प्रातः स्मरणीय
श्रेष्ठतम गृहस्थ संत
श्रेष्ठतम गृहस्थ संत
[जन्म - फरवरी २८, १९१६ ]++[ निर्वाण - अक्टूबर १, २००३ ]
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बहादुर शाह 'जफर' साहेब मरहूम ने कभी ये कहा था लेकिन इसके बाद भी उन्होंने अपनी कलम चालू रखी ! वो लिखते रहे, लोगबाग सुनते रहें और आज डेढ़ दो सौ वर्षों बाद भी जमाना उनके कलाम सराह सराह के गुनगुनाता रहता 'है !
मेरे प्यारे पाठकगण ,मानता हूँ थोड़ा बेसुरा हो गया हूँ फिर भी चुप नहीं रहूँगा ! सुनाता ही जाउंगा ! अहंकार से वशीभूत होकर नहीं , प्रियजन ,कहूँगा इसलिए कि जो कहने जा रहा हूँ वह मेरे जीवन का सबसे अनमोल सत्य है , मेरा एक अविस्मरणीय अनुभव है ! यह मेरे जीवन की उस सत्य अनुभूति की कहानी है -जिसने मेरे जैसे 'लौह खंड' को "सुवर्ण" में परिवर्तित कर दिया ! आत्म कथा द्वारा अपने प्रिय स्वजनों को यह बताना ही मेरा उद्देश्य था और आज भी है ! अस्तु सुनिये --
'बनारस हिंदु विश्व विद्यालय' के 'कोलेज ऑफ टेक्नोलोजी' से स्नातक की डिग्री प्राप्त कर , 'टेक्सटाईल मिलों' के शहर 'कानपुर' की एक सरकारी 'आयुध निर्माणी' [ऑर्डिनेंस फैक्टरी'] में 'नोंन गजेटेड ऑफिसर अंडर ट्रेनिंग' नियुक्त हुआ !
कदाचित अपने जन्मजात सस्कारों और स्वभाव के कारण हम चारों भाई बहनों को हमारे कुछ मित्र और सम्बन्धी 'गन्धर्व' कह कर पुकारते थे ! आस पास के कुछ प्रबुद्ध जन पिता श्री द्वारा बनवाए , हमारे घर , 'लाल विला' को "गन्धर्व लोक" कहा करते थे ! क्यूँ ? प्रातः सूर्योदय के पहले ही उस घर की प्राचीरें तानपूरे की झंकार से गूँज उठती थी और भैरवी के दिव्य स्वर से मोहल्ले का वातावरण तरंगित हो जाता था ! दिसम्बर जनवरी की भयंकर ठंढ में भी पड़ोसियों के खिडकी दरवाजे खुल जाते थे - वे कांन लगाकर अति श्रद्धा से हम चारों के भजन - ["जागो बंशीवारे ललना , जागो मोरे प्यारे" आदि ] सुनते थे और इसी बोल को दुहरा कर अपने लल्ला लल्ली को जगाते थे !
हाँ तो इन संस्कारों से युक्त और ऐसे स्वभाव वाला मैं , सप्ताह के छः दिवस ,प्रात ७ बजे से शाम के ५ बजे तक उस आयुध निर्माणी की ऊंची ऊंची दीवारों के पीछे , फौजियों के लिए 'आर्मी बूट' बनाने और उन बूट्स के लिए , गाय भैंस की कच्ची 'खालों' [hides and skins] का शोधन [Tanning] करवाकर , उनसे 'चमडा' [leather] बनवाने के काम में व्यस्त रहने लगा !
सोंचा था क्या , क्या हो गया ? आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास ! सोच यह थी कि ऑयल [तेल] टेक्नोलोजी पढ़ी है , डिग्री लेने के बाद , "केंथाराय्दीन" जैसा खुशबूदार हेयर आयल और "पियर्स" जैसा ट्रांसपेरेंट बाथ सोप बनाने का कारखाना लगाएंगे ! पर हुआ यह , कि चमड़ा पकाना पड़ा !
