बुधवार, 6 अप्रैल 2011

आत्म कथा - संकल्प # 3 3 9 / 0 4


आत्म कथा - संकल्प
प्रेम - करुणा- सेवा   


विश्व भर में सम्मानित भारत के दोनों पौराणिक ग्रन्थ "रामायण" और "गीता" में जन -कल्याण के जो विविध विचार प्रतिपादित हैं उनमे जो सबसे उल्लेखनीय मुझे लगा वह है: 

प्रेम 

आज से ८० -९० वर्ष पूर्व के भारतीय तथाकथित जागृत समाज में भी भोतिक धरातल पर  यह शब्द अश्लील माना जाता था ! मुझे याद है १९३५-३६ में जब 'शरतचंद्रजी' के नायक  "देवदास" का सर्वश्री  के . एल.  सहगल तथा पी. सी. बरुआ के रूप में रजतपट पर प्रथम अवतरण हुआ था तब  प्रेम के  उस विशुद्ध  स्वरूप का  अवलोकन  भी हमारे परिवार में माननीय नहीं था ! ध्यान रखने योग्य यह है कि हमारे मातापिता उन दिनों के सामाजिक  मानदंड  के स्तर पर  काफी मोडर्न माने जाते थे ,फिर भी वे  वह  "प्रेम प्रधान" सिनेमा देखने नहीं गये !जबकि  पिताश्री उस सिनेमा घर के पार्टनर थे, जिसमे देवदास फिल्म चल रही थी और हमारी शिफारिश पर पिताश्री हमारे स्कूल के अध्यापकों को फ्री पास देते रहते थे ! फिर भी  ऎसी  दुर्दशा थी बेचारे "प्रेम" की उस जमाने में ! मुझे प्रसन्नता है की आज अधिकाधिक मनीषी और संतजन अपने प्रवचनों में "प्रेम" के दिव्य स्वरुप का परिचय  देकर हमारा उचित मार्ग दर्शन कर रहे हैं !

अपने अनुभव के आधार पर मैं केवल यह ही कहूँगा कि  मेरे प्यारे स्वजनों ,"प्रेम" करो ! हृदय में प्रेम उमडेगा तो दीन दुखियों के प्रति "करुणा" जागेगी ,करुणा से "सेवा" की प्रेरणा होगी ,और आप परसेवा में स्वतः लग जाओगे ! इस प्रकार आप परम भक्त बन कर"प्रभु" के परम प्रिय  बन जाओगे उनका अथाह प्यार पाओगे और अंततः मुक्त होकर जल बिंदु सम जीव परमानंद के क्षीरसागर में अपना गंतव्य पालेगा !

और हमे क्या चाहिए प्यारे ?
सेवा 

प्रियजन , गुरुजन और इष्ट देव की कृपा से हमारे निर्मल हृदय में प्रेम और प्रेम के साथ साथ करुणा का प्राकट्य,समय आने पर आप से आप हो जाता है ! पर मेरे जैसा  निर्बल और रुग्ण काया वाला व्यक्ति , ह्रदय में अपार प्रेम और करुणा होते हुए भी " सेवा धर्म " नहीं निभा पाता ! ५-६ वर्ष से मैं अपनी इस असमर्थता के कारण दुखी और निराश हो रहा था कि सहसा मुझ पर श्री हरि कृपा हुई , विचार आया , आपको भी बताता हूँ ------

मेंरे हंम सफर , हमउम्र साथियों ! हम इसलिए निराश न हो कि हमारे हाथ पैर नहीं चलते, प्रभु की कृपा से हम जीवित तो हैं , हमारे सारे "वायटल्स" नियमित हैं ,हम सुन सकते हैं , सोच विचार कर लेते हैं ,थोडा बहुत लिख पढ़ लेते हैं ,गा बजा भी लेते  हैं ! इनके सहारे भी हम "परसेवा" कर सकते हैं ! आप पूछोगे कैसे ? किसी से कभी सुना था आप भी सुनिए : :

राह चलते किसी बृद्ध ,निर्बल ,नेत्रहीन ,रोगी व्यक्ति को कंधे पर उठा कर उसे सड़क न पार करवा सको तो कोई बात नहीं यदि तुम किसी नौजवान को उस सेवा के लिए प्रेरित कर दो प्यारे तुम्हें भी उस सेवा का सुफल मिल जायेगा !राह में पड़े केले के छिलके और कांच के 
टुकड़े को यदि स्वयं न फेक सको तो साथ चलते व्यक्ति से उठवाकर कूड़े दान में डलवा दो यह  भी परसेवा ही होगी ! ये भी नहीं कर पाओ तो ,तुम केवल मन में "परसेवा"  करने का भाव लाओ ,तुम्हे सेवा का पुण्य मिल जायेगा ! एक महापुरुष ने तो यहाँ तक कहा कि यदि तुम किसी "दुखी" प्राणी को देख कर मन में उसके "सुख " के लिए प्रभु से प्रार्थना करोगे  तो यह भी सेवा ही होगी !इस कलि काल में तो यदि तुम किसी को दुखी देखकर सुखी न हो तब भी तुम्हे भरपूर पुण्य मिल जाएगा ! इतने कन्शेसन पाकर  प्रियजन मैं तो बिलकुल  चिंता मुक्त हो गया हूँ ! आप तो निश्चिन्त होकर अपने "प्रेम" की परिधि बढ़ाते जाएँ ! करुणा और सेवा के पुण्य सुफल आपको स्वतः मिल जायेंगे !

करुणा  कृपा  व्  प्रेम  से जो सेवा  की जाय 
तज कर फल की कामना सो सेवा कहलाय  
  
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क्रमशः 
निवेदक: व्ही , एन, श्रीवास्तव "भोला"
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1 टिप्पणी:

Shalini kaushik ने कहा…

करुणा कृपा व् प्रेम से जो सेवा की जाय
तज कर फल की कामना सो सेवा कहलाय
बहुत सुन्दर सन्देश आपने इस पोस्ट के माध्यम से दिया है.राजीव जी की मैं बहुत आभारी हूँ कि उन्होंने आपके ब्लॉग का व् आपका परिचय हमसे कराया और इतनी ज्ञानवान बातों से हमें रु-ब-रु कराया.