बालक "हरिओम शरण" - पर गुरुजन की कृपा
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(गतांक के आगे)
फरवरी १९८४ के उस शनिवार की देर रात्रि तक हरिओम शरण जी और उनकी धर्मपत्नी नंदिनी जी ने कानपूर की मोती झील स्थित सभागार में, अपने मास्टरपीस भजन सुनाकर नगर के भक्ति-संगीत के प्रेमी जन समुदाय को आनंदित किया और फिर हमारे स्थान पर रात का भोजन पाकर हमारे अतिथिगृह में विश्राम किया !
रविवार के प्रातः ८ बजे से , नियमानुसार हमारी कोठी के मंदिर में गुरुदेव श्री प्रेमजी महाराज
के आदेशानुसार आयोजित ,साप्ताहिक "श्री राम शरणम - अमृतवाणी सत्संग " में भाग लेने के लिए स्थानीय साधकगण एकत्रित हुए और बड़े आनंद से अपना सत्संग संपन्न हुआ !
यह जान कर कि प्रसिद्ध भजन गायक "हरिओम शरण जी" हमारे साथ ठहरे हैं , सब साधकों की बड़ी इच्छा थी कि हमारे सत्संग में भी हरिओम शरण जी तथा उनकी पत्नी के कुछ भजन हो जाएँ ! इस उद्देश्य से ,बीच बीच में बच्चे उठ कर अतिथिगृह के आसपास जाकर आहट लेते रहे कि यदि वे तैयार हों तो उन्हें सत्संग में बुला लाएं पर अंत तक वे असफल रहे!
सत्संग के समाप्त होते ही , जब साधकगण प्रस्थान कर रहे थे ,और कृष्णा जी अपनी पारंपरिक पूजा का "किशमिश" प्रसाद वितरित कर रहीं थीं ,अचानक " हरीओम जी " और नंदिनी जी मंदिर के द्वार पर किशमिश के लिये हाथ फैलाए दिखाई दिए ! प्रसाद पाते ही वह एक तरह से दौड पड़े और मंदिर में स्थापित सद्गुरु - श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के लाइफसाइज़ कटआउट के श्री चरणों पर अपना मस्तक रख दिया और गदगद कंठ से मुझे सम्बोधित कर के बोले --" भोला भैया ! आपने हमे कल रात को ही क्यों नहीं बताया कि आपके स्थान पर रविवार को श्री स्वामी सत्यानन्द जी द्वारा रचित "अमृवाणी" का पाठ होता है "! उनके मुंह से स्वामीजी का नाम सुनकर तथा यह जान कर कि उन्हें "अमृतवाणी जी" के प्रति इतनी गहन श्रद्धा है , हम सब आश्चर्य चकित हो गए ! सभी यह जानने को उत्सुक हो गए कि क्या "हरी जी" भी किसी प्रकार , "श्री राम शरणम" से अथवा हमारे गुरुजनों से सम्बंधित हैं ? उनसे भजन सुनने की जगह अब हम सब उनके मुंह से अपने स्वामी जी के विषय में जानकारी प्राप्त करने को उत्सुक हुए और उन्हें घेर कर वहीं बैठ गए !
हरिओम शरण जी ने बताया कि बचपन से ही उनके हृदय में भगवत भक्ति के भाव जागृत हो गए थे ! वह अपने पारिवारिक पेशे में तनिक भी रूचि नहीं रखते थे ! (एक बात बताऊँ ,इत्तेफाक से ये वह पेशा है जो मेरे - जी हाँ मेरे इस मनुष्य जन्म में , हमारे "प्यारे प्रभु" ने , किंचित प्रारब्धवश , हमारे वर्तमान जीवन के निर्वाह हेतु नियत कर रखा है ! यह वही पेशा है जो संत रैदास जी की रोज़ी रोटी का भी आधार था ) !
हाँ तो,उन्होंने बतलाया कि उनका मन सदा प्रभु राम और श्री हनुमान जी के गुण -गान भरे भजन गाने और उनका संकीर्तन करने में लगा रहता था!इसलिए वह अक्सर अपने घरवालों से चोरी छुपके ,नज़र बचा कर , दूर दूर तक संतों के प्रवचन तथा श्रीमदभागवत गीता और बाल्मीकि एवं तुलसी कृत रामायण के संगीतमय सत्संगों में सम्मिलित होने चले जाते थे !
भारत के विभाजन से पूर्व उन्होंने अपने जन्मस्थान पंजाब के लाहौर शहर में रामायण का अति सरस संगीतमय प्रवचन सुना ! प्रवचन कर्ता संत स्वामी श्री सत्यानान्दजी महांराज के चुम्बकीय आकर्षक व्यक्तित्व तथा उनकी सधी हुई सुरीली ओजपूर्ण आवाज़ ने उन्हें इतना आकर्षित किया कि वे नित्य प्रति उस सत्संग में जाने लगे !
