सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

हमारे गुरुजन # 3 0 5

हनुमत कृपा - अनुभव                                                                                (३०५)
                                                   Param Pujya Shree Swami Satyanand Ji Maharaj                       
साधक साधन साधिये   

                                                     साधना के पथ प्रदर्शक -                    
         "हमारे सदगुरु"
                         
                पिछले अंकों में मैंने आत्मकथा द्वारा अपने ऊपर हुई एक महत्वपूर्ण "गुरु कृपा"
               (उस्ताद जी की नजरे इनायत) का वर्णन किया !
              औपचारिक रीति से उस्ताद गुलाम मुस्तफा खान साहेब मेरे पहले 'विद्या गुरु' थे !
               इसके बाद १९५९ में मेरे परम सौभाग्य से मुझे मेरे आध्यात्मिक -धर्मगुरु 
       श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के दर्शन हुए!

जीवन का एक एक पल  मानव को प्रभु की अहेतुकी कृपा का अनुभव कराता हैं ! इन्सान को आनंद ,विषाद, पीड़ा , व्यथा , सुख-दुःख के सभी अनुभव "हरि-इच्छा" से होते हैं ! पर साधारण मानव (जिन पर उनके दुर्भाग्यवश गुरुजन की कृपा दृष्टी  नहीं होती ) वे नाना प्रकार की भ्रांतियों में भटकते रहते हैं ! ऐसे प्राणी आनंद और सुख के अनुभव का श्रेय  तो  अपने आप को देते हैं पर अपनी पीड़ा दुःख और विषाद के लिए ईश्वर को दोषी ठहराते हैं !

मैंने पहले कहीं कहा  है , एक बार फिर कहने को जी कर रहा है की मनुष्य को मानवजन्म प्रदान कर धरती पर भेजता तो परमेश्वर है लेकिन उसको इन्सान बनाता है ,उसको मुक्ति मोक्ष का मार्ग दिखाता है उसका "सद्गुरु" ! और यह सद्गुरु भी उसे उसके परम सौभाग्य 
से एकमात्र उस परमेश्वर की कृपा से ही मिलता है !

युवावस्था में लगभग २५ वर्ष की आयु में "स्वर द्वारा" 'ईश्वर सिमरन' करने की शिक्षा पा कर , प्रातः सायं के कंठ संगीत का रियाज़ करते समय  प्रत्येक "षड्ज" के उच्चारण में उस परम प्रभु परमेश्वर को पुकारते रहने का जो अभ्यास मुझे उन ५-७ वर्षों में हुआ , उसके  फल स्वरूप मैं रेडिओ आर्टिस्ट या फिल्मो में प्ले बेक सिंगर तो नहीं बन सका पर मुझे जो अन्य उत्कृष्ट उपलब्धि हुई वह अविस्मरणीय है ,उससे मेरा जीवन धन्य हो गया सच पूछो तो मेरा यह जन्म सार्थक हो गया !

वह उत्कृष्ट उपलब्धि थी "सद्गुरु दर्शन" एवं उनके "कृपा पात्र" बन पाने का सौभाग्य !

१९५६ में मेरा विवाह एक ऐसे नगर मे हुआ जिसके लगभग सभी  प्रतिष्ठित निवासी परम संत श्री स्वामी सत्यानंदजी महाराज के शिष्य थे तथा उनके परिवार के सभी व्यस्क जन महाराज जी से दीक्षित थे तथा "राम नाम" के उपासक थे !मेरा परम सौभाग्य था यह !

                      भ्रम  भूल   में   भटकते  उदय  हुए  जब  भाग ! 
                      मिला अचानक गुरु मुझे लगी लगन की जाग!!

स्वामी सत्यानन्द जी उस युग के महानतम धर्मवेत्ताओं में से एक थे ! लगभग ६५ वर्षों तक जैन धर्म तथा आर्य समाज से सघन सम्बन्ध रखने पर भी जब उन्हें उस आनंद का अनुभव नहीं हुआ जो परमेश्वर मिलन से होना चाहिए तो उन्होंने इन दोनों मतों के प्रमुख प्रचारक बने रहना निरर्थक जाना और १९२५ में हिमालय की सुरम्य एकांत गोद में उस निराकार ब्रह्म की (जिसकी महिमा वह आर्य समाज के प्रचार मंचों पर लगभग ३० वर्षों से अथक गाते रहे थे)  इतनी सघन उपासना की कि वह निर्गुण "ब्रह्म" स्वमेव उनके सन्मुख "नाद" स्वरूप में प्रगट हुआ और उसने स्वामीजी को " परम तेजोमय , प्रकाश रूप , ज्योतिर्मय,परमज्ञानानंद स्वरूप , देवाधिदेव श्री "राम नाम" के महिमा गान एवं एक मात्र उस "राम नाम" के प्रचार प्रसार में लग जाने  की दिव्य प्रेरणा दी "

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शेष अगले अंक में
निवेदक:   व्ही . एन . श्रीवास्तव  "भोला"
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रविवार, 27 फ़रवरी 2011

"स्वर ही ईश्वर है" # 304

"हनुमत कृपा - अनुभव                                                            साधक साधन साधिये 

हमारा साधन - भजन                                                                                 ( ३ ० ४ )
                                                  
                                                       "स्वर ही ईश्वर है"

उस्तादजी से प्राप्त उपरोक्त सूत्र,"गुरु मन्त्र" के समान मेरे मन बुद्धि पटल पर, सदा सदा के लिए ,फौलादी अक्षरों में अंकित हो गया ! उस दिन के बाद मैं, अपने निजी अनुभव के आधार पर ,सम्पर्क में आये सभी संगीत प्रेमी प्रियजनों को कभी न कभी इस परम सत्य सूत्र की सार्थकता एवं उपयोगिता से अवगत कराता रहा !

इस प्रथम पाठ के बाद उस्ताद जी की देख रेख में अधिक से अधिक स्वरसाधना करने का हमारा कार्यक्रम कुछ दिनों तक यथावत चलता रहा !इस बीच उस्तादजी के "जतिगायन" का शोध कार्य समाप्त हो गया और उनका कानपुर आना जाना भी धीरे धीरे कम हो गया! तभी १९५६ में मेरा विवाह हुआ जिससे संगीत की साधना से मेरा ध्यान थोडा घटा पर जब १९६० में ,मेरी छोटी बहन माधुरी का विवाह ,लखनऊ में ही हो गया तब हमारा रेडिओ से सम्बन्ध लगभग टूट सा ही गया ! सारांश यह है कि उसके बाद उस्तादजी से अनेकों वर्षों तक हमारी मुलाकात नहीं हुई !

इस बीच उस्तादजी पूरी तरह से मुम्बई में बस गए!संयोग से सन १९९७ में हम भी मुंबई पहुंच गए ! इस समय तक वह विश्वविख्यात हो चुके थे ,भारत सरकार द्वारा "पद्मश्री" उपाधि के लिए मनोनीत हो चुके थे, एक फिल्म में "बैजू बावरा" का किरदार निभा चुके थे ,एक में "उमरावजान" के उस्ताद बनने का मौका भी पा चुके थे ! अनेक फिल्मों में संगीत निर्देशन करने के प्रस्ताव भी उनके सन्मुख थे ! मुंबई के हरिहरन ,सोनू निगम , कविता कृष्ण मूर्ति जी आदि अनेक सुप्रसिद्ध गायक उनके शिष्य बन चुके थे ! उस्ताद जी की प्रसिद्धि एवं सफलता आकाश छू रही थी !

यह उस्ताद जी की महान उदारता थी की उन्होंने फोन पर मेरी आवाज़ पहचान ली और मुझसे भेंट करने के लिए वह खुद ही बांदरा से अल्तामाऊंट रोड तक हमारे घर आने को तैयार हो गये! यह अनुचित होता इसलिए मैं स्वयं उनके घर गया ! उन्होंने मुझे गले लगाया ! "मेरे भोला भाई" कहकर उन्होंने मेरा परिचय घर में सबसे कराया ! यह मेरे लिए अत्यंत सौभाग्य की बात थी की मेरे जैसे साधारण शागिर्द को उन्होंने याद रखा !

मैं आपको बताऊ की बीच के इन ५० वर्षों में मैं भी संगीत क्षेत्र में निष्क्रिय नहीं रहा था ! मैं इस बीच अपने इन्हीं उस्ताद जी के बताये महान सूत्र के सहारे, "स्वर में ही ईश्वर" के दर्शन करता कराता अपनी संगीत साधना में जुटा रहा !

