मंगलवार, 31 मई 2011

आत्म कथा # 3 7 5

असफलता में भी प्यारे प्रभु की कृपा का दर्शन 


(गतांक से आगे):
                                                
रिजल्ट देखते ही मेरे पैरों तले की धरती सरक गयी ! उस समय ऐसा लगा जैसे किसी ने क़ुतुब मीनार की सबसे ऊपरी मंजिल से धक्का देकर मुझे नीचे फेक दिया और  सुनामी के पीछे आये भयंकर भूचाल के एक झटके में मेरी कल्पना का वह सुनहरा महल पल भर में टूट कर चकनाचूर हो गया !  इस प्रसंग का स्मरण होते ही मुझे गीता राय जी का एक बहुत पुराना गीत याद आया : "मेरा सुंदर सपना बीत गया - मैं प्रेम में सब कुछ हार गयी , बेदर्द जमाना जीत गया - मेरा सुंदर सपना बीत गया "! 

उन दिनों मैं इतना उदास था कि कानपूर लौट आने के कुछदिनो  के बाद आकाशवाणी लखनऊ  से छोटी बहिन माधुरी के पास ,"स्वप्न लोक" शीर्षक से ,सुगम संगीत कार्यक्रम में गाने के लिए तीन गीत आये - "सपनों के महल बने बिगड़े " और "सपने मेरे टूट रहे हैं ",(तीसरे के बोल अभी याद नहीं आ रहे हैं )! मैंने उन तीनों गीतों की धुनें बनायी और इत्तेफाक से धुनें इतनी भाव भरी और पीड़ामय बनी कि रेडिओ स्टेशन के सम्बंधित पारखी अधिकारिओं को कहना पड़ा कि अवश्य ही ये धुनें किसी टूटे सपने वाले दुखिया ने बनाई होंगी !

युद्ध में हारा सिपाही "मै" खाली हाथ बनारस से कानपूर लौट आया था ! आप आश्चर्यचकित होंगे यह जान  कर  कि  परिवार के किसी सदस्य ने भी मुझसे कोई शिकवा  शिकायत नहीं की ! मेरे बाबूजी भली भांति जानते थे कि किस भयंकर मानसिक झंझा से जूझते हुए मैंने वह परीक्षा दी थी ! सच कहूं तो  सत्र (सेशन )के बीच में ही एक बार उन्होंने  मुझे पढ़ाई और परीक्षा छोड़ कर घर लौट आने का आदेश भी दे दिया था ! आभार मानता हूँ अपने परिवार के ज्योतिषी जी का जिन पर बाबूजी को पूरा  भरोसा था ! उन्होंने मेरी जन्म कुंडली पूरी तरह खंघाल कर निर्णय दिया था कि मुझे पढने दिया जाय और बाबूजी को विश्वास दिला दिया था कि उन विषम घटनाओं का मुझ पर कोई दुष्परिणाम नहीं पड़ने वाला है !मैं यहाँ आपको बता देना चाहता हूँ  कि इस सत्र में कई रोमांचकारी अनहोनी घटनाएँ घटीं थीं   ,जिनको प्रसंग आने पर , भविष्य में आपको सुनाऊंगा !    

प्रियजन ! कुछ समय बाद जब मैं उस धक्के से उबर गया  मुझे अहसास  हुआ कि उस दिन यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार ऑफिस में रिजल्ट देखने के बाद "जो" टूटा था , वह वास्तव में मेरा "स्वप्न महल" नहीं था ,बल्कि वह था मेरे मन की गहराइयों में कुछ दिनों से बसा हुआ  बिना श्रम किये ही प्राप्त होने वाले सुखों का मोह ;कार का  आकर्षण और समृद्ध परिवार से सम्बन्ध का लोभ ! मेरे मन में बरबस आ बैठे अतिथि श्री "माया मोह जी " ने मुझे इतना बेबस कर लिया कि मैंने वह सब तत्काल हथिया लेने का सपना संजो लिया ! शायद यह  मेरी तब  की  किशोर अवस्था जन्य मूर्खता थी अथवा विधि का कोई अदृश्य विधान !क्या हुआ ,कैसे हुआ ,उस समय तो मुझे इतनी समझ भी नहीं थी !जो हुआ उसका भी अपना एक इतिहास है !समस्त विषयों में उच्च श्रेणी के अंक प्राप्त हुए फिर कहाँ  कमी रह गयी ,किस विषय में और क्यों ? एक प्रश्न रहा !  जिस विषय में मैं फेल हुआ उस विषय में बी.एच यूं . के इतिहास में तब तक कोई फेल नहीं हुआ था ! इस प्रकार फेल हो कर अनजाने ही मेरे द्वारा बी एच यू में एक रेकोर्ड निर्मित हो गया ! चलिए पहले  आपको ये बतादूँ कि मुझे फेल करा कर हमारे इष्ट देव श्री हनुमान जी ने हमारे ऊपर कितने अप्रत्याशित उपकार किये -----

संकट मोचन हनुमान जी की कृपा से मेरा "मोह नाश"
 
देवर्षि नारद  के मोह की कथा तो आपने सुनी ही होगी ! कठिन तपश्चर्या के सुफल से पञ्च विकारों  पर विजय प्राप्त कर के नारद जी के मन में "काम" को बिना "क्रोध" किये ही जीत लेने से गहन अहंकार जाग्रत हो गया !  शिव जी के मना करने के बाद भी वह अपनी "काम विजय" की यश गाथा सुनाने  क्षीर सागर पहुंच गये और  श्रीमन्नारायण को अपनी सिद्धिप्राप्ति की पूरी कथा सुनाई ! सुन कर श्री हरि ने विचार किया कि नारद के ह्रदय में गर्व का बीज अंकुरित हो गया है,  जो उनके लिये अहितकर है ;अस्तु उसे उखाड़ फेकना जरूरी है !  श्री हरि ने इस प्रयोजन से अपनी माया द्वारा एक अति सुंदर नगर का निर्माण करवाया 

बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार ! श्री  निवासपुरतें  अधिक रचना  बिबिध  प्रकार !!

उस नगर का राजा था शीलनिधि और उसकी  एक बहुत ही सुन्दरी कन्या थी जिसका नाम था विश्वमोहिनी ! राजा के आदेश से राजकुमारी के स्वयंबर का आयोजन जोर शोर से चल रहा था !राजकुमारी विश्वमोहिनी के सौंदर्य से आकर्षित हो कर नारद  की उससे  विवाह करने की  प्रबल इच्छा जाग्रत हुई !  नारद अपना  वैराग्य भूल -बिसर गए और बस केवल एक चिन्तन में लग गये कि उस राजकुमारी को किस जतन से पाया जाय ! इस आशा से कि भगवान विष्णु उन्हें इतना आकर्षक स्वरूप प्रदान करेंगे कि राजकुमारी उन्हें वर लेंगी  नारद  श्री हरि के  पास गये और उनसे अपनी इच्छा व्यक्त की और अंत में यह विनती भी की --

अति आरति कहि कथा सुनाई !   करहु कृपा करि होहु सहाई !!
जेहि विधि नाथ होई हित मोरा ! करहु सो बेगि दास  मैं  तोरा !!''

ये वैसी ही प्रार्थना थी जैसी अपनी माँ से सीख कर मैं बचपन से ही अपने इष्ट देव श्री हनुमानजी से किया करता था ! मैंने सदा यही चाहा था कि प्यारे प्रभु मुझे वही वरदान दें जिसमें मेरा हित हो ! मुझे परीक्षा में फेल करा के  हमारे इष्ट ने भी वही किया था जो मेरेलिए हितकर था !  वही कृपा प्रसाद मुझे दिया जो मेरे लिए सर्वथा लाभ प्रद था ! मैं बेचेलर ऑफ़ टेक्नोलोजी की डिग्री नहीं पा सका जिसके कारण वह कार वाली देवी  जिनके सपनें मैंने देखने शुरू कर दिए थे वह मेरे हाथ से निकल गयीं ,ठीक वैसे ही जैसे विष्णु भगवान की कृपा से नारद जी विश्वमोहिनी को नहीं पा सके थे !

रामावतार में देवर्षि नारद जी ने जब अपने प्रभु से पूछा कि "आपने मेरे साथ ये अत्याचार क्यों किया ?  मुझे अपने जैसा सुंदर स्वरूप न देकर आपने मुझे बन्दर क्यों बना दिया ?  नारद जी की  शंका का समाधान करते हुए तब श्री राम ने उन्हें बताया    --

सुनु मुनि तोहि  कहहुं सह रोसा !भजहिं जे मोहिं तज सकल भरोसा !!
करहु  सदा  तिन्हकै   रखवारी   ! जिमि    बालक   राखहिं  महतारी !!

नारदजी  की रक्षा जैसे श्री हरि ने की उसी भांति मेरे कुलदेव  हनुमानजी ने मेरी रक्षा की !, मेरी झूठी निरर्थक कामनाओं के जाल से मुझे छुडाया, मेरे भावी जीवन को सुखद -सार्थक बनाया !वही दिया  जो मेरे हित में था!

मैंने क्या खोया आप वह तो जान गये , कल बताउंगा उसके बदले में प्यारे प्रभु ने मुझे क्या दिया ! 
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क्रमशः 
निवेदक : व्ही  एन .श्रीवास्तव "भोला" 
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रविवार, 29 मई 2011

असफलता में भी प्यारे प्रभु की कृपा का दर्शन # 3 7 4

गतांक से आगे:
 
मेरे अतिशय प्रिय पाठकगण आप सोच रहे होंगे कि इस अवस्था में मैं ये कैसी बहकी बहकी बातें कर रहा हूँ ! आज से साठ वर्ष पहले की कथा में मैं खुले आम अपनी एक नहीं दो दो प्रेयसियों की चर्चा कर रहा हूँ -एक वह सजीव - "देवी" जो बिना बुलाये मेरे घर मेहमान बनी थी और स्वयम मेरे माता पिता से मेरे साथ अपनी शादी का  प्रोपोजल डिस्कस  कर रही थी ,और दूसरी प्रेयसी वह निर्जीव -उनकी अति आकर्षक "अमरीकी कार"!

मैंने महापुरुषों के प्रवचनों में सुना है कि सब प्रकार से अपने प्यारे प्रभु की शरण में जा कर (अहंकार रहित हो कर )  जन हित में सत्य (पर अप्रिय नहीं ) वचन का बोलना अनुचित नहीं है ! अस्तु मुझे मेरे संस्मरण की यह अधूरी कथा पूरी कर  लेने दीजिये विश्वास दिलाता हूँ इस प्रसंग का अंतिम परिणाम शिक्षाप्रद ही होगा ,उसमे तनिक भी अभद्रता आपको नहीं दिखेगी !

आगे की कथा 

हम मोर्वी हॉस्टल के उस कमरे में ,चौकीदार को पटा कर गैर कानूनी ढंग से ठहरे थे ! उस कमरे में जून की वह गरम रात कितनी मुश्किल से कटी बयान करना कठिन है !  लकड़ी के तख्त पर करवटें बदलते बदलते , मेरी आँखों के सामने यूनिवरसिटी में बिताये पिछले दो वर्षों में घटीं सभी महत्वपूर्ण घटनाएँ एकएक कर,चलचित्र के समान आतीं जातीं रहीं ! नयी रिलीज़ होने जा रही फिल्म के प्रोमोज की तरह ,कानपूर में उन  "कार" वाली कन्या के साथ अपने इंटरव्यू के दृश्य  तथा उनकी उस नीली सफेद लिमोजिन का अपनी गली से निकलने का दृश्य  बार बार सामने आ रहां था !