उस समय के कट्टरपंथी सनातनी पंडितों के आतंक से बालक "हरीओम" संकोचवश पंडाल के भीतर तक नहीं जाते थे अत : द्वार पर ही जनता की जूतियों के निकट उन्हें साफ करने के बहाने वे चुपचाप बैठे रहते थे ! वे बडे ध्यान से कथा वाचक संत के प्रवचन सुनते थे और उनके स्वर में स्वर मिलाकर , अति ऊंची आवाज़ में ,तार सप्तक पर , उन संत जी के शब्दों (भजनों) तथा कीर्तनों की धुनों का अनुकरण करते थे !
प्रवचन के समापन पर जब संत स्वामी श्री सत्यानान्द्जी व्यासपीठ से उठ कर पंडाल के द्वार से बाहर जाते तो बालक हरीओम उन की ब्राउन रंग की मोजरी (जूती) अपने अंगौछे से चमका कर, उनके चरणों के आगे रख देता था ! यह उसका नित्य का कार्यक्रम था ! मोजरी पहन कर स्वामी जी मुस्कुराते हुए , आशीर्वाद की मुद्रा और प्रशंसा भरी दृष्टि से हरिओम की तरफ देखते थे ,हाँ , केवल देखते भर थे और सीढ़ियों से उतर कर बालक हरी को जाते समय दो किशमिश के दानों का प्रसाद देते जाते थे !
प्रेरणास्रोत किशमिश के दो दाने
कृष्णाजी से प्रसाद के रूप में प्राप्त दो किशमिश के दानों ने हरी ओम शरण जी को सहसा उनके बचपन के दिन याद दिला दिये ! पार्टीशन से पहले , लाहौर में स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के प्रवचन के बाद ,उनके हाथों से प्राप्त अमृततुल्य दो किशमिश के दानों की स्मृति उन्हें आनंद से भर रही थी !
कथा का समापन करते हुए , सजल नेत्रों और अवरुद्ध कंठ से उन्होंने मुझसे कहा " भोला भैया , मैं जानता हूँ , यहाँ और कोई माने या न माने ,आप जरूर विश्वास करेंगे कि गायकी तथा गीतों की शब्द एवं स्वर रचना के क्षेत्र में मुझे जीवन में जितनी सफलता मिली है , वो सब ,बचपन में ही स्वामी सत्यानन्द जी महाराज से प्राप्त आशीर्वाद एवं उनके प्रोत्साहन तथा प्रेरणा को संजोये किशमिश के दो दानों के ही कारण है !
हमारे सत्संग भवन में , अपने अतीत के पन्नों को पलटते हुए हरी जी ने उपरोक्त संस्मरण हमें सुनाये थे ! शैशव में ही , स्वामीजी की कृपा दृष्टि से बालक हरिओम को जिस दिव्य आनन्द की अनभूति हुई थी उन्हें जो ज्ञान प्राप्त हुआ था ,वह उनके मन और बुद्धि पर ऐसी अमिट छाप छोड़ गया जो आजीवन उनकी विभिन्न भक्ति रचनाओं में प्रतिबिम्बित हुई और उनके मधुर गायन के द्वारा समस्त संसार को आनंदित करती रहीं !
(ऊपर के चित्र में १९७० के दशक में हरिओम शरण जी से , उनकी भावपूर्ण रचनाओं को सुनते हुए His Masters Voice (Recording Company) के तत्कालीन संगीत निर्देशक मुरली मनोहर स्वरूप जी जिन्होंने हरिओम जी तथा मुकेशजी के अनेक प्रसिद्ध भजनों को संगीत- बद्ध किया था ! हरी जी की " मैली चादर" , और " उद्धार करो भगवान तुमरी सरन पड़े " तथा अन्य भजन और मुकेशजी के अनेक भावपूर्ण भजनों को स्वरबद्ध किया ! --- कुछ ऐसा याद आ रहा है कि जैसे मुरली बाबू से हमारी भेंट आकाशवाणी लखनऊ के स्टूडियो में १९५०-६० के दशक में हुई थी )
आप को ऐसा लग रहा होगा कि मैं ट्रैक बदल रहा हूँ ,लेकिन ऐसी कोई बात नहीं है ! सच पूछो तो मैं अब धीरे धीरे वापस अपनी ट्रैक पर आ रहा हूँ ! "उनकी"कृपा हुई तो कल से मुकेश जी की कथा चालू हो जायेगी !
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निवेदक : व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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