उनसे प्राप्त वह "गुरुमंत्र" जीवन भर मेरी संगीत साधना का मूलाधार-प्रेरणा सोत्र बना रहा और केवल उसका अनुकरण करते हुए मैंने भक्ति संगीत के क्षेत्र में जो सीखा, जो सिखाया वह किसी भी अनपढ़ अज्ञानी अशिक्षित संगीतग्य के लिए असंभव था !

प्रियजन,मुझे उस्तादजी की दुआओं के कारण इस बीच अप्रत्याशित सफलताएँ भी हुईं !"षड्ज" के उच्चारण से "ईश्वर" को पुकार कर "उनसे" ही प्राप्त दैविक प्रेरणा के बल पर भक्ति संगीत के क्षेत्र में मैंने सैकड़ों गीतों की शब्द एवं स्वर रचना की और संसार की दृष्टि से लुकते-छिपते १९७३ से आजतक रामायण एवं भजनो के सात एल पी एलबम और १०-१२ केसेटों तथा सीडियों में शब्द -स्वर- संगीत संयोजन किया ! सम्भवतः उन भजनों को सुनकर और गाकर, अनेको भक्त हृदयों को आनंद की अनुभूति भी हुई!

याचना करके कहता हूँ कि मेरा यह कथन अहंकार से प्रेरित न माने ! मैं इस कथन द्वारा अपना वह दृढ विश्वास व्यक्त कर रहा हूँ जो मुझे उस्ताद जी से प्राप्त उस मन्त्र पर तथा अपने "इष्ट"की स्नेहमयी अहेतुकी कृपा पर सदा से है और जो दिन पर दिन स्थायी भी होता जा रहा है !




 "स्वर ही ईश्वर है"
तथा   
   " एके    साधे  सब सधे , सब साधे सब जाय " 
जिसमे आज मैं जोड़ रहा हूँ 
   " जो जन साधे एक स्वर भवसागर तर जाय "

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क्रमशः 
निवेदक: वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

हमारा साधन - भजन # 3 0 3

हनुमत कृपा -अनुभव                                                                                                          

साधक साधन साधिये                                                                         # ३ ० ३


औपचारिक विधि से नियुक्त अपने प्रथम "संगीत गुरु" जनाब उस्ताद गुलाम मुस्तफा खान साहेब से इस मिलन के पहले मैंने अपनी दीदी और छोटी  बहन के म्युज़िक टीचरों
से,जब वह बहनों को संगीत सिखाने हमारे घर आते थे , तब कमरे के परदे के पीछे से या बगल के कमरे में छिप छिप कर बहुत कुछ सीखा था ! वो बेशकीमती धरोहर भी मेरी स्मृति पिटारी के कोनों में तब से आज तक सहेजी पड़ी है ! 

वह चोरी चोरी संगीत सीखने का अनुभव ,बालगोपाल कृष्ण कन्हैया  द्वारा गोकुल में गोप-गोपियों के घर से चुराए हुए माखन मिस्री की तरह बहुत मधुर था ! संगीत के प्रति मेरी रूचि बढाने और उसे स्थिर करने में वह मेरा बड़ा सहायक हुआ ! बहुत सी चीजें जो मैंने उन दिनों चोरी चोरी  सीखीं थीं मुझे आज ७०-७५  वर्ष बाद भी ज्यों की त्यों याद हैं ! उनकी चर्चा विस्तार से फिर कभी करुंगा अभी प्रियजन अपने उस्ताद , जी हाँ बिलकुल अपने ही उस्ताद "संगीत गुरु गुलाम मुस्तफा खान साहेब" से पाई शिक्षा के कुछ विशेष अंशों से आपको अवगत करा दूं !

उस दिन की कथा चल रही थी जिस दिन उस्ताद ने मुझे "गंडा" बांधा और कबीरदास जी की सद्गुरु संबंधी रचना अति सरसता से हमे सुनायी थी ! उसके बाद उन्होंने "सदगुरु" की भारतीय पुरातन ग्रंथों में वर्णित परिभाषा भी बतायीं !(सन्देश ३०१/३०२ देखें)

इसके उपरांत ही हमारी वास्तविक संगीत शिक्षा शुरू हुई ! प्रथम पाठ में उस्ताद ने हमेँ "स्वर साधना" का महत्व  बताया ! हमने पहली बार यह तथ्य उनसे ही सुना कि केवल एक स्वर "सा"( षड्ज) को ठीक से साध लेने से गायक के कंठ में सप्तक के सभी स्वर भली भांति सध जाते हैं ! उन्होंने यह समझाते हुए कहा था  : 

                               "एकै साधे सब सधे , सब साधे सब जाय " 

"एक" का महत्व समझाते हुए उन्होंने आगे कहा "भोला भाई ! हम इंसानों को दुनिया से यदि कुछ पाना है और अगर हमें बदले में इस दुनिया को कुछ भी देना है तो हमेँ "एक बस एक" सर्व शक्तिमान परमेश्वर  का  दामन पकड़ना होगा ! एक वह ही है जो हमें  सुबुद्धि देगा , हमें ऐसा मनोबल और शक्ति देगा जिसका प्रयोग कर के हम अपने उद्देश्य में सफल हो पाएंगे !"

"भोला भाई ! मुश्किल नहीं है यह ! तानपुरा उठाओ , अपने स्वर से मिलाओ, और फिर पूरे भाव-चाव से उस स्वर से स्वर मिला कर "सा" या "ॐ" या "राम"कहो तुम्हारा इष्ट  
चाहे जिस नाम का हो ,वह अविलम्ब  तुम्हारे सन्मुख प्रगट हो जायेगा क्योंकि 

                                               "स्वर ही ईश्वर है"

उस्ताद से सुने इस कथन की सत्यता का मैंने , तब १९५०-५५ से लेकर आज तक निजी रूप से कई बार अनुभव कर लिया है ! मैंने जब जब भी कोई उत्तम संगीत सुना अथवा किसी 'पहुंचे हुए' सिद्ध गायक के कंठ से निकला हुआ शुद्ध "सा" मेरे कानों में पड़ा मुझे रोमांच  हो गया , मेरी आँखें नम हो कर मुंद गयी और मन आनादित हो गया ! यह परम सत्य है कि समर्थ गायकों के अंतर्घट से उठे "षड्ज" स्वर की तरंगों के कानों में पड़ते ही श्रोताओं को उस परमानन्द की प्राप्ति होती है जो किसी प्रकार  भी साक्षात "हरिदर्शन" से कम नहीं है  ! गायक के "स्वर" में गूंजता "ईश्वर", श्रोताओं के हृदय झरोखों से झांकता हुआ प्रत्यक्ष दिखाई देता है ! 

मुझे जीवन में इस प्रकार के "स्वर में ईश्वर दर्शन " के अनेको अनुभव हुए ,जो आपको आगे  कभी बताऊंगा ! हो सकता है आपने भी ऐसा अनुभव कभी न कभी अवश्य किया होगा ! कृपया उनके विषय में हमे बताएं जिससे अन्य  पाठकों को भी हमारे उस्ताद के इस परम सत्य कथन पर कि "स्वर ही ईश्वर है " दृढतम विश्वास हो जाये ! 


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क्रमशः 
निवेदक: व्ही. एन.  श्रीवास्तव "भोला"
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गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

हमारी साधना - भजन # 3 0 2

हनुमत् कृपा - अनुभव                                                                                            साधक साधन सधिये
हमारा साधन - भजन                                                                                                                    # ३ ० २

"गुरु की महिमा":

सद्गुरु हो महाराज मो पे साँयी रंग डारा  !!

कबीर दास जी ने अपने इस पद में "सद्गुरू" को एक जादूगर बताया , एक रन्ग्रेज़ बताया , एक शक्तिशाली कुशल धनुर्धर बताया कबीर दास जी ने ! तब , १९५० के दशक के पूर्वार्ध तक मेरे कोई आध्यात्मिक गुरु नही थे ! सद्गुरु के महत्व को तब तक मैं तनिक भी नही जानता था ! गुलाम मुस्तफ़ा साहेब जो कुछ पल पहिले तक मेरे भाई सदृश्य थे, मेरी कलायी मे गण्डा बान्धने के साथ ही मेरे "संगीत के सदगुरु" बन गये थे ! और उस भजन द्वारा उन्होने हम दोनो नये शागिर्दो को गुरु महिमा का एक स्पष्ट संदेश दिया !

