बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

साधन -"भजन कीर्तन" # 2 8 4

हनुमत कृपा - अनुभव                        साधक साधन साधिये 
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साधन -"भजन "                                                                                       ( २८४ )

भजनों की उपयोगिता के विषय में मेरी यह वार्ता पिछले कई अंकों से चल रही है 
अस्तु नये पाठकों से अनुरोध है क़ि पूरी जानकारी के लिए 
संदेशों के इस श्रंखला  को वे  
मेरे जनवरी १८, '११  के संदेश # २ ७ ० से  पढ़ें !
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पानीपत में श्रद्धेय दर्शी बहेन जी का वह कथन उनकी बाल्यावस्था के एक अनुभव पर आधारित था जब वह मा शकुन्तला जी के साथ स्वामी जी महराज के एक अनौप्चारिक खुले सत्संग  में गयीं थीं ! श्रद्धेया दर्शी जी के उस कथन ने  ह्मारे इस विश्वास की पुष्टि कर दी क़ि " सच्ची श्रद्धा भक्ति से भजन कीर्तन करने वाले साधक,अपने स्थूल स्वरुप में इस संसार मे तो "श्री राम शरण" पाते ही हैं ,पर जीवन मुक्त होते ही उन्हें अविलम्ब  'श्री राम शरण' प्राप्त हो जाती है "


यूं तो अनेकानेक संतों ने अपनी रचनाओं द्वारा उपरोक्त  भावना की पुष्टि की है , ह्म यहाँ पर अपने सद्गुरु स्वामी श्री सत्यानन्द जी महराज के "शब्द सुर ताल मय भजन गायन"  विषयक अनमोल वचन  उन्हीं के शब्दों में उद्ध्रत कर रहे हैं ! 


संतों की भगवान में सुरति स्वरों के संग 
 एक तार होकर बजे ,सहज न होवे भंग !!

गाते सुनते गीत को लूटें रस जो प्रेम !
रसिक समाधी में रमें तज कर आसन नेम !

अश्व स्वरों के रूढ़ हो सुरति चढ़े आकाश !
प्रभू प्रेम की सुधि पड़े ,संशय होवे नाश !!

संत सुजन सत्संग में बहे गीत की गंग !
शब्द पाठ सुर् राग के , उठे तरंग अभंग !!

राग रागिनी गाय कर ,जो भजते भगवान !
सफल जन्म उसका गिनों ,सफल कर्म शुभ ज्ञान !! 
                            (स्वामी सत्यानन्द जी महराज के भक्ति प्रकाश से)


श्री स्वामी जी महाराज के चरण कमलों की शरण मुझे नवंबर १९५९ में मिली और फिर  ग्वालियर के पंचरात्री सत्संग में उसी वर्ष मुझे उनका ६ दिवसीय सानिध्य प्राप्त हुआ !
मेरे जीवन का वह पहला साधना सत्संग था और उस सत्संग का मेरा प्रत्येक अनुभव अनूठा था ! भाई !आत्मकथा लिख रहा हूं कहीं न कहीं उनका  सविस्तार वर्णन लिखूंगा , आज मैं केवल  उस सत्संग के अपने "भजन" सम्बंधित अनुभव ही बताउँगा इसलिए क़ि उनके द्वारा हमे अपने सद्गुरु स्वामी जी की मधुर स्मृत होगी - तो सुनिए :

आज की तरह उन दिनों भी प्रातः कालीन सभा और रात्रि की सभा में साधकों के भजन होते थे ! और तब भी गुरुदेव ही इशारा करके उस साधक को आमंत्रित करते थे जिसका भजन वह सुनना चाहते थे ! उस सत्संग में मैं एक अकेला ऐसा साधक था जो पिछले ८ - १० वर्षों से आकाशवाणी के भजन कार्यक्रमों से जुडा था,स्वयं गाता तो नहीं था पर अपनी कलाकार छोटी बहेन को सिखाता था ! अस्तु जैसा स्वाभाविक  है, भजन गाने में मैं अपने आपको "तीसमार खान" समझता था ! सत्य है यह क़ि उस समय मैं इस अहंकार से भरा था क़ि उस सत्संग में मैं सर्वश्रेस्ट भजन गायक था और सबसे बड़ी बात यह थी क़ि श्री  महराज जी के ग्वालियर के अत्याधिक प्रिय साधक शिवदयाल जी  की छोटी बहेन मेरी धर्मपत्नी थीं और उन्होंने स्वामी जी को मेरी गायकी के विषय में अवश्य बताया होग़ा !
इस प्रकार मुझे पूरा विश्वास था क़ि और किसी को चांस मिले या न मिले स्वामी जी मुझे तो ,प्रति दिन दो तीन बार अवश्य  ही गवाएंगे !


