गुरुवार, 20 मई 2010

J A G D I I S H (II)

 गतांक से आगे -------

जगदीश

कृपा वृष्टि, कर रहा ,सभी पर, फिर सब हैं ,क्यों नही सुखी ?

वह परमकृपालु आनंदघन जगदीश्वर स्वरचित इस सम्पूर्ण श्रृष्टि पर निरंतर निज अहैतुकी कृपा की अमृतवर्षा कर रहा है. फिर यह संपूर्ण मानवता आनंदित क्यों नही है ? क्यों कुछ प्राणी कष्ट्क्लेश झेलते हैं कुछ आनंदित रहते हैं ? कुछ रो रो कर कहते हैं , हे प्रभु ----

" तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं , वापस बुलाले,
मैं सिजदे में गिरा हूँ ,मुझे ए मालिक उठाले "

कुछ कहते हैं ---- ----

" तू प्यार का सागर है,
तेरी इक बूंद के प्यासे हम" 

---- कैसे रह गए कुछ प्यासे ?और क्यों किसी किसी का दिल इस दुनिया में नही लगता ? यह सोचने का विषय है.

हमारी आत्मा की सुखद अनुभूति आनंद है .मन की सुखद अनुभूति शांति है और शरीर की सुखद अनुभूति सुख है . ये अनुभूतियाँ ,मानव को उसकी रूचि, परिस्थिति, क्रिया शक्ति ,क्षमता ,दक्षता और संस्कारों के अनुरूप प्रभावित करती हैं. इस कारण एक ही परिस्थिति में , अनेक व्यक्तिओं को सुख-दुःख , शांति -अशांति, आनंद - विषाद का अनुभव विलग मात्राओं में होता है. उदाहरण-:
कोई टेबल फेन से सुखी होता है और कोई ए .सी. लगे कमरे में भी नींद को तरसता है, दुखी रहता है. कोई पांच सितारे वाले होटल में दुखी है, कोई फुटपाथ पर सुख से सोता है.

हमारे पिछले जन्मों की करनी-धरनी के अनुसार ही हमे इस जन्म में भुगतान मिल रहा है. पिछले अनेकों जन्मों के पुन्य-पाप के लेखे जोखे .में यदि हमारे पुण्य, पापों से अधिक हैं तो हम वर्तमान जीवन में सुखी होंगे और यदि पाप अधिक होंगे तो हम वर्तमान जीवन में दुःख के भागी होंगे ..

पाप पुण्य और भले बुरे की प्रभुजी करते तोल
जैसी जिसकी करनी होती पाता वैसा मोल

तुलसी ने भी मानस में कहा है
" काहू न कोऊ सुख दुःख कर दाता .
निज कृत करम भोग सबु भ्राता "

इस ईश्वरीय नियम को ध्यान में रख कर , अपना अगला जनम सुधारने के लिए हम वर्तमान जीवन में जितना बन सके उतने नेक काम ही करे फिर प्रभु तो कृपा करेंगे ही.

क्रमश:---- :

--- निवेदन :श्रीमती डॉ.कृष्णा एवं :व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

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