हमे अचरज तो तब् हुआ जब उन्होने ,"सद्गुरु की महिमा" दरशाते , भारत के प्राचीन ग्रन्थो से संस्कृत भाषा के अनेक श्लोक शास्त्रीय  रागो मे गा कर हमे सुनाये ! ये सभी श्लोक उन्हे कण्ठस्थ थे और वह अति दक्षता शुद्धता और मधुरता से उनका उच्चारण कर रहे थे ! हम दोनो शागिर्द मन्त्र मुग्ध हो कर सुनते रहे ! किसी श्लोक का भावार्थ हमे समझाते हुए उन्होने कहा,
सद्गुरु वह है जो तुम्हारे भाग्योदय का प्रतीक बन कर तुम्हारे जीवन मे तब आता है जब परमात्मा की असीम अनुकम्पा तुम पर होती है !
सद्गुरु वह है जिसके दर्शनमात्र से मन आनन्दित हो जाता है ! आँखें भर आती है !
सद्गुरु वह है जिसके चरन शरन मे एक बार आजाने के बाद , उनके चरणो पर से अपना मस्तक पल भर को भी हटाने को जी न चाहे !
सद्गुरु वह है जिसके अमृत वचन सुनने से मन कभी नही अघाये , अधिक से अधिक उनकी "अमृतवाणी" सुनते रहने को जी करे !
हमारे लिये तब तक सदगुरु को परिभाषित करने वाला ये सारा ज्ञान बिल्कुल नया ही था ! हम तब की परम्परा के अनुरूप गुरु को ब्रह्मा विष्णु महेश माता पिता तो मानते थे पर उनसे इतना प्रेम नही करते थे !

उस्ताद ने किस श्लोक के आधार पर हमे ये बताया था हमे नही मालूम !


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शेष अगले संदेश मे

निवेदक : व्ही एन श्रीवास्तव "भोला"

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बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

हमारी साधना - भजन # 3 0 1

हनुमत कृपा - अनुभव                                                           साधक साधन साधिये 

हमारी साधना - भजन                                                            ( ३ ० १ )


तारीख़ महीना साल अब कुछ भी याद  नहीं ! ५०-६० साल पुरानी डायरियां भी हमारे ७५ वर्ष पुराने मकान की अलमारियों से धीरे धीरे गायब होगयीं शायद दीमकों ने उन्हें स्वाहा कर दिया ! हाँ, तो १९५० के दशक में कभी ,हमारे बहत अनुरोध पर ग्वालटोली बाज़ार के किसी मकान की एक छोटी सी कोठरी में गुलाम मुस्तफा साहेब ने कानपूर में अपना एक छोटा सा अस्थायी विद्यालय बनाना स्वीकार किया ! 

मुझे गर्व है कि उन्होंने कानपूर में अपने प्रथम शागिर्द के रूप में मुझे और मेरे छोटे भाई जैसे स्थानीय सुगम संगीत प्रेमी पड़ोसी संतू श्रीवास्तव को स्वीकार किया ! मुस्लिम काल के संगीत घरानों की परंपरा के अनुसार हम दोनों शागिर्दों को दीक्षा देने  की सारी व्यवस्था उस्ताद की मन्त्रणा अनुसार संतू भाई  ने की !

पारम्परिक हिन्दू गुरुजन जिस प्रकार रोली टीका कर के कलाई में 'कलावा' बांधते हैं वैसे ही हमारी कलायी में मुस्तफा साहेब ने "गण्डा" बाँधा ! हम दोनों उनके शागिर्द हो गये ! इसके अतिरिक्त और क्या क्या हुआ वह कुछ भी याद नहीं ! संतू ,लाल कुँए के पास के हलावाई की जलेबिओं का एक बड़ा दोना , हनुमान जी के मंदिर में प्रसाद चढ़ा कर ले आया ! हम सब ने बड़े प्रेम से प्रसाद पाया ,तब तक पास का चायवाला मिट्टी के सकोरों में चाय भी दे गया !  

संगीत विद्यालय था , कुछ संगीत तो होना ही था ! इधर उधर से मांगमूंग कर तानपूरा  तबला और बाजा लाया गया था ! आप सोच ही सकते हैं कि साधारण हिन्दू गृहस्थों के घर के साज़ किस स्टेंडर्ड के होंगे ! तानपुरा स्त्रियों की गायकी में काम आने भर का था! पुरुषों के ऊँचे स्वर तक उसे मिला पाना कठिन था !

उस्तादजी ने कुछ आपत्ति नहीं की ! उसी तानपुरे को किसी प्रकार मर्दाने स्वरों तक चढा कर मिला लिया ,और आँखें मूँद कर गर्दन नीचे झुकाए हुए ,अपने कंठ से जो स्वर उन्होंने भरा तो , मेरी आँखें भर आयीं ! कैसे बताऊं ,कितनी मिठास थी, कितनी तडप थी, कितना दर्द था, कितनी पीड़ा थी, उस एक स्वर में ? स्वर साधन करने के बाद उन्होंने मेरी रूचि का आदर करते हुए कबीरदास जी  का यह भजन गाया ! हमे आज वह भजन इसलिए याद आ गया क्योंकि इसके लगभग ४० वर्ष बाद ,१९८० =९० के दशक में वह एक बार कानपूर आये थे और  हमारे घर के सत्संग भवन में हमारे आध्यात्मिक गुरुदेव के चित्र के समक्ष उन्होंने वही भजन गाया था जो हम सब को बहुत अच्छा लगा ! हमारे माधव जी तो उस दिन से यह भजन अक्सर गाते रहते हैं !हमने उस दिन यह भजन रिकार्ड भी कर लिया था और वह रेकार्डिंग अभी भी हमारे पास है ! व्यवस्था हो जायेगी तो प्रियजन किसी दिन आपको सुनाऊंगा भी ! वह भजन था :-

 सतगुरु हो महाराज मोपे सांई रंग डारा !
शब्द की चोट लगी मेरे मन में बेंध गया तन सारा !
औषधि  मूल  कछू नहीं लागे  का करे  बैद बिचारा ! 
सुर नर  मुनि जन  पीर औलिया कोई न पावे पारा !
कहत  कबीर  सरव रंग  रंगिया  सभी रंग ते न्यारा!  
                                    सतगुरु हो महाराज मोपे सांई रंग डारा !

इसके अतिरिक्त उस्ताद ने एक और भजन सुनाया था , वह भी फिर कभी बताऊंगा ! आज इतना ही !

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क्रमशः 
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

हमारी साधना - भजन # 300

Ustad Ghulam Mustafa Khan                                 हनुमत कृपा - अनुभव 
पद्म भूषण
उस्ताद गुलाम मुस्तफा खान  
     
       साधक साधन साधिये                       हमारी साधना - भजन कीर्तन   (३ ० ० )


जब १९५०-६० के दशक में  मैं पहली बार मुस्तफा साहेब से मिला तब मेरी उम्र रही होगी २४-२५ के दरमियाँ और उस्ताद मुझसे एकाध वर्ष छोटे २२ -२३ वर्ष के रहे होंगे ! उन दिनों मैं अपनी छोटी बहन माधुरी श्रीवास्तव का अभिभावक और संगीत शिक्षक बनकर उनका  रेडिओ कार्यक्रम करवाने  जाया करता था ! अन्य कलाकारों की अपेक्षा माधुरी उस समय उम्र में काफी छोटी थी ! वह १५ - १६ वर्ष की अवस्था में ही रेडिओ पर  गाने लगी थी  और हाँ थोड़ा जादू मेरी सरस "शब्द एवं स्वर रचनाओं " का भी था  (क्षमा प्रार्थी हूँ ,अपने मुंह मिया मिट्ठू बनने का अपराध जो कर रहा हूँ ) जिसके कारण हम दोनों भाई बहन ," भोला माधुरी", उन दिनों लखनऊ रेडिओ स्टेशन में काफी प्रसिद्द हो गये थे !

शायद उन्ही दिनों मुस्तफा साहेब भी रेडिओ स्टेशन से जुड़े थे ! अस्तु हम दोनो 'हमउम्र' व्यक्तियों में भाइयों का सा सम्बन्ध होना स्वाभाविक ही था ! और एक बात थी कि दोनों ही संगीत में रूचि रखते थे ! अंग्रेज़ी में एक मशहूर कहावत है "Birds of the same feather flock together" (इसके बराबर की हिंदी कहावत नहीं याद आ रही है, कृपया कोई बताये प्लीज़) ! हम दोनों - गुलाम मुस्तफा साहेब और मैं,उस समय से आज तक इस कथन को भली भांति चरितार्थ कर रहे  हैं !

