गुरुवार, 27 मई 2010

परिवर्तित कार्यक्रम

गतांक से आगे
बाबा जी की तीर्थ यात्रा :
हनुमान जी द्वारा मार्ग दर्शन

बाबाजी उस अजनबी व्यक्ति के अचानक गायब हो जाने के कारण काफी चिंतित हो गये थे.वह बेचैनी से इधर उधर टहल रहे थे और एक के बाद एक सेवक तथा घर के बच्चों को बाहर रेलवे स्टेशन और घोड़ागाड़ी तथा बैल गाड़ी के अड्डों तक दौड़ा रहे थे. उन को खोजने के लिए, पर वह नहीं मिले.सभी खोजने वाले निराश लौट आये. बाबाजी की सवारी तैयार थी. साथ जाने वाले सभी यात्री भी प्रतीक्षा कर रहे थे.

आखिर थक कर उस अनजान व्यक्ति की खोज काअभियान बंद कर दिया गया. इस बीच बाबाजी का सामान भी बाहर आ गया ..पर उस समय सब चौंक गये जब घर की अन्य स्त्रियोंसे घिरी दादीमाँ भी वहां पहुँच गयी मय अपने असबाब के .सब आश्चर्य चकित थे क़ि बाबाजी के न चाहने के बाबजूद दादी कैसे यात्रा पर जाने को तय्यार थीं. क्या बाबाजी ने अपना निर्णय बदल दिया? दादी जी को साथ ले जाने को कैसे राजी हो गये वह? कोई समझ न पाया.

अचानक बाबाजी वहां से उठ कर कोठी में ही अपने दफ्तर की ओर चल दिए. जाते जाते उन्होंने सब से कहा क़ि अब वह बद्री-केदार-गंगोत्री नहीं जायेंगे. अब उनका इरादा शाम वाली गाड़ी से पूरब की ओर जगन्नाथ पुरी-गंगा सागर जाने का बन गया है. दादीजी और मेंनेजर पाण्डेजी और उनकी पत्नी भी अब उनके साथ यात्रा पर जायेंगे .

अपने ऑफिस में बाबाजी ने दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया और लगभग दो घंटे बाद बाहर निकले, और आम दिनों की तरह मुस्कुराते हुए वह पुन:.बैठक में वापस आगये और अपनी आराम कुर्सी पर बैठ गये. सुबह से आने जाने वालों के शोर शराबे में और उस अजनबी व्यक्ति के अचानक गायब हो जाने से बाबाजी का चित्त कुछ उचटा उचटा था. थोड़ा एकांत मिला तो वह मन ही मन गुनगुना उठे फारसी जुबान की एक बहुत मशहूर रचना जिसका उर्दू तर्जुमा कुछ ऐसा हो सकता है:

" इक वक़्त मुक़र्रर है हरिक काम का अय दिल,
बेकार तेरी फ़िक्र है, बेकार तेरी सोच "

और जब भी मन की अस्थिरता के कारण बाबाजी ये शेर गुनगुनाते थे दादीमाँ उन्हें छेड़ने के लिए अपनी भोजपुरी भाषा में उनसे कहती थीं " का ई भोरे से फारसी बूकतानी मालिक कब हीं ता भगवानो के नाम लेबे के चाही." और जवाबी हमले में वह तुलसीदासजी क़ी यह चौपाई बेख़ौफ़ दाग देती थीं.

"होइहि सोई जो राम रचि राखा ,
को करि तर्क बढ़ावे साखा"

जिसके साथ ही उस बुज़ुर्ग जोड़े की सांसारिक नोक झोक आध्यात्मिक सत्संग में बदल जाती थी. श्रीमद भागवत, श्री गीताजी और तुलसी मानस का उल्लेख देकर दोनों ही अपनी अपनी बात सिद्ध करने का प्रयास करते. माहौल जितना गरमाता उतना ही सरस हो जाता.

अन्ततोगत्वा यह पता लगता क़ी दोनों बुज़ुर्ग धर्म के किसी एक ही सूत्र के दो छोरों से बंधे हैं, एक ही नदी के दो किनारों के सदृश्य एक ही लीक का अनुसरण कर रहे हैं, उनका लक्ष्य भी एक है . भागीरथी गंगा के समान उन्हें गगोत्री से गंगासागर तक सतत बहते जाना है .

अरे हाँ, आज रात की गाड़ी से ही इन दोनों बुजुर्गों को अपनी यात्रा पर निकलना है. परिवर्तित कार्यक्रम के अनुसार अब गंगा के उद्गमस्थल गंगोत्री न जा कर, माँ गंगा तथा अनंतसागर के संगम का परमानंद प्रदायक दृश्य देखने उन्हें गंगासागर जाना है .

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