२०-२५ वर्ष की छोटी अवस्था में मैं कानपुर के प्रथम संगीत विद्यालय [ College of Music and Fine Arts] के संस्थापक मंडल में रहा जहाँ [तब १९५०-६० के दशक में] पंडित रवि शंकर जी , श्री पुरुषोत्तम दास जलोटा जी , श्री विद्या नाथ सेठ जी , तथा बेगम अख्तर साहिबा आदि अनेको गण्यमान विशिष्ट संगीतज्ञों के साथ बैठने का सौभाग्य मिला और उनका स्नेहाशीर्वाद प्राप्त हुआ !
और फिर उपरोक्त लोकोक्ति चरितार्थ करने के लिए मैं ,हरि भजन के स्थान पर " कपास ओटने लगा" ! --- आयल टेक्नोलोजिस्ट् , संगीतनिदेशक - सिने कलाकार - बनने का स्वप्न संजोये "भोला" , बंन गया "रैदास"! ! रोज़ी रोटी कमाने के लिए "भोला" पकाने लगा चमड़ा !"
कुछ निकटतम सम्बन्धी ताने भी मारने लगे, " इनके पिताश्री अपने व्यापार में ,बाहर से १०० सवा सौ रूपये के मेट्रिक पास कर्मचारी नियुक्त करते हैं और ये यूनिवर्सिटी ग्रेजुएट भोला बाबु , ८५ रूपये वाली सरकारी गुलामी कर रहें हैं ,वो भी एक चमड़े के कारखाने में
ऐसे में उन दिनों मेरी मनः स्थिति कैसी होगी , आप समझदार हैं ,ज़रूर ही अंदाजा लगा सकते हैं ! बंधू ,कभी कभी जी में आता था कि मैं भी अर्जुन के समान हथियार डाल दूँ !
फेक्ट्री में दिन भर के अति व्यस्त कार्यक्रम से थक कर , रात्रि में नहा धो कर [ जी हाँ चाहे जितनी सर्दी हो दोनों समय का स्नान अनिवार्य था - बताऊँ क्यों ? चमड़े के कारखाने में काम करने वालों के शरीर से हर घड़ी 'दुर्गन्ध' निकलती रहती है ] भोजन करने के बाद सोने के अतिरिक्त और कुछ काम नहीं था ! आजकल की तरह रेडियो टीवी पर आस्था संस्कार दिशा जैसे चेनल तो थे नहीं तब कि किसी संत महापुरुष का प्रवचन सुनता !
आध्यात्मिक गुरुजनों में सर्वोपरि योगेश्वर श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में अपने प्रिय सखा 'अर्जुन' को गीता सुना कर तथा अपने वास्तविक विराट स्वरूप का दर्शन करवाकर उसकी सुषुप्त आत्मचेतना को जाग्रत किया ; उसे अपना निर्धारित कर्म करने को प्रेरित किया !
अर्जुन को माध्यम बनाकर श्रीकृष्ण ने समग्र मानवता को निष्काम कर्मयोग का संदेश दिया और क्रियाशील व्यक्तियों को निज विवेक के प्रकाश में हाथ में लिए कार्य की पूर्ति तक पूर्ण समर्पण के साथ सतत कर्तव्य परायण बने रहने तथा पलायनवाद से बचने का उपदेश दिया !
मेरे सम्पर्क मे तब तक कोई ऐसा प्रबुद्ध महापुरुष नहीं था जो मेरा मार्ग दर्शन करता ! मैंने तब तक किसी गुरु से दीक्षा भी नहीं ली थी - मेरा कोई आध्यात्मिक गुरु नहीं था !