प्रियजन , वह मुझे मित्रों जैसा भरपूर स्नेह देकर मुझे "भोला भाई" कह कर संबोधित करते थे ! "मौसीकी' के किसी कोण से मैं उनका मुकाबला नहीं कर सकता !सच पूछिए तो वह तब (आज से ५०-६० वर्ष पहले भी ) संगीत के आकाश में वैसे ही प्रकाशमान थे ! मैं मानता हूँ कि वह संगीत के सूर्य हैं और मैं एक जुगनू भी नहीं हूँ ! 

अनेकों पीढ़ियों से संगीत की सेवा करने वाले बदायूं के इस होनहार संगीतग्य का मित्र कहला पाना भी मेरे लिए बड़े गर्व की बात तब भी थी और आज भी है ! मेरे विषय में तो आप सब जानते ही हैं कि मैं , सांसारिक उत्तरदायित्व निभाने और अपने परिवार की परवरिश करने के लिए ज़िन्दगी भर, पेशे से "चर्मकार" बना रहा और रोज़ी रोटी के सिलसिले में देश-विदेश भटकता रहा , और परमात्मा की इच्छा से मेरा "संगीत" केवल भजन लेखन और गायन तक सीमित रहा जिनमे मुझे असाधारन उपलब्धियां भी हुई,!
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                    सो सब तव प्रताप रघुराई , नाथ न कछू मोरि प्रभुताई 

अब मुझे ऐसा लगता है जैसे ईश्वर ने मुझे "संगीत" का दान केवल सन्मार्ग दिखाने  और उस राह पर चलते हुए स्वयम स्वधर्म पालन करने और अपने प्रिय स्वजनों  को भी उस पथ पर सतत चला कर उनके साथ मिलकर समवेत स्वरों में "हरि गुणगान"  करने के लिए ही दिया है !

हाँ ,तब १९५०-५५ में ,जब मैं कानपूर में ही था,मेरे पुरजोर अनुरोध पर गुलाम मुस्तफा साहेब  मुझे संगीत सिखाने को राजी हो गये ! यह मेरा सौभाग्य था और मेरे लिए बड़े गर्व की बात थी ! 

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क्रमशः 
निवेदक: वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"                                        

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

साधन - भजन कीर्तन # 2 9 9

हनुमत कृपा - अनुभव                                            साधक साधन साधिये 

साधन - भजन कीर्तन                                                                  २ ९ ९ 



"संगीत शिक्षा"


उस जमाने में ( १९३०-४० के दशक में ) मध्यम वर्ग के कायस्थ परिवार में यदि विवाह के योग्य एक कन्या हो तो ,यह आवश्यक हो जाता था की घर पर ही एक म्यूजिक टीचर लगाकर बिटिया को बाजे  पर "स रे ग म प ------"  निकालना सिखा दिया जाय ! ऐसा था कि उन्रदिनों अधिक वर पक्ष वाले ,कन्या  में अन्य गुणों के साथ साथ यह भी चाहते थे की कन्या को थोडा बहुत गाना बजाना जरुर आना चाहिए !

मेरी उषा जीजी  अभी १२ वर्ष की ही थीं जब उनके विवाह की चिंता घर वालों को सताने लगी ! कलकत्ते से हार्मोनियम मंगवाया गया और उन्हें संगीत सिखाने के लिए म्यूजिक मास्टर की तलाश शुरू हुई ! कानपूर में उन दिनों तो तीन संगीत टीचर ही थे !जोगलेकर जी , बलवा जोशी जी और बोडस जी ! इन  तीनों में से नेत्रहीन श्री जोगलेकर जी हमारे घर के पास में रहते थे और उन्होंने उषा जीजी को संगीत सिखाना शुरू किया !जब वह सीखती थीं , तब ८-१० वर्ष का मैं भी उनके निकट बैठ जाता था ! समझिये इस प्रकार मेरी संगीत शिक्षा का  शुभारम्भ हुआ ! जीजी का विवाह हो जाने तक रुक रुक कर यह शिक्षा चली.

बाकायदा मेरी संगीत सिक्षा शुरू हुई बहुत बाद में ,१९५० के दशक में !

पद्मभूषण उस्ताद गुलाम मुस्तफा खान साहिब का उन दिनों (१९५० के दशक में) अक्सर  कानपुर आना जाना  होता था ! उस्ताद तब कानपूर के प्रोफेसर ब्रहस्पति जी के साथ मिलकर , आज  से लगभग ८०० वर्ष पूर्व  मतंग ऋषि द्वारा रचित नाट्य शाश्त्र में वर्णित "जति गायन" की भूली बिसरी पद्धति का व्यावहारिक प्रयोग करके उस गायन पद्धति की पुनर्जीवित  करने का प्रयास कर रहे थे !

सहसवान-रामपुर -ग्वालियर घरानो से सम्बन्धित गुलाम मुस्तफा खान साहेब ,बदायूं के (मरहूम) उस्ताद इनायत हुसैन खान के बेटे और रामपुर के (मरहूम) फिदाहुसैन साहेब के नाती हैं ! उनके  मामू (मरहूम) निसार हुसैन खान साहेब ने उन्हें अपनी शागिर्दी में लेकर उनसे इतनी सुंदर तैयारी करवायी की छोटी अवस्था में ही वो अति सुगमता से संगीत के चार स्वर सप्तकों पर सुगमता से विचरण कर लेते थे ! उनका कंठ अति मधुर था ! थोड़े समय में ही वह तराना गायकी में अपने मामू साहेब के समानंतर हो गये !

उन दिनों मैं अपनी छोटी बहेंन माधुरी को उसके सुगम संगीत के प्रोग्राम प्रसारित करने के लिए अपने साथ आकाशवाणी लखनऊ ले जाया करता था ! अभी याद नहीं कि किसने हमें गुलाम मुस्तफा साहेब से मिलवाया था पर बहुत संभव है कि रेडिओ स्टेशन के संगीत विभाग के  जनाब शफाअत अली साहिब ने हमारी मुलाकात उनसे करायी होगी !


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क्रमशः
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
  

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

साधन-भजन कीर्तन # 2 9 8

हनुमत कृपा -अनुभव                                                          साधक साधन साधिये

साधन-भजन कीर्तन                                                                              ( २ ९ ८ )

भक्ति संगीत (भजन) का प्रभाव

संगीत मार्तण्ड पन्डित ओमकारनाथ जी हमारे बी.एच .यू. के संगीत महाविद्यालय के संस्थापक और प्रथम प्राचार्य थे ! उन्होंने महामना मालवीय जी की मन्त्रणा से भारतीय शाश्त्रीय संगीत के प्रचार प्रसार हेतु इस विद्यालय की स्थापना करवायी थी !

यह उनके दिव्य ( जी हाँ दिव्य ) संगीत का आकर्षण था जिसने सैकड़ों संगीत प्रेमियों को ,विश्वविद्यालय के रुरिया  हॉस्टल के सामने वाले  घास के मैदान में, बिना किसी तम्बू-कनात के , डायरेक्ट "नीले गगन के तले ,तारों की छैयां में " शीतकाल की शीतल ओस में भींगते हुए,बिना किसी शिकवा शिकायत के सारी रात बिठाये रखा !

मेरे जीवन का यह पहिला अवसर था जब मुझे ऐसे दिव्य गायक के इतने निकट बैठकर   उनका संगीत सुनने का सुअवसर मिला ! पंडित जी के गायन में जो एक प्रमुख विशेषता मुझे उस समय लगी , वह यह थी की वह कोई भी गायन (ख्याल - भजन कुछ भी ) शुरू  करने के पूर्व कुछ समय को आँखें बंद कर के "ध्यान" लगाते थे और जो पहिली ध्वनी उनके कंठ से निकलती थी वह प्रनवाक्ष्रर "ॐ" जैसी थी ! गुरु से प्राप्त "मन्त्र" के समान मेरे जहन में उसी   समय यह बात बस गयी कि अपना कार्यक्रम प्रारम्भ करने से पहले हर गायक को अपने "इष्ट"का सिमरन अवश्य कर लेना चाहिए !

प्रियजन ! मेरा ये "ओब्ज़रवेशन" १९४७-४८ का है ! मैंने उस समय तक इतने निकट से  किसी अन्य विख्यात संगीतग्य को गाते हुए नहीं देखा था ! हो सकता है की उस जमाने में  अन्य गायक भी ऐसा करते रहे होंगे !