जितना मैंने चाहा कि वो कत्ल की रात जल्दी कट जाये वो उतनी ही लम्बी हो गयी ! उस समय मन में बस एक आकांक्षा थी कि जल्दी से सबेरा हो जाये और मैं B H U के रजिस्ट्रार ऑफिस के नोटिस बोर्ड पर अपना रिजल्ट देखलूं , तार से बाबूजी को खुशखबरी भेजूँ और , बाबूजी उस "कार वाली" बिना बाप की बिटिया का उद्धार करने के लिए उसके घर समाचार भेजें,मगनी और ब्याह की ,तारीखें फटाफट तय हो जाएँ,और कार वाली कन्या के पोलिटीशियंन भैया मुझे विवाह से पहले ही ,दिल्ली में सरकार के किसी मिनिस्टर पर जोर डाल कर कोई जबरदस्त जॉब दिलवा दें और फिर मुझे एक इम्पोर्टेड मौरिस मायनर , हिलमन , या वौक्स्हाल कार के साथ  वह कार वाली कन्या भी मिल जाये !

घंटे दो घंटे को जो नींद आयी उसमें  भी सपने में इम्पोर्टेड गाड़ियाँ और उनमें मेरे बगल में बैठीं वो कन्या  दिखाई देती रहीं !कितना लालची और मतलबी होता है मानव ? तब २० वर्ष की अवस्था में मैं भी वैसा ही था ! उन दिनों कायस्थों के शादी बाज़ार में भयंकर मेह्न्गाई  चल रही थी ! यू पी  के पूर्वांचल और बिहार में अच्छे लडकों की भयंकर किल्लत थी , मार्केट में डिमांड अधिक और सप्लायी नदारत ! इसलिए रेट्स बहुत ऊंचे चल रहे थे ! उन दिनों सरकारी दफ्तर के लिपिक वर महोदय  के लिए एक लाख रूपये और एक  इंग्लेंड क़ी रेले या   हरक्यूलिस साइकिल, बड़े बाबू के लिए दो लाख और एक यामहा या लेम्ब्रेटा  ,दरोगा के लिए  तीन लाख और एक रोयल एनफील्ड ,Dy.Collector ,PCS अफसरों  के लिए पांच लाख और पसंद की सवारी खरीदने के लिए १० हजार अलग से ऑफर किये जाते थे ! हमारी केटेगरी के ऊंचे परिवार के , टेक्नोलोजिस्ट लडकों और   डोक्टर ,तथा  I A S या / I P S के  लिए मुंह मांगी कीमत मिलती थी ! इनके लिए १०-१५ लाख रूपये मिनिमम कैश और एक हिंदुस्तान लैंडमास्टर कार की ऑफर लडकी वाले अपनी तरफ से ही करते थे ! ऐसी स्थिति में  आप ही कहो प्रियजन क्या मेरी अनकही डिमांड जिसमे किसी धन राशी का उल्लेख नहीं था कुछ अनुचित थी ? मैं तो उन देवी जी के अतिरिक्त केवल एक इम्पोर्टेड कार ही पाना चाहता था !

जैसे तैसे सबेरा हुआ ! नहा धोकर सबसे पहले , B H U के प्रांगण  में बने बाबा विश्वनाथ के मन्दिर की ओर दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और  फिर ब्रोचा हॉस्टल के साथ वाली केन्टीन में चाय टोस्ट का नाश्ता कर के सीधे रजिस्ट्रार ऑफिस की ओर चल दिया !  नोटिस बोर्ड के आगे भीड़ लगी थी ! धक्कम धुक्का मची थी वहां ! मैं एक खाली बेच पर बैठ कर भीड़ छटने की प्रतीक्षा करने लगा ! अवसर पाते ही इस आशा में कि मेरा रोल नम्बर फर्स्ट डिवीजन वालों में छपा होगा मैंने अपनी लिस्ट का ऊपरी हिस्सा बार बार पढ़ा - उसमे मेरा नम्बर नहीं मिला ! थोड़ी निराशा हुई ! लिस्ट में नीचे सेकण्ड डिवीज़न  वालों की लम्बी नामावली में अपना नम्बर ढूढने का प्रयास किया , एक बार फिर निराश हुआ ! बार बार ,अनेकों बार उस लिस्ट को ख्न्घाला ,प्रियजन उस लिस्ट में मेरा रोल नम्बर किसी डिविजन की पास नम्बरों में नहीं था !

कितना निराश और दुखी मैं उस समय हुआ , उसका वर्णन मैं आज नहीं कर सकता ! एक महत्वाकांक्षी बीस  वर्षीय नवयुवक की मनः स्थिति ऎसी हालत में कैसी हुई होगी उसका अनुमान शायद आज के हमारे नवयुवक पाठक  लगा पायें , मेरे लिए तो इस विषय में अभी कुछ भी कह पाना असंभव लग रहा है ! हाँ , भारत में उस जमाने की अब मेरी एक बड़ी भाभी बची हैं ,आज रात यहाँ से फोन पर उनसे पूछ कर आप को अगले सन्देश में बताऊंगा कि उस निराशा के बाद उनके प्यारे देवर भोला बाबू की क्या दशा हुई थी !

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क्रमशः 
निवेदक : व्ही .  एन.   श्रीवास्तव " भोला "
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शुक्रवार, 27 मई 2011

हनुमान चालीसा का पाठ करे # 3 7 3

आत्म कथा # ३ ७ ३

एक अनाड़ी ब्लॉगर की व्यथा
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सर्व प्रथम आज शनिवार है , मेरा अनुरोध है कि आप हमारे पूरे परिवार के साथ मिलकर हनुमान चालीसा का पाठ करे ! आप भाव से गायेंगे तो आप भी वैसे ही रोमान्चित हो जायेंगे जैसे संकटमोचन और दिल्ली के क्नाट प्लेस वाले मन्दिर के महंत जी को हुआ था ! मेरे ब्लॉग के ऊपर बाये तरफ़ बने चालीसा को प्ले करिये! ये वही धुन है जो हमने काशी के संकटमोचन और कनाटप्लेस के मन्दिरो में गायी थी !
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(नये ब्लॉग लिख पाने मे मेरीअसमर्थता के कारण मुझे दुखी देख मेरे बच्चो ने मेरी मदद की, किसी प्रकार आज ही एक संदेश # ३७२ प्रेषित किया ! प्रियजन आत्म कथा का वह् अन्श भी अप्रासंगिक नही है ! लिखते समय USA में लोप हो कर आज मद्रास में प्रगट हो गया ! अगले संदेश मे उसके आगे की कथा उनकी " प्रेरणा से प्रेषित करूंगा )
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ब्लॉग जगत से पूरी तरह से संबन्ध भंग हुए अब पूरे चार दिन हो गये हैं ! कितने हाथ पैर पटके बात नही बनी !प्रियजन अपने को सर्व शक्ति सम्पन्न मानने वाला अहन्कारी मानव कितना असहाय है , कितना दुर्बल है , कितना निर्बल है शायद अब तक जो मेरी समझ मे नही आया था आज ८२ वर्ष की अवस्था में जान गया हूँ ।

किसी प्रकार ये ब्लॉग लिख रहा हूँ , एक नयी कोशिश कर रहा हूँ , गलतिया हो रही हैं , ट्रायल है , देखे सफ़ल होता हूँ कि नहीं ? मेरी कथा अधूरी पड़ी है , आप सोचते है , टी वी के सीरिअल जैसा suspense बना रहा हूँ ! मेरे प्यारे पाठको , विश्वास करे , ऐसा नहीं  है !

परमप्रिय पाठकगण

कहते हो SUSPENSE जिसे तुम कारस्तानी "उसकी" है
अब यह मेरी कथा नहीं ,संपूर्ण कहानी "उसकी" है !!
मै प्रियजन इक लिपिक मात्र हूँ ,"वह्" डिकटेटर है मेरा
अदना एक सिपाही हूँ मैं HITLER शाही "उसकी" है !!

जब जो "उसके" जी में आता वही लिखा लेता है "वह",
कम्प्यूटर कर क्रेश कभी सब लिखी मिटा देता है "वह्" !!
बन्द करा देता है ब्लोगर ,ड्राफ़्ट नही लिख पाता हूँ ,
कलम तोड देता है मेरी ink सुखा देता है "वह" !!

वास्तव मे प्रियजन स्थिति यह है कि

लिखवाता है मेरा स्वामी , बस मैं लिखता जाता हूँ ,
करता है वह सब , मैं ' तो बस , यूँ ही नाम कमाता हूँ !!
चाकर हूँ "उनका" प्रियजन मैं ,मान न कोई मुझको दो ,
केवल "उसको" धन्यवाद दो ,जो यह यन्त्र चलाता है !!

लिखता हूँ मैं वही कथा जो मेरा प्रभु लिखवाता है
वही गीत गाता हूँ जो मेरे स्वामी को भाता है !!

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बनी रहे ऐसी ही करुणा "उनकी" इस मानवता पर ,
मैं हरदम, मन ही मन "उनसे" केवल यही मनाता हूँ !!

"भोला"
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एक प्रार्थना है

जब् नया संदेश न पहुचे, मेरे पिछले संदेशो मे सद्गुरूओ मे सर्वोपरि मेरी अपनी अम्मा तथा ममतामयी श्री श्री माँ आनन्दमयी जी के मेरे संस्मरण देखे तथा मेरे ऊपर उनकी कृपा की कथाये पढ़ कर आनन्द पाये !

आज इतना ही --

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निवेदक : व्ही एन श्रीवास्तव "भोला"

आत्म कथा # 3 7 2

गतांक से आगे:

बमुश्किल तमाम वो दिन तो कट गया ,लेकिन पंखे के बिना जून महीने के आखिरी दिनों की वह रात होस्टल के उस सख्त तख्त (लकड़ी के बेड ) पर काटनी कठिन लग रही थी ! रात भर करवटें बदलता रहा ! पिछले दो वर्ष की अनेकों खट्टी मिट्ठी यादें आती रहीं !

बनारस में १९४७ - ४८ में सबसे पहले मेंरी दोस्ती पूर्वी पंजाब से आये एक सिख विद्यार्थी से हुई ! उसने मुझे कभी अकेले में कोई गजल गुनगुनाते हुए सुन लिया था ! फिर क्या बात थी रोज़ शाम को ही वह मेरे कमरे में आजाता और बड़े दर्द के साथ सोनी महिवाल, हीर राँझा की लोक कथाएं मुझे सुनाता ! कभी कभी  ,पंजाबी लोक गीत और गजल सुनाने की फरमाइश करता ! मुझे तब तक केवल दो चार फिल्मी गजलें हीं आती थीं ! उन दिनों मै ज़्यादातर "जीनत"(?) फिल्म में हीरोइन "नूरजहाँ" के गाये नगमे बहुत फीलिग़ के साथ गाया करता था ! 

आंधियां ग़म की यूं चलीं बाग उजड़ के  रह गया
समझे थे आसरा जिसे वो ही बिछड़ के  रह गया)

ये दर्द भरा नगमा सुनकर नरकेवल (?)  खूब हँसता था (?- मेरी बड़ी बहू सिक्ख है , वो कह रही है पापा मैंने सिक्खों में ये नाम अभी तक नहीं सुना ' ,लगता है मै ही भूल रहा हूँ ) खैर वो कहता था " ऐसा लगता  तो है नहीं कि कोई तेरा बाग़ उजाड़ सकती है , तू ही उजाड़े तो उजाड़े ! छोड़ दे ऐसे जनाने गाने गाना , मर्दाने गाने गाया कर , पोल्या " !