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उस पंचरात्रि  के बाद एक अर्ध शताब्दी से भी अधिक समय गुजर चुका है ! श्री राम कृपा  से  भरपूर इस दास के जीवन की  गाडी अब ८० से ९० की ओर तीव्र गति से बढ़ रही है !  वह अकड वह अहंकार वह शारीरिक क्षमता अब नहीं है  इसलिए शीघ्र थक जाता हूं ,पर  गुरुजनों के आशीर्वाद से प्राप्त 'असीम आनंद' के भाव तब से अब तक मेरे मन में भरे पड़े हैं और जग जाहिर होने को उमड़ते घुमड़ते रहते हैं !
शेष कथा! अगले संदेशों में !
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निवेदक:- व्ही. एन श्रीवास्तव "भोला"

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

साधन- "भजन कीर्तन" # 2 8 3








हनुमत कृपा-अनुभव "साधक साधन साधिये"              
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साधन- "भजन कीर्तन"                                      ( २ ८ ३ )


प्रियजन ! भजन शीर्षक से मैंने अपने पिछले ब्लॉग # २ ७ ७ में जो ४० - ५० वर्ष पूर्व गाये भजनों के आलेख लिखे थे उनके संदर्भ में दिल्ली से प्रियवर अतुल जी ने बड़ी सुंदर टिप्पणी की है ! प्रसन्नता हुई उनसे यह जान कर कि स्वामीजी महाराज की मंत्रणा से उनके पूज्यनीय ताऊ जी एवं पिताश्री ( दिवंगत न्यायमूर्ति श्री शिवदयाल जी तथा उनके छोटे भाई श्री जगन्नाथ प्रसाद जी ) भी "भजन - कीर्तन" को ही  साधना का सुगमतम साधन मानते थे ! प्रियजनों ! यहाँ स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मेरे मन में भी यह विचार लाने वाले यही दोनों सज्जन थे , उनके सहयोग से ही मुझे स्वामी जी महराज के दर्शन प्राप्त हुए थे और कालान्तर में महाराज जी की कृपा और उनके आशीर्वाद  ने मुझे क्या बना दिया ,अपने मुंह  बखान करना अच्छा नहीं लगता ! सत्य तो यह है कि ------


रस्ते में  पड़ा  था मैं खाता था ठोकरें 
  पत्थर को सद्गुरू ने  हीरा बना  दिया !! 


शेरो शायरी के चक्कर में पड़ा तो गड़बड़ हो जायेगी इसलिए चलिए पहले अतुल जी के पत्र के प्रासंगिक अंश यहाँ ,ज्यों के त्यों उदधृत कर दूँ ! उन्होंने लिखा है -- 


आज आपके ब्लाग में इतने सारे पुराने भजन देखकर बचपन की और ग्वालियर के परमेश्वर  भवन में होने वाले अनेक पारिवारिक भजनों के कार्यक्रमों की बहुत याद आयी. कितने जोर शोर से भक्ति रस में डूबकर कीर्तन होते थे. आपने सही लिखा है -भजनों से कितनी साधना होती है - यह परम सत्य है कि ह्म लोगों ने ताऊ जी  , अम्मा बड़ी अम्मा मौसी जैसी साधना तो दूर दूर तक कभी भी नहीं करी. लेकिन उनके इन भजनों के कार्यक्रमों एवं आप के सानिध्य में भजनों से ह्म सब को भी अथाह प्रेम हो गया और ह्म भजनों के माध्यम से प्रभु  को प्रसन्न करना सीख गये.! इसका थोड़ा संस्कार अगली पीढ़ी पर भी पड़ा है.  तभी तो आज भी देश विदेश में  बसे राम परिवार के सब छोटे बड़े सदस्य मिलजुल कर स्काईप के द्वारा प्रेम से  पारिवारिक भजनों  के कार्यक्रम करते हैं ! 

