्कृति के प्रबल पक्षधर थे ! उनकी धर्मपत्नी , श्रीमती भुवनेश्वरीदेवी धार्मिक विचारों एवं सनातन सिद्धांतों में दृढ़ आस्था रखने वाली भद्रमहिला थीं ! वह देवाधिदेव महादेव "शिव" की परमभक्त व अनन्य उपासिका थीं !
बालक के जन्म से पूर्व , उसके विरक्त संन्यासी पितामह [ठाकुर दा ] - श्री दुर्गादासजी यह असार संसार छोड़ चुके थे !
कहते हैं कि यह बालक हाव भाव स्वभाव ,चाल ढाल , नाक नक्शे तथा रंगरूप में बिलकुल अपने पितामह ब्रहमलीन संन्यासी दुर्गाचरनदास जी का 'नन्हा प्रतिरूप' ( abridged edition - संक्षिप्त संस्करण ) लगता था ! कोई कोई तो यह भी कहता था कि दिवंगत संन्यासी श्री दुर्गादास जी ने ही उस शिशु के रूप में दत्त परिवार में पुनर्जन्म लिया है !
ऐसे में इस बालक के माता पिता एवं परिवारजनों को बालक के बालपन से ही यह चिंता और आशंका सताने लगी कि कहीं , बडा होकर यह बालक भी अपने ठाकूर दा (दादा जी) की तरह ,विरक्त होकर संन्यास न ले ले !
बालक का नाम बताना तो भूल ही गया ! प्रसव काल में "माँ" सतत अपने इष्ट भगवान "शिवशंकर" का स्मरण करती रहीं ! उनके जहन में घूम फिर कर बार बार भगवान शिव का "वीरेश्वर" नाम उभरता रहा ! अस्तु माँ ने मन ही मन आगंतुक बालक का नाम रख लिया "वीरेश्वर" ! दुलार में वह उसे "बिले " नाम से पुकारने लगीं ! परन्तु बहुत दिन नहीं चला यह नाम ! यज्ञोपवीत के समय ज्योतिष के आधार पर बालक की जन्म राशि के अनुकूल ,उनका नामकरण हुआ ! ज्योतिषाचार्य की सलाह से ,दत्त परिवार के कुल पुरोहित ने उस बालक को ,"न" अक्षर का नाम दिया - "नरेंद्र नाथ" !
कदाचित पूर्वजों एवं अपनी माँ के धार्मिक संस्कार तथा स्वयम अपने पूर्व जन्मों के संचित प्रारब्धानुसार बाल अवस्था से ही, मेधावी दार्शनिक और तार्किक बुद्धिवाला "नरेंद्र" विभिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों की वास्तविकता जानने की कोशिश में लग गया !
उसका मन कभी अपनी माताश्री की सुदृढ़ आस्तिकता तथा मूर्ति पूजन में उनकी अचल आस्था की ओर तो कभी उस समय के बंगाल के जागृत पढे लिखे समाज की 'नास्तिकता' के कगार पर खडी धार्मिक प्रवृत्ति की ओर झुक जाता ! ऐसे में उसके भ्रमित मन में कभी कभी यह प्रश्न भी उठ खड़ा होता था कि 'भगवान' अथवा 'ईश्वर' नामक कोई सत्ता है भी या नहीं ! अस्तु जीवन के १८ वें वर्ष तक 'नरेंद्र नाथ' ,की तार्किक बुद्धि हिंदू सनातनियों के मूर्ति पूजन और ब्रह्म समाज द्वारा इस मत के पुरजोर खंडन की गुत्थी सुलझाने और वास्तविक मानव धर्म की तलाश में जुटी रही !
हिंदुत्व के अतिरिक्त ,स्वदेश में दृढता से पाँव पसारे इस्लाम और ईसाई धर्म तथा इन धर्मों के मत मतान्तरों की दार्शनिक विसंगताओं में मानव धर्म के "वास्तविक सत्य" का दर्शन न मिलपाने से क्षुब्ध नरेन्द्र ने इन सभी धर्मों के अभिनन्दनीय ग्रंथों का गहन अध्ययन किया ! तदोपरांत उसने इन सभी धर्मों के गुरुओं का साक्षात्कार किया ! इन साक्षात्कारों द्वारा नरेंद्र ने , तथाकथित इन महापुरुषों की आध्यात्मिक दिव्यता का आंकलन भी किया !