सुगम संगीत तथा काव्य में मेरी रूचि के कारण आकाशवाणी से सम्बन्धित हो जाने पर मुझे ,१९४७ से आज २०११ के बीच , ६४-६५ वर्षों में भारत के अन्य बड़े बड़े संगीतज्ञों से मिलने का मौका मिला !और मैंने देखा कि एक तरह से सभी स्वर-संयोजक , गायक , वादक अपना प्रोग्राम शुरू करने से पहिले "स्टेज" को सर नवाते हैं और  श्रद्धा से अपनीं आँखें मूँदकर अपने ईश्वर-खुदा को याद करते हैं !

अत्यंत निकट से, परिवार के माहौल में घर पर ही मुझे नौशाद साहेब , पंडित जसराज जी, गुलाम मुस्तफा साहेब, मुकेशजी,कविता कृष्णमूर्ति जी,हरिओम शरणजी, वाणी जयराम जी तथा पंकज उदास जीआदि अनेक जाने माने संगीतज्ञों से मिलने का अवसर मिला !मैंने इन सभी प्रतिष्ठित संगीतज्ञों को कार्यक्रम के पहिले अपने इष्ट को उसी भाव से याद करते हुए पाया ! संगीत उनके इबादत ,उनकी साधना का प्रमुख साधन है !

उतनी सघन साधना के साथ प्रस्तुत संगीत क्यों नहीं हृदय छुएगा , क्यों नहीं सुनने वालों की आँखों को नम करेगा ?, क्यों नहीं उनके रोम रोम को झंकृत कर देगा ?

प्रियजन, विश्वास करिये श्रोताओं को ऐसा भक्ति संगीत सुनकर अवश्य ही उनके अपने "इष्ट" का प्रत्यक्ष दर्शन हो जायेगा !

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निवेदक: व्ही. एन.  श्रीवास्तव "भोला"

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

साधन - भजन कीर्तन - # 2 9 7

हनुमत कृपा - अनुभव                                                      साधक साधन साधिये 

साधन-"भजन कीर्तन"                                                                         ( २ ९ ७ )

"भजन साधना"

"भजन साधना"  से आध्यात्म के क्षेत्र में सच्चे साधक के लिए कोई भी उपलब्धि असंभव नहीं इस बात पर मुझे पूरा विश्वास है ! बात केवल इतनी  है कि जहाँ मैं अपने निजी साधारण अनुभव भी पूरे भरोसे के साथ आपको बता सकता हूँ ,दुसरे लोगों के अनुभव उतने भरोसे से नहीं बता पाउँगा ! इसी से मैं अपने संदेशों को अपने निजी अनुभवों तक ही सीमित रखता हूँ !

मेरे जीवन में "भजन साधना" का शुभारम्भ 

पिछले सन्देश में मैंने आपको कुछ ऐसे ही दिव्यआत्माओं के नाम बताये जिन से प्रेरणा पाकर मैंने अपनी किशोरअवस्था में ही गायन के क्षेत्र में फिल्मी गीतों के साथ ही भजनों को और पारम्परिक गीतों को प्राथमिकता देनी शुरू कर दी ! १८ वर्ष की अवस्था में  हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्धयन के दौरान (१९४७ - १९५१ में)मैं केवल मुकेश जी और जनाब  रफी साहेब के फिल्मी गाने ही गाता था ! पर वहीं मुझमे एक चमत्कारिक परिवर्तन हुआ !

उन्हीं दिनों मुझे बी.एच. यु. में आयोजित संगीत मार्तण्ड ठाकुर ओमकार नाथ जी के एक शास्त्रीय   संगीत के कार्यक्रम में वालन्टिअरिन्ग के बहाने शामिल होने का अवसर मिला!    जाड़े की वह पूरी रात  मैंने शून्य से उतरती पूर्ण चन्द्र की शीतल ओस सनी सजल किरणों में भींज कर काटी ! ठाकुर जी के स्वरों की गर्माहट ने उस शीतल रात्रि को इतना गरमा दिया था कि किसी को भी कोई ठिठुरन नहीं हुई ! उनके सधे हुए स्वरों के उतार चढ़ाव से हम सब श्रोताओं के रोम रोम एक विचित्र सिहरन से थिरक गये और हम सबकी आँखों से झरती गर्म अश्रु धारा से वह सारी महफिल गरमा गयी ! संगीत से प्रवाहित आनन्द -रस से सभी अपनी सुध -बुध  भूल गये ! श्रोताओं  की  सारी रात पंडित ओमकारनाथजी  की हृदय की गहराइयों को छूने  वाली  संगीत -कला का आनन्द लेते हुए कट गई ! 

प्रातः कालीन सूर्य की सुनहरी किरणे नीलाकाश में  पूर्व दिशा से झाकनें  को उद्धयत हो  रहीं थीं ! बचे हुए प्रबल संगीत प्रेमी पंडाल से उठने को तैयार न थे ! पर समापन तो होना ही था ! श्रोताओं के विशेष अनुरोध पर पंडित जी ने सूरदास जी का वह पद गाया जिसका उल्लेख मैंने अपने पिछले सन्देश में किया है --

मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो
भोर  भयो  गैयन  के  पाछे  मधुबन  मोहि   पठायो !
चार  पहर  बंसी  बन    भटक्यो  साँझ परे घर आयो !!
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यह ले अपनी लकुटी कमरिया बहुत ही नाच नचायो ,
सूरदास तब  बिहंसि  जसोदा , ले उर  कंठ   लगायो !!
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सूरदास जी की इस रचना में माता यशोदा और बालक कृष्ण के बीच हुई नोकझोंक में जो     जो भाव प्रगट हुए पंडित जी ने अपने कंठ से उन सब भावों का अलग अलग शास्त्रीय   राग-रागिनियों और पारंपरिक धुनों द्वारा ऐसा सजीव  चित्रण  किया कि श्रोतागण को ऐसा लगा जैसे वे "नंदालय" के आंगन में बैठे हैं और वह "बाल लीला" उनके सन्मुख ही  हो रही है ! वहां का सारा वातावरण परमानन्द मग्न हो गया !

अनुमान लगाओ प्रियजन ! कि उस पल वहां उपस्थित हम सब संगीत प्रेमियों की मनः  स्थिति कैसी रही होगी ?  सबकी छोडिये , मेरी सुनिए मुझे  तत्काल जो आनंद मिला था वह प्रत्यक्ष कृष्ण दर्शन से किसी भांति कम न था ! यह आनंद वैसा ही था जैसा कदाचित मेरी अम्मा को तब प्राप्त हुआ था जब मैं ५-६ वर्ष का था और मैंने उन्हें "ध्यान" में अपने बालगोपाल के दर्शन के बाद मुस्कुराते हुए देख लिया था (विस्तृत वर्णन पहिले दे चुका हूँ)

इसके अतिरिक्त पंडित जी के उस कार्यक्रम ने मेरे मन में भजन गायन के भाव जागृत  करा दिए और संगीत के लिए एक नयी उमंग ऊर्जा मुझमें प्रवाहित हो गयी !

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निवेदक :- वही. एन. श्रीवास्तव "भोला" 

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

साधन - भजन कीर्तन # 2 9 6


हनुमत कृपा                                                              साधक साधन साधिये 

साधन - भजन कीर्तन                                                                   ( २ ९ ६ ) 


                                           


भजनों का दिव्य प्रभाव

भजनों के शब्दकार  तथा गायकों की आध्यात्मिक स्थिति के विषय में चर्चा करते हुए 
किसी  महापुरुष ने अपने एक प्रवचन में कहा कि गाने योग्य, भगवत प्रेम से  ओतप्रोत 
साहित्य की रचना करने वाले तथा गेय रचनाओं को संगीत बद्ध कर के गानेवाले साधारण 
जीवधारियों जैसे दिखने वाले व्यक्ति वास्तव में दिव्यगुण संपन्न महात्मा  होते हैं !प्रभु उनसे अतिशय प्रीती करते हैं ! ऐसे गायक भक्तों में उन्होंने आदि शंकराचार्य ,तुलसी ,मीरा ,सूर ,कबीर, स्वामी हरिदास आदि अनेक नाम बताये ! ये सब महापुरुष तो सदियों पूर्व इस धरती पर आये थे !

