शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

हमारा साधन - भजन # 3 0 3

हनुमत कृपा -अनुभव                                                                                                          

साधक साधन साधिये                                                                         # ३ ० ३


औपचारिक विधि से नियुक्त अपने प्रथम "संगीत गुरु" जनाब उस्ताद गुलाम मुस्तफा खान साहेब से इस मिलन के पहले मैंने अपनी दीदी और छोटी  बहन के म्युज़िक टीचरों
से,जब वह बहनों को संगीत सिखाने हमारे घर आते थे , तब कमरे के परदे के पीछे से या बगल के कमरे में छिप छिप कर बहुत कुछ सीखा था ! वो बेशकीमती धरोहर भी मेरी स्मृति पिटारी के कोनों में तब से आज तक सहेजी पड़ी है ! 

वह चोरी चोरी संगीत सीखने का अनुभव ,बालगोपाल कृष्ण कन्हैया  द्वारा गोकुल में गोप-गोपियों के घर से चुराए हुए माखन मिस्री की तरह बहुत मधुर था ! संगीत के प्रति मेरी रूचि बढाने और उसे स्थिर करने में वह मेरा बड़ा सहायक हुआ ! बहुत सी चीजें जो मैंने उन दिनों चोरी चोरी  सीखीं थीं मुझे आज ७०-७५  वर्ष बाद भी ज्यों की त्यों याद हैं ! उनकी चर्चा विस्तार से फिर कभी करुंगा अभी प्रियजन अपने उस्ताद , जी हाँ बिलकुल अपने ही उस्ताद "संगीत गुरु गुलाम मुस्तफा खान साहेब" से पाई शिक्षा के कुछ विशेष अंशों से आपको अवगत करा दूं !

उस दिन की कथा चल रही थी जिस दिन उस्ताद ने मुझे "गंडा" बांधा और कबीरदास जी की सद्गुरु संबंधी रचना अति सरसता से हमे सुनायी थी ! उसके बाद उन्होंने "सदगुरु" की भारतीय पुरातन ग्रंथों में वर्णित परिभाषा भी बतायीं !(सन्देश ३०१/३०२ देखें)

इसके उपरांत ही हमारी वास्तविक संगीत शिक्षा शुरू हुई ! प्रथम पाठ में उस्ताद ने हमेँ "स्वर साधना" का महत्व  बताया ! हमने पहली बार यह तथ्य उनसे ही सुना कि केवल एक स्वर "सा"( षड्ज) को ठीक से साध लेने से गायक के कंठ में सप्तक के सभी स्वर भली भांति सध जाते हैं ! उन्होंने यह समझाते हुए कहा था  : 

                               "एकै साधे सब सधे , सब साधे सब जाय " 

"एक" का महत्व समझाते हुए उन्होंने आगे कहा "भोला भाई ! हम इंसानों को दुनिया से यदि कुछ पाना है और अगर हमें बदले में इस दुनिया को कुछ भी देना है तो हमेँ "एक बस एक" सर्व शक्तिमान परमेश्वर  का  दामन पकड़ना होगा ! एक वह ही है जो हमें  सुबुद्धि देगा , हमें ऐसा मनोबल और शक्ति देगा जिसका प्रयोग कर के हम अपने उद्देश्य में सफल हो पाएंगे !"

"भोला भाई ! मुश्किल नहीं है यह ! तानपुरा उठाओ , अपने स्वर से मिलाओ, और फिर पूरे भाव-चाव से उस स्वर से स्वर मिला कर "सा" या "ॐ" या "राम"कहो तुम्हारा इष्ट  
चाहे जिस नाम का हो ,वह अविलम्ब  तुम्हारे सन्मुख प्रगट हो जायेगा क्योंकि 

                                               "स्वर ही ईश्वर है"

उस्ताद से सुने इस कथन की सत्यता का मैंने , तब १९५०-५५ से लेकर आज तक निजी रूप से कई बार अनुभव कर लिया है ! मैंने जब जब भी कोई उत्तम संगीत सुना अथवा किसी 'पहुंचे हुए' सिद्ध गायक के कंठ से निकला हुआ शुद्ध "सा" मेरे कानों में पड़ा मुझे रोमांच  हो गया , मेरी आँखें नम हो कर मुंद गयी और मन आनादित हो गया ! यह परम सत्य है कि समर्थ गायकों के अंतर्घट से उठे "षड्ज" स्वर की तरंगों के कानों में पड़ते ही श्रोताओं को उस परमानन्द की प्राप्ति होती है जो किसी प्रकार  भी साक्षात "हरिदर्शन" से कम नहीं है  ! गायक के "स्वर" में गूंजता "ईश्वर", श्रोताओं के हृदय झरोखों से झांकता हुआ प्रत्यक्ष दिखाई देता है ! 

मुझे जीवन में इस प्रकार के "स्वर में ईश्वर दर्शन " के अनेको अनुभव हुए ,जो आपको आगे  कभी बताऊंगा ! हो सकता है आपने भी ऐसा अनुभव कभी न कभी अवश्य किया होगा ! कृपया उनके विषय में हमे बताएं जिससे अन्य  पाठकों को भी हमारे उस्ताद के इस परम सत्य कथन पर कि "स्वर ही ईश्वर है " दृढतम विश्वास हो जाये ! 


========================================================= 
क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन.  श्रीवास्तव "भोला"
=========================================================

कोई टिप्पणी नहीं: