बुधवार, 1 मई 2013

"स्वामी चिन्मयानन्द" की "बाबू" पर कृपा


सतसंगत मुद मंगल मूला  ! सोई फल सिधि सब साधन फूला !!

"तुलसी"
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महापुरुषो का कथन है कि कीर्ति, यश, सद्गति, विभूति और भलाई ,केवल उन जीवों को मिलती है  जो धर्म और नीति के पथ पर चलते हैं और इस पथ पर अधिकांशतः  वे जीव ही चल पाते हैं जिन्हें उनके मानव जीवन में  'सत्संग' का लाभ प्राप्त  होता है ! एक अन्य नैसर्गिक नियम यह भी है कि जीव को , विवेक की प्राप्ति केवल "सत्संग"से ही हो सकती है और 'जीव' को ऐसा "सत्संग" एक मात्र "प्यारे प्रभु" की  कृपा से हीं मिलता है  !

जिस जीव पर प्रभु की असीम कृपा होती है उन्हें  परम सिद्ध महापुरुषों के दर्शन स्वयमेव  होते रहते हैं ! आवश्यकता पड़ने पर ये संत  प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में उपस्थित होकर  'जीव' के भौतिक और आध्यात्मिक समस्याओं का समाधान करते  हैं  और उस जीव के मानवीय  व्यक्तित्व को उत्तरोत्तर विकसित करते रहते हैं !

महापुरुषों का यह भी कहना है कि  "जीव" के दो मन होते हैं ! एक होता है 'आंतरिक मन " और दूसरा "संसारी अर्थात -व्यवहारी मन" !  सत्संग से ज्ञान, भक्ति, वैराग्य ,शील और सदाचार को अपनाकर  जीवन जीने  वाला साधक अपने 'आतंरिक मन' को  प्रबुद्ध करता है और "व्यावहारिक मन" को संयमित रखता है !

हमारे 'बाबू', माननीय शिवदयाल जी , एक ऐसे ही सौभाग्यशाली व्यक्ति थे , जिन्हें  आजीवन सिद्ध महापुरुषों के दर्शन हुए तथा उनके साथ आत्मीय सामीप्य बनाने का सुअवसर मिला ! एक पारिवारिक सत्संग में उन्होंने  हमे बताया कि ऐसे संत समागम से "बाबू" की संस्कार जनित नैसर्गिक सत्प्रवृत्तियों  का सम्वर्धन हुआ और उन्हें अथाह आत्मबल मिला ! इसके साथ साथ उनके  "व्यावहारिक - सांसारिक  जीवन"  का अप्रत्याशित उत्कर्ष हुआ और उन्हें अपूर्व "आत्मिक आनंद" की भी अनुभूति हुई !

अब सम्बन्धित प्रसंग पर आत्मकथा का एक अंश सुनलें :

प्रियजन  १९८३-८४ में , मैं [निवेदक 'भोला'], कानपुर में कार्यरत था ! उन्ही दिनों स्वामी चिन्मयानंदजी कानपूर में  गीता-ज्ञान-यज्ञ आयोजित करवाने तथा ब्रह्मावर्त (बिठूर) में मंधना के "बनखनडेश्वर महादेव मंदिर" के निकट , बृद्ध स्त्री-पुरुषों के रहने  योग्य ओल्ड    एज होम्ज़ , "पितामह सदन" स्थापित करने की योजना  सम्पन्न करवाने आये थे !  मेरे परम सौभाग्य से  स्वामी जी तब 'चिन्मय मिशन' के स्थानीय कार्यकर्ताओं की मंत्रणा   मेरे निवासस्थान पर भी पधारे थे !  धन्य हो गये हम सपरिवार !

इसके कुछदिन पश्चात बाबू और भाभी भी कानपूर आये ! उनके आगमन के कदाचित कुछ दिवस पूर्व ही स्वामी चिन्मयानंद जी हमारे घर आये थे ! अस्तु मैंने बाबू को  स्वामी जी के स्वतः मेरे घर पर आगमन के विषय में [ कदाचित 'सगर्व' ] बताया ! [ प्रियजन साधारण मानव हूँ - थोड़ा अहंकार अवश्य ही निहित होगा मेरे उस कथन में ]

तभी पूज्य  बाबू ने हमे बताया कि एकबार शिवानंद आश्रम ऋषिकेश में बाबू की भेट फर्राटे से हिन्दी में बातचीत करने वाले एक तेजस्वी दक्षिण भारतीय युवक से हुई थी ! वह   युवक "बाल कृष्ण मेनन",एक पत्रकार था जो  महात्मा गांधी  के असहयोग आंदोलन में सक्रिय भाग लेने के कारण जेल भी काट चुका था ! जेल में सौभाग्यवश किसी अन्य स्वतंत्रता सेनानी ने उसे "शिवानद आश्रम" के "डिवाइन लाइफ सोसायटी" का साहित्य पढ़ने को दिया ! युवक बाल कृष्ण उस  शिवानंद-साहित्य में निहित "तत्व-ज्ञान" से  अत्याधिक  प्रभावित  हुआ और उसने निशच्य कर लिया कि जेल से मुक्त होते ही वह "पत्रकारिता" का धधा त्याग कर "स्वामी शिवानंद जी" का शिष्य बन जाएगा !

