अनुभवों का रोजनामचा
आत्म कथा
जून १९४५ की लक्खंनवाल (गुजरात - अविभाजित पंजाब ) से कानपूर तक की यात्रा का विवरण चल रहा था ! कलकत्ते के "ब्लैक होल" से भी अधिक भयानक और वास्तविक कालिमा भरे रेल के डिब्बे में मेरे साथ साथ जीवन की आखिरी सांस लेते सैकड़ों यात्रियों की दुर्दशा का हाल बता रहा था !
अपने ग्रुप में मैं उम्र में सबसे छोटा था !पहली बार अपने "भोजपुरी" परिवार से इतनी दूर एक विशुद्ध पंजाबी-भिन्न भाषा, संस्कृति, रहन सहन और धार्मिक मान्यता वाले परिवार के साथ डेढ़ महीने की लम्बी यात्रा पर गया था !मेरे मित्र का तो पूरा परिवार उसके साथ था ,केवल मैं ही एक ऐसा था जो अपने परिजनों को दूर से ही प्रणाम कर इस असार संसार से विदा होने जा रहा था !
उस छोटी अवस्था में ( १५ वर्ष का था मैं तब ) मेरी कोई निजी पुण्य की कमाई होने का प्रश्न ही नहीं था ! उस समय तक अपनी एकमात्र सम्पत्ति थी माता पिता एवं पितामहों से विरासत में मिली उनकी पुन्यायी और उनके संस्कारों की धरोहर ! बचपन में 'भागवत' के एक प्रसंग में अम्मा से सुना था कि पान्डु पत्नी महारानी कुंती ने अपने भतीजे श्री कृष्ण से एक विचित्र "वर" माँगा था :" मुझे प्रति पल इतने कष्ट दो कि मैं 'तुम्हे' एक पल को भी भुला नहीं पाऊँ "! यहाँ रेल के डिब्बे में इतने कष्ट झेलते हुए हम 'उन्हें' कैसे भुला पाते ? परिवार की याद आते ही मेरे को अपने परिवार के 'इष्टदेव' श्री हनुमान जी महाराज की याद का आ जाना स्वाभाविक ही था !
विक्रम बजरंगी महाबीर जी महराज जिनकी लाल ध्वजा पताका हमारे पैत्रक घर 'हरवंश भवन', बलिया के आँगन में आज भी लहराती है ,भला "उन्हें" कैसे भुलाता मैं ? हमारे पितामहों तथा पिता और हमारी पीढी के बड़े 'कजिन' इलाहबाद शाखा के बड़े भैया पर "उनके" द्वारा समय समय पर की हुई कृपा की कथाएं एक एक कर के याद आयीं !
कैसे साक्षात प्रगट होकर उन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी में हमारे एक परदादा जी का मार्ग दर्शन कर के उन्हें अन्याय से मृत्यु दंड पाने से बचा लिया ! एक दूसरे पितामह को "उन्होंने" उनके परलोक गमन की पूर्व सूचना देकर सावधान किया और "उनके" ही कथनानुसार हमारे उन दादा जी ने श्री जगन्नाथ पुरी में त्रिमूर्ति के समक्ष ही प्राण त्यागा ! ( विस्तार से पितामहों की कथाएं पहले दे चुका हूँ इसलिए दुहराउंगा नहीं ! कृपया पिछले सन्देश पढ़लें )
रेल के डिब्बे में प्राण रक्षा की कोई सम्भावना ही नहीं थी ! हमारा दम घुट रहा था किसी पल कुछ भी हो सकता था ! सभी यात्रिओं को अब एक मात्र ईश्वर का सहारा था !अपने अपने ढंग से अपने अपने इष्टदेव को सब ही याद कर रहे थे !मैंने भी अपने इष्ट देव को मनाने की प्रक्रिया चालू की ! मैंने मन ही मन कहा :
अपने ग्रुप में मैं उम्र में सबसे छोटा था !पहली बार अपने "भोजपुरी" परिवार से इतनी दूर एक विशुद्ध पंजाबी-भिन्न भाषा, संस्कृति, रहन सहन और धार्मिक मान्यता वाले परिवार के साथ डेढ़ महीने की लम्बी यात्रा पर गया था !मेरे मित्र का तो पूरा परिवार उसके साथ था ,केवल मैं ही एक ऐसा था जो अपने परिजनों को दूर से ही प्रणाम कर इस असार संसार से विदा होने जा रहा था !