मैं अपनी याददास्त से उपरोक्त गायकों के अतिरिक्त इस शताब्दी में जन्मे , पर अब दिवंगत महागायकों के नाम तथा उनके प्रेरणादायक अमर भजनों की सूची यहाँ दे रहा हूँ जिन भजनों को सुन कर मुझे  भजन गाने की प्रेरणा मिली :
  • पंडित ओंकार नाथ ठाकुर जी :   "मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो ",
  • श्री डी. वी . पलुस्कर जी :   " पायो जी मैंने राम रतन धन पायो "
  • श्री भीमसेन जोशी जी :   " जो भजे हरी को सदा ,वो परम पद पायेगा "
  • श्री दिलीप  राय:  " तुने क्या किया ये बता तो सही मेरा चैन गया मेरी नींद गयी"
  • श्री  के .एल .सहगल जी :   " नैन हींन को राह दिखा प्रभु पग पग ठोकर खाऊं मैं "
  • श्री हरिओम शरण जी :  " ऐसा प्यार बहा दो मैया " 
  • श्री  मुकेश जी :   " सुर की गति मैं क्या जानू  एक भजन करना जानू " 
  • जनाब रफी साहेब :   " पांव पडूँ तोरे श्याम ब्रिज में लौट चलो "
आज भी अपनी मधुर वाणी से हम सब को दिव्य आनंद प्रदान करने वाले निम्नलिखित संगीतज्ञ गायकों के भजन हमारे हृदय में भक्ति भाव का अनायास ही संचार करवा देते हैं 

पंडित जसराज जी, मिश्र बंधू राजन-साजन जी , जगजीत सिंह जी, पुरुषोत्तम दास जलोटा जी एवं उनके पुत्र अनूप जी, पंकज उधास जी, आदि  पुरुष गायक !  देवियों में   मेरी जानकारी में प्रमुख हैं बंगाल की सुश्री जूथिका राय , श्रीमती दीपाली ताल्लुकदार जी, संध्या मुखेर्जी जी ! विश्वप्रसिद्द गायिका  एम् एस सुब्बुलक्ष्मी किशोरी अमोनकर जी , लताजी, आशाजी, कविता कृष्णमूर्ति जी ,आदि के मधुर भजनों को कौन भुला सकता है.!

बचपन से केवल उपरोक्त भजनों को सुन सुन कर मैंने भजन गाना सीखा है ! अस्तु ये सभी गायक मेरे संगीत गुरु हैं ! मैं सब को ही श्रद्धा सहित प्रणाम करता हूँ ! अवश्य ही बहुत से प्रमुख गायकों के नाम मेरे स्मृत पटल से मिट चुके होंगे ! अब इस उम्र में सब कुछ याद रख पाना असंभव है ! उनसे क्षमा मांगता हूँ !

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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

साधन -भजन कीर्तन # 2 9 5

हनुमत कृपा - अनुभव साधक साधन साधिये
साधन -भजन कीर्तन ( २ ९ ५ )

आज प्रातः यह सुनिश्चित हो गया कि वह पिछला संदेश जिसने बार बार रंग रूप बदल बदल कर मुझे बहुत सताया था, वह इस योग्य ही नहीं जो आपको भेजा जाये ! और यह निर्णय मेरा नहीं - मेरे प्रेरणा स्रोत, मेरे इष्ट , मेरे मार्ग दर्शक , मेरे ईश्वर का है ! इसलिए इसे "हरि इच्छा" मान कर "उनकी" ही मन्त्रणानुसार मैं अपने नाम-भक्त , "अमृतवाणी" गायक भैया के मित्र की कहानी जहाँ की तहाँ छोड़ रहा हूँ !

भागवत धर्म :

श्रीमदभागवत महापुराण के मर्मज्ञ संत महापुरुषों से जाना कि साधारण अज्ञानी भोले भाले व्यक्ति भी यदि भागवत धर्म का पालन करें तो सुगमता से " ब्रह्म" का साक्षात्कार कर सकते हैं ! महापुरुष कहते हैं कि भागवतधर्म का सहारा लेकर कर्म करने वाले लोगों के मार्ग में विघ्न आते ही नहीं , वह यदि नेत्र बंद करके भी दौड़ लगाये तो कभी गलत राह नहीं पकड़ सकते और गंतव्य तक पहुँच ही जाते हैं ! शर्त यह है कि वह जो कुछ भी करे, जैसे भी करे, वह सब परमपुरुष भगवान के लिए ही करे और उस कर्म का समूचा फल भगवान को ही समर्पित कर दे ! यही सरल से सरल सीधा सा भागवत धर्म है !

ऐसा भक्त किसी अन्य वस्तु व्यक्ति और स्थान विशेष में आसक्ति न रखे और अपने इष्टदेव, गुरुदेव, एवं अन्य दिव्य महापुरुषों के जन्म एवं जीवनवृत्त तथा उनकी लीला कथाओं का श्रवण करे ,एकांत में उनका ही ध्यान और चिन्तन करे, तथा लाज संकोच छोड़ कर उनके ध्यान में मगन हो कर उनके गुणों का गायन करे !

जो व्यक्ति उपरोक्त व्रत -नियम पूर्वक करता है , उसके हृदय में आपसे आप ही अपने प्रियतम प्रभु के नामजप-सिमरन भजन कीर्तन से अनुराग का अंकुर उग आता है! उसका चित्त द्रवित हो जाता है और वह साधारण लोगों की स्थिति से ऊपर उठ कर आम मान्यताओं और धारणाओं से परे हो जाता है ! वह दम्भ से नहीं , बल्कि स्वाभाव से ही मतवाला होकर कभी हंसता है , कभी रोता है और कभी ऊंचे स्वर से अपने इष्ट को पुकारता है ! तो कभी कभी वह प्रियतम प्रभु के गुणों को शब्दों में सजा कर मधुरस्वर में उनका गायन करने लगता है ! और हाँ कभी कभी जब वह अपनी बंद आँखों के सामने अपने प्यारे प्रभु का प्रत्यक्ष दर्शन पाता है , तब तो वह लोक लाज कुल की मर्यादा त्याग कर मस्ती से नाच ही उठता है !

इस स्थिति का आनंद चैतन्यमहाप्रभू , मीराबाई ,नरसीमेहता , तुकाराम, और अनेकों सूफीसंतों, संत तुलसीदास , कबीर, रहीम , गुरु नानकदेव , सूरदास , रैदास, गुरु गोबिंदसिंह आदि तथा आज कल के जमाने के अपने सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी ने ,तथा "इस्कोन" के "हरे राम हरे कृष्ण" के मतवाले संतजनों ने जी भर कर स्वयं लूटा है और खुले हाथ सारे संसार में जन साधारण को लुटाया है !

विश्व के असंख्य सिद्ध संतों के नाम और उनको " भजन भक्ति साधना" द्वारा प्राप्त उपलब्धियां कहां तक बताएं !
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क्रमशः

निवेदक:- वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

साधन- भजन कीर्तन # 2 9 4

हनुमत कृपा - अनुभव                                            साधक साधन साधिये 
साधन- भजन कीर्तन                                 (२ ९ ४  संशोधित)


कल से मेरा  २९४ वां संदेश आधा लिखा पड़ा है , इंटरनेट और कम्प्यूटर दोनों असहयोग कर रहे हैं , जब प्रेषित कर ने का प्रयास करता हूं , कुछ ऐसा उलट पुलट हो जाता है क़ि मेरा संदेश  मेरी ही समझ में नहीं आता !  इस को प्रभु की इच्छा मान कर उस संदेश को ड्राफ्ट के रूप में ही छोड़ देता हूँ ! जब कभी वो "ऊपर वाले" उचित जानेंगे आदेश देंगे प्रेषित कर दूंगा !

अभी मन में विचार आया क़ि क्यों न आपको एक वह  भजन सुनाऊं जिसके  विषय में मुझे पूरा विश्वास है क़ि उसकी रचना कतयी मेरे प्रयास से नहीं हुई ! उसकी रचना का शत प्रतिशत श्रेय मैं  केवल - केवल अपने "इष्टदेव"  को ही दूंगा ! उस भजन का एक एक शब्द "उनसे" प्राप्त प्रेरणा पर आधारित  है !  एक आश्चर्य  देखिये क़ि इधर मैंने यह संकल्प किया और उधर मेरे इंटरनेट और कम्प्यूटर जी दोनों ही ठिकाने लग गये हैं ! यह प्रमाण है इस सत्य का क़ि "ऊपरवाले वरिष्ठ सम्पादकजी" ने मेरी बात मान ली !

याद नहीं क़ि पिछले किसी संदेश में इसके विषय में कुछ लिखा या नहीं , पर अभी तो इस की भूमिका बता दूं! 

२००८ का अंत ,कोमा में , होस्पिटल में पड़ा हुआ था ,एक मध्य रात्रि  थोड़ा होश आया ,ऑंखें खोल कर अपने हाथ देखे , हथेली देखी ( और कुछ दिखा ही नहीं सब चादर से ढका था ) , लेकिन  रात्रि की नीरवता में मेरे कान में सस्वर इस भजन की एक पंक्ति सुनायी दे रही थी ! कहाँ से आ रही थी वह आवाज़ मुझे नहीं मालूम पर ये शब्द साफ साफ मुझे सुनायी दिए :-

रोम  रोम  श्रीराम  बिराजे  धनुष  बाण  ले   हाथ !
जनकलली,श्री लखन लला अरु महावीर के साथ !! 