इन गुरुओं से नरेंद्र नाथ को न तो अपने प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर मिले और न उसे उनमे "आत्मसाक्षातकार" करा देने वाली दिव्य शक्ति के दर्शन ही हुए ! सुना है कि इस अभियान में जिज्ञासु "नरेंद्र" ने ,५२ (बावन ,जी हाँ ५२ ही ) विविध धार्मिक गुरुओं से मुलाक़ात की !
अन्ततोगत्वा अपने कोलेज के अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर की सलाह से परम सत्य का खोजी ,१८ वर्षीय "नरेंद्र नाथ" नवम्बर १८८१ में , आज से लगभग १३१ वर्ष पूर्व दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में ,परमहंस ठाकुर रामकृष्णजी से अपनी जिज्ञासाओं की शांति तथा ईश्वर संबंधी अपने सभी प्रश्नों का सही उत्तर पाने की लालसा से गया !
५२ धर्म गुरुओं के उत्तरों से असनतुष्ट नरेन्द्र नाथ अपने ५३वे परिक्षार्थी के सन्मुख खड़ा था ! उस समय ,ठाकुर खुली आँखों से समाधिस्थ बैठे थे ! उनका चेहरा निर्विकल्प निर्लेप भाव विहींन था ! अपने नये परीक्षार्थी , उस पागल से दीखते ,अधनंगे वैरागी 'ठाकुर राम कृष्ण' पर प्रथम दृष्टि पड़ते ही तर्कशील नोरेंन का मन उनका मजाक उड़ाने को हुआ ! उसके जी में आया कि वह उस ध्यानस्थ ठाकुर को छुए ,उसे गुदगुदाए , उनकी दिखावटी समाधि भंग कर दे ! लेकिन बहुत चाह कर भी वह वैसा नहीं कर सका [क्या जाने क्यूँ उसे उतना साहस ही नहीं हुआ ]
ध्यान भंग होते ही ठाकुर ने मुस्कुरा कर ,उस मेधावी युवक पर अपनी प्रश्नसूचक दृष्टि डाली ! इधर युवक पहिले से ही ,अपनी ओर से प्रश्नों की गोलियां दागने को तय्यार बैठा था ! व्यंगात्मक भंगिमा से बोला " ध्यान में आपको भगवान के दर्शन तो हुए ही होंगे ?" ! ठाकुर कुछ बोले नहीं मुस्कुराते रहे !
युवक चुप न रहा फिर बोला " बाबा,सब गेरुए वस्त्रधारी नकली जटाजूट वाले सन्यासी ढोल पीट पीट कर कहते फिरते हैं कि उन्होंने भगवान को देखा हैं ! आप भी बोल दीजिए , क्या लगता है बोलने में ?" ! ठाकुर फिर भी कुछ न बोले !
वह ढीठ युवक बोलता ही गया ! इस् बार उसने बात थोड़ी घुमा दी ,पूछा ,"महाराज , कम से कम हमे ये तो बता ही दीजिए कि ,"भगवान" है भी या नहीं ? "
उत्तर में ठाकुर बोले " है अवश्य है ! क्यूँ ,तुम्हे कोई शक है क्या ?"!
युवक बोला ," बाबा, शक न होता तो पूछता ही क्यूँ ? आपकी तरह सब कहते फिरते हैं कि 'भगवान हैं' लेकिन कोई साबित नहीं कर पाता ! आप ही बताइए क्या आपने स्वयम देखा है अपने उस भगवान को " !
शिशु के 'पिता' श्री विश्वनाथ दत्ता ,कलकत्ता हाईकोर्ट के एक जाने माने अति-व्यस्त एडवोकेट थे ! वह पाश्चात्य संस्कृति के प्रबल पक्षधर थे ! उनकी धर्मपत्नी , श्रीमती भुवनेश्वरीदेवी धार्मिक विचारों एवं सनातन सिद्धांतों में दृढ़ आस्था रखने वाली भद्रमहिला थीं ! वह देवाधिदेव महादेव "शिव" की परमभक्त व अनन्य उपासिका थीं !
बालक के जन्म से पूर्व , उसके विरक्त संन्यासी पितामह [ठाकुर दा ] - श्री दुर्गादासजी यह असार संसार छोड़ चुके थे !
