शनिवार, 8 जनवरी 2011

सिमरन - साधक साधन साधिये # २६३

हनुमत कृपा 
अनुभव                                        साधक साधन साधिये
                                                      साधन-"सिमरन"

जी हाँ, प्रियजन, ह्म "सिमरन"  की ही चर्चा कर रहे थे, और आगे भी करते रहेंगे पर पहले 
आपको  एक कथा सुना दूं  !

कल मध्य रात्रि से आज प्रातः ४ - ५ बजे तक मुझे नींद नहीं आयी ! प्रेरणाओं के क्षीर सागर  से उठी तरंगें मेरे मानस तट से टकराती रहीं ! इतना मधुर था इस क्षीर का स्वाद कि अभी तक उसकी मिठास मेरे मुख में मिशरी घोल रही है ! उस प्रसाद की थोड़ी सी मधुरता आपको भी चखाऊं इस भावना से ,और कुछ लिखने के बजाय पहले आपको वह कथा सुनाने जा रहा हूँ !

तो सुनिए : उत्तरा के गर्भ में परीक्षित की जीवन रक्षा करने के बाद श्री कृष्ण इन्द्रप्रस्थ से द्वारका पधारने की तैयारी करने लगे ! उनकी बुआ कुंती का दिल भर आया ! उनका दुलारा भतीजा  जिसने विषमतम परिस्थितियों में पांडुवंश की सहायता की, दुर्योधन के जहरीले लड्डुओं से पुत्र भीम की रक्षा की, कुलवधू  द्रोपदी को दुष्ट दुह्शासन के हाथों निर्वस्त्र नहीं होने दिया , लाक्षागृह में सम्पूर्ण पांडु परिवार को भस्म होने से बचाया तथा पांडु वंश के एकमात्र उत्तराधिकारी "परीक्षित" को जीवन दान दिया,  वही परम उपकारी  कृष्ण उन्हें छोड़ कर जा रहा था ! 

कुंती श्री कृष्ण के परमात्म तत्व से आच्छादित जगदीश्वर स्वरूप को पहिचान गयीं थीं !अस्तु कृष्ण कोआग्रह पूर्वक रोकने के लिए वह उनके रथ के मार्ग के बीचो बीच हाथ जोड़ कर खड़ी हो गयीं और  उन्होंने श्रीकृष्ण की स्तुति की जो उनकी अंतरात्मा की भक्तिमयी पुकार थी !

कुंती की भक्ति, मर्यादा भक्ति है, साधन भक्ति है, दास्य मिश्रित वात्सल्य भक्ति है ! प्रियजन भक्ति में इष्ट का वियोग सहन नहीं होता ! भक्त चाहता है क़ि उसका आराध्य चाबीसों घंटे उसके  सन्मुख रहे ! स्वाभाविक है कुंती भी अपने इष्ट कृष्ण से दूर नहीं होना चाहती थीं !अपनी स्तुति में कुंती ने कहा - " हे परमहंसों के हृदय में अपनी प्रेममयी भक्ति का सृजन करने के लिए  अवतीर्ण हुए श्रीकृष्ण ,वासुदेव ,देवकीनंदन ,नंदगोप के लाडले गोविन्द ,आपको मेरा बारम्बार प्रणाम है ! मेरी वन्दना स्वीकार करिये ! हमें छोड़ कर जा रहे हैं तो ,जाइये ,लेकिन जाने से पहले हमे एक वरदान देते जाइये !"

विपदः संतुतः शाश्वत पृ तत्र जगद्गुरो !
भवतो  दर्शन  यत्स्या द पुनर्भ दर्शनम ! 

"हे जगदगुरु हमे ऐसा वरदान दीजिये कि हमारे जीवन में प्रतिक्षण विपदा आती रहे क्योंकि विपत्ति काल में मनुष्य निश्चित रूप से आप को सच्चे मन से याद करता हैं , आपका सिमरण करता है ! हे कृपानिधान आप तब उसपर कृपा करके उसे अपना दुर्लभ दर्शन देते हैं !आपके निकटस्थ होते ही जीव के जन्म-मृत्यु के फेरे टल जाते हैं !"

कुंती जानती है कि दुःख में ही मनुष्य में सयानापन आता है ! दुःख में ही प्रभु के सामीप्य की तीव्रतम इच्छा होती है ! कुंती के अनुसार दुःख मनुष्य का गुरु है ! जिस  विपत्ति में  परमात्मा नारायण मिलें ,वह तो सुख ही है ,उसे  दुःख कौन कहेगा ? कितना सच है यह कथन कि " बलिहारी वा दुःख की जो पल पल नाम जपाय "


कुंती का प्रसंग किस सन्दर्भ में मेरे मन में आया ?  हमारे "ऊपर वाले प्रेरणा स्रोत" ने सारी  रात्रि जगा कर हमे क्यों वह क्षीर प्रसाद खिलाया  ? "सिमरन साधन" से इस कथा का क्या  सम्बन्ध है ? सभी प्रश्नों के उत्तर आपको आगे मिलेंगे ! 


उम्र का तकाजा है, थक रहा हूँ ! अब आज्ञा दें ! "वह" कृपा करेंगे तो कल फिर मिलेंगे  


निवेदक: वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
  

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