गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

संत समागम - प्रज्ञाचक्षु स्वामी शरणानंद जी के उपदेश

गृहस्थ संत माननीय शिवदयाल जी 
के जीवन पर 
प्रज्ञाचक्षु  स्वामी शरणानंद जी के उपदेशो का प्रभाव 
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जीव  पर ,सर्व प्रथम ,उसके पारंपरिक पारिवारिक आध्यात्मिक संस्कारों की छाप लगती है !  हमारे पूज्यनीय बाबू के जीवन पर भी पारिवारिक संस्कारों के कारण " साकार ब्रह्म भक्ति" की छाप लगी और उसके बाद  ७ वर्ष की अवस्था में नानकपंथी दीक्षागुरु की कृपा  से उन्हें "एक ओंकार" रूप  "ब्रह्म" का ज्ञान प्राप्त हुआ ! तदोपरांत सौभाग्यवश स्वामी सत्यानन्द जी ने बाबू को  निराकार "ओंकार" में , साकार ब्रह्म के प्रतीक "राम " नाम का दर्शन करवा कर यह दिशा दी कि ----ज्योति स्वरूप - "राम" (नाम) तथा चिन्मय "ब्रह्म" के अविनाशी स्वरूप "ओम्" में कोई अंतर नहीं है !  अटल विश्वास  तथा समर्पण भाव से प्रेम सहित  एक "इष्ट" की .आराधना करना ही साधक का "भक्ति धर्म" है ! यही उसकी "योगस्थ कुरु कर्माणि" वाली "कर्म योग" साधना भी है !

भक्ति भजन तव धर्म है ,कर्म-योग है काम !
पथ  तो  तेरा  प्रेम   है  , परम  भरोसा  राम  !!

कर  निश्चय  हरिनाम  में ,अंत:करण  के साथ !
भक्ति धर्म ही  समझ ले ,सबसे  उत्तम  पाथ !!

[स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के "भक्ति प्रकाश" से ] 

इन सिद्ध महात्माओं से अधिग्रहित "तत्व-ज्ञान" पर शिवदयाल जी ने  गहन चिंतन -मनन किया , उसे व्यवहारिक बनाया फिर  निजी अनुभूति के आधार पर दिव्य जीवन जीने  की  दिशा निर्धारित की :- "नाम जपता रहूँ ,काम करता रहूँ " और जीवन में सभी कर्म रामकाज  मान कर किये ! उन्होंने अपने कर्मक्षेत्र में देवीय संस्कार बसा कर एक कर्मठ योगी का ही नहीं अपितु संतत्व से परिपूर्ण आदर्श गृहस्थ का जीवन जिया !

-----अपने निवास स्थान  पर  आये संत -महापुरुषों  के सत्संग से तो वे  कृतकृत्य हुए ही , साथ ही समय समय पर  संत समागम से प्राप्त निर्देशन से उन्होंने अपने जीवन जीने की कला को निखारा और भारतीय दर्शन को व्यवहारिक बनाया !

पूजनीय बाबू पर जिन  संतों का गहन प्रभाव पड़ा उनमे अविस्मरणीय है श्रद्धेय पूज्य , प्रज्ञाचक्षु स्वामी श्री शरणानंदजी महाराज ! [ मानव सेवा संघ, वृन्दाबन के संस्थापक ] स्वामीजी  का अतुल्य  स्नेह था उन पर !वे  बाबू के निवासस्थान पर स्वयम पधार कर उनका मार्ग दर्शन करते रहते थे !
स्वामी जी अधिकांशतः "हरि शरणम " के अमृततुल्य  संकीर्तन का  रसास्वादन स्वयं करते और सबको कराते थे !  "बाबू"  की दैनिक पारिवारिक प्रार्थना में स्वामी जी के अनेक सूत्रों के अतिरिक्त इस कीर्तन का भी समावेश हुआ ! निजी भेंटों में , स्वामी जी ने बाबू को  मानव-जीवन - दर्शन के व्यवहारिक स्वरूप   की विविध कलाएं सिखाई  !

 Swami Sharnanandji                       

प्रात स्मरणीय प्रज्ञाचक्षु स्वामी श्री शरणानंद  जी महाराज  
की अनमोल सिखावन 

१. आस्था , श्रद्धा और विश्वास से अपने को समर्पित करने में ही शरणागति है !  आस्था का अर्थ है कि "प्रभु हैं"  ! परन्तु वह  कहाँ हैं ,कैसे हैं ? इस पचड़े में मत पडो , बस ये मानलो कि "प्रभु हैं" और उसका अनुभव करो और उनकी शरण लो !  