वन्दन करते राम चरण अति हर्षित मन हनुमान !
आतुर रक्षा करने  को सज्जन  भगतन के   प्रान  !
अभय  दान  दे  रहे   मुझे  करुणासागर रघुनाथ !!
रोम  रोम  श्रीराम  बिराजे  धनुष  बाण  ले   हाथ !

मुझको भला कष्ट हो कैसे , क्यों कर पीड सताए !
साहस  कैसे  करें  दुष्टजन , मुझ पर हाथ उठाए !
अंग  संग  जब  मेरे   हैं   संकटमोचन  के  नाथ !!
रोम  रोम  श्रीराम  बिराजे  धनुष  बाण  ले   हाथ ! 

विघ्न हरे सद्गुरु के आश्रम स्वयम राम जी आये !
शाप मुक्त कर दिया अहिल्या को पग धूर लगाये !
वैसे   चिंतामुक्त   हमें , कर   रहे  राम   रघुनाथ !!
रोम  रोम  श्रीराम  बिराजे  धनुष  बाण  ले   हाथ !!

अब एक और राज़ की बात बताऊँ , जिस रात शून्य आकाश से,  मेरे कान में अनायास ही उपरोक्त शब्द सुनायी दिए थे, उसके अगले सबेरे ही से मैं धीरे धीरे स्वस्थ होने लगा , मेरा स्थायी वाला ऑक्सीजेन मास्क निकल गया , मैं आय सी यू  से बाहर आ गया , मुझे रिहेब वाले डॉक्टर  और स्टाफ के सुपुर्द कर दिया गया ! एक पखवारे बाद पूरी तरह स्वस्थ होकर मैं घर पहुच गया !

अब सोचता हूं जब मेरे रोम रोम में बसे श्री राम धनुष बाण लेकर मेरी पल पल रक्षा कर रहे हैं , तब कौन कर सकता है मेरा एक बाल भी बांका ? 

सूरदास जी का एक पद याद आ रहा है , :-   

जो घट अंतर हरि सुमिरे    
ताको काल रूठ का करिये जे चित चरण धरे !!
(साक्षात् काल भी आये तो भी कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा) 
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निवेदक :
व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"


शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

साधन - भजन कीर्तन # 2 9 3

हनुमत कृपा- अनुभव                                                     साधक साधन साधिये 

साधन - भजन कीर्तन                                                                        ( २ ९ ३ )

                                                    भक्त के लक्षण 


सच्चा ईश्वर भक्त सम्पूर्ण जीवजगत से प्रेम करता है, सबके प्रति करुणा रखता है  और कृपा की मूर्ति होता है ! वह किसी भी प्राणी से वैर भाव नहीं रखता और घोर से घोर दुःख को भी ईश्वर का प्रसाद मान कर प्रसन्नता से सह लेता है ! ऐसे व्यक्ति के जीवन का सार है "सत्य" और उसके  मन मे किसी प्रकार की पाप, वासना कभी नहीं आती ! वह समदर्शी और सबका भला चाहने वाला होता है !


सच्चे भक्त की बुद्धि कामनाओं से कलुषित नहीं होती ! वह संयमी ,मधुर स्वभाव वाला , और पवित्र होता है !वह संग्रह ,परिगृह से  सर्वथा दूर रहता है ! किसी भी वस्तु को पाने के लिए वह आवश्यकता से अधिक चेष्टा नहीं करता ! परिमित आहार विहार करता है और विषम परिस्थिति में भी स्थिर बुद्धि एवं शांत रहता है ! उसे एकमात्र प्रभु का ही भ्र्रोसा रहता है !


सच्चा भक्त प्रमादरहित , गम्भीर स्वभाव , धैर्यवान होता है ! वह स्वयं तो किसी से मान-सम्मान नहीं चाहता परन्तु दूसरों को सम्मान देता रहता है ! प्रभु के तत्व का उसे यथार्थ ज्ञान होता है जिसे अन्य लोगों को समझा कर वह आनंदित होता है और इस प्रकार वह स्वजनों को  प्रभु भक्ति की प्रेरणा दता है !


                           श्री कृष्ण ने अपने सखा उद्धव जी से कहा : 


" मैं कौन हूं , कैसा आकार है मेरा ,कैसा रूप है मेरा , कोई व्यक्ति इन बातों को  जाने 
              चाहे नहीं जाने किन्तु यदि वह अनन्यभाव से मेरा भजन करता  हैं , 
                               मेरे विचार से वह मेरा  परम भक्त हैं !"


            (श्रीमद भागवत महापुराण के अ० ११ के श्रीकृष्ण उद्धव संवाद से प्रेरित )
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निवेदक:  व्ही. एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती (डाक्टर) कृष्णा श्रीवास्तव 

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

साधन - भजन कीर्तन # 2 9 2

हनुमत कृपा - अनुभव                                              साधक साधन साधिये 

साधन- भजन कीर्तन                                                                    (२ ९ २ )

जीवात्माओं पर परमपिता परमात्मा की उस बृहद  कृपा की चर्चा मैंने की जिसमें  उन्होंने हम भाग्यशाली जीवों को सत्कर्म  तथा आमोद प्रमोद करने के लिए विविध उपकरणों से लैस यह "मानव शरीर" दिया है !  उन उपकरणों के उचित उपयोग की विधि सिखाने के लिए परमात्मा ने हमें "सद्गुरु" स्वरुप श्रेष्ठ प्रशिक्षक भी दिए जिनकी कृपा से हमें  प्राप्त हुआ उस मानव-संयंत्र का "मैनुअल" ( रख-रखाव एवं संचालन विधि दर्शाती पुस्तिका )  और हमें  मिली सद्गुरु स्वामीजी जी महाराज द्वारा रचित "अमृतवाणी" !

सृष्टि के आदि काल से ,मानवता के कल्याण की शुभेच्छा से "परमेश्वर"समय समय पर ह्मारे सद्गुरु सदृश्य  महामानवों को  इस धरती पर जन कल्याण हेतु भेजते रहे  है ! ये महापुरुष अपनी कठिन साधना द्वारा अर्जित उस दिव्य ज्ञान का वितरण ,जन साधारण  के आध्यात्मिक उत्थान हेतु करते रहे हैं !


भारत की हजारों वर्ष पुरानी पौराणिक वैदिक संहिता के प्रादुर्भाव के उपरांत  विश्व के अन्य भागों में भी अनेकानेक देवपुरुषों ने अपने अपने अनुयायियों के लिए निज निज अनुभवोँ के आधार पर स्वधर्म पालन की विविध संहिताएँ प्रचलित कीं ! हिन्दुओं के श्रीमदभागवत, श्रीमदभगवदगीता ,रामचरितमानस ,विविध बौद्ध व जैन धर्म ग्रन्थ , गुरुग्रंथ सहिब तथा मुसलमानों के कुरानशरीफ और ईसाइयों के "बाइबिल" जैसे पवित्र धर्म ग्रन्थों में वर्णित समग्र आध्यात्मिक ज्ञान का समावेश  महाराज जी की इस रचना "अमृतवाणी"  में है !


अमृतवाणी रूपी इस आध्यात्मिक ज्ञान की छोटी सी गागर में दिव्य विचार -मणियों  का आगार संजोये पूरा का पूरा महासागर समाया हुआ है !  महाराज जी ने अपने  जीवन भर की तपश्चर्या  के फलस्वरूप जिन रहस्यमय चिरन्तन तत्वों का साक्षात्कार  किया उन्होंने  उन्हें इस छोटी सी पुस्तिका में अंकित कर के मानवता के कल्याण के उद्देश्य से  प्रसाद स्वरुप सर्वत्र  वितरित किया !


मैंने यह प्रसाद पाया ,अपने ग्वालियर सम्बन्ध से ! मेरे पास से वह प्रसाद मेरे मुंह बोले बड़े भैया के पास पहुंचा ! उन्होंने इसे भारत सरकार के अनेक उच्चतम अधिकारियों तक पहुँचाया जिन्होंने भी  केवल  " नाम जप " की साधना से वह  सब पा लिया जो जप तप व्रत संयम नियम आदि से योगियों को भी दुर्लभ है !


