हनुमान जी की प्रत्यक्ष कृपा - परिजनों पर
बडे बाबा, श्री महाबीर जी की ध्वजा के नीचे, बिल्कुल हनुमानजी के श्री चरणो पर मत्था टेके प्रार्थना कर रहे थे, अपनी यात्रा की सफ़लता और अपनी सकुशल वापसी के लिये। उधर दादीमाँ दूर कोने मे खम्भे के सहारे खड़ी , गद गद स्वर में, अश्रु पूरित नैनो से प्रार्थना कर रही थी" हे महाबीर जी, मालिक, हमके इस बार अपना साथे काहे नैखन ले जात ? हमके बहुत डर लागता, भोरे से हमार बयकी अन्खिया फरकत बा . रच्छा करिह् इनकर, हे महाबीर जी "। एक ही समय मे, एक ही आँगन से श्री महावीर जी की सेवा मे दो अर्ज़िया भेजी गयी । देखना है किसकी सुनते हैं वह, किसकी अर्ज़ी मंजूर करते है ?
एक तरफ दादीजी ने बाबा के साथ न जा पाने के कारण दुखी मन से आंसू भींगी अर्ज़ी भेजी थी और साथ मे बाबाजी की यात्रा की सफलता तथा उनकी सकुशल वापसी के लिये मंगल कामना भी की थी । बाबाजी की अर्ज़ी औपचारिक थी केवळ अपनी तीर्थ यात्रा की सफ़लता और सकुशल लौट आने की स्वार्थ से प्रेरित मनोकामना के साथ.
पूजा के बाद , बाबाजी की पारम्परिक विधि से घर के ज़नानखाने से विदाई हुई, दही-गुड़ से मुह मीठा कराया गया । माथे पर रोली चन्दन का टीका लगाये, वह बाहर बैठक में आये, गावं वालो से विदा होने को।
और तभी बाहर से खडाऊं की खटरपटर की आवाज़ आयी और एक अजनबी बैठक मे दाखिल हुआ। आज तक उस शहर में किसी ने इस व्यक्ति को पहले कभी नही देखा था । पर वह् बहुत अपनापन दिखाते हुए बाबाजी से एकान्त मे कुछ खुसुर पुसुर करने लगा। उसकी पूरी बात सुनकर बाबा जी के चेहरे पर चिन्ता की रेखाये उभर आयी। वह् आगन्तुक से केवल इतना कह कर कि "महाराज अभी आता हूँ " घर के अन्दर चले गये .
थोड़ी देर बाद जब वह लौटे उनके हाथ में एक नए अंगोछे में बंधा कुछ "सीधा" था जो वह उस अजनबी को देने के लिए भीतर से लाये थे. लेकिन जब वह पंहुचे तब तक वह अजनबी आगंतुक वहां से जा चका था. बाबाजी ने आदमी दौडाए उन्हें खोजने के लिए. पर वह नहीं मिले. बाबा और उनके साथ वहा बैठे सभी लोग उस व्यक्ति के अचानक गायब हो जाने से आश्चर्य चकित थे.
कहानी अब शुरू हुई है. कल इसके आगे बढ़ेंगे.
--- निवेदन :व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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