हनुमत कृपा-अनुभव
साधक साधन साधिये साधन-"भजन कीर्तन"
अपने प्रवचन में उन महापुरुष ने ह्म सब "आत्माओं" को "जलबिंदु" और हमारे प्यारे पिता "परमात्मा" को "सिन्धु" की उपाधि से नवाज़ा ! महासागर की उत्तुंग तरंगों पर शेष शैया पर शयन किये देवाधिदेव विष्णु के श्रीचरणों को अपने भक्तिभाव से भरे आद्र हृदय की तरलता से पखारते हुए ह्म आत्माओं का भी चित्रण करते हुए उन्होंने कहा !" भजन को सार्थक बनाने के लिए भक्त को तरल होना ही पड़ेगा अन्यथा वह जहाँ है वहाँ पर ही हिमशिला के समान जमा पड़ा रहेगा !"
महापुरुष का प्रवचन सुनते ही मुझे अपनी २००८ की एक रचना याद आयी जिसकी प्रेरणा हमे केनेडा से मिली थी पर जिसे मैं उस "अदृश्य शक्ति" के सहयोग के बिना पूरा कर ही नहीं सकता था ! उस रचना का मूल भाव महाराजजी के प्रवचन से कुछ कुछमिलता - जुलता है ! महराजजी द्वारा बताये ,प्यारे प्रभु के साथ जीव के "सागर-जल बिंदु" सम्बन्ध के अतिरिक्त मैंने "श्रीहरी" से प्राप्त प्रेरणाओं के आधार पर इस रचना में "प्रियतम प्रभु" की सर्वव्यापकता तथा उनके विभिन्न स्वरूपों के साथ ह्म आत्माओं के गहरे सम्बन्ध की ओर इंगित किया है !
"भजन"
रोम रोम में रमा हुआ है मेरा राम रमैया तू !
सकल श्रृष्टि का सिरजनहारा सब जग का रखवैया तू !!
तु ही तू ! तु ही तू !!
डाल ड़ाल में, पात पात में ,मानवता के हर जमात में !
हर मजहब, हर जात-पात में , एक तुही है, तू ही तू !!
तु ही तू ! तु ही तू !!
सागर का खारा जल तू है,बादल में हिम कण में तू है !
गंगा का पावन जल तू है , रूप अनेक एक है तू !!
तु ही तू ! तु ही तू !!
चपल पवन के स्वर में तू है , पंछी के कलरव में तू है !
भंवरों के गुंजन में तू है , हर स्वर में ईश्वर है तू !!
तु ही तू ! तु ही तू !!
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क्रमशः
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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