रविवार, 3 अप्रैल 2011

आत्म कथा - दृढ़ संकल्प # 3 3 6



आत्म कथा
विश्व कप विजय 
एवं

नव संवत्सर ( वि.सम्वत २०६८ पर ) बधाई  स्वीकारें  
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लख चौरासी के चक्कर में मैं जब 'अस्सी दो' तक आया 
क्या कर लिया, शेष क्या करना, जब मेरा मन समझ न पाया 
दूर कहीं से तभी हमारे पास "दिव्य" संदेशा आया 
"निश्चित पहले करो, और फिर, करो कर्म जो हो मन भाया"

और तुरत ही इक "दीपक" ने अंधियारे में मार्ग दिखाया ,
"हर पल याद रखो वह निश्चय बीड़ा जिसका कभी उठाया"
 एक इशारे से हमको उनने इक सरल उपाय बताया
( बतलाऊंगा सब कुछ ,प्रियजन आगे क्या कैसे समझाया ) 
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आज हमारे भूले बिसरे भारतीय विक्रम संवत का नव संवत्सर दिवस है ! समस्त विश्व को ,सर्व प्रथम सूर्य-चन्द्र आदि ग्रहों की चाल का आधार लेकर वर्ष को ३६५ दिन का बताने    वाले हम भारतीय स्वयम ही अपने "संवत्सर" को भुला बैठे हैं ! चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का यह असाधारण दिवस भारतीयों के लिए कितना महत्वपूर्ण है - सुनिए  

यह वह तिथि है जिस दिन (आप माने या न माने) ब्रह्मा जी ने इस श्रृष्टि की रचना की थी !आज के दिन ही श्री राम चन्द्र जी का अयोध्या में, परीक्षित का  हस्तिनापुर में और महाराज विक्रमादित्य का उज्जैन में राज्याभिशेख हुआ था ! आज से ही वसंत ऋतू का मधुर शुभारम्भ होता है और आज से नौवें दिन " नवमी तिथि मधु मास पुनीता" के दो पहर में भगवान श्री राम का अयोध्या नरेश महाराजा दसरथ के कनक भवन में अवतरण होता  है !

हम भी भूले थे इसको ! पर कृष्णा जी को इसकी याद थी क्योंकि प्रतिपदा से नवरात्रि के  नवों दिन वह श्री राम चरित मांनस का पाठ करती हैं और मुझे सौभाग्य मिलता है सम्पूर्ण  मानस पाठ श्रवण का ! ( जब से मेरी आँखें कमजोर हुई हैं , मेरा पढना बंद है ! कृष्णा जी व्यास आसन से हमे पाठ सुनाती हैं और परीक्षित सा मैं आनंद से सुनता रहता हूँ - प्रभु की कितनी कृपा है ? )

प्रियजन आज जो मैंने उनसे सुना ,आपको सुना दिया ! तुरत दान महा कल्याण !

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हम नववर्ष के प्रथम दिवस पर और धार्मिक त्योहारों के शुभ मुहूर्त पर तथा दीक्षोपरान्त  अपने गुरुजनों के समक्ष और अपने जन्म दिन और एनिवर्सरीज़ पर , भांति भांति के "संकल्प " करते हैं और ------फिर उतनी ही शीघ्रता से उन्हें 'बलाए ताख' रख कर हमेशा हमेशा के लिए नहीं तो ,कम से कम एक वर्ष के लिए तो बिलकुल भुला ही देते हैं !

आपकी तो नहीं कह सकता अपनी तरफ से "श्री गीताजी"  पर हाथ रख कर शपथ लेकर कह सकता हूँ की मैंने पिछले 'बयासी वर्षों' में शायद ही कोई अपना इस प्रकार का वचन पूरे वर्ष  भर निभाया होगा हालांकि "प्यारे प्रभु" ,आजीवन, मुझे जीवन पथ पर सही दिशा दिखलाने वाले गुरुजनों से मिलवाते रहे और मुझे प्रेरणा देते रहे की मैं उनका अनुकरण 
अनुसरण कर के लाभान्वित रहूं ! लेकिन वैसा नहीं हो पाया !

आध्यात्मिक सद्गुरु से मिलने के पहले , "प्यारे प्रभु" की अनंत कृपा से मुझे मिले एक ऐसे "गुरु" जिन्होंने अपनी समग्र सांसारिक और आध्यात्मिक उपलब्धियों का मंगल प्रसाद  अपने सभी परिचितों  अपने परिजनों प्रियजनों तथा स्वजनों में खुले हाथ वितरित किया ! इन महापुरुष ने ही मुझे समय आने पर मेरे "सद्गुरु" से भी परिचित करवाया ! 

मेरे परम  सौभाग्य से , सच मानिये अपने जन्म जन्म के संचित पुण्यों के फलस्वरूप ही मुझे इस जन्म में इन दिव्यात्मा के साथ जीने का सुअवसर मिला ! उनका नाम धाम मेरे अधिकतर पाठकगण जानते ही हैं , मेरी आत्म कथा में उनका उल्लेख बार बार आया है और आगे भी आता रहेगा अस्तु यहाँ कुछ कहने की आवश्यकता नहीं समझता ! इशारतन केवल इतना बता दूँ की उन सज्जन से मेरा सांसारिक रिश्ता वही था  जिसके लिए किसी पुराने मशहूर उर्दू शायर ने कभी बड़े मोटे मोटे अल्फाजों में लिखा था :

सारी खुदाई एक तरफ , जोरू का भाई एक तरफ 

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वह "दिव्य" कथन क्या था ? "दीपक" के प्रकाश में क्या देखा ?और इस सन्दर्भ में हमारे उन महान मार्गदर्शक निकटतम सम्बन्धी ने मुझे क्या सिखाया , क्रमशः 

निवेदक : व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला" 
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