कहते हैं कि यह बालक हाव भाव स्वभाव ,चाल ढाल , नाक नक्शे तथा रंगरूप में बिलकुल अपने पितामह ब्रहमलीन संन्यासी दुर्गाचरनदास जी का 'नन्हा प्रतिरूप' ( abridged edition - संक्षिप्त संस्करण ) लगता था ! कोई कोई तो यह भी कहता था कि दिवंगत संन्यासी श्री दुर्गादास जी ने ही उस शिशु के रूप में दत्त परिवार में पुनर्जन्म लिया है !
ऐसे में इस बालक के माता पिता एवं परिवारजनों को बालक के बालपन से ही यह चिंता और आशंका सताने लगी कि कहीं , बडा होकर यह बालक भी अपने ठाकूर दा (दादा जी) की तरह ,विरक्त होकर संन्यास न ले ले !
बालक का नाम बताना तो भूल ही गया ! प्रसव काल में "माँ" सतत अपने इष्ट भगवान "शिवशंकर" का स्मरण करती रहीं ! उनके जहन में घूम फिर कर बार बार भगवान शिव का "वीरेश्वर" नाम उभरता रहा ! अस्तु माँ ने मन ही मन आगंतुक बालक का नाम रख लिया "वीरेश्वर" ! दुलार में वह उसे "बिले " नाम से पुकारने लगीं ! परन्तु बहुत दिन नहीं चला यह नाम ! यज्ञोपवीत के समय ज्योतिष के आधार पर बालक की जन्म राशि के अनुकूल ,उनका नामकरण हुआ ! ज्योतिषाचार्य की सलाह से ,दत्त परिवार के कुल पुरोहित ने उस बालक को ,"न" अक्षर का नाम दिया - "नरेंद्र नाथ" !
कदाचित पूर्वजों एवं अपनी माँ के धार्मिक संस्कार तथा स्वयम अपने पूर्व जन्मों के संचित प्रारब्धानुसार बाल अवस्था से ही, मेधावी दार्शनिक और तार्किक बुद्धिवाला "नरेंद्र" विभिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों की वास्तविकता जानने की कोशिश में लग गया !
उसका मन कभी अपनी माताश्री की सुदृढ़ आस्तिकता तथा मूर्ति पूजन में उनकी अचल आस्था की ओर तो कभी उस समय के बंगाल के जागृत पढे लिखे समाज की 'नास्तिकता' के कगार पर खडी धार्मिक प्रवृत्ति की ओर झुक जाता ! ऐसे में उसके भ्रमित मन में कभी कभी यह प्रश्न भी उठ खड़ा होता था कि 'भगवान' अथवा 'ईश्वर' नामक कोई सत्ता है भी या नहीं ! अस्तु जीवन के १८ वें वर्ष तक 'नरेंद्र नाथ' ,की तार्किक बुद्धि हिंदू सनातनियों के मूर्ति पूजन और ब्रह्म समाज द्वारा इस मत के पुरजोर खंडन की गुत्थी सुलझाने और वास्तविक मानव धर्म की तलाश में जुटी रही !
सदगुरु का प्रथम दर्शन
हिंदुत्व के अतिरिक्त ,स्वदेश में दृढता से पाँव पसारे इस्लाम और ईसाई धर्म तथा इन धर्मों के मत मतान्तरों की दार्शनिक विसंगताओं में मानव धर्म के "वास्तविक सत्य" का दर्शन न मिलपाने से क्षुब्ध नरेन्द्र ने इन सभी धर्मों के अभिनन्दनीय ग्रंथों का गहन अध्ययन किया ! तदोपरांत उसने इन सभी धर्मों के गुरुओं का साक्षात्कार किया ! इन साक्षात्कारों द्वारा नरेंद्र ने , तथाकथित इन महापुरुषों की आध्यात्मिक दिव्यता का आंकलन भी किया !
इन गुरुओं से नरेंद्र नाथ को न तो अपने प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर मिले और न उसे उनमे "आत्मसाक्षातकार" करा देने वाली दिव्य शक्ति के दर्शन ही हुए ! सुना है कि इस अभियान में जिज्ञासु "नरेंद्र" ने ,५२ (बावन ,जी हाँ ५२ ही ) विविध धार्मिक गुरुओं से मुलाक़ात की !
