हनुमत कृपा -अनुभव
साधक साधन साधिये साधन - "भजन कीर्तन"
बालकृष्ण की लीलाओं पर आधारित सूरदास जी की रचनाओं के पठन, चिन्तन ,दर्शन और गायन के उपरांत हमारा ध्यान आकृष्ट होता है उनकी "दैन्य","विनय","सेवा - समर्पण" "दास्य" तथा "प्रेम" की भावनाओं से ओतप्रोत रचनाओं की ओर ! निजी अनुभव से कह सकता हूँ क़ि सूरदास जी की इन रचनाओं के गायन के द्वारा गायक एवं श्रोताओं दोनों को ही "हरि दर्शन" जैसा अपूर्व आनंद प्राप्त होता है ! प्रियजन ! श्रीहरि कृपा से हमें भी उनमें से कुछ रचनाओं को हजारों बार गुनगुनाकर स्वर बद्ध करने तथा स्वयं गाने और अन्य गायकों से गवाने का अवसर मिला !
साधक साधन साधिये साधन - "भजन कीर्तन"
बालकृष्ण की लीलाओं पर आधारित सूरदास जी की रचनाओं के पठन, चिन्तन ,दर्शन और गायन के उपरांत हमारा ध्यान आकृष्ट होता है उनकी "दैन्य","विनय","सेवा - समर्पण" "दास्य" तथा "प्रेम" की भावनाओं से ओतप्रोत रचनाओं की ओर ! निजी अनुभव से कह सकता हूँ क़ि सूरदास जी की इन रचनाओं के गायन के द्वारा गायक एवं श्रोताओं दोनों को ही "हरि दर्शन" जैसा अपूर्व आनंद प्राप्त होता है ! प्रियजन ! श्रीहरि कृपा से हमें भी उनमें से कुछ रचनाओं को हजारों बार गुनगुनाकर स्वर बद्ध करने तथा स्वयं गाने और अन्य गायकों से गवाने का अवसर मिला !
इस संसार के माया जाल में बुरी तरह उलझे मानव को अनेकों योनियों में भटकने के बाद ही , प्रभु की विशेष कृपा से तथा संतों के समागम से यह संदेश मिलता है कि "उनकी" अहेतुकी कृपा से मिले इस मानुष तन का सदुपयोग वह अपने आत्मोद्धार के लिए करे !
मानव जीवन की न्यूनताओं और त्रुटियों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए , भक्तशिरोमणि संत सूरदास जी ने ,अपनी रचनाओं में निज को एक साधारण मानव की संज्ञा देकर अपने इष्ट "गोपाल -कृष्णा" के सन्मुख सम्पूर्ण आत्म समर्पण करते हुए जो शब्द कहे हैं वे अति मार्मिक हैं ,सारगर्भित हैं और ,हमारा मार्ग दर्शन करने को सक्षम हैं ! :
१, सूरदास जी ने गदगद कंठ से कहा "बहुत हो गया मेरे नाथ ,अब मैं थक गया ":
अब मैं नाच्यों बहुत गोपाल !
कामक्रोध को पहिर चोलना कंठ विषय की माल !!
तृष्णा नाद करत घट भीतर नाना विधि दे ताल !!
सूरदास की सबे अविद्या दूरि करो नन्दलाल !!
२. सूरदास जी ने तत्पश्चात आत्मनिवेदन करते हुए कहा " मुझे ज्ञात है हे नाथ क़ि मैं कितना बड़ा अपराधी हूं !मेरे समान पतित अन्य कोई नहीं है ! हे स्वामी ! मुझे अपना दास स्वीकार करें " :
मो सम कौन कुटिल खल कामी,
जिन तन दियो ताहि बिसरायो ऐसो नमक हरामी !!
पापी कौन बड़ा जग मो सम, सब पतितन में नामी !!
सूर पतित को ठौर कहाँ है ,तुम बिन श्रीपति स्वामी !!
३. अन्तोगत्वा थके हारे सूरदास जी अपने इष्ट के श्री चरणों पर नतमस्तक हो कर बड़ी दीनता से अर्ज़ करते हैं :
तुम मेरी राखो लाज हरी
तुम जानत सब अन्तर्यामी, करनी कछु न करी !!
दारा सुत धन मोह लिए हैं सुधि बुधि सब बिसरी !!
सूर पतित को बेगि उबारो , अब मोरी नाव भरी !!
४. "हे नाथ ! यदि तुम नहीं सुनोगे तो मैं और किसका दरवाजा खटखटाऊं ?
तुम तजि और कौन पे जाऊं !
काके द्वार जाय सर नाऊँ पर हाथ कहाँ बिकाऊँ !!
ऐसो को दाता है समरथ जाके दिए अघाऊँ !,
अंत काल तुमरो सुमिरन गति अंत कहूँ नहिं पाऊँ !!
भवसमुद्र अति देख भयानक मन में अधिक डेराऊँ !
कीजे कृपा सुमिर अपनों पन सूरदास बलि जाऊं !!
५. इसप्रकार स्वामी के श्रीचरणों मे पूर्णतः समर्पित होकर उनकी सेवा का अवसर पाकर सूरदास जी धन्य हो जाते हैं और ढिंढोरा पीट कर बड़े अहंकार के साथ एलान करते हैं क़ि वह अपने प्यारे श्याम के हाथ बिके हुए उनके दास हैं ,उनके सेवक हैं , उनके गुलाम हैं !
हमे नंदनंदन मोल लियो !!
सबकोऊ कहत गुलाम श्याम को ,सुनत सिरात हियो !
सूरदास प्रभुजी को चेरो , जूठन खाय जियो !!
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प्रियजन ! मेरे इष्ट देव ने इस जीवन में मुझे ऐसा सुअवसर दिया क़ि पेशे से चर्मकार होते हुए भी मुझे सूरदासजी जैसे संत महात्माओं की दिव्य रचनाओं के सम्पर्क में आने का सामर्थ्य प्राप्त हुआ ! क्या यह "उनकी", मेरे ऊपर विशेष कृपा नहीं है ? भई एक बार तो कह दीजिये "हाँ भाई हाँ "! धन्य हो जायेगा मेरा जीवन !
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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