एक दिन इतना कह कर वह अपने कमरे में गया और एक किताब हाथ में लेकर लौटा! वो  किताब थी (तब उतने मशहूर नहीं हुए शायर) "साहिर लुध्यान्वी" साहिब की "तल्खियाँ" !  अपनी भारी भरकम आवाज़ में उन्होंने उस किताब से एक  गजल पढ़ कर मुझे सुनाई और इसरार किया कि इसकी धुन बनाऊ और गाऊँ ! तभी उन्होंने साहिर साहेब से अपनी गहरी दोस्ती की बात जोर देकर मुझे समझाई और कहा  देखना एक दिन फिल्मी दुनिया में "साहिर" बड़ा नाम कमाएगा ! उन्होंने उस गजल के साथ साथ शायर के कालेज की ज़िन्दगी के बारे में भी काफी चर्चा की ! उस किताब से जो एक गजल उन्होंने मुझे नोट करवाई , वह थी -: 

मोहब्बत तर्क की मैंने गरेबां सीं लिया मैंने
जमाने अब तो खुश हो जहर ये भी पी लिया मैंने !! 

तुम्हे अपना नहीं सकता मगर इतना भी क्या कम है 
कि कुछ मुद्दत हसीं खाबों में खो कर जी लिया मैंने !!

नरकेवल कहा करता था " उन्हें तोड़ने का मौक़ा क्यों दो , मर्द हो खुद तुम ही तोड़ लो !"  ,

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तकनीकी समस्या के कारण यह पोस्ट पूरी नहीं हो पा रही  .   

मंगलवार, 24 मई 2011

संकट से हनुमान छुड़ावें # 3 7 1

गतांक से आगे:

उस दिन मैंने बहुत श्रद्धाभक्ति से संकटमोचन की आराधना की ! पूरे जोर शोर से हनुमान चालीसा का पाठ पूरा करके जब मैंने आँखें खोली तो देखा कि मन्दिर के महंत जी हाथों में एक माला और प्रसाद का दोना लिए मेरे सन्मुख खड़े हैं ! मेरे सिर पर आशीर्वाद का हाथ फेरते हुए उन्होंने मुझसे कहा " बेटा ! तुम ने बड़ी श्रुद्धा से पाठ किया ! बेटे, ये देखो मेरे रोंगटे अभी तक खड़े हैं  इतना रोमांच हुआ है मुझे ! अवश्य ही संकटमोचन हनुमान जी तुम पर बहुत प्रसन्न हैं ! वह  असीम कृपालु  हैं , तुम्हारा कल्याण सुनिश्चित है ! तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी होगी "    इतना कह कर उन्होंने मूर्ति के चरणों से उठाई वह गेंदे  के फूलों की माला मेरे गले में ड़ाल दी और अपने हाथ से पेड़े का मधुर प्रसाद मुझे दिया ! मैं पहले से ही रोमांचित था महंत जी की बात सुन कर मेरी आँखों से अश्रुधार दुगने वेग से बह निकली ! मैं गदगद हो गया !

मेरे प्रिय पाठकगण ! किसी अहंकार की भावना से नहीं - वास्तविकता की श्रंखला में  प्रसंगवश उठी यह बात आपको "उनकी" प्रेरणा से ही बता रहा हूँ ! क्यों ? ये तो बस "वह" ही जाने ! बात ये है कि २० वर्ष की अवस्था में १९५० में हुई उपरोक्त घटना के बाद मेरे जीवन में बिलकुल वैसी ही घटनाएँ और अनेको बार हुई.! १९६९ - ७० में दिल्ली के कनाट प्लेस वाले हनूमान जी के मन्दिर में और १9७३- ७४ में ( तारीखें अब याद नहीं हैं)  माँ  वैष्णो  देवी मन्दिर की गुफा के द्वार पर , जब मेरे भक्तिपूर्ण भजन सुनने के बाद वहां के प्रमुख महंतों ने मुझसे  कुछ ऐसी ही बातें कहीं थीं !

संकटमोचन  मन्दिर में उस प्रातः मुझे डबल आशीर्वाद मिले ! एक तो श्री हनुमान जी का और दूसरा उनके नित्यसेवक महंतजी का ! सच पूछो तो मुझे सख्त ज़रूरत भी थी उतनी ही जबरदस्त दुआओं और आशीर्वाद की ! पहली थी परीक्षा में उत्तीर्ण होने की और दूसरी थी उस सुपर डीलक्स "कार"वाली देवी से - "उसने कहा था" के गुलेरी जी के शब्दों में - "कुडमाई" के लिए ! नहीं समझे ,भाई  टी वी  की भाषा  में ,आजकल  "स्टार +" के सीरिअल "गुलाल" में बार बार सुनाई पड़ने वाला " केसर -गुलाल के "जियाबत्तू" या "बियाबत्तू" के लिए ! भैया आदत से मजबूर मुझे अभी भी शर्म  लग रही है लेकिन अब आपको ,आपकी भाषा में बता ही दूँ , अपनी और उनकी "सगाई" के लिए मुझे इन दुआओं और आशीर्वादों की बड़ी सख्त ज़रूरत थी ! मन्दिर में मिले आशीर्वादों ने मेरे मन को प्रसन्नता से भर  दिया था ! मेरी सारी मनोकामनाएं अवश्य ही पूरी होंगी ,मुझे इसका  पूरा भरोसा हो गया था !

भयंकर भूख लग रही थी ,मन्दिर से निकल कर सीधे यूनिवर्सिटी के गेट के पास मद्रासी अइयर जी की नयी केन्टीन में गया ! गर्म साम्भर ,गरी की चटनी ,शुद्ध देसी घी और गन पाउडर के साथ इडली और मसाल दोसा खाकर ,मिर्ची की जलन मिटाने के लिए पश्चिमी पंजाब से बटवारे के बाद भारत आये पुरुषार्थी रिफ्यूजी गुरुचरण सिंह के ठेले पर बड़े वाले अमृतसरी गिलास भर लस्सी का सेवन किया ! आत्मा और उदर दोनों ही तृप्त हो गये !

खा पीकर साईकिल यूनिवर्सिटी के सेन्ट्रल ऑफिस की और बढा दी !  परीक्षा में सब प्रेक्टिकल और सारे पर्चे  बहुत ही अच्छे हुए थे !  संकटमोचन महाबीर जी की कृपा से उच्च श्रेणी में सफल होने की पूरी आशा थी और उसी के साथ जुडा था मेरा उन देवीजी का जीवन साथी बन जाना और उस दूसरी सुन्दरी जैसी किसी अन्य सुंदर कार का इंग्लेंड या अमेरिका से हमारे मोटर गराज में आ जाना !  

रजिस्ट्रार ऑफिस के नोटिस बोर्ड पर उस दिन B. Met. ,B.Pharm , B Sc. (Geology) के  रिजल्ट तो लग गये थे , हमारे कोलेज ऑफ़ टेक्नोलोजी के रिज़ल्ट नहीं थे ! निराश हो कर कमरे में लौट आया ! कल तक इंतज़ार करना पड़ेगा !

आप भी प्लीज़ काफी देर से अपने कम्प्यूटर पर झुके बैठे हैं ! अब थोड़ा आँखों को रेस्ट दे ही दीजिये !

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देख रहा हूँ हिन्दी में मेरे आलेखों पर कमेन्ट भेज पाने में आपको कुछ कष्ट हो रहा है ! मेरी बेटी ने अब यह बड़ा सुगम कर दिया है ! 

कमेन्ट के लिए बने ऊपर वाले डिब्बे में आप अंग्रेज़ी के अक्षरों (रोमन ) में अपना कमेन्ट छापिये. वह आप से आप हिन्दी लिपि में छप जायेगा ! हिन्दी लिपि में छपे अपने उस कमेन्ट को सिलेक्ट करके आप उसकी नकल नीचे वाले डिब्बे में उतार लीजिये ! जिसके बाद अपना प्रोफाइल बता कर आप अपना कमेन्ट पोस्ट कर दीजिये ! मुझे मिल जायेगा ! हनुमान जी कृपा करेंगे !
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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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सोमवार, 23 मई 2011

"मैं लिखता हूँ वही कथा जो मेरे "प्रभु" लिखवाते हैं" # 3 7 0

गतांक से आगे:

आप सोच रहे होंगे कि "प्यारेप्रभु"  की अहेतुकी कृपा की बातें बताते बताते मैं कहाँ भटक जाता हूँ  ! आप यह तो जानते ही हैं कि मैं केवल वही लिख पाता हूँ जो मेरे  प्यारे "प्रभु" मुझसे लिखवाते हैं और सदा ही मेरी अप्रासंगिक लगने वाली कहानियां अंत में प्रभु की "कृपा कथा"  बन जाती है ! इसलिए यदि आपको कभी मैं कृपा प्रसंग से भटका हुआ लगूँ तो प्लीज़ नाराज़ न होना ! मुझे अकेला न छोड़ देना ! थोड़ी देर और आप मेरे साथ चलते  रहना ! प्रसंग के अंत में आप को यकीन हो जाएगा कि उस अप्रासंगिक लगने वाले अंश  के अंत में कैसे मुझे मेरे प्यारे प्रभु की महती कृपा का साक्षात् दर्शन होता है  !

तो उस विलक्षण इंटरव्यू की कथा थोड़ी देर और झेल लीजिये ! अंत में कृपा प्रसाद अवश्य पा जाइयेगा ! हाँ तो दहेज में "कार" मिलने और कन्या के बड़े भाई की राजनीतिक दबंगई का सम्पूर्ण लाभ मिलने की पूरी आशा मेरे नौजवान मन में घर कर गयी ! मुझे  देवीजी की बातों से यह विश्वास हो गया की उनके बड़े भाई के धक्के से मैं केंद्र के सिविल सर्विस में स्पेशल पोलिटिकल सफरर कोटा से हो रहे रिक्रूटमेंट में I A S / I P S नहीं तो कम से कम अपने प्रदेश का P C S तो बन ही जाउंगा ! कार और जॉब की लालच मुझे मजबूर कर रही थी कि मैं बिना किसी शर्त के वह प्रोपोज़ल मंजूर कर लूं और उन अति आधुनिक विचारोंवाली वीरांगना के  साथ विवाह के लिए राजी हो जाऊं ! 

और वैसा हो भी गया ! "लालच बुरी बला है"  बचपन से सुनता आया हूँ , फिर भी उस  बला से अपने आप को नहीं बचा पाया ! मैंने  "हाँ" कह दिया ! अम्मा -बाबूजी को मुझसे ज्यादा  उस "बिना बाप की बिटिया" की चिंता थी !  दोनों अपने इस जीवन के पुण्यों के खाते  में एक अनाथ बच्ची के उद्धार का यह पुण्य जुडवाना चाहते थे ! 

चलते चलते बाबूजी ने कन्या से कहा " बेटा! अपने भैया से कहना एक बार कभी हमसे मिल लें ! Don't get disturbed ,बेटा कोई लेन देन की बात नहीं है ! हमारी इच्छा है कि  शादी से पहले दोनों परिवार एक दूसरे से मिललें ! मैं समझता हूँ कि उन्हें भी कम से कम एक बार तो ये घर  द्वार देख लेना चाहिए जहाँ उनकी बहन बहू बन कर आने वाली है !"  कुछ उदासी के साथ  उसने हामी भरी और अम्मा बाबूजी को नमस्कार करके यह कहते हुए कि "भैया को क्लब  जाने के लिए गाड़ी चाहिए", सोफे से उठ गयी ! बाबूजी ने आदेश दिया " बेटा इन्हें गाड़ी तक पहुंचा आओ "! 

उन्हें छोड़ने नीचे तक गया ! उस जमाने में सबके सामने , लड़के लडकियां  हेंड शेक नहीं    करते थे ! गज दो गज की दूरी से दुआ सलाम हो जाता था ! वही हुआ ! लेकिन लोगों से नजर बचा कर मैंने हाथ फेर ही लिया उनकी सुंदर सुपर डीलक्स शेवी कार पर ! गढ़वाली शोफर को भाभी ने चाय शाय पिलवा दी थी ! काफी प्रसन्न लग रहा था ! ज़ोरदार सलाम किया उसने मुझे और फिर इंजिन स्टार्ट कर दिया !