लगभग ५० वर्ष पहले से अपने राम परिवार के बुज़ुर्ग- रमेश फूफा जी और आप भी  मुकेश जी का यह भजन बड़े प्रेम से गाते रहे हैं ! हमारी पीढी ने भी इस गीत को गाया है और आजकल हमारी रानी बेटी स्तुति भी इसे गाती है !:-
  
 सुर की गति मैं  क्या  जानूं एक  भजन करना जानू !!
  अर्थ भजन का है अति गहरा ,उसको भी मैं क्या जानू !
  प्रभु  प्रभु प्रभु  कहना जानू  नैना जल  भरना जानू !!
   सुर  की  गति मैं क्या जानू , एक भजन करना जानू !!

  फुलवारी  के फूल  फूल के  किसके गुण नित गाते हो !
  जब पूछा क्या कुछ पाते हो,  बोल उठे मैं क्या  जानूं !!
  प्रभु प्रभु प्रभु कहना जानूं ,  नैनां जल  भरना  जानूं’ !!
  सुर की गति मैं क्या जानू ,  एक भजन करना जानू !! 

जैसे अपने प्रिय जनों से बिछड़ने पर हमारे आँसू आ जाते हैं – वैसे ही भगवान से बिछड़ कर ,उनकी याद में "भजन" गाते गाते हमारी आँखे भी भर आयें ,आँखों से आँसूं की धारा बह निकले – तभी सिद्ध होगा कि ह्म अपने प्यारे प्रभु से सच्चा प्यार करते हैं और वास्तव में उनका सुमिरन कर रहे हैं ! उनके प्रति हमारा प्रेम प्रगाढ़ होकर अब "भक्ति" बन गया है और कदाचित ह्मारे "इष्ट" ने अति कृपा कर के हमें  अपना दास स्वीकार कर लिया है !


निम्नांकित है एक मेरी टिप्पणी :-  
( अतुल जी इस सन्दर्भ में आपको याद दिलाऊँ : दादा ( श्री जगन्नाथ जी - आपके पिताश्री) के निधन के उपरांत  ह्म सब पानीपत में  पूज्यनीया शकुन्तलाजी के श्री राम शरणम गये थे तो श्रद्धेया दर्शी बहेन जी ने क्या कहा था " मैंने बचपन में जगन्नाथ जी को स्वामी जी के सन्मुख कीर्तन करते देखा है ! वह बड़ी तन्मयता से भजन - कीर्तन करते थे उसे देख कर देखने वालों का भी ध्यान लग जाता था ! कीर्तन के अंत में वह सुध बुध खो कर गिर जाते थे  ! महराज जी उनकी ओर मुस्कुराकर देखते थे और  उन्हें यूँही पड़ा रहने देते थे ! साधकों के लिए वह दृश्य बड़ा प्रेरणा  दायक होता था ! इसलिए आप यह न सोचो क़ि वह कहीं चले गये हैं वह यहीं श्री राम शरणं में हैं !"  -- अतुलजी ये है एक अश्रुपूरित नैन और गदगद कंठ से  भजन कीर्तन करने वाले साधक के सद्गति  की कथा ! वास्तविक साधक को इसके अतिरिक्त और क्या चाहिए !) 


अतुलजी के पत्र का शेष भाग :-
वर्षों से मेरी यह धारणा रही है कि परम पूज्य स्वामी जी महाराज ने भजनों पर इसलिये जोर दिया है कि  भजनों के माध्यम से गायक साधक ईश्वर से बात करें – उसका सिमरन करें. और तो कोई साधन हमसे बनेगा नहीं – कीर्तन करके ही अपने प्रियतम को रिझा लें – उससे बातें कर लें.  मेरी इस बहुत पुरानी धारणा को आपके पिछले दो तीन ब्लाग ने पक्का कर दिया.



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अतुल जी को उनके उपरोक्त विचारों के लिए हार्दिक साधुवाद !


प्रियवर , ह्म सब एक ही  सदाबहार वृक्ष की फलती फूलती डालियाँ हैं ! ये शाखाएं जब तक अपने मूल से जुड़ी हैं , पुष्पित पल्लवित होती  रहेंगी !
                               
                                छोड़ेंगे  अगर   मूल  , हमे    शूल मिलेंगे ,
                               गर  जुड़े  रहे   यार  तो  भव  पार   करेंगे !!
अस्तु --------------     जोड़े  रहो  तुम  तार  गुरुजनों से  दोस्तों ,
                               छेड़े  रहो  झंकार यार  "राम  नाम" की !!
                          गर मिल न सका "वो" तुम्हे जप तप व यजन से ,
                          निश्चय   मिलेगा  "वो"  तुझे  श्री राम  भजन से  !!
                                                                                (भोला)
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निवेदक:- व्ही. एन श्रीवास्तव "भोला"