अनुभवों का रोजनामचा
आत्म कथा
ॐ
अतुलित बल धामम हेम शैलाभदेहं
द्नुज बन कृशानुम ज्ञानिनाम अग्रगण्यम
सकल गुण निधानं वानरानाम धीशम
रघुपति प्रिय दूतं वातजातं नमामी
ॐ श्री हनुमंताय नमः ॐ
ॐ
रेलगाड़ी के उस खचाखच भरे डिब्बे के सभी यात्री अपने जीवन की आशा छोड़ चुके थे और अपने अपने इष्ट देवों को, अपनी प्राण रक्षा की कामना से पूरी श्रद्धा-और विश्वास के साथ सच्चे मन से याद कर रहे थे ! मुसलमानों को कयामत के नजारे और हिन्दुओं को प्रलय के भयंकर दृश्य उस घने अंधकार में भी नजरों के आगे उभरते दृष्टिगोचर हो रहे थे ! वहां उस रेल के डिब्बे में मरणासन्न इंसानों की आवाज़ नहीं बल्कि विशुद्ध आत्माओं की मूक पुकार गूँज रही थी ! महापुरुषों ने बताया है कि प्रभु को छप्पन भोगों से अधिक प्रिय है भक्तों द्वारा भेंट की हुई उनके शुद्ध हृदय की प्रार्थना , श्री राम ने कहा ही है :
निर्मल मन जन सो मोहि पावा , मोहि कपट छल छिद्र न भावा
मुसलमानों ने अपने अल्लाह और हिन्दुओं ने अपने प्यारे परमेश्वर के समक्ष अपने शुद्ध और निर्मल मन समर्पित किये ! रेल के डिब्बे में हमारा हनुमान चालीसा पाठ उसी भाव से चल रहा था जैसे बचपन में अम्मा की गोद में उन के मुख से सुनते थे ,घर के आंगन में महाबीरी ध्वजा के तले पूरे परिवार के साथ सामूहिक स्वर में गाते थे और कभी कभी स्कूली परीक्षा पास करने पर "पनकी" के हनुमान मन्दिर में उनकी मूर्ती के आगे गाया करते थे !
ट्रेन में उस समय हम गा रहे थे :
संकट से हनुमान छोडावें ,मन क्रम बचन ध्यान जो लावे
================ =================
संकट कटे मिटे सब पीरा , जो सुमिरे हनुमत बलबीरा
================ =================
जय जय जय हनुमान गुसाईं ,कृपा करो गुरुदेव की नाईं
================ =================
तुलसीदास सदा हरि चेरा , कीजे नाथ हृदय महं डेरा
पवन तनय संकट हरन मंगल मूरत रूप
राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप
हनुमान चालीसा के समाप्त होते ही यात्रियों में से किसी ने "हनुमान अष्टक" का पाठ शुरू कर दिया ! तभी मुझे अपने बचपन की एक बात याद आयी ! मैं ७ वर्ष का था जब मेरे बाबूजी पर शनि गृह की विशेष कृपा हुई ! उन के जीवन में शनि की महादशा के साथ साथ साढे साती का भी दुसह प्रभाव पड़ा ! उनके ज्योतषियों और आध्यात्मिक ज्ञानी सलाहकारों ने उन्हें अन्य पूजा पाठ के उपायों के साथ साथ हनुमत-भक्ति पर अधिक समय लगाने की सलाह दी ! बाबूजी के तो इष्ट ही हनुमत लाल थे !वह हनुमान चालीसा का पाठ किये बिना अन्न का एक दाना भी मुंह में नहीं डालते थे ! पंडितों की सलाह से उन्होंने तब से हनुमान अष्टक का पाठ भी शुरू कर दिया ! हमारे कानो में अब अष्टक के पद दिन में कई कई बार पड़ने लगे ! लगभग १० वर्षों तक हम बाबूजी के मुख से वह पाठ सुन कर ही उठते बैठते रहे ! हमे भी उसकी बहुत सी पंक्तियाँ कंठस्थ हो गयीं प्रमुखत:
