मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

आत्म कथा - संकल्प # 3 3 8 / 0 3

नव-वर्ष का संकल्प 
श्री राम चरित मानस और श्रीमद भगवद गीता से प्रेरित 
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मैंने अपने कल के सन्देश में "राम चरित मानस" के दोहे चौपाइयों के द्वारा उन सूत्रों को बताया था जिनके आधार पर "संकल्प" करके जीने से हम अपना मानव जन्म सार्थक कर सकते हैं ! आपने देखा की  मैंने  "प्रेम - भक्ति" को ही सर्वोच्च साधन माना !

प्रियजन पिछले ६०-७० वर्षों से मैं इस प्रेम की राह पर ही चल रहा हूँ ! इस डगर पर  मैंने सर्वत्र प्रेम के बदले प्रेम ही पाया है ! सर्व व्यापी सर्वग्य हमारे "प्रियतम प्रभु" ने भी प्यार के ब्यापार में मुझे कभी कोई नुक्सान नहीं होने दिया ! मैं अभी आपके प्यार में भी प्यारे "प्रभु " का ही प्यार पा रहा हूँ !

प्रेम के विषय में महापुरुषों से सुने  है ये अनमोल वचन , आपको भी सुनादूँ !
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"सृष्टि  का बीजतत्व प्रेम है " ; "प्रेम मानवता की मौलिक मांग है "
"प्रेम करुणा का उद्गम है" ; "प्रेम जीवन को दिव्य बनाता है" 
"प्रेम से सत्कर्म ,एकता एवं संगठन की उत्पत्ति होती है";
" प्रेम उद्दात्त  धरातल पर 'भक्ति' बन जाता है " 


  ब्रह्मलीन सद्गुरु  स्वामी सत्यानन्द जी महांराज ने भी प्रेम के विषय में 'भक्ति प्रकाश में यह सूत्र दिया है कि 'प्रेम ही धर्म का सार है"  :

प्रेम भक्ति है ,धर्म का ,सार मर्म सुविचार 
फीका है इस के बिना वाक्य जाल विस्तार        

आज यह निश्चय कर के बैठा था कि जीवन को सार्थक बनाने के लिए श्रीगीता जी से जो प्रेरणा मिलीं वह आपको बताउंगा पर अब तक ,कल के प्रसंग में उलझा रहा , मर्जी मेरे प्रेरणा स्रोत "उनकी" जैसी थी ,वही हुआ ! चलिए अब शुरू करता हूँ आज की बात :

उस मधुसुदन , पार्थसारथी, प्रेमावतार , योगेश्वर , जगद्गुरु कृष्ण ने हम जीवधारियों के उद्धार के लिए  जो अनेकों साधन बताये ,उनमें से मुझे निम्नांकित बहुत प्रिय लगे -  :  :

श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं :

मुझसे मन लगा, मुझसे  प्यार कर  मेरा "भक्त" बन ! तू मझमे मिल जायेगा :
रख मन मुझी में , कर यजन , मम भक्त बन ,कर वन्दना 
मुझमे  मिलगा , सत्य  प्रण  तुझसे , मुझे  तू  प्रिय   घना  
(श्री हरिगीता -१८/६५)
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अन्य सभी अवलम्ब छोड़ कर मेरी शरण में आ ,मैं तुझे पापों व् चिंताओ से मुक्त करूंगा!
तज धर्म सारे , एक मेरी ही  शरण को  प्राप्त हो 
मैं मुक्त पापों से करूंगा , तू न चिंता व्याप्त  हो  
(श्री हरिगीता -१८/६६)
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मैं (ईश्वर) तुम्हारे हृदय में ही रहता हूँ ! पल भर को भी तुमसे दूर नहीं होता ! वह तो मेरी ठगनी माया है जो जीवों को भरमाकर , निरंतर घुमाती रहती  है  !
ईश्वर हृदय में प्राणियों के बस रहा है नित्य ही 
सब  जीव  यंत्रारूढ  माया  से  घुमाता  है  वही 
(श्री हरिगीता -१८/६१)
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जो सब प्राणियों में मुझको और मुझमे सब प्राणियों को देखता है वह प्राणी मुझे अतिशय प्रिय है मैं उससे कभी भी दूर नहीं होता !
 जो देखता मुझमे सभी को और मुझको सब कहीं 
मैं दूर  उस जन  से  नहीं  वह  दूर  मुझसे हैं नहीं 
(श्री हरिगीता -०६/३०)
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बड़े भैया द्वारा ३०-४० वर्ष पहले गाया एक भजन याद आ रहा है 

रे मन प्रभु से प्रीति करो 
प्रभु की प्रेम भक्ति श्रद्धा से अपना हृदय भरो 
रे मन प्रभु से प्रीति करो 

ऎसी प्रीति करो तुम प्रभु से ,प्रभु तुम माहि समाये 
बने आरती पूजा जीवन रसना हरि गुण गाये 
एक नाम आधार लिए तुम इस जग में बिचरो 
रे मन प्रभु से प्रीति करो  

रह न सको बिन प्रभु के तुम भी ऐसा ध्यान धरो 
ज्यों  पतंग जल जाय ज्योति पर  ऐसे प्रेम जरो 
 रे मन प्रभु से प्रीति करो 
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श्री स्वामी जी महाराज ने तो एक दोहे में ही गीता के समस्त ज्ञान का सारांश भर दिया :

प्रीति  करो  भगवान  से मत  मागो  फल  दाम 
तज कर फल की कामना भक्ति करो निष्काम 
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क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती डोक्टर कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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2 टिप्‍पणियां:

G.N.SHAW ने कहा…

काकाजी प्रणाम ...इश्वर प्रेम जिसके पास नहीं , उसके पास कुछ भी नहीं !

hamarivani ने कहा…

nice कृपया comments देकर और follow करके सभी का होसला बदाए..