घर में प्रचलित पारिवारिक संस्कारों में अपने बाबा दादा के समय से चल रहे खानदानी परम्परागत कर्मकांड युक्त मूर्ति पूजन और डी.ए.वी संस्थाओं में शिक्षा प्राप्त करने के कारण वहाँ सिखाई गयी वैदिक् विधि अनुसार निराकार ब्रहमोपासना के बीच मैं झूल रहा था ! धर्म गुरुओं के तर्क वितर्क भरमा रहें थे मुझे और इस प्रकार लगभग २५-३० वर्ष की अवस्था तक मैं आध्यात्मिक क्षेत्र में बुरी तरह भ्रमित ही रहा !
मेरे प्रियजन सच मानिए विवाह से पूर्व मैं इस विषय में बिलकुल ही अनभिज्ञ था !
मैं आज के दिन ये जो आध्यात्म की बड़ी बड़ी अफ्लातूनी बातें आपको परोस रहा हूँ ,इस विषय का प्रथम पाठ मैंने तब पढ़ा जब मैं दूल्हा बन कर,'सिधिया राज' की चार सफेद घोड़ों वाली शानदार बग्गी पर सवार होकर ,२ ७ नवम्बर १९५६ की रात , "बोले कि भाई 'बम' , बोले के भाई 'बम -"भोले",'"बम बम भोले" का कानपुरी नारा लगाते अपने इष्ट- मित्रों और सगे सम्बन्धियों सहित ,बेंडबाजे के साथ ग्वालियर [मुरार] की 'कोतवाली सन्तर. स्थित , अपने ससुराल के परमेश्वर भवन पहुँचा !
वह घर मेरे दिवंगत स्वसुर श्री परमेश्वर दयाल जी का निवास स्थान है ! वह ग्वालियर राज्य के सीनियर एडवोकेट थे तथा राज्य के मजलिसे आम [लोक सभा ]तथा मजलिसे कानून [ लेजिस्लेटिव कौंसिल ] के सदस्य भी थे ! स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने खुल कर गांधीजी का सहयोग किया ,हाथ ठेले पर लाद कर वह घर घर जाकर "खादी" बेचते थे ! वह आजीवन हेतु रहित समाज सेवा करते रहें ! उन्होंने निजी बल बूते से "मुरार" में पब्लिक लाइब्रेरी व रीडिंग रूम की स्थापना की परन्तु इन संस्थानों के साथ उन्होंने स्वयम अपना अथवा अपने परिवार के किसी सदस्य का नाम नहीं जोड़ा ! इसके अतिरिक्त अति गोपनीय रख कर उन्होंने कितने ही निर्धन विद्यार्थियों की पढाई की व्यवस्था की तथा अनेकों निर्धन कुमारियों के विवाह में आर्थिक सहायता की !
१९३९ में ४३ वर्ष की छोटी सी उम्र में ही श्री परमेश्वर दयाल जी यह संसार छोड़ गये !
ज्येष्ठ पुत्र , २३ वर्षीय श्री शिवदयालजी बने परिवार के मुखिया और उनके नाज़ुक कंधों पर सहसा ही आ पड़ा इतना बड़ा बोझ ! उस समय परिवार में थीं उनकी बुज़ुर्ग दादी , उनकी मा , उनकी पत्नी ,उनके दो बच्चे , एक छोटा भाई तथा चार बहने !
इन महापुरुष ,श्री शिवदयाल जी ने जिस कुशलता से यह भार वहन किया और इस परिवार को चलाया , अनुकरणीय है ! वे कहते थे :
सदा यह सोचो कि :
प्रभु ने मुझे इस धरती पर महान बनने के लिए भेजा है ,अस्तु
मेरे संकल्प , मेरे विचार ,मेरे कार्य सभी महान स्तर के हों !
दूसरों के स्तर से हमे क्या लेना देना ?
अपनी अपनी करनी ,अपने अपने साथ !!
सबके काम आऊँ ,किसी से कुछ न चाहूँ !!
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कदाचित ऐसे ही संकल्प ने उन्हें एक साधारण मानव से "गृहस्त संत" बना दिया
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क्रमशः
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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती. कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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1 टिप्पणी:
bahut achchha lagta hai aapke bare me jankar aur aapke apnon ke bare me bhi.thanks.
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