गाड़ी गई और वो भी गई और उनके  पीछे पीछे मेरा दीवाना मन भी दौड़ लगाने लगा ! खुली आँखों से मैं स्वप्न लोक में पहुंच गया ! उन दिनों मुकेश जी का अंदाज़ फिल्म का एक गीत बहुत मशहूर हुआ था बरबस मैं वही गुनगुनाने लगा : 

हम आज कहीं दिल खो बैठे , यूं समझो किसी के हो बैठे
हरदम जो कोई पास आने लगा ,  भेद उल्फत के समझाने लगा.
नजरों से  नजर का  टकराना ,  था  दिल के लिए इक अफ़साना 
हम दिल की नैया  डुबो बैठे  , यूं समझो किसी के हो बैठे   

दो दो सुंदरियाँ मेंरा दिल हथिया कर मुझे अकेला छोड़ कर चली जा रहीं थीं ! मुझे यकीन है मेरे नौजवान पाठक मुझ बेचारे २० वर्षीय भोला के मन की तत्कालीन व्यथा का अंदाज़ अवश्य लगा लेंगे ! धीरे धीरे गरमी की छुटियाँ खत्म होने को आईं ! हमारा रिजल्ट नहीं आया था ! लोगों ने राय दी कि बनारस कौन दूर है मैं वहीं जा कर रिजल्ट देखूँ और आगे  M.TECH की पढाई के लिए वहीं एडमिशन फॉर्म भर कर सबमिट कर दूँ !  

बनारस पहुंच कर सबसे पहले हनुमान जी के दर्शन करने संकटमोचन मन्दिर गया ! मन से  हनुमान चालीसा का पाठ किया और स्वभावानुसार प्रार्थना में केवल उनकी कृपा दृष्टि  की फरमाइश की --"आपकी कृपा से मेरे जीवन में सब वैसा ही हो जैसी आपकी इच्छा हो क्योंकि मुझे विश्वास है कि उसमे ही मेरा कल्याण निहित है " 

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क्रमशः 
निवेदक:  व्ही . एन . श्रीवास्तव "भोला"
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शनिवार, 21 मई 2011

प्रथम प्रेयसी "कार" - बाकी सब बेकार # 3 6 9

गतांक से आगे:

इंटरव्यू चल रहा था ! मेरा ध्यान उनकी और कम था उनकी चमचमाती कार की ओर अधिक था ! स्वभाव से मजबूर था ! उनकी कार देख कर मुझे अपने घर की पुरानी कारों की याद आने लगी ! चलिए मैं आपको अपनी पहली प्रेयसी -एक छोटी सी कार की छोटी सी कहानी सुना ही दूँ ! पिछले पृष्ठों में मैंने बताया था कि भूरे बालों वाला मेरा प्यारा अरबी घोड़ा ,उस अफीमची साईस के चरस दारू का दाम चुकाते चुकाते खुद भी गांजे के धुंए के साथ उड़ कर काफूर हो गया !

इधर "शनी" देव की कृपा से हमारे बाबूजी जिस किसी भाड़े की सवारी पर चढ़ते उसका ही एक्सीडेंट हो जाता था ! अक्सर शाम को बाबूजी अपने शरीर के किसी न किसी अंग पर पट्टी बंधवा कर  घर लौटते थे ! चिंता का विषय था ! खबर मिलने पर उनके अवकाश प्राप्त जिला जज बड़े  भाई  ने इलाहबाद में उनके लिए केवल चार सौ रूपये में ( जी हाँ ४०० ही कहा मैंने यकीन करिये ) एक सेकण्ड हेंड कार खरीदी और उसे बाबूजी के लिए कानपूर भेज दिया ! 

वह कार तब दुनिया की सबसे छोटी कार थी ! इंग्लेंड की बनी उस कार का नाम ही था "बेबी ऑस्टिन" ! १९३८ की बात है , मैं ८-९ वर्ष का था ! कार प्रेमी जो था , स्कूल से लौट कर मैं गेराज में खड़ी उस 'बेबी' को  देखना नहीं भूलता था ! मौक़ा पाकर,हफ्ता पंद्रह दिन में , घर के नौकर से धक्का लगवाकर मैं उसे बाहर निकालता था और उसे अपने खुशबूदार  LUX साबुन से नहला धुला कर पुनः मोटर खाने में रख देता था !

उस छोटी गाड़ी की कहानी लम्बी है ,संक्षेप में बताऊंगा ! एक बुड्ढा शोफर रखा गया कि सम्हाल के धीरे धीरे चलायेगा ! लेकिन शनी देव ने इस सवारी पर भी अपनी  कृपा दृष्टि डाल ही दी ! धीमी रफ्तार में ही एक दिन वो हेलेट होस्पिटल के सामने वाले स्वरूप नगर के गोल चक्कर पर पलट गयी ! दो साइकिल वालों ने उठा कर सीधी की और नीचे से शोफर और बाबूजी को निकाला ! गाड़ी बहुत हल्की थी इस लिए  किसी को अधिक चोट नहीं लगी थी ! उस शाम को भी बाबूजी घायल अवस्था में घर लाये गये ! उसी रात यह निर्णय ले लिया गया कि इस कार को भी निकाल दिया जाये ! जल्दी ही एक ग्राहक भी मिल गया ! हमारी प्यारी बेबी ऑस्टिन के लिए वह पूरे चार सौ रूपये देने को तैयार भी हो गया !

विदा की बेला आयी , ग्राहक गाड़ी लेने को आया रजिस्ट्रेशन की किताब ग्राहक को  देने से पहले ये कन्फर्म करने को कि सब टेक्सेज पेड हैं जब बड़े भैया ने उस पुस्तिका का गहन अदध्यन किया तो वह चौक गये ! उस पुस्तक में लिखा था कि उस बेबी ऑस्टिन कार के  पहले मालिक थे वह सज्जन जिनका अनुकरण हमारे बड़े भैया बचपन से करते आये थे ! भैया ने उनका ही हेअर स्टाइल , उनके हाव भाव, उनकी मुद्राएँ, यहाँ तक उनकी आवाज़ की भी बखूबी नकल की थी !उनके देवदास, चंडीदास , दुश्मन , स्ट्रीट सिंगर आदि फिल्मों के कटआउटों से भैया के कमरे की दीवालें भरी पड़ी थी ! बड़े वाले H. M. V. ग्रामफोंन पर बजाने के लिए भैया के पास उनके सभी फिल्मी और प्राईवेट गानों के रिकार्ड थे ! एक तरह से वो सज्जन जिनका नाम उस पुस्तिका में प्रथम मालिक की जगह लिखा था वह हमारे बड़े भैया के भगवान् ही थे !  कह नही सकता पर शायद जैसे आजकल अमिताभ बच्चन ,रजनीकान्त , शाहरुख़ खान आदि की पूजा अर्चना घर घर में होती है  हमारे भैया भी उन 
महाशय की पूजा करते रहे होंगे !मेरे भी एक फिल्मी इष्ट थे भारत भूषन और मेरे फेवरिट गायक थे मुकेश जी ! लेकिन भैया के भगवान को हमे भी प्रणाम करना पड़ता था ! 

अब आपको बता ही दूं , उस प्यारी सी बेबी ऑस्टिन के पहले मालिक का नाम था : कुंदन लाल सहगल , मार्फत -न्यू थिअटर,  धरमतल्ला स्ट्रीट , कोलकत्ता !

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ये मेरी आत्म कहानी है , नाती पोतों को बतानी है
कल कह पाऊँ ना कह पाऊँ ,अब कल की किसने जानी है
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निवेदक : वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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गुरुवार, 19 मई 2011

प्रभु कृपा' से रक्षा # 3 6 8

आत्म कहानी 
"उल्टी गंगा"
 विवाह के लिए वर का वधु द्वारा साक्षात्कार
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अपनी विद्वता बखानने के चक्कर में बीच बीच में मैं आत्मकथा कथन से दूर हो जाता हूँ !कल ही मैंने अर्ज़ किया था कि -"लिखता हूँ वही जो वह लिखवाता है" -भाई विश्वास कीजिए एकदम परवश हूँ ,"उसके"  जियाए ,"उसकी जूठन खाय" के जी रहा हूँ ! "उनकी"  हुकुमुदूली कैसे कर सकता हूँ ?  आशा है आप मेरी मजबूरी समझ गये होंगे !

चलिए १९५० के मेरे उस साक्षात्कार का आनंद लीजिये !

जनक वाटिका में श्री राम और सीता का नेत्र मिलन हुआ था ! प्रियजन, आपके शर्मीले भोला जी तो उन देवी जी के मुखारविंद को निहार ही नहीं पाए ! बेचारे वहीं ड्राइंग रूम में उनके बगल वाले  सोफे पर बैठे  उन आधुनिक जानकी जी पर ठीक से एक नजर भी नहीं डाल पाए ! दसरथ- नंदन राम के समान साहसी बन कर पुष्प वाटिका में पुनि पुनि जनकनंदिनी सिया की ओर अपनी नजर घुमाने की जुर्रत करना तो दूर की बात थी -

अस कहि पुनि चितए तेहि ओरा ! सिय मुख ससि भये नयन चकोरा !!  

मैं केवल कनखी से निहारता रहा अपनी सिया जी की सुन्दरता ( जिसमे उनकी अपनी मेड अप सुन्दरता से कहीं अधिक मुझे उनकी WAXPOL से माँज माँज कर चमकाई हुई  शेवी सुपर डिलुक्स कार की चमक ही दिखाई दे रही थी ) और इस प्रकार :

देखि सीय सोभा सुख पावा ! हृदय सराहत बचनु न आवा !!
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई ! बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई !!
सुन्दरता कहं सुंदर करई ! छाबिग्रह दीपसिखा जनु बरई  !!         

अपनी जनकदुलारी की सुन्दरता से अधिक मुझे उनकी उस बड़ी कार की चमक दमक ने आकर्षित कर रखा था ! प्रियजन मैं अपनी कमजोरी-"कार पाने की लालच" से भली भांति अवगत था ! आशा बंध रही थी कि इतनी बड़ी नहीं तो कम से कम बिरला जी के हिंदुस्तान मोटर्स की नयी छोटी गाड़ी - 'हिंदुस्तान टेन' - तो मिलेगी ही !

अम्मा - बाबूजी को भी उस सम्बन्ध से कोई एतराज़ नहीं था पर उसका कारण कुछ और ही था ! हमारी नामौजूदगी में बाबूजी और अम्मा ने उससे काफी लम्बी बातचीत कर ली थी जिसके आधार पर अम्मा की यह दलील थी -" जब यह दो वर्ष की थी तभी उसके पिता नहीं रहे ! बेचारी बिना पिता की है ! दोनों भाई अपने अपने काम में लगे हुए हैं ! किसी को लडकी की शादी की फिक्र ही नहीं है ! बेवा माँ बेचारी कहीं आ जा नहीं सकती ! लडकी को खुद अपने विवाह के लिए दौड़ धूप करनी पड रही है !"  बता ही चुका हूँ मेरे बाबूजी कितने दयालु थे , इसके अलावा शायद वह यह भी सोच रहे थे कि मैं उस बालिका में इंटरेस्टेड हूँ और शायद वह मेरे कहने से आई होगी ! आप समझ ही सकते हैं कि ऐसे में मेरे विवाह के विषय में तब क्या निर्णय हुआ होगा !

