सोमवार, 31 जनवरी 2011

साधन -"भजन - कीर्तन" # 2 8 2


हनुमत कृपा - अनुभव                 साधक साधन साधिये                                             
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साधन -"भजन - कीर्तन"                                                                                     (२८२)

राष्ट्र पिता "बापू" का "पावर हाउस" था उनका "दृढ़  निश्चयी मन" और उस पावर हाउस का "जेनरेटर" था  उनका  अदम्य  "आत्मबल" ! यह "जेनरेटर" चलता था  "परमपिता परमात्मा - "सर्व शक्तिमान प्रभु की अहेतुकी कृपा'" के 'ईंधन'" से ! बापू को यह ईंधन किसी "कोएलरी" ,"जल प्रपात" (हायड्रो प्लांट) अथवा परमाणु  (न्यूक्लियर ) संयत्र से नहीं प्राप्त होता  था  ! "बापू" को वह ऊर्जा  प्राप्त होती  थी  उनकी अपनी अनोखी "आध्यात्मिक साधना" से जिसमें  शामिल थी सामूहिक ,सब धर्मों की मिलीजुली प्रार्थना  ,सामूहिक  "रामधुन गायन" और  व्यावहारिक एवं  वास्तविक "परपीर हरण" एवं "परदुख निवारण" हेतु  की  हुई "सेवाएं " !

१९४८ की आप बीती सुना रहा था , इसी प्रसंग में बापू से ही सम्बन्धित १९४६ की कुछ बातें याद आयीं !  ग्रीष्मावकाश में मुझे अविभाजित भारत के पंजाब प्रान्त के गुजरात जिले के एक गाँव में १५ - २० दिन रहने का अवसर मिला ! तभी ह्मारे मेज़बान परिवार के एक  सम्बन्धी श्री गुरुचरण दास जी , जोहन्सबर्ग , साउथ अफ्रीका से विस्थापित हो कर वापस   सपरिवार भारत आ गये ! उनसे ज्ञात हुआ क़ि "बापू " के अथक प्रयासों के बावजूद उस देश के सामंतवादी श्वेतशासकों की अनीति एवं अत्याचारों में कोई कमी नहीं आई थी  ! वहाँ  की अश्वेत  जनता अब भी उतनी ह़ी प्रताड़ित और पीड़ित थी जितनी वह सदा से थी! इधर भारत में उस समय तक  बापू के अहिंसक असहयोग आंदोलनों के कारण  ब्रिटिश शासन से मुक्ति की समुचित आशाएं  जग चुकी थीं ! 

अफ्रीका से आया वह पूरा परिवार बहुत अनुशासित और पूर्णतः "बापू भक्त" था ! उनकी पूजा स्थली में अन्य देवीदेवताओं के चित्रों के साथ बापू का चित्र भी था ! बापू की  वन्दना में एक दिन मैंने उस परिवार को एक गीत गाते सुना , वैसा कोई गीत तब तक  भारत में  प्रचलित नहीं था ! मुझे वह गीत बहुत अच्छा लगा तो मैंने उनके बच्चों से उसे सीख भी लिया ! पर कालान्तर में उस गीत के स्थायी के अतिरिक्त मुझे और कुछ याद नहीं रहा ! 


धीरे धीरे  मैंने उस स्थायी के ऊपर अपने शब्दों में एक नयी रचना कर ली और अपनी बहिन  तथा  अन्य छोटे बच्चों को वह गीत सिखाया !वह गीत उनके स्कूलों में ,स्वतन्त्रता दिवस ,गणतन्त्र दिवस तथा बापू के जन्म एवं निर्वाण दिवस के अवसर पर खूब गाया और सराहा गया ! 

संशोधनों के बाद उस गीत का जो प्रारूप बना मैं आपको सुना देता हूँ :

साबरमती से चला संत इक अहिंसा का व्रत धारी !
दुर्बल काठी हाथ में लाठी ,पुरुष पूर्ण अवतारी !!

सांची लगन लगाय "राम" से , वह निकला जिस जिस मुकाम से !
मतवारे  हो चले ,संग उसके, असंख्य नर नारी !!
साबरमती से चला संत इक अहिंसा का व्रत धारी !!

जाति भेद औ  छुआ छूत मिट गये ,और सब "हरि के जन" बन गये !
पारसमणि  बापू ने कंचन किये सभी नर नारी !!
साबरमती से चला संत इक अहिंसा का व्रत धारी !!

पतितजनों  को गले लगाया ,अबलाओं को सबल बनाया !!
"राम" चरण रज से जैसे तर गयी अहिल्या नारी !
                              साबरमती से चला संत इक अहिंसा का व्रत धारी !!

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आशा है आप समझ गये होंगे क़ि "उन्होंने"  बापू वाला प्रसंग मुझसे क्यों लिखवाया ! प्रियजन ! सोंचता हूं क़ि यह प्रसंग अब यहीं समाप्त कर दूँ ! पर यह मेरी सोंच है और इस समय यह मेरी इच्छा भी है ! मुझे नहीं ज्ञात क़ि मेरे "उनकी " क्या इच्छा है ! भाई अपनी वह  ही जानें!उनसे कौन पूछे ?  कल वह जो लिखाएंगे आपकी सेवा में प्रस्तुत करूंगा !
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निवेदक: वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

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