सिया राम के अतिशय प्यारे,
अंजनिसुत मारुति दुलारे,
श्री हनुमान जी महाराज
के दासानुदास
श्री राम परिवार द्वारा
पिछले अर्ध शतक से अनवरत प्रस्तुत यह

हनुमान चालीसा

बार बार सुनिए, साथ में गाइए ,
हनुमत कृपा पाइए .

आत्म-कहानी की अनुक्रमणिका

आत्म कहानी - प्रकरण संकेत

शुक्रवार, 27 मई 2011

हनुमान चालीसा का पाठ करे # 3 7 3

आत्म कथा # ३ ७ ३

एक अनाड़ी ब्लॉगर की व्यथा
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सर्व प्रथम आज शनिवार है , मेरा अनुरोध है कि आप हमारे पूरे परिवार के साथ मिलकर हनुमान चालीसा का पाठ करे ! आप भाव से गायेंगे तो आप भी वैसे ही रोमान्चित हो जायेंगे जैसे संकटमोचन और दिल्ली के क्नाट प्लेस वाले मन्दिर के महंत जी को हुआ था ! मेरे ब्लॉग के ऊपर बाये तरफ़ बने चालीसा को प्ले करिये! ये वही धुन है जो हमने काशी के संकटमोचन और कनाटप्लेस के मन्दिरो में गायी थी !
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(नये ब्लॉग लिख पाने मे मेरीअसमर्थता के कारण मुझे दुखी देख मेरे बच्चो ने मेरी मदद की, किसी प्रकार आज ही एक संदेश # ३७२ प्रेषित किया ! प्रियजन आत्म कथा का वह् अन्श भी अप्रासंगिक नही है ! लिखते समय USA में लोप हो कर आज मद्रास में प्रगट हो गया ! अगले संदेश मे उसके आगे की कथा उनकी " प्रेरणा से प्रेषित करूंगा )
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ब्लॉग जगत से पूरी तरह से संबन्ध भंग हुए अब पूरे चार दिन हो गये हैं ! कितने हाथ पैर पटके बात नही बनी !प्रियजन अपने को सर्व शक्ति सम्पन्न मानने वाला अहन्कारी मानव कितना असहाय है , कितना दुर्बल है , कितना निर्बल है शायद अब तक जो मेरी समझ मे नही आया था आज ८२ वर्ष की अवस्था में जान गया हूँ ।

किसी प्रकार ये ब्लॉग लिख रहा हूँ , एक नयी कोशिश कर रहा हूँ , गलतिया हो रही हैं , ट्रायल है , देखे सफ़ल होता हूँ कि नहीं ? मेरी कथा अधूरी पड़ी है , आप सोचते है , टी वी के सीरिअल जैसा suspense बना रहा हूँ ! मेरे प्यारे पाठको , विश्वास करे , ऐसा नहीं  है !

परमप्रिय पाठकगण

कहते हो SUSPENSE जिसे तुम कारस्तानी "उसकी" है
अब यह मेरी कथा नहीं ,संपूर्ण कहानी "उसकी" है !!
मै प्रियजन इक लिपिक मात्र हूँ ,"वह्" डिकटेटर है मेरा
अदना एक सिपाही हूँ मैं HITLER शाही "उसकी" है !!

जब जो "उसके" जी में आता वही लिखा लेता है "वह",
कम्प्यूटर कर क्रेश कभी सब लिखी मिटा देता है "वह्" !!
बन्द करा देता है ब्लोगर ,ड्राफ़्ट नही लिख पाता हूँ ,
कलम तोड देता है मेरी ink सुखा देता है "वह" !!

वास्तव मे प्रियजन स्थिति यह है कि

लिखवाता है मेरा स्वामी , बस मैं लिखता जाता हूँ ,
करता है वह सब , मैं ' तो बस , यूँ ही नाम कमाता हूँ !!
चाकर हूँ "उनका" प्रियजन मैं ,मान न कोई मुझको दो ,
केवल "उसको" धन्यवाद दो ,जो यह यन्त्र चलाता है !!

लिखता हूँ मैं वही कथा जो मेरा प्रभु लिखवाता है
वही गीत गाता हूँ जो मेरे स्वामी को भाता है !!