दुल्हा राजी ,अम्मा राजी , भौजी  औ भैया भी  राजी 
बाजी+ औ बाबूजी राजी , तु ही कहौ का करिहे काजी
( + मेरी अतिशय प्रिय छोटी बहन मधु चन्द्रा )   
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इप्तिदाये इश्क है भाई सम्हल जा 
आगे आगे देख तू होता है क्या क्या 
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क्रमशः 
निवेदक : व्ही . एन . श्रीवास्तव  "भोला"
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बुधवार, 18 मई 2011

हिन्दी ब्लॉग जगत - # 3 6 7

हम आभारी हैं "हिन्दी" ब्लॉग जगत के 

पिछले एक वर्ष में ३६५ ब्लॉग पोस्ट करने वाले 
अनाडी खिलाड़ी -"भोला-कृष्णा" के उदगार 


हिन्दी ब्लॉग लेखन और उससे जुड़ी समस्याओं (विशेषतः सम्मान समारोहों) के विषय में लिखे कुछ संदेश तथा उनपर दागे हुए ,कुछ स्वनामधनी ,विद्वान् ,बुद्धिमान-गुणवानऔर चरित्रवान ब्लोग्कारों के कटीले कमेंट्स पढ़ कर स्वभावतः हमाँरा मन अति दुखी हुआ और हम यह सोचने को मजबूर हुए कि इस उम्र में (भोला -८२ .कृष्णा-७५ ), हम कहाँ फंस गये इस पचड़े में ! लेकिन क्षण भंगुर रहे ये विचार !

कुछ देर बाद ,यह सोच कर कि नापाक जुबांन बोलने वाले एकाध ब्लोग्कारों के अतिरिक्त असंख्य  लेखक लेखिकाएं भी तो हैं जो स्वयम अति सुंदर लेख लिख रहे हैं और हमारे जैसे नौसिखियों को अपने प्रोत्साहन भरे संदेशों से --"लिखते रहने " की प्रेरणा देते रहते हैं ! सच पूछिए तो इन विशिष्ट ब्लोग्कारों के उत्साहवर्धक कमेंट्स के बल पर ही मुझे अपने प्यारे प्रभु का आदेश पालन करने ,गुरुजनों की इच्छापूर्ति करने , तथा अपने बच्चों की वर्षों पुरानी स्नेहिल "मांग" पूरी कर पाने का सुअवसर दिया !

हार्दिक धन्यवाद , साधुवाद पूरे हिन्दी ब्लोगर परिवार का  

ब्लॉग लेखन अब हमारे लिए ईशोपासना का एकमात्र साधन  है ! यह ही हमारी आराधना है ,पूजा है, हवन है , आरती है ! आपने मुझे पूजा पथ पर अग्रसर रहने का सन्देश देकर  स्वयम एक बड़े पुण्य का काम किया है और हम प्रार्थना कर रहे हैं कि हमारी पूजा का भी सुफल आपको प्राप्त हो ! पुनः आभार स्वीकार करें !

हमारे ब्लॉग "भोला की आत्म कथा" की भूमिका 

भैया ये आत्म-कहानी है 
इसमें मुझको, प्रियजन, तुमको, इक सच्ची बात बतानी है 
भैया ये आत्म-कहानी है 

करने वाला "यंत्री प्रभु" है, हम सब हैं, मात्र यन्त्र "उनके" 
अपने जीवन के अनुभव से यह बात तुम्हे समझानी  है 
भैया ये आत्म-कहानी है 

हमसे ज्यादा है फिक्र "उसे" हम सबकी ये तुम सच मानो
हम इस जीवन की सोच रहे "वह" तीन काल का ज्ञानी है 
भैया ये आत्म-कहानी है 

जो भी प्रभु इच्छा से होगा, वह हितकर होगा, हम सब को  
मत समझो उसको ही हितकर जो तुमने मन में ठानी है 
भैया ये आत्म-कहानी है 

बाहर से जो मीठा लगता वह कडवा भी हो सकता है 
मानव बाहर की देख सकें , अंतर की किसने जानी है 
भैया ये आत्म-कहानी है

 मुझको दोषी मत कहो स्वजन ,है सारा दोष "मदारी" का  
 "भोला बन्दर"  मैं क्या जानू अंतर "मयका-ससुरारी" का   
रस्सी थामे मेरी, मुझसे वह, करवाता मनमानी है  
भैया ये आत्म-कहानी है
  
करता हूँ, केवल उतना ही, जितना "मालिक" करवाता है
लिखता हूँ केवल वो बातें जो "वह" मुझसे लिखवाता है
मेरा कुछ भी है नहीं यहाँ सब "उसकी" कारस्तानी है भैया ये आत्म-कहानी है
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"भोला" 
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कहानी तो सुनानी ही है , कल से फिर शुरू कर दूंगा !


उस प्यारे प्रभु की कृपा की चर्चा सुन कर आनंदित होना
 (NOSTALGIA महसूस  करना)
because of the blissful remembrance of the loving LORD 
स्वाभाविक है  
as our ultimate HOME is there where HE dwells . 
We should ever be HOME SICK to reach there.


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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"     
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मंगलवार, 17 मई 2011

जय जय बजरंगी महावीर - (on Youtube)

मंगलवार - हनुमान जी का दिव्य दर्शन 

मेरे अतिशय प्रिय स्वजन !

भारत में किसी राम कथा में साधारण बानर के वेश में श्री हनुमान जी पधारे उन्होंने श्रद्धा सहित व्यास आसन पर कथा वाचक को टीका लगा कर सम्मानित किया तथा अपने इष्ट  श्री सीता राम जी का अभिनन्दन किया ! एक मुस्लिम फोटो जर्नलिस्ट ने उस राम भक्त बानर के चित्र उतारे जो वहां अख़बारों में छपे !     

ई मेल से U S A के एक परम राम भक्त श्री प्रभु राठी जी ने मेरे पास उस कौतुक के चित्र भेजे जो मुझे इतने भक्ति भरे लगे कि तुरंत ही आपसे 'शेअर' करने का मन बन गया !

श्री राम भक्त हनुमान की जय
 जय जय बजरंगी महावीर

चलिए आप भी हमारे साथ मिलकर आज श्री हनुमतलाल के गुण गा लीजिये ! इस गायन में राघव जी के घर पर मेरे साथ रवि जी (हारमोनियम पर), राघव जी (तबले पर) तथा डाक्टर श्रीमती लक्ष्मी रमेश , डाक्टर श्रीमती शारदा कौल आदि गाने में मेरा साथ दे रहे हैं


जय  जय बजरंगी   महावीर   
तुम  बिन को जन की हरे पीर

अतुलित बलशाली तव काया 
गति पिता पवन का अपनाया 
शंकर से दैवी गुण पाया 
शिव पवन पूत हे धीर वीर
जय जय बजरंगी महावीर , तुम बिन को जन की हरे पीर

दुःख भंजन सब दुःख हरते हो 
आरत की सेवा करते हो
पल भर विलम्ब ना करते हो 
जब भी भक्तों पर पड़े भीर 
जय जय बजरंगी महावीर , तुम बिन को जन की हरे पीर

जब जामवंत ने ज्ञान दिया 
झट सिय खोजन स्वीकार किया 
शत जोजन सागर पर किया 
निज प्रभु को जब देखा अधीर 
जय जय बजरंगी महावीर , तुम बिन को जन की हरे पीर

शठ रावण त्रासदिया सिय को 
भयभीत भई मैया जिय सो 
माँगत कर  जोर अगन तरु सों
दें  मुन्देरी वा को दियो धीर 
जय जय बजरंगी महावीर , तुम बिन को जन की हरे पीर

जब लगा लखन को शक्ति बाण 
चिंतित हो विलखे बन्धु राम
कपि तुम सांचे सेवक समान 
लाये बूटी संग द्रोण गीर    
जय जय बजरंगी महावीर , तुम बिन को जन की हरे पीर 

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"ये अपनी कहानी तो चलती रहेगी 
कि जब तक मिरी जिंदगानी रहेगी"
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निवेदक : वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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सोमवार, 16 मई 2011

वो आये हमारा चमन खिल गया # 3 6 5

संकट से हनुमान छुडावें 

(गतांक से आगे )
यहाँ  देखते हैं , वहां देखते हैं 
उन्हें देखते हैं,  जहाँ देखते हैं  

वो आये मिरे घर बड़ी उनकी रहमत  
हम उनकी नजर से 'मकाँ'  देखते हैं

कभी अप्नी 'खोली' कभी उनकी गाड़ी 
ज़मीं   पर   पड़ा       आसमां देखते हैं
  
"भोला"  


सब कहते थे बलिया में "हरबंस भवन" और पुश्तैनी गाँव बाजिदपुर में खानदानी ऊंचे ऊंचे  २४ नक्काशीदार सागौन और देवदार की लकड़ी के भव्य खम्भों पर खड़ी विशाल मर्दानी कचहरी और दो बड़े बड़े आंगनों वाले ज़नान खाने के २० कमरे होते हुए कानपूर में मकान बनाने की क्या ज़रूरत है  ? लेकिन फिर भी सबकी बातें अनसुनी करके ,अम्मा ने वह घर कानपूर में बाबूजी के पीछे पड़कर ज़बरदस्ती बनवा ही लिया था और यह वही घर था जहां  तब ,( १९५० मे ) वह "देवीजी" मेरा interview ले रहीं थी !


हमारा यह घर पूरे मोहल्ले का सबसे सुंदर घर था ! उस एरिया के बाकी सब घर किराये पर उठाने की दृष्टि से बनाये गए थे ! जहां एक एक प्लाट पर ६ से ८ छोट छोटे फ्लेट बने थे वहीं उतनी ही जमीन पर हमारा वह दुमंजिला घर बना था ! हमारे घर का front elevation भी उस नगर में उन दिनों बन रहे अन्य मकानों से बहुत भिन्न और बड़ा ही आकर्षक था ! सुनते हैं आस पास के नगरों से शौक़ीन लोग हमारे घर का नक्शा देखने को आया करते थे फिर भी इस विचार से कि वह बड़ी कार अवश्य ही दिल्ली या लखनऊ की किसी बड़ी कोठी से आई होगी मेरा मन एक भयंकर inferiority  complex से जूझ रहा था !


अब मेरी तत्कालीन दयनीयता का आंकलन कीजिए :  मैं असहाय सा कभी अपने उस घर की और देख रहा था और कभी उन देवी जी की शानदार कार और तिरछी गांधी टोपी लगाये गढ़वाली शोफर को ! हाँ , ड्राइंग रूम में ,थोड़ी थोड़ी देर में ,बाबूजी की पैनी निगाहों से बचता हुआ मैं कनखी से "उनकी' भली भांति सजी संवरी - 'मेड अप' रूप सज्जा को चन्द्र चकोर सा निहार लेता था ! मेरा बीस वर्षीय तरुण मन उन देवी जी की वाणी - बीन की मधुर धुन सुनकर सपोले के समान मदमस्त हो कर झूम रहा था ! मैं इस कदर बेसुध हो गया था कि मुझे उन देवीजी के वे  बेतुके सवाल भी  उस समय  उतने बुरे नहीं लग रहे थे ! प्रियजन, यह मेरी तब की कच्ची उम्र की मजबूरी थी जिसने मुझे विवश कर रखा था!

बचपन से ही मुझे केवल एक शौक था - कार चलाने का ! सारे घर में  घू घू करता हुआ हाथों से हवा में स्टेअरिंग घुमाने का नाटक करते हुए काल्पनिक कार चलाता हुआ  मैं दिन भर हुडदंग मचाता रहता था ! शनी देव की कृपा से जब बाबूजी का कारखाना घर से कुछ दूर अगले नगर में स्थापित हुआ तब आने जाने के लिए अश्व द्वारा संचालित रथों का प्रयोग बाबूजी के लिए अनिवार्य हो गया ! जब किराये की सवारियों से दुखी हुए तो एक सुंदर सा अन्य पशुओं से बिलकुल  फरक - "ग्रे" ( काले और सफेद के मिश्रण के रंग का ) तगड़ा अरबी घोड़ा और उसके साथ एक तांगा भी खरीदा गया ! छोटा था पर मुझे उस घोड़े से कुछ दिनों में ही बहुत प्यार हो गया ! लेकिन कुछ ही दिनों में जब हम सब बलिया गये थे हमारे अफीमची साईस ने वो घोड़ा कहीं अंतर्ध्यान करा दिया और यह ऐलान कर दिया की घोड़ा अचानक इस संसार से कूच कर गया ! हमे उसकी बात पर विश्वास  नहीं  हुआ लेकिन बाबूजी ने उस, तीन पुश्त से गाँव में हमारे वंशजों की सेवा करने वाले साईस को माफ़ कर दिया ! धर्म का एक सूत्र जो बाबूजी अपनी प्रार्थना में नित्य बार बार दुहराते थे , वह था :

दया धर्म का मूल है , नरक मूल अभिमान
तुलसी दया न छाडिये जब लगि घट में प्राण 
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प्रियजन आत्म कथा है ये, जैसे जैसे जो कुछ प्यारे प्रभु की प्रेरणा से याद आ रहा है लिख रहा हूँ ! मुझे कोई कोशिश नहीं करनी पडती है !"वह" जो लिखवाते है लिख देता हूँ ! यदि आपको कुछ अनुप्युक्त लगे तो न पढिये ! ये भी मैं नहीं कह रहा हूँ ,वह ही लिखवा रहे हैं! 