उसकी प्रथम पंक्ति ज़रा देखिये वह पंक्ति हमारी तत्कालिक स्थिति का कितना यथार्थ चित्रण कर रही थी , हमारे भी तो चारो और घना अँधेरा छाया था :
उसकी प्रथम पंक्ति ज़रा देखिये वह पंक्ति हमारी तत्कालिक स्थिति का कितना यथार्थ चित्रण कर रही थी , हमारे भी तो चारो और घना अँधेरा छाया था :
बाल समय रवि भक्ष लियो तब तीनहु लोक भयो अंधियारों
उस समय हमारे 'रवि' का भी कोई भक्षण कर गया था ! हम सब भी भयंकर अँधेरे में थे )
और जैसे ही अष्टक का निम्नांकित अंतिम दोहा गाया गया
लाल देह लाली लसे अरु धरि लाल लंगूर
वज्रदेह दानव दलन जय जय जय कपिसूर
उसी पल एक चमत्कार सा हुआ ,डिब्बे की खिडकियों के बाहर से कालिमा के स्थान पर हनुमान जी की लालिमा झांकने लगी! थोडा समय और लगा, लगभग १५-२० मिनिट में वह महाबीरी लाली सूर्य के उज्जवल प्रकाश में परिणित हो गयी ! बाहर का वायुमंडल भी शुद्ध हो गया ! खिड़कियाँ दरवाजे खोल कर सब यात्रिओं ने जीवन दायनी ताज़ी हवा का
आनंद लिया ! हम पुनर्जीवित हो गये !
अब थोडा हंस लीजिये ! सूर्य के प्रकाश में जब हमने अपने चारों ओर देखा तो रेल का वह डिब्बा सुग्रीव की मरकट सेना के सैनिकों से भरा हुआ दिखा ! धूल की इतनी मोटी तह हर चेहरे पर जमी थी कि किसी को भी पहचान पाना कठिन था !
प्रियजन ! हनुमत कृपा की यह कथा अब यहीं समाप्त कर रहा हूँ ! कल "उनके" आदेश तथा "उनकी"प्रेरणा से कोई और कथा प्रारम्भ होगी ! अभी आज की राम राम स्वीकारें !
===========================
निवेदक: व्ही. एन . श्रीवास्तव "भोला"
===========================
4 टिप्पणियां:
सुन्दर शब्दों की बेहतरीन शैली । भावाव्यक्ति का अनूठा अन्दाज । बेहतरीन एवं प्रशंसनीय प्रस्तुति ।
बहुत सुन्दर शब्दों में प्रस्तुत किया है आपने संस्मरण| धन्यवाद|
राजीव जी ! प्रसंशा से अधिक प्रोत्साहन के लिए आप को धन्यवाद !आप तो जानते ही हैं मैं 'प्यारे प्रभु ' का आदेश पालन कर रहा हूँ !खुल कर बता रहा हूँ कि कैसे "वह" प्रति पल मुझ पर ही नहीं बल्कि प्रत्येक प्राणी पर अपनी अहेतुकी कृपा वृष्टि कर रहे हैं !
प्रियवर मेरी प्रसंशा नहीं , मेरे लिए प्रार्थना करें की आजीवन यह 'रामकाज ' 'उनकी ' अपेक्षानुसार करता रहूँ !
आपके प्रोत्साहन के लिए कैसे धन्यवाद दूँ ?
आप तो जानते ही हैं मैं 'प्यारे प्रभु ' का आदेश पालन कर रहा हूँ !खुल कर बता रहा हूँ कि कैसे "वह" प्रति पल मुझ पर ही नहीं बल्कि प्रत्येक प्राणी पर अपनी अहेतुकी कृपा वृष्टि कर रहे हैं !
...मैं आपसे सहमत हूँ और स्वयँ प्रभु भक्ति में अट्टू विश्वास रखता हूँ ।
एक टिप्पणी भेजें