उस छोटी अवस्था में ( १५ वर्ष का था मैं तब ) मेरी कोई निजी पुण्य की कमाई होने का प्रश्न ही नहीं था ! उस समय तक अपनी एकमात्र सम्पत्ति थी माता पिता एवं पितामहों से विरासत में मिली उनकी पुन्यायी और उनके संस्कारों की धरोहर ! बचपन में 'भागवत' के एक प्रसंग में अम्मा से सुना था कि पान्डु पत्नी महारानी कुंती ने अपने भतीजे श्री कृष्ण से एक विचित्र "वर" माँगा था :" मुझे प्रति पल इतने कष्ट दो कि मैं 'तुम्हे' एक पल को भी भुला नहीं पाऊँ "! यहाँ रेल के डिब्बे में इतने कष्ट झेलते हुए हम 'उन्हें' कैसे भुला पाते ? परिवार की याद आते ही मेरे को अपने परिवार के 'इष्टदेव' श्री हनुमान जी महाराज की याद का आ जाना स्वाभाविक ही था !
विक्रम बजरंगी महाबीर जी महराज जिनकी लाल ध्वजा पताका हमारे पैत्रक घर 'हरवंश भवन', बलिया के आँगन में आज भी लहराती है ,भला "उन्हें" कैसे भुलाता मैं ? हमारे पितामहों तथा पिता और हमारी पीढी के बड़े 'कजिन' इलाहबाद शाखा के बड़े भैया पर "उनके" द्वारा समय समय पर की हुई कृपा की कथाएं एक एक कर के याद आयीं !
कैसे साक्षात प्रगट होकर उन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी में हमारे एक परदादा जी का मार्ग दर्शन कर के उन्हें अन्याय से मृत्यु दंड पाने से बचा लिया ! एक दूसरे पितामह को "उन्होंने" उनके परलोक गमन की पूर्व सूचना देकर सावधान किया और "उनके" ही कथनानुसार हमारे उन दादा जी ने श्री जगन्नाथ पुरी में त्रिमूर्ति के समक्ष ही प्राण त्यागा ! ( विस्तार से पितामहों की कथाएं पहले दे चुका हूँ इसलिए दुहराउंगा नहीं ! कृपया पिछले सन्देश पढ़लें )
रेल के डिब्बे में प्राण रक्षा की कोई सम्भावना ही नहीं थी ! हमारा दम घुट रहा था किसी पल कुछ भी हो सकता था ! सभी यात्रिओं को अब एक मात्र ईश्वर का सहारा था !अपने अपने ढंग से अपने अपने इष्टदेव को सब ही याद कर रहे थे !मैंने भी अपने इष्ट देव को मनाने की प्रक्रिया चालू की ! मैंने मन ही मन कहा :
श्री गुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुर सुधार
वरनऊ रघुबर बिमल यश जो दायक फल चार
बुद्ध हीन तन जान के सुमिरों पवन कुमार
बल बुधि विद्या देहु मोहि हरहु क्लेश विकार
और फिर हनुमान चालीसा का पाठ चालू हो गया ! तब १५ वर्ष की अवस्था में मैंने कैसा गाया था ,कह नहीं सकता ! लेकिन आज "उनकी" आज्ञा से ८ २ वर्ष की अवस्था में मैं आपको सुनाने का प्रयास कर रहा हूँ ! आपके मन मन्दिर के इष्टदेव मेरी यह अर्जी सुनें और हम सब पर अपनी ऎसी ही कृपा दृष्टि सर्वदा बनाये रखें कि हम सब मिल जुल कर उनका सिमरन इसी प्रकार करते रहें !
प्यारे प्रभु प्रेमियों , अब थक गया हूँ !आज यहीं समाप्त करता हूँ ! कल फिर मिलूंगा यदि "उनकी"आज्ञा हुई !
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
निवेदक:
व्ही. एन . श्रीवास्तव "भोला"
++++++++++++++++++++++++++++++++
5 टिप्पणियां:
होली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ|
सुन्दर भावाव्यक्ति । साधुवाद ।
भोला नाथ जी
सादर नमस्कार
बहुत सुन्दर बात कही है आपने कि दुःख में ही हमें अपने इष्ट की याद आती है .बहुत अच्छा संस्मरण लिखा है .अगले की प्रतीक्षा में ....
गुरूजी आप को और आप की संगिनी गुरु माँ को मेरा प्रणाम कहिये ! मै भी बलिया का रहने वाला हूँ ! मै दो दिन पहले ..आप के ब्लॉग को फोल्लो किया और कल मेरे घर हनुमान जी पधारे १मेरि पत्नी ने उनका पूरी तरह से सेवा सत्कार की ! खाने के लिए अंगूर दी ! अआप पर उनकी कृपा बनी रहे और हम पर आप की आशीर्वाद ! बहुत सुन्दर लगा ...आप इसी तरह से लिखते रहे ...! प्रणाम बहुत अच्छा लगता है !
भोला जी ,
बहुत अच्छा लिखते हैं आप.बीमारी ने आपमें निराशा जरूर भर दी है किन्तु अब आप ब्लॉग परिवार से जुड़े हैं और राजीव जी जैसे सहयोगी आपके साथ हैं तो आप निराशा की बातें छोड़ दें वैसे भी आप हनुमान जी के भक्त हैं जो बड़ी से बड़ी परेशानी को हिम्मत से दूर हटा देते हैं.
एक टिप्पणी भेजें