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क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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शनिवार, 14 मई 2011

"संकट" से मुलाकात और रक्षा # 3 6 4

संकट से हनुमान छुडावे 
(आत्म कथा)  


(गतांक से आगे) 

फ्रेश होकर, कपड़े बदल कर, मैं भाभी की ड्रेसिंग टेबल के शीशे के आगे खड़ा हुआ और अपने घने घुंघराले बालों को ,उस जमाने के सिने जगत के प्रसिद्ध हीरो भारत भूषण की तरह संवारने लगा !  ( भैया जी , मेरे आज के इस गंजे सर को देख कर हंसिये नहीं ! ६० - ७० वर्ष बाद , खुदा-न-खास्ता, आपकी भी ऎसी गति हो सकती है ! बददुआ नहीं दे रहा हूँ , दुआ कर रहा हूँ की आपके बाल, सालो साल ऐसे ही काले घने घुंघुराले बने रहें ) ! 

इस बीच  भाभी मुझे उस शाम की पूरी कहानी संक्षेप में सुना रहीं थीं ! "मोहल्ले के बच्चों ने आकर बताया की "मेंन रोड पर एक बड़ी गाड़ी का ड्राइवर सब लोगों से 'भोला भैया' के पिताजी का घर पूछ रहा है ! बुद्धू को बाबाजी का नाम भी नहीं मालूम है ! आस पास के सभी 'भोला' नामक लोगों के दरवाजे खटखटा चुका है ! भोला शुक्ला और भोला पासी, के घर भी हो आया है ! हमे लगता है अपने भोला भैया को ही खोज रहा है ! पांच सात  मिनट में यहाँ पहुचने ही वाला है !" आप सोच रहे होंगे कि हम कैसे पिछड़े मोहल्ले के लोग हैं जो एक बड़ी कार देख कर बेज़ार हो गये ! ऐसा कुछ नहीं है भैया ! ये कहानी तब की है जब भारत में बड़ी कारें केवल बड़े बड़े मिल मालिकों के पास और रजवाड़ों में ही होती थीं ! हाँ, आजादी के बाद कुछ शौकीन नेता लोगों के पास भी ऎसी गाड़ियाँ आ गयीं थीं !

आगे भाभी ने बताया,- " फिर थोड़ी देर में वो गाड़ी घर के सामने रुकी , घर की काल बेल 
बजी और वह "बला" घर में दाखिल हो गयी ! ज़ोरदार नाटक हुआ ! मुझे देखते ही मुझसे लिपट गयी जैसे चिर परिचित हो !  दौड़ कर अम्माजी के चरण छुए , बाबूजी को प्रणाम किया ,और तब से बाबूजी का इंटरव्यू ले रही है जैसे किसी अखबार की कोरेसपोंनडेंट हो !
तैयार हो गये हो तो जाओ , बाबूजी की जान बचाओ और खुद झेलो उसे ! तब तक मैं नाश्ता ले कर आती हूँ "  मैं सहमा हुआ ड्राइंग रूम में घुसा ! 

हम सब बच्चे बाबूजी से बहुत फ्री थे ! हमारे बीच खूब हंसी मजाक चलता था !  दोस्ताना कटाक्ष करते हुए बाबूजी बोले  " आइये आपका  ही इंतजार हो रहा था ! देखिये कौन आया है ? दूर दूर क्यों ,यहाँ सामने बैठिये ,शर्माइये नहीं" ! प्रियजन ! सच मानिये मुझे उनका नाम भी नही याद आ रहा था ! जीजी की ससुराल में एक झलक भर देखी थी जब उन्होंने मुझसे अकेले में मौका पा कर ,कहा था कि वह मेरे घर में मुझसे मिलेंगी !

वह कुछ देर चुप रहीं , फिर उन्होंने सीधी गोली दाग दी " बाबूजी कह रहे थे आप चारो भाई बहेन गाने बजाने के बड़े शौक़ीन हैं और आपके बड़े भैया सिनेमा के हीरो बनना चाहते थे ! कहीं आपका इरादा भी आगे चल कर सिनेमा में जाने का तो नहीं है ?" ! 

मैं उनके इस direct hit  के लिए तैयार नहीं था ! मुझे उनके इतने  विचित्र बिहेविअर के कारण बड़ा आश्चर्य हो रहा था ! भारतीय सांस्कृतिक परिपेक्ष में उनका इस प्रकार बिना किसी पूर्व सूचना के अपनी शादी तय करने के लिए स्वयम ही मेरे घर पहुंच जाना और सीधे मेरे पिता और  मुझसे भी इस प्रकार टेढ़े मेढ़े सवाल करना केवल मुझे ही नहीं मेरे पूरे परिवार को बड़ा अटपटा और अस्वाभाविक लगा ! लेकिन-

वह  देखने सुनने में ठीक ठाक थीं , पढ़ी लिखी थीं और सत्ता पक्ष के एक प्रभावशाली नेता की पुत्री तथा स्वतन्त्रता के बाद सहसा धनाढ्य हुए बड़े भाई की छोटी बहेन थीं और इतनी बड़ी चमचमाती लेटेस्ट मॉडल शेवि सुपर डिलुक्स शोफर ड्रिवेन कार पर बैठ कर हमारे घर आयीं थीं ! किसी साधारण मानव के लिए इतने tempting advantages को यूँही  ignore कर पाना असंभव है , और तब मैं बड़े बड़े सपने देखने वाला ,एक नासमझ नवयुवक था ! 

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क्रमशः 
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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शुक्रवार, 13 मई 2011

हनुमत कृपा से जान बची # 3 6 3

संकट से हनुमान छुडावे 


अम्मा ने शैशव काल  में ही मेरी यह दृढ धारणा  बना दी थी कि सब जीवाधारिओं पर उनके परम पिता  "प्यारे प्रभु" की असीम अनुकम्पा  जन्म से ही रहती है ! माँ के आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त इस अटूट प्रभु कृपा के कवच, और अपने पूर्व जन्म के संस्कार तथा प्रारब्ध के अवशेषों के फलस्वरूप मेरे मन में बालपन से ही यह भाव घर कर गया था कि मेरे जीवन में मेरे साथ जो कुछ भी हुआ है, हो रहा है और भविष्य में,जो कुछ भी होगा ,कडुआ या मीठा, वह सब प्रभु की इच्छा से ही होगा ; उनकी अनन्य कृपा से ही होगा और उसमे ही मेरा कल्याण निहित होगा !

अस्तु जीवन में मैंने किसी भी परिस्थिति का तिरस्कार नहीं किया ! प्रभु ने जो भी अवसर मुझे दिए ,उन्हें मैंने उनका वरदान माना,उनका सदुपयोग किया ! प्रभु की इच्छा से जो भी कार्य करने को मिले , उन्हें पूरी लगन और  ईमानदारी से "राम काज" समझ कर किया  ! मैंने अपने सभी  कर्मों का करने वाला कर्ता या "यंत्री "अपने इष्ट को ही माना और स्वयं को अपने "इष्ट देव" के हाथों द्वारा  संचालित औज़ार ! मुझे अपने इष्टद्व से प्राप्त प्रेरणाओं पर पूरा भरोसा था ,इसलिये में  सदैव आज्ञाकारी सेवक बन कर उनके द्वारा दिए निदेशों को पालन करने का  भरसक प्रयत्न  करता रहा !

प्लीज़ क्षमा करना , आदत से मजबूर मैंने एकबार फिर अपनी आध्यात्मिक ज्ञान पिटारी  की नुमायश शुरू कर दी ! This instinct of SHOWING OFF , as you know, is a natural HUMAN weakness - and I am proving  to be its worst victim -- Any way let us restart the story . इस बीच, मैं भूल गया कि मेरी अपनी कहानी कहाँ तक पहुंची थी ! चलिए टूटे ताने-बानें जोड़ लिए जाएँ और कहानी आगे बढायी जाये ! 

मैं  अपने जमाने - (१९४७-५१) के विद्यार्थी जीवन की चर्चा कर रहा था ! भारत कुछ महीने पूर्व  ही स्वतंत्र हुआ था ! योरप ,दक्षिणी अमेरिका तथा अफ्रिका के विभिन्न  देशों  में रहने वाले समृद्ध प्रवासी भारतीय मूल के निवासियों के बच्चे ,उस वर्ष, ऊंची पढाई के लिए इंग्लेंड जाने के बजाय भारत के विश्वविद्यालयों में आये ! BHU  में भी उस वर्ष प्रवासी भारतीयों की संख्या, और वर्षों से कहीं अधिक थी ! वहां एक अच्छा खासा मिश्रण था विभिन्न देशी और विदेशी विद्यार्थियों का , उनकी भाषाओँ का, रंगारंग संस्कृति-वेशभूषा  का और उनके  मिश्रित  oriental और पाश्चात्य जीवन शैली का ! यू पी के एक ओउद्योगिक  नगर से आये मध्यम वर्ग के मेरे जैसे - तब तक "केवल लडकों के स्कूल" में ही पढ़े बालक के लिए BHU का वो माहौल बड़ा ही आकर्षक था ! पर प्रियजन ,मैं बिगड़ा नहीं ! संस्कारों की इतनी मोटी तह जमी थी मेरे ऊपर कि वह ,वहां के मेरे प्रवास में तनिक भी नहीं धुली ! चदरिया ज्यों की त्यों रह गयी !

बेचलर डिग्री की परीक्षा दे कर गरमी की छुट्टियों का मज़ा लूट रहा था ! सारे पर्चे अच्छे हुए थे !डिग्री मिली ही समझता था ! जीजी की ससुराल में बड़े शान से अपना बेचेलर्हुड कैश कर रहा था ! और हाँ अनेकों सौभाग्यकंक्षिनी स्वजातीय ललनाओं में से एकाध मुझे समझ में भी आ गयीं थीं !  और मुझे ऐसा लग रहा था कि लगभग सभी आज्ञाकारिणी मातृभक्त बालाओं ने अपने काल्पनिक स्वयम्वरों में मुझे अपना बना लिया था ! एक ultra modern - convent educated बाला ने तो मौका पाकर एकांत में मुझसे यहाँ तक कहा कि वो शीघ्र ही मेरे घर में मुझसे मिलेंगी ! 

हर प्रसंग का अंत तो होता ही है ! वही हुआ जो चिर सुनिश्चित है -"मिलन के बाद जुदाई"

दो दिन का था वह मेला आई चलने की बेला,
उठ गयी हाट औ सब ने पकड़ी अपनी अपनी बाट !

और फिर 

तिलक चढा कर , जान बचा कर भोला बाबू आये
और  एक  दिन दरवाजे  पर  "कार"  देख चकराए

भारत में तब  'कार" नहीं देवालय ही बनते थे 
जिन पर चढ़ कर ,यात्रीगण बस ,राम राम जपते थे

शेवी सुपर डिलुक्स कार में वो नेता चलते थे
आजादी के पहिले जो दो पहियों पर चढ़ते थे 

"भोला" 

मैं हारा थका , साईकिल से कहीं दूर से घर पहुंचा था ! घर के बाहर एक बड़ी वाली शेवरले की सुपर डीलक्स  दुरंगी कार खड़ी दिखाई दी ! माथा ठनका ! पीछे की सीढी से चुपके चुपके साइकिल कंधे पर लादे ,पसीने में लतफत किसी तरह ऊपर पहुचा ! सारे घर में अफरा तफरी मची हुई थी ! 

पहुंचते ही भाभी ने घेर लिया ! "मैं जानती हूँ , अब इस उम्र में तुम्हारे भैया के लिए कौन आएगा ? ये तुम्हारी ही कोई चीज़ है"! मैंने पूछा "कौन भाभी ?' "जाओ खुद ही देख लो , चार बजे शाम से ही नाटक चालू है !अभी ड्राइंग रूम में बेचारे बाबूजी का interview चल रहा है, इसके बाद शायद तुम्हारा ही नम्बर होगा ! जल्दी से मुंह हाथ धो कर सज धज कर उनसे मिललो , बेचारे बाबूजी की जान बचाओ ! " 

मैं भाँप  गया , आगंतुका बालिका अवश्य ही मेरी जीजी के ससुराल वाली किसी बुआ , चाची या मौसी की होनहार बिटिया होंगी !       


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क्रमशः 
आप जानते ही हैं ,ब्लोगर महाशय कुछ गडबड कर रहे हैं ! 

निवेदक: व्ही. एन.  श्रीवास्तव "भोला"
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मंगलवार, 10 मई 2011

एक आसरा तेरा हनुमत # 3 6 2

उपकारन  को कछु अंत नहीं छिन ही छिन जो विस्तारे हो 
तुम सों प्रभु पाय प्रताप हरी कहि के अब और सहारे हो ?

हमारे प्यारे प्रभु ने अब तक़ हम पर जो जो उपकार किये हैं और जो वह अभी भी करते ही जा रहे हैं उसका हिसाब रख पाना या ,उसकी गणना कर पाना किसी के वश में नहीं है ! पाठकगण मेरे लिए भी ये बता पाना की मेरे इष्ट ने मुझ पर  कब , कैसे , क्या क्या और कितने उपकार किये , असंभव है !  बात ऎसी है कि ,मुझे नवम्बर २००८ में जीवन दान मिलने के बाद से मुझे यह लगने लगा है की मेरी प्रत्येक सांस, मेरे ह्रदय की एक एक धडकन मुझे मेरे प्यारे प्रभु की कृपा के फलस्वरूप मिली जान पडती है ! यदि "उनकी" कृपा न होती तो आज मैं यह सन्देश आप तक कैसे भेजता ?  अब आप ही कहें कि मैं कैसे और कहाँ तक़  "उनके" उपकारों क़ी गिनती करूं ? अस्तु निश्चित कर लिया है कि नहीं करूंगा उनके सुफलदायी कृपाओं की चर्चा करने की निरर्थक चेष्टा ! हाँ ---

ऐसे में प्रेरणा मिल रही है कि अभी मैं अपने विद्यार्थी जीवन क़ी कुछ वैसी घटनाएँ   आपको बताऊँ ,जिनमे संसार को ऐसा लगा जैसे हनुमान जी ने मेरे प्रति बड़ा अन्याय किया पर वास्तव में अन्त में मुझे उन घटनाओं के कारण अप्रत्याशित लाभ हुए !  

I I T , I I M , Medical College आदि में भर्ती हो जाने के बाद विद्यार्थियों क़ी , मन्दिरों में अपने इष्ट देवों से सबसे बड़ी मांग क्या होती है ? -अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने क़ी और प्रेसिडेंट या निदेशक का गोल्ड मेडल पाने  क़ी, पास हो जाने पर मल्टी नेशनल कम्पनी में जॉब पाने क़ी और उसके बाद एक सुंदर सुशील कमाऊ टिकाऊ जीवन साथी प्राप्त करने क़ी ! मेरे जमाने -(१९४७-५०), में भी आम  विद्यार्थियों क़ी कुछ ऎसी ही मांगें होतीं थीं और  मेरे अंतर्मन में भी पढायी के दिनों में  इन्ही उपलब्धियों क़ी प्राप्ति क़ी चाह रहती होगी पर शायद अपने संस्कारवश मैं अपनी प्रार्थना में  इष्टदेव से उनकी मांग करने के बजाय बस इतना ही कह पाता था कि "मेरे प्रभु ! मुझे केवल वह दो जो मेरे लिए हितकर हो ! मेरे साथ वही हो जो "तुम्हे" अच्छा लगे " ! न जाने कैसे बचपन से ही यह प्रार्थना मुझे भली लगती थी और अक्सर देव मंदिरों में मेरे मुंह से यही प्रार्थना निकलती थी !

बेचेलर डिग्री की परीक्षा के दिनों में ,सबके साथ ,मैं भी प्रति सप्ताह मंगलवार को हनुमान   जी के संकटमोचन मन्दिर जाने लगा ! वहां मैं पूरे जोर शोर से हनुमान चालीसा का पाठ  करता था और उसके बाद मन ही मन कभी कभी बिलकुल अकेले ही मानस के अंतिम तीन छंद अवश्य गुनगुना लेता था जिसकी प्रथम पंक्ति है :

पाई न केही गति पतित पावन राम भज सुनु शठ मना

ज्यों ज्यों परीक्षा निकट आयी हनुमत भक्ति का वेग दिनों दिन बढ़ता गया ! विद्यार्थी भाइयों नें अब सप्ताह में दो दो बार (शनिवार को भी) मन्दिर जाना शरू कर दिया ! वहां हनुमान मन्दिर में चालीसा का पाठ अधिक जोर से होने लगा ! "हम आज कहीं दिल खो बैठे" जैसे फिल्मी गीत गाने वाले मेरे जैसे बालको ने अब बाथरूम में भी फिल्मी गीत गाने बंद कर दिए ! वे अब शोवर में ,ठंढे पानी से नहाते समय , पूरा जोर लगाकर , तार सप्तक पर श्री हनुमान अष्टक का सस्वर पाठ करते थे -

को नही जानत है जग में कपि संकट मोचन नाम तिहारो 

इस बीच परीक्षा हो गयी ! यूनिवर्सिटी गर्मी की छुट्टियों के लिए बंद हो गयी और हम सब परिवार के साथ ,मौज मस्ती में ड़ूब गये ! एक जीजी की शादी तय हुई ! उनका तिलक लेकर उनकी ससुराल गया ! वहां तो जैसे डुगडुगी पीट कर ऐलान कर दिया गया कि भैया  का साला, दुल्हिन का बी.एच .यू  वाला हेंडसम भाई आया है ! फिर क्या पूछना था  खूब ज़ोरदार खातिर हुई !क्यों न होती ? कायस्थों के परिवार में सुंदर सुशील कुंवारी लडकियाँ की कमी नहीं होती ! वहां मौजूद सभी समझदार माताएं अपनी अपनी बेटियों से मेरा सम्बन्ध जोड़ने के प्रयास में लग गयीं !

पाठकगण आप को साफ़ साफ़ बता दूँ कि अभी जो मेरी धर्मपत्नी हैं श्रीमती डाक्टर कृष्णा जी M.A.,Ph.D.  इत्तेफाक से वह उस जमघट में नहीं थीं और न उनकी माता जी ही वहां थीं ! कृष्णा जी तो मेरे जीवन में , तब से ६-७ वर्ष बाद मेरी प्यारी अम्मा की सघन खोज के बाद १९५६ में मिलीं ! "शनिदेव" के प्रभाव से ,मेरे विवाह में , मेरे भले के लिए ही शायद एक प्रकार की  साढ़े साती लगी हुई थी  !

आप तो जानते ही हैं कि मेरे संदेशों की इस श्रंखला के चीफ एडिटर महोदय,मेरे प्यारे प्रभु ने , मेरी श्रीमती जी को धरती पर अपना सहायक सम्पादक नियुक्त कर के मेरे ऊपर अंकुश लटका रखा है ,अब तो देखना यह है कि मेडम इसपर कितना कैंची चलाती हैं ! मेरा सर तो सिजदे में झुका हुआ खैरिअत की दुआ मांग रहा है ! आप भी दुआ मांगिये प्लीज़ --

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क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन.श्रीवास्तव "भोला"   
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सोमवार, 9 मई 2011

एक आसरा तेरा हनुमत # 3 6 1

एक आसरा तेरा  हनुमत एक आसरा तेरा 
कोई और न मेरा तुझ बिन कोई और न मेरा 
एक आसरा तेरा 

महापुरुषों का कथन है कि, " जिसका भी आश्रय लिया हो ,उस पर अडिग भरोसा होना चाहिए ! "उनकी" क्षत्र छाया में, मेरा (आश्रित का) कभी कोई अकल्याण हो ही नहीं सकता ,ऐसा दृढ़ विश्वास होना चाहिए !" लेकिन आम तौर पर ऐसा नहीं हो पाता ! जब मन मांगी मुराद पूरी नहीं होती तो भरोसा डगमगा जाता है !

आपने देखा होगा कि कैसे सिनेमा घरों और टेलेविजन के अधिकांश फेमिली सोप नाटकों में , बेचारे परमपिता परमेश्वर को अथवा त्रिशूल धारिणी सिंहवाहिनी जगजननी माँ दुर्गा को, सरेआम ,मन्दिरों के खचाखच भरे प्रांगणों में कभी कभी कैसी कैसी खरी खोटी बातें सुननी पडती है ! उन्हें कहीं निराश प्रेमियों की , कहीं मोडर्न बहुओं के द्वारा सताई विधवा सासों की , अथवा कर्कशा सासों द्वारा उत्पीडित बहुओं के करुण रुदन के साथ साथ पूरी ताकत से मन्दिर के जहाँगीरी घंटे को जोर जोर से बजाते परीक्षा में फेल हुए विद्यार्थियों  के विषादाग्नि  में तपे वाग वाण सहन करने पड़ते  है ! ज़रा सोच कर देखिये क्या क्या कहते हैं लोग उनसे ? कैसे कैसे उलाहने देते हैं उनको ? वह बेचारे चुपचाप सुनते रहते हैं ! पत्थर के जो हैं , कर ही क्या सकते हैं ?

अब मेरी सुनिए ,१७-१८ वर्ष की अवस्था तक घर में रहा ! अपने संचित प्रारब्ध एवं माता पिता के संस्कारों तथा उनके पूजा पाठ और पुन्यायी के सहारे ,मेरी गाड़ी सब के साथ साथ भली भांति चलती रही ! और जब मेरा घर छूटा , मैं बनारस आया तो अपनी specific ज़रूरतों के लिए अब मुझे स्वयम ही अपनी अर्जी लगाने की जरूरत पड़ी ! इस उद्देश्य से विश्वविद्यालय के कुछ अन्य आस्तिक सहपाठियों के साथ मैंने किसी किसी मंगलवार को ,निकट के नगवा गाँव में स्थित श्री हनुमान जी के संकटमोचन मन्दिर में जाना प्रारम्भ कर दिया !

मेरी प्रार्थनाओं के उत्तर में श्री हनुमानजी ने ,मुझे बी.एच .यू के प्रवास के दौरान ,मेरी तब की १७-१८ वर्ष की अपरिपक्व बुद्धि के अनुसार कडवे ( ? ) और मीठे दोनों प्रकार के प्रसाद दिए ! आज ८२ वर्ष कि अवस्था में इसका उल्लेख इसलिए कर रहा हूँ कि आपको उदाहरण देकर बता सकूं कि हनुमान जी का जो प्रसाद मुझे तब कडुवा लगा था वही कुछ समय के बाद मेरे लिए अत्यधिक मीठा बन गया और मैं आजीवन उसकी मधुरता चखता रहा ! जो तत्काल कडुआ लगा था वह वास्तव में अस्थायी रूप से कडुआ था और शीघ्र ही स्थाई रूप से  मीठा हो गया !

