हनुमत कृपा - अनुभव
साधक साधन साधिये साधन : "भजन कीर्तन"
"भजन" के विषय में कुछ अपने निजी अनुभव बता दूं ! १९५० के दशक में जब मेरे प्रोत्साहन से मेरी छोटी बहिन माधुरी ने रेडिओ पर गाना शुरू किया तब ,जहाँ तक मुझे याद है केंद्र सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय का भार किसी सुधारवादी मंत्री (शायद केसकर जी) के हाथ में था ! कदाचित उन्ही दिनों "आल इंडिया रेडिओ" का नाम बदल कर "आकाश वाणी" रखा गया और वहाँ के वाद्यों में से हारमोनियम ,गिटार ,चेलो आदि पाश्चात्य वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल कम कर के उनकी जगह देसी वाद्यों -तानपूरा, सितार बांसुरी , सरोद ,सारंगी आदि का प्रयोग बढ़ गया ! सुगम संगीत के गायन में ठुमरी, दादरा ग़ज़ल आदि के साथ साथ हिन्दी भाषा के गीत, भजन और पारम्परिक लोक संगीत का समुचित समावेश हुआ ! इस प्रकार जब मैं २०-२१ वर्ष का ही था ,मेरे लिए आध्यात्मिक प्रगति का एक नया द्वार खुल गया !
प्रियजन ! आप सोच रहे होंगे क़ि रेडिओ गायन से किसी की आध्यात्मिक प्रगति कैसे हो सकती है ! मुझे भी अब तक यह एक बड़े आश्चर्य की बात लगती थी ,लेकिन आज जब ऎसी बातें थोड़ी अधिक समझ में आने लगी हैं ,तब यह लगता है क़ि माँ की कोख से मेरे मन पर पड़ी "प्रेम भक्ति" की अमिट रेखाओं को ,१९५० के दशक ने अधिक गहरा कर दिया ,उन दिनों रेडिओ पर प्रसारित होने वाले गीतों-भजनो से(जो आज के अश्लील गीतों से बहुत भिन्न थे ) तथा रेडिओ स्टेशन से प्राप्त उन गीतों तथा भजनों की पांडूलिपियों से, जिनकी धुनें बना कर मैं अपनी बहिन माधुरी को रेडिओ पर गाने के लिए सिखाता था मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला और यह सब कैसे मेरे आध्यात्मिक प्रगति में सहायक हुए , बताउँगा , एक छोटे से अन्तराल के बाद !
आप सोच रहे हैं न कि ,इस आत्म कथा से मैं आपको क्या संदेश देना चाहता हूँ ? प्रियजन हमारे जीवन पर, हमारी सोच पर ,सबसे अधिक प्रभाव डालता है वह साहित्य जिसे ह्म ध्यान से ,अधिक समय तक पढ़ते हैं ! उन दिनों अपनी बहिन को रेडिओ पर गवाने के लिए लखनऊ रेडिओ स्टेशन से प्राप्त भजनों की पांडुलिपियों को चौबीसों घंटे अपनी जेब में रख कर ,घर में, ऑफिस में, काम करते समय,खाना खाते समय, हर जगह ,हर समय सभी भजनों को स्वरबद्ध करने के अभियान में मुझे असंख्य बार उन भजनों की पंक्तियों को गुनगुनाना पड़ता था ! यहाँ मैं बता दूं क़ि आकाशवाणी से प्राप्त वह भजन कैसे होते थे ? अम्मा दादी आदि से सुने हुए मीरा ,तुलसी, सूर आदि के भजन ही नहीं अपितु उनके समकालीन अन्य भक्त जैसे सहजोबाईजी ,युगलप्रियाजी ,रानी रूपकुंवरि जी तथा मंजुकेशी जी आदि के पद जिन्हें हमने पहले कभी सुना भी नहीं होता था ,आकाशवाणी के भजन और गीत के कार्यक्रम में प्रसारित करने के लिए वहाँ से आते थे ! इनके बोल कठिन होते थे, अर्थ आसानी से समझ में नहीं आते थे ! उनके भाव समझने के लिए एक प्रकार से शोध करना पड़ता था !उदाहरण स्वरुप मंजुकेशी जी का " पद :
प्रियजन ! आप सोच रहे होंगे क़ि रेडिओ गायन से किसी की आध्यात्मिक प्रगति कैसे हो सकती है ! मुझे भी अब तक यह एक बड़े आश्चर्य की बात लगती थी ,लेकिन आज जब ऎसी बातें थोड़ी अधिक समझ में आने लगी हैं ,तब यह लगता है क़ि माँ की कोख से मेरे मन पर पड़ी "प्रेम भक्ति" की अमिट रेखाओं को ,१९५० के दशक ने अधिक गहरा कर दिया ,उन दिनों रेडिओ पर प्रसारित होने वाले गीतों-भजनो से(जो आज के अश्लील गीतों से बहुत भिन्न थे ) तथा रेडिओ स्टेशन से प्राप्त उन गीतों तथा भजनों की पांडूलिपियों से, जिनकी धुनें बना कर मैं अपनी बहिन माधुरी को रेडिओ पर गाने के लिए सिखाता था मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला और यह सब कैसे मेरे आध्यात्मिक प्रगति में सहायक हुए , बताउँगा , एक छोटे से अन्तराल के बाद !
