अनुभवों का रोजनामचा
आत्म कथा
कच्ची नींद से जब मैं अचकचा कर जगा तो मेंरी आँखें खुली की खुली रह गयीं कुछ भी नहीं दिखा ! क्या हो गया ? क्या मेरी आँखों की ज्योति लुप्त हो गयी ? ये मैं अचानक ही अंधा कैसे हो गया ? चिलचिलाती धूप वाला जून का वह दिन सहसा कैसे इतना शीतल हो गया ? कैसे अकस्मात ही भरी दोपहरी में सूरज ढल गया और अमावस्या की रात्रि से भी अधिक काली रात धरती पर उतर आयी ? ट्रेन के डब्बे में इतना अँधेरा था कि कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा था जिससे मुझे बड़ी घबराहट हो रही थी ! मेरे जहेंन में एक साथ अनेकों प्रश्न उठ खड़े हुए !
आहट से बेबे जी जान गयी कि मैं उठ बैठा हूँ ! इसके पहले कि मैं उनसे कुछ पूछता वह बोलीं "पोल्या पुत्तर (भोला बेटा ) चिंता ना करीं ! रब दे मेंहर नाल असी सारे ठीक ठाक हैं
वाहे गुरू दी बड्डी किरपा है"! बेबेजी के मुंह से "वाहेगुरु" सुन कर,पंजाब की ओर से आये अन्य पंजाबी यात्रिओं ने भी जोर से जयकारा बोला "वाहे गुरु जी दा खालसा ! वाहे गुरूजी दी फ़तेह"! सारा डिब्बा जय जयकार से गूँज गया ! डिब्बे में धीरे धीरे फिर से खामोशी लौट आयी और शमशान जैसे घने अँधेरे ने हमें एक बार फिर पूरी तरह से लपेट लिया !
थोड़ी देर बाद ,सामने के बेंच पर बैठे लोगों की आवाज़ो ने खामोशी तोड़ी ! कुछ दिखाई तो दे नहीं रहा था , पर वह कोई मुस्लिम परिवार ही था! शायद परिवार के बुज़ुर्ग ने ठंढी सांस लेकर बड़े दर्द से कहा था " या खुदा क्या मर्जी है तेरी ? " और फिर थोड़ी फुसफुसाहट के बाद बुजुर्गवार की हिदायत क़ुबूल कर उनके खानदान की किसी महिला ने दुआ का यह नगमा "पाक परवर्दिगार", दोनों जहांन के मालिक , अल्लाह ताला की खिदमत में बड़ी अकीदत (श्रद्धा) के साथ पेश किया
आहट से बेबे जी जान गयी कि मैं उठ बैठा हूँ ! इसके पहले कि मैं उनसे कुछ पूछता वह बोलीं "पोल्या पुत्तर (भोला बेटा ) चिंता ना करीं ! रब दे मेंहर नाल असी सारे ठीक ठाक हैं
वाहे गुरू दी बड्डी किरपा है"! बेबेजी के मुंह से "वाहेगुरु" सुन कर,पंजाब की ओर से आये अन्य पंजाबी यात्रिओं ने भी जोर से जयकारा बोला "वाहे गुरु जी दा खालसा ! वाहे गुरूजी दी फ़तेह"! सारा डिब्बा जय जयकार से गूँज गया ! डिब्बे में धीरे धीरे फिर से खामोशी लौट आयी और शमशान जैसे घने अँधेरे ने हमें एक बार फिर पूरी तरह से लपेट लिया !
थोड़ी देर बाद ,सामने के बेंच पर बैठे लोगों की आवाज़ो ने खामोशी तोड़ी ! कुछ दिखाई तो दे नहीं रहा था , पर वह कोई मुस्लिम परिवार ही था! शायद परिवार के बुज़ुर्ग ने ठंढी सांस लेकर बड़े दर्द से कहा था " या खुदा क्या मर्जी है तेरी ? " और फिर थोड़ी फुसफुसाहट के बाद बुजुर्गवार की हिदायत क़ुबूल कर उनके खानदान की किसी महिला ने दुआ का यह नगमा "पाक परवर्दिगार", दोनों जहांन के मालिक , अल्लाह ताला की खिदमत में बड़ी अकीदत (श्रद्धा) के साथ पेश किया
तेरी ज़ात पाक है अय खुदा तेरी शान ज़र्रा जलाल हू
अल्ला हू ! अल्ला हू !
तू खुदा गरीब अमीर का तू सहारा शाहों फकीर का
मुझे भी तो तेरा ही आसरा तेरी शान ज़र्रा जलाल हू
तेरी ज़ात पाक है अय खुदा तेरी शान ज़र्रा जलाल हू
अल्ला हू ! अल्ला हू !
अल्ला हू !अल्ला हू ! अल्ला हू !
अल्ला हू !अल्ला हू ! अल्ला हू !अल्ला हू !
उसके बाद तो "अल्ला हू" की ऎसी धुन लगी कि न पूछिए !रेल के उस डिब्बे में बैठे सभी हिन्दुओं, मुसलमानों,सिक्खों और ईसाइयों ने मिल कर एक जुट होकर एक साथ "उसे" पुकारा ! थोड़ी देर लगी लेकिन "वह" आया !
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क्रमश:
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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1 टिप्पणी:
आपका ये संस्मरण अच्छा लगा । धन्यवाद ।
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