तात्पर्य यह है कि थोड़ी सी निराशा के कारण हतोत्साहित होकर हम अक्सर अपने आगे के प्रयास ढीले कर देते हैं और भविष्य में उसके कारण अधिकाधिक कष्ट झेलते हैं ! और हाँ, अन्त तक जब कोई दूसरा नहीं मिलता तो हम उस बेचारे "ऊपर वाले" को अपनी हार  का ज़िम्मेदार ठहरा कर मन्दिरों में घंटे बजा कर वैसा ही नाटक खेलते हैं जिसका चित्रण मैंने ऊपर किया है ! 

प्रियजन मैं अपने ८ दशकों के अनुभव के आधार पर आपको विश्वास दिलाता हूँ कि  इष्ट देव द्वारा, आपको दिया हुआ , आपकी कड़ी मेहनत का प्रसाद कभी कडुआ हो ही नहीं सकता ! जरा धीरज रख कर थोड़ी प्रतीक्षा करने पर वह फल जो आज खट्टा लग रहा है , कल तक ,पक कर मीठा हो जायेगा ! 

जो मिले फल ,प्यार से तू ,कर उसे स्वीकार
आज जो कच्चा है , वो कल हो जायेगा तैयार 
("भोला")


कल से सुनाऊंगा उस जमाने के ही ऐसे अनुभव जिनमे पहले तो खट्टे फल मिले पर
कुछ  समय बाद वो फल ही अति मधुर हो गये !
क्रमशः  

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निवेदक: व्ही. एन . श्रीवास्तव "भोला"
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शुक्रवार, 6 मई 2011

श्री राम दूतं शरणं प्रपद्दे # 3 6 0

आश्रय
श्री राम दूतं शरणं प्रपद्ये      

    
शैशव में ही अम्मा ने मुझे श्री हनुमान जी के सुपुर्द कर दिया और तब से आज तक वह ही मेरे "परम आश्रय" हैं ! मेरे जीवन के इन ८२ वर्षों में "मारुती नंदन" ने मेरी ,कब किस क्षेत्र में कितनी और कैसी कैसी मदद की उसका लेखा जोखा देना मेरी साधारण मानव बुद्धि के लिए तो असंभव है ही और मुझे तो ऐसा लगता है जैसे ,मेरे "वह",जी हाँ उन "ऊपरवाले" का सुपर कम्प्यूटर भी शायद  क्रैश कर गया है !आप पूछोगे , कैसे जाना ? 

बताऊं आपको , पिछले तीन दिनों से जहाँ , इधर धरती पर , मेरी खर बुद्धि से कुछ निकल नहीं रहा है , वहीं ऐसा लगता है जैसे ऊपर ब्रह्मलोक के क्षीर सागर में विश्रामरत मेरे प्रेरणा स्रोत , पथप्रदर्शक के 'जी पी एस' का सम्बन्ध भी उनके सेटेलाइट से टूट गया है ! उन्होंने भी पिछले ७२ घंटे से मेरे पास कोई प्रेरणा प्रेषित करने की पेशकश नहीं की !

क्यों चिंता कर रहा हूँ मैं ? जब पतवार हनुमान जी को सौंपी हुई है और उन्हें अपना परम आश्रय मान ही लिया है तब क्यों न सबसे पहले उनका ही सुमिरन करके , उन्हें मनालूं ! 
मुझे विश्वास है कि श्री हनुमान जी का स्मरण करते ही साधक को बल बुद्धि,यश कीर्ति  , निर्भयता, सुदृढ़ता , आरोग्य और वाक्पटुता की प्राप्ति होती है ! मेरे मस्तिष्क में भी श्री हनुमान जी की कृपा से अपने लेख के लिए भाव आ जायेंगे और मैं अपने प्यारेप्रभु का २६ नवम्बर '०८ का आदेश अक्षरशः पालन कर पाउँगा !

जाके गति है हनुमान की 
सुमिरत संकट-सोच-विमोचन मूरति मोद- निधान की
अघटित-घटन,सुघट-विघटन,ऎसी विरुदावली नहि आन की  

तुलसीदास जी  का कथन है कि जिसको एकमात्र हनुमानजी का ही भरोसा है उसकी सारी आशाएं ,आकांक्षाएं और प्रतिज्ञाएँ अविलम्ब पूरी हो जाती हैं ! हनुमानजी की आनंदमयी मूर्ती का स्मरण करते ही सारे संकट कट जाते हैं और सब चिंताएं दूर हो जाती हैं !  हनुमान जी की कृपा दृष्टि सब कल्याणों की खान है और वह जिस पर होती है उसपर सब  देवी देवताओं की कृपा निरंतर होती रहती है ! यह सिद्धांत वज्र के समान अटूट है !

बाल्मीकि रामायण के श्री राम ने हनुमान जी के विषय में कहा था कि  रावण और बाली के सम्मलित बल का मुकाबला हनुमान जी अकेले ही कर सकते हैं !  पराक्रम,उत्साह, बुद्धि, प्रताप,सुशीलता, मधुरता, गंभीरता, चातुर्य, धैर्य तथा नीति -अनीति का विवेक श्री हनुमान जी से बढ़ कर किसी और में नहीं है !

क्यों न हो ऐसा जब उनके रोम रोम पर साक्षात् श्री राम बिराजे हैं ,उनके अंग प्रत्यंग में , उनके साज सिंगार ,वस्त्राभूषण में सर्वत्र राम ही राम , बस राम ही राम हैं --एक हनुमान जी के दर्शन के साथ साथ कोटि कोटि श्री राम का दर्शन होता है ! चलिए एक पारंपरिक रचना में हम सब श्री हनुमान जी के श्री विग्रह का दर्शन करें -

राम माथ ,मुकुट राम ,राम हिय, नयन राम
राम कान, नासा राम, ठोड़ी राम नाम है  
राम कंठ ,कंध राम, राम भुजा बाजूबंद  
राम हृदय अलंकार , हार राम नाम है
राम उदर नाभि राम, राम कटी कटी सूत
राम बसन जन्घ राम पैर राम नाम है  
राम मन बचन राम राम गदा कटक राम 
मारुती के रोम रोम व्यापक राम नाम है             

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माननीय चीफ जस्टिस श्री शिवदयाल जी के एक प्रवचन से प्रेरित  
निवेदक:  व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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बुधवार, 4 मई 2011

हनुमान तेरा आसरा # 3 5 9

हनुमान तेरा आसरा 

(गतांक से आगे) 

महापुरुष कहते हैं  कि ,सच्चे साधक का एक ध्येय, एक इष्ट और एक गुरु होना चाहिए !आसरा - आश्रय, भी मात्र एक का ही लेना उचित है ! सागर पार करने को केवल एक सुदृढ़ नौका चाहिए ,अनेकों नौकाये हो कर भी काम नही आयेंगी ! मानते हैं , लेकिन क्या करें/ जब तक हमारी  अपनी सद्वृत्तियों के अनुरूप हमे हमारी मंजिल तक ले जाने वाला या हमारा पथ प्रशस्त करने वाला सद्गुरु नहीं मिलता ,तब तक  हम डगमगाते रहते हैं ! जब हमारा भाग्योदय होता है ,तब हमे सदगुरु मिलते हैं जो हमारी स्थिति के अनुरूप , हमे हमारे इष्ट का परिचय देते हैं, अथवा अपने किसी सुयोग्य सहयोगी  के पास उनकी कृपा मागने के लिए भेज देते हैं  ! मेरे  साथ ऐसा  ही हुआ !

शैशव में जननी माँ बनी हमारी पहली इष्ट ,पहली गुरु, पहली मार्ग दर्शक ! बाल्यावस्था में  ही, मुझे अपने पैरों  पर खड़ा कर के उन्होंने आंगन के महाबीरी ध्वजा वाले हनुमान जी को सौंप दिया ! गुरु मन्त्र दिया कि " कभी भी , कहीं भी ,अँधेरे में डर लगे , रास्ते में कुत्ता पीछा करे, भूत प्रेत का भय सताए तो  हनूमानजी को याद कर लेना , उनसे केवल इतना ही कहना की हे  " हनुमान जी -

को नही जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो ?: 
काज कियो बड देवन के तुम बीर महाप्रभु देहि बिचारो 
कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसों नहीं जात है टारो 
बेगि हरो हनुमान महाप्रभु जो कछु  संकट होइ हमारो 

फिर तुम्हारा डर पल भर में फुर्र से उड़ जायेगा ! "

अम्मा से मिला यह गुरु मन्त्र बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ ! जब कभी भय ने सताया ,हमने "उनको" याद  किया और बात बन गयी ! इसके बाद अम्मा की बात गाँठ बांधे मैं एक के बाद एक मंजिल पार करता गया ! आत्म कथा के पिछले अंकों में बता चुका हूँ की कैसे "पनकी" वाले हनुमान जी की कृपा से मुझे खानदानी मुंशीगीरी का पेशा छोड़ कर कोई टेक्नीकल काम सीखने की प्रेरणा मिली ! यही नहीं मेरी अभिलाषा पूरी करने के लिए श्री  हनुमानजी की ने  मुझे भारत की उस जमाने की सर्वश्रेष्ठ युनिवर्सिटी B H U  के कोलेज ऑफ़ टेक्नोलोजी में out of turn - most unexpectedly बिना किसी सोर्स या शिफारिश के एडमिशन भी दिला दिया ! अपना तो एक ही सोर्स था , और अपने को भरोसा भी एक हनुमंत का ही था अन्य किसी का नहीं !  

वाराणसी में पढाई के दौरान पूरे समय अम्मा द्वारा नियुक्त हमारे इष्ट श्री हनुमान जी  हमारे अंग संग रहे ! उन्होंने एक से एक भयंकर दावानल में ,मुझ पर कोई आंच न आने दी ! इन घटनाओं में मेरे साथ मेरे अनेकानेक अतिप्रिय घनिष्ठ  मित्रगण ,सगे सम्बन्धी मेरे ही जैसे १७-१८ वर्ष के अन्य प्रदेशों और सुदूर साउथ अफ्रिका आदि विदेशों से आये अनेकों सहपाठी , युवक-युवतियां तथा गुरुजन सभी शामिल हैं ! जिनका अभी यहाँ उल्लेख करना मुझे उचित नहीं लग रहा है ! विद्याध्ययन  के दिनों में वाराणसी में मेरे साथ अनेकों ऎसी अनूठी घटनाएँ घटीं जिन पर विश्वास करना स्वयम मेरे लिए कठिन होता यदि मैं खुद ही उसका गवाह न होता !

प्रत्येक अवसर पर श्री हनुमान जी ने अपना वरद हस्त मेरे मस्तक पर रख कर मुझे  विजय श्री दिलवायी ! हमारा हनुमंत- भरोसा दिन प्रति दिन दृढ़ ही होता गया !

(ये सारी घटनाएँ अति रोचक हैं !  १९४०-५० के भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे युवक युवतियों के रहन सहन चाल ढाल पर प्रकाश डालतीं हैं लेकिन इन कथानकों में मेरे भागीदार अधिकांश साथी अब तक यह संसार छोड़ चुके हैं, और फिर किसी की सम्मति के बिना उसके विषय में कुछ भी कहना मेरे प्यारे पाठकों , मुझे प्रभु से मिल रहे अभी के संकेतों के मद्देनजर अनुचित लग रहा है ! इसलिये अभी उनके विषय में  कुछ नहीं बोलूँगा लेकिन जैसे जैसे "ऊपर वाले" से आदेश मिलेगा, आत्म कथा में उनका समावेश करूंगा)

क्रमशः
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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