हनुमत कृपा - अनुभव
साधक साधन साधिये साधन:"भजन- कीर्तन"
प्रियजन ! सौ बात की एक बात यह है क़ि यदि "भजन" सहायक नहीं होते तो हमारे देश के इतने भजनीक संत महात्मा उस स्थिति तक नहीं पहुंच पाते जहाँ पहुँच कर उन्होंने वह सब पा लिया जिसे ह्मारे पौराणिक काल के ऋषि मुनियों ने ,घने भयावने वनों में अथवा पर्वतों की कंदराओं मे घोर तपश्चर्या के उपरांत प्राप्त किया था !
नेत्रहीन सूरदास जी की बंद आँखों के समक्ष "श्री हरि" का जो "बालगोपाल" स्वरूप अवतरित हुआ वह उन तपस्वी ऋषि मुनियों के सामने प्रगट हुए "चिदानंद ब्रह्मस्वरूप " से किसी अर्थ में कम प्रमाणिक ,कम सुदर्शन , कम आनंददायक नहीं रहा होग़ा!,
क्या आपको ऐसा नहीं लगता क़ि सूरदास जी की बंद पलकों के पीछे स्वयं नटनागर कृष्ण अपने विविध स्वरूपों में प्रकट होकर लीलाएं करते थे और अपनी रूप माधुरी से उनको सम्मोहित करके उनका मनोरंजन करते थे ! बालगोपाल श्री कृष्ण को सूरदास जी अपनी आँखों के आगे ,जसोदा मैया के आंगन में नाना प्रकार की लीलाएं करते हुए देखते थे और फिर उनके अधरों से प्रस्फुटित होती थी उनकी वो अमर रचनाएँ जो आज भी कृष्ण भक्तों द्वारा संसार भर में बड़े प्रेम से गाईं जाती हैं !
- "कबहूँ पलक हरि मूँद लेत हैं ,कबहू अधर फरकावैं - जसोदा हरि पालने झुलावें"
- "कहन लागे मोहन मैया मैया !पिता नन्द सो बाबा बाबा अरु हलधर सो भैया"
- "मैया कबही बढ़ेगी चोटी ! किती बेर मोहि दूध पीवत भई यह अजहू है छोटी"
- "मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायो"
- "मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो"
उपरोक्त पांच भजन , नन्दनंदन श्री कृष्ण के बालचरित से सम्बन्धित सूरदास जी की असंख्य रचनाओं में से चुने हुए हैं ! इन भजनों को स्वरबद्ध करने और गाने - गवाने का सौभाग्य मुझे आज से ५०-६० वर्ष पूर्व १९४५-१९६० के बीच में पहली बार मिला था ! सद्गुरु कृपा से इन भजनों को मैं आज भी गा रहा हूँ ! इन्हें गा गा कर मैं अपने आनंद स्वरूप प्रियतम का वैसा ही दर्शन पाना चाहता हूँ जैसा "वह" सूरदास जी को देते थे !
सूरसाहित्य ,सागर के समान अथाह है ! अपनी रचनाओं में महात्मा सूरदास ने लोकभाषा में आध्यात्म के विविध विषयों की अति सारगर्भित विवेचना की है ! नाम महिमा से लेकर दैन्य ,विनय, वेदांत ,प्रेम तथा चेतावनी आदि सभी विषयों पर उन्होंने समुचित प्रकाश डाला है !
चलिए आज के लिए विराम दें इस संदेश को !
निवेदक: वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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