२.  जीवन का उद्देश्य प्रेम प्राप्ति है जिसके लिए हमे उस अनंत के समर्पित होना पड़ेगा 

३. प्रेम का क्रियात्मक रूप सेवा है ,विवेकात्मक रूप बोध है और भावात्मक रूप भक्ति है 

४  सबके प्रेम पात्र हो जाओ ,यही भक्ति है 

५. परमात्मा के नाते जगत की सेवा ही "पूजा "है :आत्मा के नाते यही  सेवा "साधना" है और जगत के नाते यही  सेवा " कर्तव्य "है  

६ शरणागत को आवश्यक वस्तुएँ बिना मांगे मिल जाती हैं 

७ शरणागत की अनावश्यक वस्तु पाने की दुराशा ,उसका इष्ट स्वयम नष्ट कर देता है  

८.कर्तापन के भाव को मिटाना  और  कुछ न माँगना समर्पण है  

९. शरणागत  के जीवन में भय ,चिंता तथा निराशा के लिए कोई स्थान  नहीं है 

इनके अतिरिक्त , मानव सेवा संघ की एक प्रार्थना के निम्नांकित सूत्र को बाबू  ने अपने जीवन में अक्षरशः उतार लिया ! वह  पूर्णतः शरणागत होगये !

मैं नहीं , मेरा नहीं , यह तन   किसी का है दिया !
जो भी अपने पास है सब कुछ किसी का है दिया !!

जग की सेवा , खोज अपनी ,प्रीति उनसे कीजिए !
जिंदगी  का राज है , यह जान कर जी लीजिए    !!

प्रार्थना के इन सूत्रों में समाहित जिंदगी के राज की सार्थकता समझ कर बाबू ने अपने गृहस्थ जीवन में संतत्व के बीज आरोपित किये ! वह विधिवत अपनी पारंपरिक पूजा आराधना करते रहे और उसके साथ स्वामी जी के निदेशानुसार , खुले हाथ "प्रेम - दान" द्वारा परिवार वालों की ही नहीं अपितु सम्पर्क में आये स्वजनों की सेवा करते रहे ,अपने प्रत्येक कर्म को राम काज मान कर करते रहे!

परस्पर मिलन के  अतिरिक्त पत्राचार द्वारा स्वामी जी यदाकदा "बाबू" को आध्यात्मिक साधना के बहुमूल्य गुर बताते रहते थे  ऐसे कुछ  पत्रों   के अंश यहाँ  उदधृत  कर रहा  हूँ :

सदुपदेश एवं आशीर्वाद युक्त :


१. स्वामी शरणानन्द जी का प्रथम पत्र - दिनांक १३- ५- १९५९ , ऋषिकेश से प्रेषित :

प्रत्येक घटना में "उन्ही" की कृपा का दर्शन करो ! सब प्रकार से "उन्ही" के होकर रहो ! "उनकी " मधुर स्मृति को ही अपना जीवन समझो ! जिन्होंने सरल विश्वास पूर्वक प्यारे प्रभु की कृपा का आश्रय लिया , वे सभी पार होगये , यह निर्विवाद सत्य है !

२. स्वामी जी का दूसरा पत्र - दिनांक ६- १२- १९६० , खुरई से प्रेषित :

प्राप्त विवेक के प्रकाश में , विवेक विरोधी कर्म तथा सम्बन्ध एवं विश्वास का अंत कर , कर्तव्य परायणता ,असंगता एवं शरणागति प्राप्त कर कृत कृत्य हो जाना चाहिए ! यही इस जीवन का चरम लक्ष्य है !

३. स्वामी जी का तीसरा पत्र - दिनांक ३० - ५ - १९६२ ,वृन्दाबन से प्रेषित :

भक्तजनों का अपना कोई संकल्प नहीं रहता ! प्रभु का संकल्प ही उनका अपना संकल्प है ! इस दृष्टि से वे सदेव शांत तथा प्रसन्न रहते हैं और प्रत्येक घटना में अपने प्यारे प्रभु की अनुपम लीला का ही दर्शन करते हैं ! अर्थात करने में सावधान तथा होने में प्रसन्न रहते हैं ! प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग ही प्यारे प्रभु की पूजा है ! पूजा का अंत स्वतः प्रीति में परिणित हो जाता है जो वास्तविक जीवन है ! ---------= जहां रहें , प्रसन्न रहें  !  जो करें ,ठीक करें ! 

[ क्रमशः]
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आज ह्मुनान जयंती के शुभअवसर पर  
हमारी हार्दिक बधाई स्वीकार करें
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प्रियजन , बधाई गीत गाने को जी कर रहा है लेकिन कुछ नया नहीं गा पा रहा हूँ !
प्यारे प्रभु से करबद्ध प्रार्थना है कि 
क्षमा करें मुझे श्री हनुमान जी और मेरे अतिशय प्रिय पाठकगण 
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एक बात बताऊँ , हो सकता है कि आज के आप मेरे ५० हजारवें पाठक हों ! 
पिछले तीन वर्ष से आप मुझे और मेरी अधकचरी बातों को झेल रहे हैं ,
कैसे आभार व्यक्त करूं , कैसे धन्यवाद दूँ आपको ? 
आपके इस प्रोत्साहन के लिए 
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निवेदक: व्ही. एन .श्रीवास्तव "भोला"
सहयोगिनी : श्रीमती  कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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1 टिप्पणी:

vandana gupta ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (27 -4-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
सूचनार्थ!