मंगलवार, 14 जून 2011

सद्गुरु चन्दन सम कहा # 3 8 5

गुरुदर्शन आनंद 


श्री राम शरणंम , लाजपतनगर नई दिल्ली के तत्वाधान में  USA के न्यूयोर्क, न्यूजर्सी तथा मेरीलेण्ड के साधकों द्वारा सेलर्सबर्ग (पेन्सिल्वेनिया) में आयोजित त्रि दिवसीय खुले साधना सत्संग में भाग लेकर हम अभी अभी बोस्टन लौटे हैं !

मैं जल बिनु मीन सा छटपटा रहा हूँ  ! प्रियजन मैं उस "मानसरोवर",उस "क्षीर सागर" से लौटा हूँ जहाँ देवपुरुष साक्षात् विराजते हैं,और मैं इस सोच में पड़ा हूँ कि कैसे प्रेमामृत का वह घट जो मैं वहां से भर कर लाया हूँ ,अपने प्यारे प्यारे स्वजनों को उसका एक बूंद बूंद पिला कर उन्हें भी प्रेम भक्ति का वह सुस्वाद चखाऊँ जिसका रसास्वादन मैंने और कृष्णा जी ने वहां पर किया ! पर समझ में नहीं आ रहा है कि कहाँ से शुरू करूं वास्तव में स्वजनों इस समय मेरी स्थिति यह है:

मेरे नयन सजल हैं प्रियजन मेरा मन आनंद भरा है 

जिसको प्यार मिला है इतना , उसको कोई और चाह क्यों ?
जिसको गुरु ने राह दिखायी , खोजे वह अब और राह क्यों ?
ज़ितने भी संकट आ घेरें , जितनी भी विपदाएं आयें 
संरक्षण जिसको गुरु का हो वह साधक ना कभी डरा है?
मेरे नयन सजल हैं प्रियजन मेरा मन आनंद भरा है


"भोला"

स्वजनों !  मुझे सत्संग के इन तीन दिनों में जो आनंददायक अनुभूतियां हईं  हैं उन्हें मैं विस्तार से अपने अगले संदेशों में बताऊंगा ! प्रेरणा हो रही है कि उससे पहले मैं आपको सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के निम्नांकित कथन से अवगत करा दूँ जिसमे इंगित हैं संत समागम की वो सभी उपलब्धिया जैसी मुझे इस सत्संग में हईं  

सच्चे संत के संग में बैठ मिले विश्राम
मन मांगा फल तब मिले जपे राम का नाम 

सद्गुरु जी की शरण में मनन ज्ञान का कोष 
जप तप ध्यान उपासना , मिले शील संतोष 

सद्गुरु चन्दन सम कहा , भगवत प्रेम सुवास 
निश दिन दान करे उसे जो जन आवे पास 

सच्चे संत की शरण में चढ़े भक्ति का रंग 
नित्य सवाया वह बढे कभी न होवे भंग 

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"श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ,
मूल संस्थापक श्री राम शरणम् "
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प्रियजन, मेरी अतिशय प्रिय छोटी बेटी प्रार्थना ने भी दिल्ली से अपनी बड़ी दीदी श्री देवी की रिसर्च टीम ज्वाइन कर ल़ी है और मेरी पुरानी पुरानी रचनाएँ तथा मेरे द्वारा गाये वर्षों पुराने भजनों को मेरे इस ब्लॉग में देना शुरू कर दिया है ! १९६४-६५ का "हे प्रभु दया करो " और हम सब का चिर परिचित अति पुरातन भजन " शरण में आये हैं हम तुम्हारी, दया करो हे दयालु भगवन" जिसे मैंने १९३५-३६ में  ६ - ७ वर्ष की अवस्था में अपने गांधीवादी गुरु के बाल-विद्यालय में सीखा था और जिसे मैंने १९९२ में ६३ वर्ष की अवस्था में अपने पुत्र राम जी के घर पर "इजिप्ट" में रेकोर्ड किया था, आपकी सेवा में प्रस्तुत किया है ! 

कल से आत्म कथा का यह सामयिक सद्गुरु दर्शन आनंद से भरपूर प्रसंग फिर शुरू हो जायेगा !

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निवेदक: व्ही . एन.  श्रीवास्तव "भोला"
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2 टिप्‍पणियां:

G.N.SHAW ने कहा…

काका जी और काकी जी को प्रणाम ! बहुत ही सुन्दर ...जिसे राम प्यारा नहीं ..वह मरा !

Shalini kaushik ने कहा…

जिसको प्यार मिला है इतना , उसको कोई और चाह क्यों ?
जिसको गुरु ने राह दिखायी , खोजे वह अब और राह क्यों ?
ज़ितने भी संकट आ घेरें , जितनी भी विपदाएं आयें
संरक्षण जिसको गुरु का हो वह साधक ना कभी डरा है?
मेरे नयन सजल हैं प्रियजन मेरा मन आनंद भरा है
बहुत सुन्दर भावात्मक प्रस्तुति.