वह तेजस्वी युवक जो बाबू को शिवानंद आश्रम में मिला था "बाल कृष्ण मेनन" ही था जिसने स्वामी शिवानंद जी के आदेश से  ८ वर्षों तक  "तपोवन स्वामी" के श्री चरणों  में वेदान्त का गहन अध्ययन किया और कालान्तर में "स्वामी चिन्मयानन्द" के नाम से विश्व विख्यात हुआ !





                      वेदान्त दर्शन के महांन प्रवक्ता स्वामी चिन्मयानंदजी

पूज्य श्री स्वामी चिन्मयानंद  ने जन साधारण की ,हिंदू धर्म संबंधी भ्रांतियों का निवारण करने के उद्देश्य से १९५३ में चिन्मय -मिशन की स्थापना की थी ! चिन्मय शब्द परमात्मा का वाचक है और  उसी की पीठिका पर मिशन का नामकरण हुआ था ! मिशन का लक्ष्य था समाज के एक एक व्यक्ति को आत्मोन्नति  करने  की प्रेरणा देना , जन साधारण को सुख शांति और समृद्धि से पूरित करना और प्रत्येक नागरिक को समाज का उपयोगी अंग बनाना !

स्वमी जी ने  इस मंगलमय हेतु की प्राप्ति के लिए भारतीय सनातन धर्म के मूल्यों की अलख जगाकर मानव जीवन को दिव्य गुणों से पूरित करने हेतु ,वेदान्तिक ग्रंथों  में से श्रीमदभगवत गीता को चुना और उसके आश्रय से मानवता को पुरुषार्थी ,सत्कर्मी , आत्मनिर्भर और सदाचारी बनाने के लक्ष्य से  देशविदेश में  स्थान-स्थान पर "गीता ज्ञान
 यज्ञ"आयोजित   किये ! 


१९६६ में  स्वामी चिन्मयानंद जी का  'गीता ज्ञान यज्ञ' जबलपूर नगर में आयोजित हुआ ! उन दिनों पूज्य बाबू  जबलपुर में कार्यरत थे ! बाबू सपरिवार  उस ज्ञानयज्ञ में सम्मिलित हुए ! वहाँ  अपनी स्वाभाविक विनोद मयी शैली में स्वामी जी ने "गीता" के १२वे अध्याय  
के भक्ति योग का विवेचन किया तथा अति प्रेरणादायी शब्दों में भक्ति के दिव्य गुणों को जीवन में उतारने हेतु घर घर में "गीता" चचा चलाने का सुझाव दिया !


स्वतंत्रता सेनानी , विधि विशेषज्ञ , कुशल पत्रकार से सन्यासी बने चिन्मयानंद जी के तर्कसंगत वचनों से प्रेरणा ग्रहण कर बाबू भाभी ने जबलपुर में अपने निवास स्थान पर ही चिन्मय मिशन की विधि के अनुसार "श्री गीता जी" का साप्ताहिक सत्संग आयोजित करने का निश्चय किया और तत्काल वह चालू भी हो गया ! इस सत्संग में जिज्ञासु साधक  श्रीमदभगवत गीता के दो श्लोक पढते थे और फिर विभिन्न प्रख्यात टीकाकारों की व्याख्या  बारी बारी से पढकर सत्संगी परस्पर प्रश्नोत्तर तथा आपसी सम्वाद और  विचार विमर्श से उन श्लोकों का गूढ तम भाव समझने का प्रयास करते थे !  यह सत्संग  बाबू के रिटायर होने तक जबलपुर में उनके निवास -स्थान पर  लगभग ११ वर्ष तक अनवरत चलता रहा !

गोस्वामी तुलसीदास का कथन कितना सार्थक है कि संतों का संग मंगलमय और  परम आनंद का स्रोत होता है !

बीसवीं शताब्दी के एक अन्य महान संत प्रातः स्मरणीय - 
अनंत श्री  स्वामी अखंडानंद जी सरस्वती  
के वरद हाथों से मुझ दासानुदास और पूज्य बाबू को 
क्या प्रसाद  मिला ,क्या आशीर्वाद मिला ,हम पर कैसी  कृपा वर्षा की उन्होंने ? 
यह जानने के लिए करिये प्रतीक्षा आगामी अंक की  ---- 

क्रमशः 

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निवेदक : व्ही. एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोगिनी : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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1 टिप्पणी:

vandana gupta ने कहा…

बहुत सुन्दर संस्मरण चल रहा है