उपकारन को कछु अंत नहीं छिन ही छिन जो विस्तारे हो
तुम सों प्रभु पाय प्रताप हरी कहि के अब और सहारे हो ?
हमारे प्यारे प्रभु ने अब तक़ हम पर जो जो उपकार किये हैं और जो वह अभी भी करते ही जा रहे हैं उसका हिसाब रख पाना या ,उसकी गणना कर पाना किसी के वश में नहीं है ! पाठकगण मेरे लिए भी ये बता पाना की मेरे इष्ट ने मुझ पर कब , कैसे , क्या क्या और कितने उपकार किये , असंभव है ! बात ऎसी है कि ,मुझे नवम्बर २००८ में जीवन दान मिलने के बाद से मुझे यह लगने लगा है की मेरी प्रत्येक सांस, मेरे ह्रदय की एक एक धडकन मुझे मेरे प्यारे प्रभु की कृपा के फलस्वरूप मिली जान पडती है ! यदि "उनकी" कृपा न होती तो आज मैं यह सन्देश आप तक कैसे भेजता ? अब आप ही कहें कि मैं कैसे और कहाँ तक़ "उनके" उपकारों क़ी गिनती करूं ? अस्तु निश्चित कर लिया है कि नहीं करूंगा उनके सुफलदायी कृपाओं की चर्चा करने की निरर्थक चेष्टा ! हाँ ---
ऐसे में प्रेरणा मिल रही है कि अभी मैं अपने विद्यार्थी जीवन क़ी कुछ वैसी घटनाएँ आपको बताऊँ ,जिनमे संसार को ऐसा लगा जैसे हनुमान जी ने मेरे प्रति बड़ा अन्याय किया पर वास्तव में अन्त में मुझे उन घटनाओं के कारण अप्रत्याशित लाभ हुए !
I I T , I I M , Medical College आदि में भर्ती हो जाने के बाद विद्यार्थियों क़ी , मन्दिरों में अपने इष्ट देवों से सबसे बड़ी मांग क्या होती है ? -अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने क़ी और प्रेसिडेंट या निदेशक का गोल्ड मेडल पाने क़ी, पास हो जाने पर मल्टी नेशनल कम्पनी में जॉब पाने क़ी और उसके बाद एक सुंदर सुशील कमाऊ टिकाऊ जीवन साथी प्राप्त करने क़ी ! मेरे जमाने -(१९४७-५०), में भी आम विद्यार्थियों क़ी कुछ ऎसी ही मांगें होतीं थीं और मेरे अंतर्मन में भी पढायी के दिनों में इन्ही उपलब्धियों क़ी प्राप्ति क़ी चाह रहती होगी पर शायद अपने संस्कारवश मैं अपनी प्रार्थना में इष्टदेव से उनकी मांग करने के बजाय बस इतना ही कह पाता था कि "मेरे प्रभु ! मुझे केवल वह दो जो मेरे लिए हितकर हो ! मेरे साथ वही हो जो "तुम्हे" अच्छा लगे " ! न जाने कैसे बचपन से ही यह प्रार्थना मुझे भली लगती थी और अक्सर देव मंदिरों में मेरे मुंह से यही प्रार्थना निकलती थी !
बेचेलर डिग्री की परीक्षा के दिनों में ,सबके साथ ,मैं भी प्रति सप्ताह मंगलवार को हनुमान जी के संकटमोचन मन्दिर जाने लगा ! वहां मैं पूरे जोर शोर से हनुमान चालीसा का पाठ करता था और उसके बाद मन ही मन कभी कभी बिलकुल अकेले ही मानस के अंतिम तीन छंद अवश्य गुनगुना लेता था जिसकी प्रथम पंक्ति है :
पाई न केही गति पतित पावन राम भज सुनु शठ मना
ज्यों ज्यों परीक्षा निकट आयी हनुमत भक्ति का वेग दिनों दिन बढ़ता गया ! विद्यार्थी भाइयों नें अब सप्ताह में दो दो बार (शनिवार को भी) मन्दिर जाना शरू कर दिया ! वहां हनुमान मन्दिर में चालीसा का पाठ अधिक जोर से होने लगा ! "हम आज कहीं दिल खो बैठे" जैसे फिल्मी गीत गाने वाले मेरे जैसे बालको ने अब बाथरूम में भी फिल्मी गीत गाने बंद कर दिए ! वे अब शोवर में ,ठंढे पानी से नहाते समय , पूरा जोर लगाकर , तार सप्तक पर श्री हनुमान अष्टक का सस्वर पाठ करते थे -
को नही जानत है जग में कपि संकट मोचन नाम तिहारो
पाठकगण आप को साफ़ साफ़ बता दूँ कि अभी जो मेरी धर्मपत्नी हैं श्रीमती डाक्टर कृष्णा जी M.A.,Ph.D. इत्तेफाक से वह उस जमघट में नहीं थीं और न उनकी माता जी ही वहां थीं ! कृष्णा जी तो मेरे जीवन में , तब से ६-७ वर्ष बाद मेरी प्यारी अम्मा की सघन खोज के बाद १९५६ में मिलीं ! "शनिदेव" के प्रभाव से ,मेरे विवाह में , मेरे भले के लिए ही शायद एक प्रकार की साढ़े साती लगी हुई थी !
आप तो जानते ही हैं कि मेरे संदेशों की इस श्रंखला के चीफ एडिटर महोदय,मेरे प्यारे प्रभु ने , मेरी श्रीमती जी को धरती पर अपना सहायक सम्पादक नियुक्त कर के मेरे ऊपर अंकुश लटका रखा है ,अब तो देखना यह है कि मेडम इसपर कितना कैंची चलाती हैं ! मेरा सर तो सिजदे में झुका हुआ खैरिअत की दुआ मांग रहा है ! आप भी दुआ मांगिये प्लीज़ --
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क्रमशः
निवेदक: व्ही. एन.श्रीवास्तव "भोला"
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3 टिप्पणियां:
विद्यार्थी जीवन की बातें बहुत अच्छी तरह से बताई हैं आपने और वास्तव में हमें भी अपने विद्यार्थी जीवन में कई बार ऐसा लगा जैसे प्रभु ने हमारे साथ अन्याय किया हो पर बाद में अपने को गलत पाया और प्रभु को सही.
विश्वास रखें ,ह्मारे प्यारे प्रभु ह्मारे साथ कभी कोई अन्याय होने ही नहीं देंगे ! बस हमे सत्य और ईमानदारी की राह पर चलते रहना है ! छोड़ना नहीं है ईमानदारी का रास्ता ! प्रभु ह्म सब को शक्ति और सुबुद्धि दें !
सच्चाई और ईमानदारी पर चलने वाले के, प्रभु अंग संग चलते हैं|
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