सोमवार, 4 अप्रैल 2011

आत्म कथा - संकल्प # 3 3 7 / 0 2

आत्म कथा 

नव संवत्सर  २०६८ पर संकल्प


यहाँ अमेरिका में इस समय ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा की सुबह हुई है ! हमें जब इस विशेष दिवस की याद आ ही गई तो क्यों न हम इस शुभ दिन कुछ ऐसे संकल्प करें कि जिससे हमारा मानव जन्म धन्य हो और अंततोगत्वा  अपना कल्याण भी सुनिश्चित हो जाये  ! मैं पहले कह चूका हूँ कि संकल्प कर के उसे भुला देने वालों की सूची में मैं बहुत पीछे नहीं हूँ  क्यूँकि किये हुए संकल्प पूरे कर पाने में मैं बहुधा विफल रहा हूँ ! लेकिन इस बार फिर प्रबल  प्रेरणा मिली है तो सोचता हूँ कि आज के दिन कुछ संकल्प कर ही लूं !

पिछले ५०-६० वर्षों में महापुरुषों के सत्संग में मैंने अपने मानसिक,शारीरिक ,भौतिक और आध्यात्मिक उत्थान के लिए जो अनेकों संकल्प किये हैं ! सोचता हूँ ,पहले एक बार उन्हें याद कर लूं ! एक वाक्य में मैं उनका निचोड़ है :

सबसे प्रेम करो, सदनीति अपनाओ ,सदाचारी बनो, अपने कर्तव्यों तथा अपने स्वधर्म का दृढ़ता से पालन करो !

आज का संकल्प 

तुलसी के रामचरित मानस में उन सभी गुणों का निरूपण हुआ है जिन्हें अपनाकर जीव  अपना मानव जीवन सार्थक कर सकता है ! बचपन से मानस के दोहे चौपाइयां माँ और दादी से सुनता रहा था ,गुरुजन के सम्पर्क में आने पर उनके अर्थ और उनकी महत्ता समझ में आयी और उनमे वर्णित सद्गुणों को निज जीवन में उतारने की प्रबल इच्छा हुई और उसके लिए समय समय पर अनेक संकल्प किये ! ५०-६० वर्षों से लगातार उन्हें याद रखने का रियाज़ कर रहा हूँ ,उनमे से जितने आज तक मेरे स्मृति पटल पर अंकित हैं उन्हें एक बार दुहरा रहा हूँ !

सब प्राणियों में "इष्ट दर्शन" तथा उनसे "प्रीति": 
सर्व प्रथम स्वयम अपने आप में , तत्पश्चात अन्य सभी जीवधारी प्राणियों में अपने "इष्ट देव" का दर्शन करें और सबको उतना ही प्यार ,स्नेह सम्मान और आदर दें जितना आप स्वयम अपने आपको अथवा अपने इष्ट देव को देते हैं !


जड़ चेतन जग जीव जत सकल राम मय जानि !   
बन्दउ  सब के  पद  कमल सदा जोरि जुग पानि ! 
                                                       ( बाल. ६) 

रहनी सरल , तन मन निर्मल 

तदोपरांत  अपने मन को ,अपने स्वभाव को ,अपने रहन सहन को सादा बनाए और उसे   कुटिलता से मुक्त रखें  क्योंकि हमारे इष्ट देव श्रीराम जी को निर्मल मन वाले जीव ही प्रिय हैं, उन्हें कपट छल छिद्र तनिक भी नहीं सुहाता !

सरल सुभाव न मन कुटिलाई ,जथा लाभ संतोष सदाई  ! (उत्तर . ४५/२ )
निर्मल मन जन सो मोहि पावा ,मोहिं कपट छल छिद्र न भावा ! (सु. ४३/५ )

धर्म - सत्य भाषी , पर सेवा : 
अपने मन को निर्मल कर के निष्कपट भाव से ,सत्य धर्म का पालन करते हुए, हम  परोपकार और परसेवा के कार्यों में लग जाएँ! तुलसी कहते हैं कि इसके समान और कोई धार्मिक अनुष्ठान है ही नहीं !

धरम न दूसर सत्य समाँना , आगम निगम पुरान वखाना !   ( अयो.  ९४/५ )
पर हित सरिस धरम नहीं भाई , परपीड़ा सम नहीं अधमाई !   ( उत्तर . ४०/१)

हरि कृपा से संत समागम - सत्संग से मुक्ति
स्वधर्म निभाने की प्रेरणा आपको मिलेगी सत्संग से , सो  जितना बन पाए उतना संत समागम करो !

गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन !
बिनु हरि कृपा न होई सो गावहिं  वेद पुरान  ! 
                                        ( उत्तर . १२५ )

मौक्ष तक पहुचने की काफी ऊंची ऊंचीं बातें हो गयीं ! भाई ५० -६० वर्ष तक लगातार मश्क करने से ये रामायण की उपरोक्त बातें तो थोड़ी बहुत याद भी रह गयीं हैं और उनमे बताये सद्गुणों को बरत कर हम लाभान्वित भी हुए हैं ! पर जानते हैं , अक्सर हम  उन साधारण संकल्पों की उपेक्षा कर देते हैं जो हमारे रोज के जीवन में अधिक महत्व के होते हैं ! चलिए  इस प्रकार का अपना केस ही सबसे पहले आपको बताऊ :

२००५ में यहाँ यु एस के डॉक्टरों द्वारा मुझे दिए विविध हिदायतों के कारण मैंने तब अपनी जीवन रक्षा के लिए चंद अति आवश्यक संकल्प किये थे लेकिन धीरे धीरे मैंने उन्हें भुला दिया और वो मेरी स्मृति के किसी कोने में पड़े  सिसकते रह गये थे ,आज मैं उन सभी संकल्पों को मन ही मन दुहरा रहा हूँ ! आप से अनुरोघ है कि आप मेरे लिए शुभ कामनाएं करें कि मैं आज से उन संकल्पों को भलीभांति निभा सकूं ! फ़िलहाल वे संकल्प गोपनीय हैं !

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क्रमशः 
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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2 टिप्‍पणियां:

Shalini kaushik ने कहा…

सवेरे सवेरे इतनी प्रभाव शाली prastuti से man खुश हो गया.मानो जीवन ही खुशियों से भर गया.aabhar....

bhola.krishna@gmail .com ने कहा…

धन्यवाद ! तुलसी एवं गुरुजन से प्राप्त मन्त्र जिनसे लाभान्वित हुआ !लिखा !
मेरा अपना कुचः भी नही ! और हा ,आप की राशि वाले बहुत नाप जोख कर
तराजू पर तोल कर बोलते हैं ! वे सदा "कहहि सत्य प्रिय वचन विचारी "
ऐसे न्याय प्रिय लोग "प्यारे प्रभु" का अवलम्ब कभी नही तजते ,और
अन्तोगत्वा विजयी होते हैं !
शुभ कामना === विजयी भव