उदहारण  स्वरूप भैया के एक मित्र थे ---जन्म से ब्राह्मण , एक पुरोहित - पुजारी वंश की सन्तान वह घर की सनातनी पूजा पद्धति से अत्यंत दुःखी थे और  कर्मकांड की दृष्टि से उन्हीं के शब्दों में वह  पूरे नास्तिक ही थे ! पर सरकारी सेवा को वह  धर्म मानते थे और दिन रात उसी में जुटे रहते थे ( बक्सों में भर कर सरकारी कागज़ात दफ्तर से उनके साथ रोज़ शाम उनके घर आते थे , और वह घर पहुँच कर उन्हीं पर जुट जाते थे ) ! किसी प्रकार की पूजा आराधना तो छोड़िये काम के पागलपन में वह परिवार के सदस्यों के प्रति अपने कर्तव्य भी पूरे नहीं कर पाते थे ! "कर्म करना ही धर्म है "- गीता का यह उपदेश वह अति दृढ़ता से मानते थे पर :
        
          "प्रभु की अखंड स्मृति और शरण में रह कर अपने वर्तमान कर्म करते रहो " 


वाले श्रीगीता जी की इस सीख के अग्र भाग को वह बिल्कुल ही भूल जाते थे !  फल स्वरूप कर्तापन का अहंकार, उनसे कभी कभी उनके काम काज में बड़ी बड़ी भूलें भी करवा देता था और वह दुःखी हो जाते थे !


एक दिन ऐसे ही दुःख के  प्रवाह में बहते हुए  वह भैया के घर आये ! भैया उस समय अमृतवाणी का  पाठ  कर रहे थे ! -----


क्रमशः 
निवेदक : व्ही.एन.श्रीवास्तव "भोला" 
   

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

साधन -भजन कीर्तन # 2 91


साधन -भजन कीर्तन  # २ ९ १ 
एक भजन 
विनती 
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प्रभु हर लो सब अवगुण मेरे ,चरण पड़े ह्म बालक तेरे 
प्रभु हर लो सब अवगुण मेरे 

व्यर्थ गंवाया जीवन सारा पड़ा रहा दुरमति के फेरे 
चिंता लोभ क्रोध ईर्षा वश अनुचित काम किये बहुतेरे
प्रभु हर लो सब अवगुण मेरे 
भीख मांगता दर दर भटका,झोली लेकर डेरे डेरे 
तेरा  द्वार खुला था पर मैं पहुँच न पाया दर तक तेरे 
प्रभु हर लो सब अवगुण मेरे      

ठगता रहा जन्म भर सब को ,रचता रहा कुचक्र घनेरे 
नेक चाल नहिं चला,सदा ही रहा,कुमति माया के फेरे 
प्रभु हर लो सब अवगुण मेरे

मैं अपराधी जन्म जन्म का,झेल रहा हूं घने अँधेरे 
तमसोमा ज्योतिर्गमय कर, अन्धकार हर लो प्रभु मेरे 
प्रभु हर लो सब अवगुण मेरे

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विनीत  निवेदक 
शब्दशिल्पी 
व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला" 

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

साधन - भजन कीर्तन # 2 9 0

हनुमत  कृपा - अनुभव                                                   साधक साधन साधिये 

साधन - भजन कीर्तन                                                                  ( २ ९ ० )  

प्यारे स्वजनों ! एक सिद्ध महापुरुष से सुना: " परमात्मा ,"जीव" को , उसके प्रारब्धानुसार अपना "यंत्र" बनाकर एक विशिष्ट "शरीर" में स्थापित कर के इस धरती पर उतारता  है ! यह "यंत्र" -"मानव शरीर" है जिसे मानस में तुलसी ने अति सक्षम -"साधन धाम एवं मोक्ष कर द्वारा " बता कर अत्यंत महत्वपूर्ण बना दिया है !

ईश्वर ने "जीव" को "मानव तन रूपी यंत्र" तो दे दिया पर उसके रखरखाव के नियम और उस यंत्र को चलाने की विधि उस अबोध जीव को नहीं बताई ! ऐसा समझिये किसी 'कार' प्रेमी व्यक्ति को  "मर्सिडीज़-बेन्ज़" अथवा "बी.एम्. डब्लू" की लेटेस्ट सुपर डि लक्स ओटोमेटिक 'कार' भेंट में मिल जाये , लेकिन उस मॉडल का "मेनुअल" उसे न दिया जाय ! सोच कर देखें भारत में १९७० - ८० के दशक तक केवल एम्बेसेडर, फिअट ,स्टेंडर्ड हेराल्ड चलाने वाले को यदि उपरोक्त कोई गाडी मिल जाये तो एकाएक वह उसे कैसे चला पायेगा ! 'जीव' की भी कुछ ऎसी ही स्थिति है ! जीव को "मैंन" रूपी मशीन तो मिल गयी लेकिन उस मशीन को ठीक से रखने और चलाने की विधि सिखाने वाला कोई "मैनुअल" उसे नहीं उपलब्ध हुआ है !

भाई ! पर वास्तव में हमारा उपरोक्त कथन सर्वथा असत्य है ! झूठा आरोप लगा रहे हैं ह्म  
उस कृपानिधान पर जिसके लिए तुलसी ने कहा है :

आकर चारि लच्छ चौरासी ! जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी !!
फिरत सदा माया कर प्रेरा ! काल कर्म सुभाव गुन घेरा !!
कबहुक करि करुणा नर देहीं ! देत ईश बिनु  हेत सनेही !!

सोच कर देखें, "जीव" पर अतिशय करुणा कर के उसे दुर्लभ मानव शरीर प्रदान करने वाला वह 'परमपिता' क्या कभी अपनी सन्तान ,अपने ही अंश 'जीव आत्मा' पर इतनी  क्रूरता कर सकता है क़ि एक तरफ तो उसको ऐसा 'सक्षम यंत्र'  प्रदान करे और दूसरी ओर उस यंत्र को भली भांति संचालित करने के साधन उसे न दे ! 

प्रियजन ,यदि जीव आँखें खोल कर चारोँ ओर देखे तो उसे हर दिशा में उसे अपने '" प्यारे पिता"'  द्वारा  दी हुई 'मेनुअल' पुस्तिका के प्रष्ठ बिखरे हुए दिखायी देंगे ! जन्मोपरांत जीव को दसों दिशाओं से 'प्रकृति' आच्छादित कर लेती है और वह पल भर को भी 'प्रकृति' के घेरे से विलग नहीं होता ! 

वास्तव में 'प्रकृति' का कण कण , जीव के उस मानव संयत्र  को कुशलता से संचालित  करने का 'गुर' जानता है ! "प्रकृति"  है 'मानव मशीन' का प्रथम 'मेनुअल' ! आपने सुना ही होग़ा क़ि अवधूत ब्र्ह्मवेत्ता दत्तात्रेय के चौबीस गुरु थे : प्रथ्वी ,वायु ,आकाश ,चन्द्रमा , सूर्य ,अग्नि, जल ,चन्द्रमा ,सूर्य ,हिरन ,मछली ,कबूतर ,अजगर ,सागर , मधुमक्खी आदि  जो सब के सब इस 'प्रकृति' के ही अंश हैं  !"जीव" के मानव स्वरूप के मातापिता और उसके पाठशाला के गुरुजन भी तो प्रकृति के ही अंश हैं जिनसे वह सार्थक जीवन जीने की कला तथा विधि विधान सीखता है ! ये सब उस 'परमपिता' ने ही 'जीव' को उपलब्ध कराए हैं ! ह्म झूठा ही आरोप लगा रहे थे आपने परम पिता पर -

उसके बाद आगे बढिए ,प्यारे प्रभु की कृपा से किसी किसी सौभाग्यशाली जीव को उसकी आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग दर्शन करने के लिए उचित समय पर उसके "सद्गुरु " भी मिल जाते हैं , जिससे तुलसी  का  यह कथन  क़ि  "बिनु हरि कृपा मिलहि नही संता"  चरितार्थ हो जाता  है !

प्रियजन , प्रियतम प्रभु की कृपा ह्म सब पर हुई और उन्होंने  उचित समय पर हमे प्रदान किये ह्मारे सद्गुरु - श्री स्वामी सत्यानन्द सरस्वती जी महाराज ,जिन्होंने ह्मारे ऊपर  अति अनुकम्पा करके हमे दिया आध्यात्मिक जीवन जीने की कला सिखाने वाला हमारा वह अनमोल  "मैनुअल" जिसका नाम है "अमृतवाणी" !  

"जय होवे गुरुदेव तुम्हारी जय होवे" 
"परम गुरू जै जै राम "

निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"