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बनी रहे ऐसी ही करुणा "उनकी" इस मानवता पर ,
मैं हरदम, मन ही मन "उनसे" केवल यही मनाता हूँ !!

"भोला"
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एक प्रार्थना है

जब् नया संदेश न पहुचे, मेरे पिछले संदेशो मे सद्गुरूओ मे सर्वोपरि मेरी अपनी अम्मा तथा ममतामयी श्री श्री माँ आनन्दमयी जी के मेरे संस्मरण देखे तथा मेरे ऊपर उनकी कृपा की कथाये पढ़ कर आनन्द पाये !

आज इतना ही --

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निवेदक : व्ही एन श्रीवास्तव "भोला"

आत्म कथा # 3 7 2

गतांक से आगे:

बमुश्किल तमाम वो दिन तो कट गया ,लेकिन पंखे के बिना जून महीने के आखिरी दिनों की वह रात होस्टल के उस सख्त तख्त (लकड़ी के बेड ) पर काटनी कठिन लग रही थी ! रात भर करवटें बदलता रहा ! पिछले दो वर्ष की अनेकों खट्टी मिट्ठी यादें आती रहीं !

बनारस में १९४७ - ४८ में सबसे पहले मेंरी दोस्ती पूर्वी पंजाब से आये एक सिख विद्यार्थी से हुई ! उसने मुझे कभी अकेले में कोई गजल गुनगुनाते हुए सुन लिया था ! फिर क्या बात थी रोज़ शाम को ही वह मेरे कमरे में आजाता और बड़े दर्द के साथ सोनी महिवाल, हीर राँझा की लोक कथाएं मुझे सुनाता ! कभी कभी  ,पंजाबी लोक गीत और गजल सुनाने की फरमाइश करता ! मुझे तब तक केवल दो चार फिल्मी गजलें हीं आती थीं ! उन दिनों मै ज़्यादातर "जीनत"(?) फिल्म में हीरोइन "नूरजहाँ" के गाये नगमे बहुत फीलिग़ के साथ गाया करता था ! 

आंधियां ग़म की यूं चलीं बाग उजड़ के  रह गया
समझे थे आसरा जिसे वो ही बिछड़ के  रह गया)

ये दर्द भरा नगमा सुनकर नरकेवल (?)  खूब हँसता था (?- मेरी बड़ी बहू सिक्ख है , वो कह रही है पापा मैंने सिक्खों में ये नाम अभी तक नहीं सुना ' ,लगता है मै ही भूल रहा हूँ ) खैर वो कहता था " ऐसा लगता  तो है नहीं कि कोई तेरा बाग़ उजाड़ सकती है , तू ही उजाड़े तो उजाड़े ! छोड़ दे ऐसे जनाने गाने गाना , मर्दाने गाने गाया कर , पोल्या " !

एक दिन इतना कह कर वह अपने कमरे में गया और एक किताब हाथ में लेकर लौटा! वो  किताब थी (तब उतने मशहूर नहीं हुए शायर) "साहिर लुध्यान्वी" साहिब की "तल्खियाँ" !  अपनी भारी भरकम आवाज़ में उन्होंने उस किताब से एक  गजल पढ़ कर मुझे सुनाई और इसरार किया कि इसकी धुन बनाऊ और गाऊँ ! तभी उन्होंने साहिर साहेब से अपनी गहरी दोस्ती की बात जोर देकर मुझे समझाई और कहा  देखना एक दिन फिल्मी दुनिया में "साहिर" बड़ा नाम कमाएगा ! उन्होंने उस गजल के साथ साथ शायर के कालेज की ज़िन्दगी के बारे में भी काफी चर्चा की ! उस किताब से जो एक गजल उन्होंने मुझे नोट करवाई , वह थी -: 

मोहब्बत तर्क की मैंने गरेबां सीं लिया मैंने
जमाने अब तो खुश हो जहर ये भी पी लिया मैंने !! 

तुम्हे अपना नहीं सकता मगर इतना भी क्या कम है 
कि कुछ मुद्दत हसीं खाबों में खो कर जी लिया मैंने !!

नरकेवल कहा करता था " उन्हें तोड़ने का मौक़ा क्यों दो , मर्द हो खुद तुम ही तोड़ लो !"  ,

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तकनीकी समस्या के कारण यह पोस्ट पूरी नहीं हो पा रही  .