आप सोच रहे हैं न कि ,इस आत्म कथा से मैं आपको क्या संदेश देना चाहता हूँ ? प्रियजन हमारे जीवन पर, हमारी सोच पर ,सबसे अधिक प्रभाव डालता है वह साहित्य जिसे ह्म ध्यान से ,अधिक समय तक पढ़ते हैं ! उन दिनों अपनी बहिन को रेडिओ पर गवाने के लिए लखनऊ रेडिओ स्टेशन से प्राप्त भजनों की पांडुलिपियों को चौबीसों घंटे अपनी जेब में रख कर ,घर में, ऑफिस में, काम करते समय,खाना खाते समय, हर जगह ,हर समय सभी भजनों को स्वरबद्ध करने के अभियान में मुझे असंख्य बार उन भजनों की पंक्तियों को गुनगुनाना पड़ता था ! यहाँ मैं बता दूं क़ि आकाशवाणी से प्राप्त वह भजन कैसे होते थे ? अम्मा दादी आदि से सुने हुए मीरा ,तुलसी, सूर आदि के भजन ही नहीं अपितु उनके समकालीन अन्य भक्त जैसे सहजोबाईजी ,युगलप्रियाजी ,रानी रूपकुंवरि जी तथा मंजुकेशी जी आदि के पद जिन्हें हमने पहले कभी सुना भी नहीं होता था ,आकाशवाणी के भजन और गीत के कार्यक्रम में प्रसारित करने के लिए वहाँ से आते थे ! इनके बोल कठिन होते थे, अर्थ आसानी से समझ में नहीं आते थे ! उनके भाव समझने के लिए एक प्रकार से शोध करना पड़ता था !उदाहरण स्वरुप मंजुकेशी जी का " पद :
भजन करिय निष्काम पियारे भजन करिय निष्काम !!
नयन आंजि मन मांजि चेतिये , सगुन ब्रह्म श्रीराम !!
"केशी" रामहि द्वेत न भावे , सब विधि पूरन काम !!
इनका ही एक दूसरा भजन विषयक पद है :
मानहु प्यारे मोर सिखावन !!
बूंद बूंद तालाब भरत है का भादों का सावन !!
तैसहिं नाद-बिंदु को धारण अन्तः सुख सरसावन !
ध्वनि गूंजे जब जुगल रंध्र से,परसे त्रिकुटी पावन !!
हिय की तीव्र भावना थिर करु पड़े दूध में जावन !
"केशी" सुरति न टूटन पावे दिव्य छटा दरसावन !!
भजनों को स्वर बद्ध करते करते मैंने इस सरल "भक्ति--साधन" - (जिसे भजन कहते हैं ) के विषय में क्या सीखा ,वह आपको उपरोक्त दोनो भजनों से समझ में आजायेगा !इस विषय में और भी बहुत बातें करनी हैं सो आगे करूँगा , अभी इस संदेश को यहीं विराम देता हूँ ! कल पुनः "उनकी" प्रेरणा से नये विचार व्यक्त करूंगा !
निवेदक:
व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : धर्मपत्नी - श्रीमती (डाक्टर) कृष्णा श्रीवास्तव
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