अन्ततोगत्वा अपने कोलेज के अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर की सलाह से परम सत्य का खोजी ,१८ वर्षीय "नरेंद्र नाथ" नवम्बर १८८१ में , आज से लगभग १३१ वर्ष पूर्व दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में ,परमहंस ठाकुर रामकृष्णजी से अपनी जिज्ञासाओं की शांति तथा ईश्वर संबंधी अपने सभी प्रश्नों का सही उत्तर पाने की लालसा से गया !
५२ धर्म गुरुओं के उत्तरों से असनतुष्ट नरेन्द्र नाथ अपने ५३वे परिक्षार्थी के सन्मुख खड़ा था ! उस समय ,ठाकुर खुली आँखों से समाधिस्थ बैठे थे ! उनका चेहरा निर्विकल्प निर्लेप भाव विहींन था ! अपने नये परीक्षार्थी , उस पागल से दीखते ,अधनंगे वैरागी 'ठाकुर राम कृष्ण' पर प्रथम दृष्टि पड़ते ही तर्कशील नोरेंन का मन उनका मजाक उड़ाने को हुआ ! उसके जी में आया कि वह उस ध्यानस्थ ठाकुर को छुए ,उसे गुदगुदाए , उनकी दिखावटी समाधि भंग कर दे ! लेकिन बहुत चाह कर भी वह वैसा नहीं कर सका [क्या जाने क्यूँ उसे उतना साहस ही नहीं हुआ ]
ध्यान भंग होते ही ठाकुर ने मुस्कुरा कर ,उस मेधावी युवक पर अपनी प्रश्नसूचक दृष्टि डाली ! इधर युवक पहिले से ही ,अपनी ओर से प्रश्नों की गोलियां दागने को तय्यार बैठा था ! व्यंगात्मक भंगिमा से बोला " ध्यान में आपको भगवान के दर्शन तो हुए ही होंगे ?" ! ठाकुर कुछ बोले नहीं मुस्कुराते रहे !
युवक चुप न रहा फिर बोला " बाबा,सब गेरुए वस्त्रधारी नकली जटाजूट वाले सन्यासी ढोल पीट पीट कर कहते फिरते हैं कि उन्होंने भगवान को देखा हैं ! आप भी बोल दीजिए , क्या लगता है बोलने में ?" ! ठाकुर फिर भी कुछ न बोले !
वह ढीठ युवक बोलता ही गया ! इस् बार उसने बात थोड़ी घुमा दी ,पूछा ,"महाराज , कम से कम हमे ये तो बता ही दीजिए कि ,"भगवान" है भी या नहीं ? "
उत्तर में ठाकुर बोले " है अवश्य है ! क्यूँ ,तुम्हे कोई शक है क्या ?"!
युवक बोला ," बाबा, शक न होता तो पूछता ही क्यूँ ? आपकी तरह सब कहते फिरते हैं कि 'भगवान हैं' लेकिन कोई साबित नहीं कर पाता ! आप ही बताइए क्या आपने स्वयम देखा है अपने उस भगवान को " !
असंतुष्ट नरेंद्र पुनः ठाकुर को छेड़ते हुए बोला " मान लिया बाबा आपको भगवान का दर्शन होता है ! लेकिन मुझे तो तब विश्वास होगा जब आप मुझे अपने उस भगवान के दर्शन करायेंगे "!
ठाकुर ने आश्वासन देते हुए कहा -" निश्चय ही , तुझे तो अवश्य दर्शन करवाऊंगा ,उचित समय आने दे ! "
[ क्रमशः ]
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आज यहीं समाप्त कर रहा हूँ ! "दीक्षा विशेष" की चर्चा ,अगले अंक में होगी !
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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2 टिप्पणियां:
सार्थक आलेख व् पोस्ट हेतु आभार .हम हिंदी चिट्ठाकार हैं
बेटाजी ,रामाज्ञा से अन्तःप्रेरणा द्वारा लिखता हूँ ! गुरुजंन क्यूँ लिखवा रहें हैं मैं नहीं जानता ! आपने समय निकाल कर पढ़ा ! आपको सार्थक लगा , धन्यवाद !
आपका हिन्दी 'चिट्ठाकार' वाला आलेख बहुत खोजने पर भी नहीं मिला ! आशीर्वाद !
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