हनुमत कृपा - अनुभव
साधक साधन साधिये
३० जनवरी १९४८
३० जनवरी १९४८
" मेरे मन कुछ और था ,'करता' के कुछ और" !
मेरे अतिशय प्रिय पाठकगण ! मैं अपनी धुन में आपको अपने निजी अनुभव के आधार पर कलिकाल से ग्रस्त मानव को "श्रीहरि" की विशेष कृपा से प्राप्त भक्ति करने के सरलतम साधन "भजन कीर्तन" की महत्ता समझाने में व्यस्त था ! पर आज का यह विशेष दिन श्रीहरी हमे कैसे भुलाने देते ! आज प्रातः ही "उन्होंने" मुझे याद दिलाया क़ि आज ह्मारे राष्ट्र पिता "बापू" महात्मा गांधी का निर्वाण दिवस है !
अब आप ज़रा मेरे पिछले संदेशों के पृष्ठ पलटें !आप देखेंगे क़ि ह्मारे ,परम कृपालु प्रभु ने भूलने का अपराध मुझसे होने ही नहीं दिया ! मैंने यू.एस.ए. से जो संदेश २९ जनवरी को भेजा और जो ३० जनवरी को भारत पहुंचा उसमें इत्तेफाक से (अनजाने ह़ी सही) मैंने जो ," तू ही तू " वाला भजन आपको सुनाया उसमे निहित संदेश , पूरा का पूरा , ह्मारे "राम" भक्त बापू" की भावनाओं को अपने शब्दों में सिमटे हुए था !
हे राम !
डाल डाल में , पात पात में, मानवता के हर जमात में ,
हर मजहब ,हर जात पात में , एक तू ही है ,तू ही तू !!
तू ही तू !
प्रियजन ! आज जब यहाँ यू.एस.ए. में ३० जनवरी है और हमें प्यारे बापू की याद आ ही गयी है तो सोचता हूं आपको १९४८ के उस विशेष दिन "३० जनवरी " की आप बीती अब सुना ही दूँ आपको ! मैं तब "बी.एच. यू".बनारस में पढ़ता था ! हमारी बड़े दिन की छुटियाँ खतम हो रहीं थीं ! उस दिन मैं रमेश दादा वाली भाभी से मिलने ,दादा की "बेनिया" स्थित ससुराल गया था ! बी.एच.यू के ही कुछ अन्य मित्र भी ह्मारे साथ थे !
दोपहर के खाने के बाद ,गाना बजाना शुरू हुआ ! सब जानते थे क़ि मैं थोड़ा बहुत गा लेता हूँ ,इसलिए मुझसे भी गाने को कहा गया ! उन दिनों मैं "मुकेशजी" के "अंदाज़" फिल्म के गाने तथा पंकज मल्लिक का उन दिनों का एक मशहूर नगमा बहुत गाता था , वह था -
" ये रातें ये मौसम ये हसना हसाना, मुझे भूल जाना इन्हें ना भुलाना "
यह गीत यूनिवर्सिटी में बहुत पसंद किया जाता था ! इसे सुनने के लिए बहुत फरमाइशे होतीं थीं ! मैं यही गीत सुनाने को तैयार हुआ पर किसी ने टोक दिया ," क्या रोने धोने वाला गाना गा रहे हो भैया , मुकेश वाला कोई गाइए - "तू कहे अगर जीवन भर मैं गीत सुनाता जाऊँ " ठीक रहेगा" !
मैं गाना गाने जा ही रहा था कि डाक्टर साहिब के एक नौकर ने बाहर से आकर खबर दी कि दिल्ली में कोई बड़ी दुर्घटना हो गयी है जिसके कारण देश भर में हिन्दू-मुस्लिम दंगे होने की सम्भावना हो गयी है और बनारस के सभी बाज़ार बंद हो गये हैं ! गाने बजाने का माहौल खतम हो गया ! नगर के सभी रास्ते सुनसान हो गये! एक भयंकर चुप्पी भरी उदासी सर्वत्र छा गयी ! हमें चिंता हुई कि ऎसी स्थिति में ह्म कैसे यूनिवर्सिटी वापस जा पाएंगे ! सड़कों पर न एक्के थे ,न रिक्शे ! आशंकित नर नारी अपने अपने घरों में दुबक कर बैठ गये थे !
घंटे भर बाद स्पष्ट हुआ कि "बापू चले गये" ! किसी पागल व्यक्ति ने उनको बिरला भवन में उनकी प्रार्थना सभा के बाद गोली मार दी , और "हे राम " उच्चारण के साथ बापू ने वहींउसी क्षण अपना शरीर त्याग दिया ! बापू के आकस्मिक निधन का समाचार सुनते ही राष्ट्रकवि रामधारी सिंह "दिनकर" के हृदय की पीड़ा इन शब्दों में मुखर हुई :
यह लाश मनुज की नहीं , मनुजता के सौभाग्य विधाता की
बापू की अरथी नहीं चली ये अरथी भारत माता की !!
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प्रियजन ! "उनकी" प्रेरणा से मैं अपने मूल प्रसंग , "भजन'" से भटक कर, उस महामानव की चर्चा करने लगा जिसने अपनी प्रार्थना सभाओं में "भजन-कीर्तन" और "राम धुन" गाकर और जनसाधारण से गवाकर गुलाम भारत के नागरिकों में अथाह साहस ,मनोबल एवं आत्मबल भर दिया !"रामधुन" के द्वारा ,स्वयं उन्होंने वह दिव्य और विलक्ष्ण शक्ति अर्जित की जिसके सन्मुख विश्व के सबसे ताकतवर साम्राज्यवादी शाशक को झुकना पड़ा ! भजनों से मिली इतनी बड़ी उपलब्धि क्या कोई भारतीय कभी भुला सकता है ? बापू की स्मृति जगाने वाला यह प्रसंग अभी पूरा नहीं हुआ है ! कुछ बातें और याद आ रही हैं ,जिन्हें कल सुनाऊंगा !
क्रमश
निवेदक : वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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